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कृषि व्यापार में अनियंत्रित कॉरपोरेट प्रवेश के निहितार्थ

यदि इन तीन कानूनों को जस-के-तस रखते हुए कोई समझौता होता है, भारत की खाद्य सम्प्रभुता खतरे में होगी। ये कानून केवल घरेलू व्यापार का ही उदारीकरण नहीं कर रहे, बल्कि वैश्विक कृषि-व्यापार कॉरपोरेशन भी अपने निजी प्लेटफार्म खड़ा करेंगे।
कृषि व्यापार में अनियंत्रित कॉरपोरेट प्रवेश के निहितार्थ

बताया जा रहा है कि पीएम मोदी स्वयं आन्दोलनरत किसानों से 25 दिसम्बर को बात करेंगे मोदी जैसों के लिए इसकी कल्पना तभी की जा सकती है जब पहले से कोई अनौपचारिक समझौता हुआ हो या सरकार आंशिक रूप से पीछे हटने को तैयार हो। किसान भी मांग कर रहे हैं कि एमएसपी (MSP) का अधिकार बरकरार रहे। यदि ऐसा समझौता होता भी है और तात्कालिक तौर पर आन्दोलन थमता है, क्या आन्दोलन के मुद्दे हल हो जाएंगे?

पहले प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि ऐसी धारणा पैदा करना कि एमएसपी समाप्त हो जाएगा विपक्ष का मिथ्या-प्रचार है। वे वायदा कर रहे हैं कि एमएसपी जारी रहेगा। यह सही है कि उन्हें कानूनी तौर पर एपीएमसीज़ (APMCs) को खत्म करने की जरूरत नहीं है।

सरकार द्वारा पारित फार्मर्स प्रॉड्यूस ट्रेड एण्ड कार्मस प्रमोशन ऐण्ड फैसिलिटेशन ऐक्ट 2020 (Farmers Producers Trade and Commerce (Promotion and Facilitation) Act 2020  ने  कृषि व्यापार को प्राइवेट कॉरपोरेटों और ऐग्री बिज़नेस  कंपनियों,  संसाधकों, थोक-व्यापारियों, निर्यातकों और बड़े रिटेलरों  के लिए खोल दिया है जो एपीएमसी  को त्यागकर किसानों के उत्पाद प्राइवेट  मार्केटिंग प्लेटफॉमों के जरिये सीधे खरीद सकते हैं; वे अपने मार्केटिंग प्लेटफॉर्म भी खड़े कर सकते हैं, जिसके माध्यम से खरीद हो। तब एपीएमसीज़ की स्वाभाविक मौत केवल समय की बात है।

इसी प्रकार किसान सही प्रश्न कर रहे हैं कि एमएसपी का क्या मूल्य है यदि सरकार वैधानिक गारंटी नहीं देती कि एफसीआई जैसी सरकारी एजेंसियों द्वारा एमएसपी पर सुनिश्चित व संपूर्ण सरकारी खरीद होगी।

किसान मोदी से पूछ रहे हैं कि एमएसपी का क्या मतलब है यदि सरकार कॉरपोरेटों के द्वारा एमएसपी से कम में किसानों से उत्पाद खरीदने को अवैधानिक नहीं बनाती? अब सरकार को प्रोक्योरमेंट घटाने और पीडीएस व्यवस्था व खाद्य सुरक्षा की परवाह न करने से कौन रोक सकेगा?

सरकार किसानों को झांसा देना चाहती है कि कृषि व्यापार को बिना शर्त कॉरपोरेटों के लिए खोल देने से व्यापक अखिल भारतीय मार्केटिंग के लिए पहुंच बनेगी और किसानों को बढ़े हुए दाम भी मिलेंगे। 

यदि ऐसा ही है तो सरकार कानून के तहत गारंटी क्यों नहीं दिलाना चाहती कि कोई भी कॉरपोरेट व्यापारी किसानों के उत्पादों को एमएसपी से कम दाम पर नहीं खरीद सकेंगे?

'एपीएमसी नहीं तो सुनिश्चित निर्धारित मूल्य भी नहीं।

अब तक सरकारें एपीएमसी कानून के तहत वैधानिक गारंटी दे रही थीं कि कृषि उत्पाद एपीएमसी मार्केट यार्डों में केवल एमएसपी पर बिकेंगे भविष्य में भी ऐसा ही होगा, कम से कम तब तक जबतक एपीएमसी अस्तित्व में रहते हैं। इसी प्रावधान को प्राइवेट कम्पनियों और उनके प्राईवेट मार्केटिंग यार्ड़ों पर क्यों नहीं लागू किया जाता? ऐसा करने पर ही बराबरी हो सकती है।

एपीएमसीज़ उत्पाद मूल्य का करीब 8.5 प्रतिशत कमीशन, टैक्स और विकास सेस के रूप में लेते हैं। इस पूंजी को गोदामों, शीतगृहों, परिवहन इन्फ्रास्ट्रक्चर और डिजिटलाइजेशन के लिए निवेशित किया जाता है। लेकिन नया कानून कहता है:

‘‘कोई भी मार्केट शुल्क, सेस अथवा लेवी, चाहे वह किसी भी नाम से हो, किसी भी राज्य एपीएमसी कानून या राज्य के किसी अन्य कानून को किसी किसान या व्यापारी या किसी व्यापारिक क्षेत्र में किसानों के उत्पादों के व्यापार व वाणिज्य हेतु

इलेक्ट्रानिक व्यापार व लेन-देन के प्लेटफाॅर्मों पर लागू नहीं किया जाएगा।" जाहिर है कि प्राइवेट व्यापारी अपने ट्रेडिंग प्लेटफाॅर्म खड़े करने कि लिए किसानों के मूल्यों को ही घटा सकते हैं।

जब किसान संगठनों ने इसका विरोध किया, कृषि मंत्री तोमर राजी हो गए कि वे प्राइवेट प्लेटफॉर्मों पर भी टैक्स और लेवी लागू करेंगेपर कानून इस बारे में मौन है कि भण्डारण और आधारिक ढांचे का प्रयोग करने के लिए किसानों से लिए जा रहे शुल्क को नियंत्रित किया जाएगा।

बड़े कॉरपोरेटों के पास भारी वित्तीय ताकत होती है जिससे वे मूल्यों में हेर फेर कर सकते  हैं  वे जानकर  कुछ वर्षों तक ‘घाटा’ सह सकते हैं  ताकि आगे आने वाले वर्षों  में वे एपीएमसीज़ को खत्म  करने के बाद, बिना किसी प्रतियोगिता के सूपर-प्राॅफिट कमा सकें। शुरुआत में, किसानों  को एमएसपी से अधिक  मूल्य देकर वे एपीएमसीज़  को प्रतिस्पर्धा में मात दे सकते हैं और कुछ समय में उन्हें  उनकी अवश्यम्भावी मृत्यु की  ओर  धकेल सकते हैं। फिर वे मूल्यों को  बहुत नीचे गिराकर  किसानों के उत्पाद को कौड़ी के दाम खरीदने की बात करेंगे, जो किसानों के लिए त्रासद होगा, पर तब तक एपीएमसी ध्वस्त हो चुके होंगे। तो किसानों के पास कोई रास्ता ही नहीं बचेगा।

एपीएमसीज़ के बारे में महत्वपूर्ण बात यह थी कि किसानों के लिए मूल्य निर्धारित था। यदि एपीएमसी नहीं रहेंगे, इस प्रकार की मूल्य-स्थिरता भी जाती रहेगी। किसानों के पास न कोई विकल्प बचेगा न कोई सुरक्षा रहेगी।यहां यह  समझना  जरूरी है कि एपीएमसी केवल मार्केटिंग आधारभूत प्लेटफॉर्म हैं जिनका काम है खरीददारों और विक्रेताओं के बीच निर्धारित मूल्य पर व्यापार संभव कराए। वे स्वयं कृषि उत्पादों को नहीं खरीदते इसलिए बड़े काॅरपोरेट्स और  बड़े थोक व्यापारियों की भांति अपने खुद के प्लेटफाॅर्म खड़े करके दामों को मनमुताबिक घटा-बढ़ा नहीं सकते। कॉरपोरेट व्यापार शासन के अंतर्गत जो खेल चलता है वह गैरबराबरी  का होता है , फिर भी  मोदी सरकार  किसानों के अपने  एपीएमसीज़ को कॉरपोरेट  गिद्धों के आगे डालना चाहती हैं। किसान इसी बात का विरोध कर रहे हैं।क्या एमएसपी की वैधानिक गारंटी निजी कम्पनियों और प्राइवेट प्रोक्योरमेंट प्लेटफार्मों (private procurement platforms) पर लागू होगी?

कृषि क़ानूनों में क्या कुछ गायब है

कृषि उत्पादों की कॉरपोरेटों द्वारा सीधी खरीद और कॉरपोरेट फार्मिंग (corporate farming) कई प्रश्न खड़े करते हैं। अब तक, आवश्यक वस्तु कानून 1955 (Essential Commodities Act 1955) के तहत यदि कोई थोक व्यापारी  कृषि उत्पादों को सीमा से अधिक स्टॉक  करना चाहता  है,  तो  उसे जिला कलेक्टर  से अनुमति लेनी पड़ती थी और यदि व्यापारिक  अटकलों के लिए बिना  अनुमति कोई जमाखोरी  करता है, तो सरकार  उसके गोदामों पर  छापा  डालकर स्टाक जब्त कर सकती है। पर नये आवश्यक वस्तु सुधार कानून 2020 कृषि सामग्री को आवश्यक वस्तु अधिनियम के दायरे में नहीं रखता।  इसके मायने हैं कि कोई भी किसी  भी कारण से कितनी भी मात्रा में अनाज स्टाॅक  कर सकता है। वह बेहतर मूल्यों या दामों में हेर-फेर करने हेतु और कृषि उत्पाद के व्यापार में अटकलें (speculation in agricultural commodities trade), कुषि वायदे में अटकलें (speculation in agricultural futures)  विकल्प और व्युतपन्न ट्रेडिंग (options and oyher derivatives trade) के लिए इंतजार कर सकता है।आप कह सकते हैं कि मोदी सरकार के कृषि क़ानूनों ने जमाखोरी और अटकलों (hoarding and speculation)  के लिए हरी झंडी दे दी है और इन्हें वैधानिक बना दिया है।भुगतना होगा किसानों और उपभोक्ताओं को। मोदी के दावे के विपरीत, कृषि व्यापार से बिचैलिया नहीं हटेंगे; बल्कि उनकी कतारों में सट्टेबाज़ जुड़ेंगे और उन्हें जीवनदान मिलेगा।

एमएसपी शासन बनाम कॉरपोरेट मुक्त-बाज़ार शासन

वर्तमान एमएसपी शासन की भी अपनी सीमाएं हैं। कहने को तो न्यूनतम समर्थन मूल्य है पर सच पूछिये तो वह अधिकतम समर्थन मूल्य होता है। फिर भी यह किसानों के लिए कम-से-कम कुछ न्यूनतम मूल्य की गारंटी करता था फिर भी कुछ  विरोधाभास रह जाता था। इसका आधार था कीमत-धन-मार्जिन; सिद्धान्ततः इसका मतलब था कि केवल मूल्य कम होने से किसान को घाटा नहीं लगता। पर 2014 में एनएसएसओ के 70वें राउंड का सर्वे बताता है कि देश के करीब 52 प्रतिशत किसान कर्ज में डूबे थे। नीति आयोग के अनुसार 2015-16 में किसी खेतिहर की औसत कृषि आय 44,027 रु थी और एनएसएसओ (NSSO) के 70वें राउंड के सर्वे के अनुसार किसी कृषक परिवार का औसत बकाया ऋण 47,000 रु है।यदि एमएसपी का आधार मूल्य-धन-अतिरिक्त लाभ है, तो इस तरह की ऋणग्रस्तता क्यों है?

केवल उत्पादन मूल्य को ध्यान में रखा जाता है, न कि किसान के जीवन यापन की लागत यानि कॉस्ट आफ लिविंग को। सीएसीपी से किसान को मूल्य में जो सामान्य सी बढ़त मिलती है वह उसके बढ़े हुए जीवन यापन के खर्च को पूरा नहीं  कर पाता, जैसे स्वास्थ्य सेवा का खर्च, बच्चों की शिक्षा का खर्च, संचार का खर्च-मोबाइल फोन और परिवहन आदि।

लागत मूल्य को ध्यान में रखकर ही किसान बिक्री मूल्य निर्धारित करते हैं। पर कृषि उत्पाद का जो बिक्री मूल्य कॉरपोरेट्स तय करते हैं उसकी किसानों के बिक्री मूल्य से कोई पैरिटी नही होती। किसान को मिलने वाले एमएसपी तय करने में उसे  ध्यान में नहीं रखा जाता। यह  मिसमैच (mismatch) गन्ना किसानों, कपास व जूट के किसानों और मरीन उत्पादों के मामले में देखा जाता है। किसान को एक आम या प्रॉन (prawn) के लिए निर्यातक से जो दाम मिलता है उसका 50  गुना निर्यातक कमा लेता है।

इसके अलावा एसीपीसी 14 मूल्यों के आधार पर एमएसपी तय करता है। ये हैं: 1- मानव श्रम की कीमत, 2-भाड़े के पशु श्रम की कीमत, 3-अपने पशुओं के श्रम की कीमत, 4- अपनी मशीनों के श्रम की कीमत, 5-किराए की  मशीनों के श्रम की कीमत, 6-बीज का मूल्य (खेत से प्राप्त या खरीदे हुए), 7-कीटनाशक दवाओं का मूल्य, 8-खाद की कीमत (स्वयं का या खरीदा हुआ), 9-उर्वरकों का मूल्य, 10-कृषि सामग्री व भवनों का अवमूल्यन, 11-सिंचाई  की कीमत, भूमि राजस्व व अन्य टैक्स, 13-कार्यशील पूंजी पर ब्याज, 14-अन्य खर्च, जैसे शिल्पकारों का वेतन। इसे कॉस्ट ए-1 कहा जाता है और इसमें जोड़ा जाता है भूमि का किराया या अपनी भूमि पर विशेष रूप से अर्जित  किया  गया और भूमि के अलावा अन्य अचल सम्पतियों पर ब्याज व पारिवारिक श्रम का प्रतिरूपित मूल्य, ताकि इसमें 8 प्रतिशत का अतिरिक्त लाभ जोड़कर एमएसपी निकाला जा सके मोदी ने इसे बढ़ाकर 50 प्रतिशत  करने का वायदा किया  था पर उन्होंने इसे 50 प्रतिशत तक बढ़ाया भी तो एम एस स्वामिनाथन के फॉर्मूले के अनुसार नहीं, बल्कि उसके खण्डित रूप के अनुसार है। ध्यान दें कि उपर लिखित 14 आधारों में निर्यात व ई-कॉमर्स (e-commerce) कंपनियों  जैसे  कॉरपोरेट घरानों के फाइनल बिक्री मूल्य आता ही नहीं।

क्योंकि जीवनयापन का खर्च पूरा नहीं होता, किसान लागत सामग्री पर कम खर्च करते हैं। इससे किसान को कम उत्पाद और कम आय मिलती है। वह एक दुश्चक्र में फँस जाता है।

यदि हम मान भी लें कि एमएसपी मूल्य से हमेशा अधिक होता है, कृषि क्यों अलाभकारी है? कृषि मंत्रालय के अनुसार कई अन्न और दलहन की खेती से आय 2004.05 और 2013.14 में गिर गई जबकि एमएसपी क्रमशः बढ़ा इससे पता  चलता है कि किसानों के लागत मूल्य में वृद्धि तक को एमएसपी के जरिये निश्प्रभावी नहीं बनाया जा सका। 18 प्रमुख चावल उगाने वाले राज्यों में से 6 राज्यों में किसानों की कुल आय नेगेटिव रही। 5 अन्य  राज्यों वह  घटती रही  और 7  राज्यों में बहुत कम बढ़ी। यह एक विरोधाभासी स्थिति है क्योंकि 1991-92 के बीच और 2013-14 के बीच, जबकि यूरिया के दाम 69 प्रतिशत से बढ़े, फॉस्फेटिक और पोटाश उर्वरक के दाम क्रमशः 300 प्रतिशत और 600 प्रतिशत बढ़े। इसी से हम समझ सकते हैं कि एमएसपी लाभकारी मूल्य नहीं है। यही वजह है कि हम और भी कई विरोधाभासी चीज़ें देखते हैं, जैसे कि चावल का निर्यात 1 करोड़ टन तक उछला पर आन्ध्र प्रदेश राइस बोल के कृष्णा, गुन्टूर और कृष्णा रिवर बेसिन के अन्य उर्वर जिलों के किसानों ने फसल अवकाश यानी “crop holiday”  घोषित कर दिया था; वे चावल की खेती नहीं कर रहे थे क्योंकि वह अलाभकारी साबित हो रहा था। 2019 में जब भारत 7500 करोड़ रुपये का कपास निर्यात कर रहा था, भारत के कपास उत्पादकों को लाभ नहीं मिल पा रहा था और वे घरेलू उत्पादन का नहीं विस्तार नहीं कर पा रहे थे। इसके चलते कई किसान आत्महत्या कर रहे थे।

किसानों के वास्तविक सवालों को हल करने की जगह मोदी जिन नए कानूनों को ला रहे हैं, वे किसानों को बर्बाद कर देंगे। किसानों को वाजिब मूल्य देने की जगह कॉरपोरेटों को दाम तय करने का मुफ्त लाइसेंस दे रहे हैं। उपभोक्ताओं की रक्षा के लिए भी दामों पर कोई सीलिंग नहीं होगी।

अनुबंध खेती (Contract Farming) का ऐसा कानून जो किसानों को कोई सुरक्षा नहीं देगा

वर्तमान समय में अनुबंध खेती पर एमएसपी लागू नहीं है। 3 कानूनों में से एक, द फार्मर्स (एम्पावरमेंट ऐण्ड प्रोटेक्शन) एग्रीमेंट ऑफ प्राइस एश्योरेंस ऐण्ड फार्म सर्विसेज़ ऐक्ट, 2020 ( The Farmers’ (Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Act 2020) अनुबंध खेती (contract farming) के बारे में था और उसमें कोई प्रावधान नहीं है कि अनुबंध खेती एमएसपी के आधार पर किसानों के लिए लाभकारी हो। यद्यपि औपनिवेशिक शासन के दौरान बागान फसलें, कपास, तम्बाकू और चीनी में अनुबंध खेती होती थी, और स्वतंत्रता के तत्काल बाद के समय में बीज कम्पनियां भी अनुबंध खेती करने लगी थीं, 1990 के दशक के पूर्वार्ध में पंजाब आधुनिक खेती का प्रमुख केंद्र बना। 1998 में बहुराष्ट्रीय कम्पनी पेप्सीको को टमाटर की अनुबंध खेती करने की अनुमति मिली। 2002 में पंजाब सरकार ने अनुबंध खेती के लिए सरकारी योजना शुरू की। पर पेप्सीको ने अपने टमाटर प्रोसेसिंग प्लांट को हिंदुस्तान लीवर को बेच दिया और टमाटर की खेती त्याग दी। फिर वह चिप्स बनाने के लिए आलू की अनुबंध खेती की ओर बढ़ी। पर यह भी सफल नहीं हुआ। फिर उसने किसानों को शुरुआती मूल्य देना बंद कर दिया और मूल्य घटाने भी लगा। किसानों ने इसका पुरजोर विरोध किया। बीकेयू, जो वर्तमान किसान आन्दोलन में नेतृत्वकारी भूमिका में है, वह भी शामिल रहा।  पंजाब में चल रही अनुबंध खेती योजना ही 2012 में खत्म कर दी गयी और अब पेप्सीको का वहां कारोबार नगण्य है।

कर्नाटक में 6 अनाजों की अनुबंध खेती को 6 जिलों में अनुमति दी गई थी-टमाटर, गेंदा, खीरा, कपास, तरबूझ और बाजरा। ये जिले थे चिक्कबल्लापुर, टुमकुर, दवंगरे, हावेरी, गडाग और बेल्लारी। कई कॉरपोरेटों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने कई अन्य राज्यों में अनुबंध खेती आरंभ की, जिनमें प्रमुख थे महाराष्ट्र, गुजरात, गोवा, पश्चिम बंगाल, तमिल नाडू, आन्ध्र-तेलंगाना, ओडिशा, आदि।

भारतीय बड़े कॉरपोरेट, जैसे अंबानी का जियो मार्ट और रिलायंस रीटेल, अडानी का अडानी-विलमार, टाटा का बिग बास्केट और टाटा केमिकल्स, मित्तल का भारती डेलमॉन्ट, विजय माल्या का युनाइटेड ब्रिवरीज़, महेंद्रा ऐण्ड महेंद्रा का महिंद्रा शुभलाभ, और पेप्सीको, रल्लीज़, कारगिल इंडिया, हिंदुस्तान लीवर, आईटीसी, नेस्ले और ईआईडी पैरी आदि ने बड़े पैमाने पर कुषि व्यापार में घुसपैठ कर ली है। दरअसल, बिना कृषि व्यापार में प्रवेश किये काई कॉरपोरेट ई-काॅमर्स हो ही नहीं सकता।

यदि कोई विवाद खड़ा होगा, नए कानून के तहत समझौते की प्रक्रिया लंबी होगी, जो दोनों पक्षों के लिए बाध्यकारी नहीं होगी, सो किसानों को अदालत जाकर अपने केस अनन्तकाल तक लड़ते रहना होगा। समझौते को लागू करने में या कम्पनी द्वारा शर्तों का उलंघन करने पर सरकार कुछ नहीं करेगी, पर नया कानून सरकार को पावर देता है कि वह उन किसानों को दंडित करे जो अनुबंध की शर्तों का पालन न कर पाएं। कुछ लागत सामग्री निम्न गुणवतता की थी। किसानों की पैदावार और आय घट जाती है। फसल का नुक्सान और कम पैदावार को किसानों और कम्पनियों के बीच बराबर बांटे जाने की बात है, पर ऐसा अक्सर होता नहीं है। अक्सर कम्पनियां कटनी के बाद के कार्यवाही, मस्लन परिवहन और कोल्ड स्टोरेज का खर्चा नहीं उठाते, तो किसानों को ही इस खर्च को वहन करना पड़ता है। कई बार कम्पनियों ने किसानों को कृषि आगत के लिए या शुरुआती लागत  हेतु क्रेडिट दी पर इसका ब्याज बहुत अधिक था। सिद्धान्ततः अनुबंध खेती किसानों को मार्केटिंग के झंझटों से मुक्त करने के लिए थी, पर व्यवहार में कम्पनियां कई बार अनुबंधित उत्पाद उठाती नहीं और किसानों को खुले बाज़ार में इसे बेचना प्रतिबंधित है। कई बार पुर्व-निर्धारित दाम बाजार के दाम से, जो एमएसपी से नियंत्रित नहीं होता, नीचे गिर जाता है।

सरकार को चाहिये था कि वह ऐसा कानून लाती जो इन मसलों को हल करता और कम्पनियों के निरोधन से बचाता। बदले में ऐसा कानून आया जो अनुबंध खेती को देश भर में आम बनाएगा; ये राज्यों के कानूनों को भी खारिज करता है, जो अनुबंध खेती की अनुमति कुछ ही क्षेत्रों में कुछ फसलों के लिए देते थे।

उपभोक्ताओं को भी झेलना होगा

उपभोक्ताओं को भी कॉरपोरेट लालच से बचाना होगा। हमने पिछले 4-5 वर्षों में देखा है कि जमाखोरी करके और दलहन, खाद्य तेलों, प्याज, टमाटर आदि में कृत्रिम संकट और सप्लाई की दिक्कत पैदा करके थोक व्यापारी और कृषि-व्यापार के कॉरपोरेट 50 प्रतिशत से लेकर 100 प्रतिशत मूल्य वृद्धि करवा सकते हैं। कुछ वर्षों पहले दाल 200रु/किलो तक बिकी थी। कॉरपोरेट सट्टेबाजी जब चरम पर होगी, आम उपभोक्ता भी किसानों के साथ सड़क पर होगा।

यदि इन तीन कानूनों को जस-के-तस रखते हुए कोई समझौता होता है, भारत की खाद्य सम्प्रभुता खतरे में होगी। ये कानून केवल घरेलू व्यापार का ही उदारीकरण नहीं कर रहे, बल्कि वैश्विक कृषि-व्यापार कॉरपोरेशन भी अपने निजी प्लेटफार्म खड़ा करेंगे। भारतीय कृषि तब अंतर्राष्ट्रीय अटकलों, वैश्विक वायदों और आप्शन्स बाजार के जाल में फंस जाएगा। इसके परिणाम किसानों और उपभोक्ताओं के लिए अनिश्चित हैं। तो कोई फौरी शान्ति से काम नहीं बनेगा। किसानों के कुरुक्षेत्र-युद्ध के कई चरण देखना बाकी हैं।

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