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विचार: राजनीतिक हिंदुत्व के दौर में सच्चे साधुओं की चुप्पी हिंदू धर्म को पहुंचा रही है नुक़सान

हम सभी ने नक़ली "साधुओं" की कहानियाँ सुनी हैं। लेकिन वर्तमान दौर में इनके ख़िलाफ़ असली महात्माओं की चुप्पी पूरी दुनिया में हिंदू धर्म की छवि को नुक़सान पहुँचा रही है। 
dharm sansad
हरिद्वार की '(अ)धर्म संसद' की तस्वीर। 

राम राम! जय सीता राम! जय श्री कृष्णा! ॐ नमः शिवाय! जय भोले! जय श्री राम!…. जब भी हम कहीं जाते हैं, या कहीं आते हैं, या किसी से अगर मिलते हैं, या हम सोते हैं या जागते हैं, या खाना खा रहे होते हैं तब हम भगवान के इन नामों का स्मरण किया करते हैं। हिंदू धर्म में घंटियों, भजन-कीर्तनों का एक चलन रहा है जिन्हें पवित्र माना जाता है। हिंदुओं में कुछ अद्वैत हैं, कुछ माँ के प्रेमी हैं, कुछ श्रीकृष्ण भक्ति में लीन हैं, कुछ भोले बाबा के मानने वाले हैं, और हर गाँव औरशहर में हनुमान जी के भक्त मिलेंगे। हमारी प्रार्थना करने और मनाने के तरीकों की समृद्ध विविधता, हमारी संस्कृति और हमारी आत्मा के भीतर गहरे तक समाई हुई है। 

पूरी दुनिया में कोई 1.5 अरब क़रीब हिंदू हैं, इसलिए कुछ लोगों का बदमाश और अपराधी होना लगभग अपरिहार्य ही है। हम सभी ने नक़ली "साधुओं" की चोरी, बलात्कार, लूट और नरसंहार के आह्वान की कहानियाँ देखी हैं। दुनिया में कोई भी पुरोहित बुरी चीजों से बचा नहीं है। वैसे लोग जो नरसंहार के लिए चिल्लाते रहते हैं, वे दरअसल दया के पात्र हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से बहुत मदद की ज़रूरत है।

राजनेताओं के रूप में वे वही कर रहे हैं जो आज भारत में बिकता है- नफ़रत एक कम क़ीमत वाली, और उच्च मात्रा वाली वो वस्तु बन चुकी है जिसका एक बड़ा तैयार मार्केट है। वे एक हद तक खुद को साधु कहते हैं, लेकिन हमें ऐसे लोगों के लिए सच में बुरा लगना चाहिए। महात्माओं और साधुओं के साथ एक अच्छा-ख़ासा समय बिताने के बाद भी मेरे मन में उन्हें लेकर कुछ द्वन्द नहीं हैं, कुछ भ्रम नहीं हैं। किसी अन्य व्यक्ति की तरह, सच्चिदानंद (भगवान) को प्राप्त करने के उनके भी अपने मार्ग हैं। 

वैदिक परम्पराओं में सिखाया जाता है कि आध्यात्मिक खोज एक अनंत आनंद की खोज है। यह आनंद स्वयं की ख़ुशी के लिए नही है- विश्व कल्याण का माध्यम है। यह ‘त्याग’ के माध्यम से ‘प्रचुरता’ की यात्रा है और इस जीवन का राजमार्ग सक्रिय रूप से स्वाध्याय में संलग्न (एक्टिव) होना है। यानी खुद के अंदर देखना है। आत्म-जाँच का सिद्धांत यह है कि हम अपनी इच्छाओं का मूल्यांकन करें। और ये समझें कि ये इच्छाएँ वो नहीं हैं जो हम हैं। हम अपनी इच्छाओं को, अपने और पूरी दुनिया के आनंद के लिए परखते हैं। 

उन मित्रों को बताना चाहता हूँ जो औपचारिक आध्यात्मिक गतिविधियों के साथ बहुत अधिक समय नहीं बिताते हैं कि हिंदू धर्म के भीतर प्रत्येक परंपरा में व्यापक विविधताएं हैं, और हम सभी के लिए, गुरु की शिक्षा प्राथमिक है। यह अविश्वसनीय विविधता निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल या कहें कि असंभव ही बना देती है कि कोई एक क्रिया या अभ्यास सहायक है या अनुपयोगी है।

राजा हरिश्चंद्र की कहानी, उन कार्यों का एक अच्छा उदाहरण है जो मुक्ति के मार्ग के रूप में भयानक दिखाई देते हैं। श्री राम की तरह ही, इन्होंने भी धर्म की रक्षा के लिए अपने राज्य को जाने दिया। और श्री रामचंद्र की तरह ही उन्होंने अपने कर्तव्य पर खरा उतरने के लिए अपने परिवार से अलग होने का दुख स्वीकार किया। उनके जीवन की सुख-सुविधाओं में कमी होती गई, लेकिन उनका आध्यात्मिक पक्ष उतना ही निखरा, और अंत में वे एक अच्छे जीवन को प्राप्त हुए और उनको और उनके परिवार को मुक्ति मिली। 

वह स्पष्ट रूप से त्याग और अपरिग्रह के साथ मार्ग प्रशस्त करते हैं - वह आज की अधर्म संसदों के छद्म-धर्मिकों की तरह लालची और लोभी नहीं हैं।

इसके साथ ही, कुछ व्यापक पैटर्न हैं जो विभिन्न संप्रदायों और मठों (परंपराओं और शिक्षण संगठनों) आदि में समान हैं। कई लोगों के लिए मूल शिक्षा "परिणामों के प्रति लगाव को छोड़ना" है। 

श्रीमद भगवद गीता (ch2, v 47) इस पर और अधिक स्पष्ट कहती है: कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥ 2-47

इस श्लोक का मोटे तौर पर अनुवाद है:

 "आपको काम करने का अधिकार है - उसके फल (परिणाम) पर नहीं। इच्छा को अपना मकसद मत बनने दो, और निष्क्रियता को अपना दोस्त मत बनने दो"

इस श्लोक की पहली पंक्ति बहुत अधिक प्रसिद्ध है, दोनों ही पंक्तियाँ महत्वपूर्ण हैं। पहली स्पष्ट है कि-  कर्मफल की इच्छा किए बग़ैर ही काम किए जा, ये परवाह मत कर कि परिणाम क्या आएगा। 

इसलिए जब हम फुफकारते, थूकते, चीखते चापलूसों को नफरत उगलते देखते हैं, तो एक बुनियादी सवाल उठता है: क्या वे किसी परिणाम की तलाश कर रहे हैं? इसका उत्तर आता है- हाँ।

वे स्पष्ट रूप से परिणाम की तलाश कर रहे हैं। एक सच्चे साधु के लिए (एक त्यागी होने का नाटक करने वाला राजनेता नहीं) यह तथ्य है कि परिणाम की इच्छा दिखे तो  तत्काल चेतावनी का संकेत होगी।

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वांछित परिणाम क्या है (भले ही हम में से कई लोगों के लिए नरसंहार के लिए आह्वान अत्यधिक अरुचिकर है) - परिणाम की इच्छा मुक्ति प्राप्त करने के हमारे काम में एक गंभीर बाधा है।

अगली दो पंक्तियाँ उन शांत बैठे लोगों के लिए हैं- जिन्हें बोलने की अति आवश्यकता है, लेकिन वे चुप हैं। यहाँ ऐसे मामले में कृष्ण अपनी स्थिति बहुत स्पष्ट करते हैं:- हमें व्यक्तिगत सफलता की तलाश किए बिना कार्य करना चाहिए, और हमें निष्क्रियता से बचना चाहिए। हम व्यक्तिगत लाभ के बजाय मानवता और प्रकृति की मदद करने के उद्देश्य से कार्रवाई से बचने के लिए यह दिखावा नहीं कर सकते कि हम आध्यात्मिक हैं- आध्यात्मिक लोग साहसपूर्वक और स्पष्ट रूप से कार्य करते हैं।

आध्यात्मिक लोग आलसी नहीं होते हैं बल्कि वे कार्य करने के इच्छुक होते हैं- भले ही हम सामान्य लोगों के लिए जो सामान्य प्रेरणाएँ हैं वे उनके जीवन का हिस्सा न हों। जैसे हम लालच, वासना, भूख, भय, स्पर्श आदि से प्रेरित होते हैं- वे सेवा और सदुपयोग, प्रेम और उपचार की अनिवार्यता, और ब्रह्मांड को बंधन और हानि से मुक्त करने की आवश्यकता से आकर्षित होते हैं।

फिर भारत के साधुओं और महात्माओं के विशाल बहुमत द्वारा यह आश्चर्यजनक चुप्पी क्यों? इनमें अधिकांश सच्चे साधक हैं और कुछ प्रबुद्ध और मुक्त प्राणी भी हैं। वे इन धोखेबाज राजनेताओं के नीच लालच और भयावह गंध से सहमत नहीं हैं। लेकिन वे बोलते क्यों नहीं? 

पिछले 5 सालों में बातचीत और सवालों के आधार पर, यहां कुछ स्पष्टीकरण दिए गए हैं:-

1) "यह सिर्फ एक हो-हल्ला है और जाहिर तौर पर हिंदू कृत्य नहीं है" 

2) “हर कोई मेरे परिवार का हिस्सा है; मैं किसी की निंदा नहीं कर सकता"

3) "लोग गुस्से में हैं और हमें सावधान रहना चाहिए"

चिंता की बात यह है कि उनकी चुप्पी में, कुछ लालची और डरपोक लोगों के द्वारा किए जा रहे हिंसा और रणनीतिक नफरत के आह्वान से हिंदू धर्म कलंकित हो रहा है। वे त्यागी होने का ढोंग करते हैं- और चूंकि हिंदू, कुल मिलाकर, एक उदार और प्यार करने वाले लोग हैं, उनमें से बहुत से लोग यह स्वीकार करने को तैयार हैं कि ऐसे लोगों की वेशभूषा वास्तविक है।

वे लोग जिन्होंने अपने विवेक (विवेक: सच्चाई और झूठ के बीच अंतर करने की क्षमता) को विकसित किया है, उन्हें इनके ख़िलाफ़ खड़ा होना चाहिए। हम आपको आवाज़ उठाने के लिए कहते हैं- हममें से बाकी लोगों की मदद करना आपका धर्म है जो नफरत के परिणामों से जूझ रहे हैं।

गोस्वामी तुलसीदास जी- अपनी बेहद सुंदर और कम लोकप्रिय विनय पत्रिका में- अपने प्रिय राम भगवान से बात करते हैं- और वह शिकायत करते हैं कि कैसे शरीर और दुनिया के विभिन्न भ्रम और इच्छाएं उन्हें सत्य की खोज से दूर कर देती हैं (147: 2-4) (this section should be in Devanagari)

"Mile rahaim, maryau cahaim kamadi samkghati, mo binu rahaim na, meriyai jaraim chala chati.

Basata hiye hita jani maim sabaki ruci pali, kiyo kathakako danda haum jara karama kucali.

Dekhi suni na aju laum apanayati aisi, karahim sabai sira mere hi phiri parai anaisi."

हम अपने समय के सच्चे महात्माओं और साधुओं/साध्वियों से आह्वान करते हैं कि वे हम सभी के लिए एक्शन लें, आवाज़ उठाएँ -हिंदू धर्म क्या है, इसकी सच्चाई को जोर से और प्यार से बोलने के लिए, सुंदरता और उदारता को प्रेरित करने के लिए, और हमारे अभय  और प्रेमपूर्ण संसार के आनंद का आह्वान करने के लिए कदम उठाइए। 

ॐ असतो मा सद्गमय।

(लेखक पुण्य उपाध्याय, अमेरिका स्थित सामाजिक संस्था- हिंदूज फ़ॉर ह्यूमन राइट्स ((HfHR)) के को-फ़ाउंडर हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

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