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खाद्य सुरक्षा से कहीं ज़्यादा कुछ पाने के हक़दार हैं भारतीय कामगार

सरकार को फटकार लगाने के सिवा, श्रमिकों को ठोस राहत देने के मामले में यह आदेश थोड़ा निराशाजनक है।
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सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश में केंद्र को राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत आने वाले लोगों की संख्या के दायरे को बढ़ाने का आदेश दिया है। केंद्र को 2011 की जनगणना के बजाय अब 2021 की अनुमानित जनसंख्या के आधार पर लाभार्थियों का निर्धारण करना चाहिए। रीतिका खेरा अपने इस लेख में बताती हैं कि ज़्यादा उदार पीडीएस कवरेज भारत के कामकाजी ग़रीबों की निर्लज्ज अनदेखी को दूर करने की तरफ़ बढ़ाया गया पहला क़दम है।

पिछले साल हमारे शहरों में खाने, पीने के पानी, रोज़गार या बसेरे से वंचित बेसहारे कामगारों को जो आघात पहुंचा था, वह कोविड-19 की भीषण दूसरी लहर से निपटने के हमारे बेतरतीब तरीक़े से लोगों की स्मृतियों से ख़ामोशी के साथ धुंधले पड़ गये। एक साल बाद सुप्रीम कोर्ट के 29 जून के आदेश ने उन भीषण समय की यादें ताज़ा कर दी हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की उस "जड़ता" को "मज़बूती के साथ नामंज़ूर" कर दिया और इसे "अक्षम्य" क़रार दिया है। कोर्ट की तरफ़ से लगायी गयी यह तोहमत भारत के कामकाजी ग़रीबों के साथ हुई नाइंसाफ़ी की देर से की गयी एक स्वीकृति है।

श्रमिकों को ठोस राहत देने के इस मामले में सरकार को फटकार लगाने को अगर छोड़ दिया जाये, तो यह आदेश थोड़ा निराशाजनक है। अदालत ने सात निर्देश जारी किये: सामुदायिक किचेन को तबतक चलाया जाये, जबतक कि महामारी ख़त्म नहीं हो जाती; समयबद्ध तरीक़े से असंगठित कामगारों के लिए एक राष्ट्रीय डेटाबेस (NDUW) तैयार किया जाये, राज्यों के लिए प्रवासी श्रमिकों की ख़ातिर एक योजना तैयार किया जाये और केंद्र ऐसी योजनाओं के लिए राज्यों को अतिरिक्त अनाज मुहैया कराये; "एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड" को लागू किया जाये; श्रमिकों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों को पूरा करने के लिए ठेकेदारों और प्रतिष्ठानों को पंजीकृत किया जाये।

कोई कार्ड नहीं, कोई राशन नहीं

एक दिशा निर्देश तो ऐसा है, जिसे यहां शब्दशः रखा जाना चाहिए और वह निर्देश है: “केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 की धारा 9 के तहत राज्य के ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों के अंतर्गत शामिल किये जाने वाले लोगों की कुल संख्या को फिर से निर्धारित करने के लिए क़वायद कर सकती है।”

राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) की धारा 9 में सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS) में "नवीनतम प्रकाशित जनगणना" (इस समय 2011 की जनगणना) के मुताबिक़ भारत की शहरी आबादी के 50% और ग्रामीण आबादी के 75% को शामिल करने की ज़रूरत की बात की गयी है। इस तरह, इस समय राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) में 135 करोड़ की कुल आबादी में से सिर्फ़ 80 करोड़ लोग ही शामिल हैं।

इस आदेश की एक न्यूनतम व्याख्या के लिए ज़रूरी है कि ग्रामीण-शहरी कवरेज अनुपात 2021 की अनुमानित आबादी (2021 की जनगणना के आंकड़े को अभी आना है) पर लागू किया जाये। ऐसा करने से 10 करोड़ और लोगों तक इस योजना का लाभ पहुंचाना होगा, जिससे कुल शामिल लोगों की संख्या 90 करोड़ से ज़्यादा हो जायेगी।

यह आदेश इसलिए अहम है क्योंकि पिछले कुछ सालों में हुए शोध दिखाते हैं कि एनएफ़एसए कवरेज अनुपात नाकाफ़ी हैं। जब एनएफ़एसए पारित किया गया था, तब खाद्य असुरक्षा कहीं ज़्यादा व्यापक थी और भूख की चपेट में आने वाले कई परिवार पीडीएस से बाहर रह गये थे।

बड़े पैमाने पर लोगों का इसके दायरे से बाहर रह जाना ही एक सार्वभौमिक पीडीएस (कम से कम ग्रामीण क्षेत्रों और शहरी झुग्गी बस्तियों में) की मांग का आधार रहा है। इस तरह दायरे से बाहर रह जाने के क्या नतीजे हो सकते हैं, इसका नज़ारा 2020 में लगाये गये लॉकडाउन के दौरान दिख गया था।

इस बात का यहां ज़िक़्र करना प्रासंगिक है कि जिन लोगों की पीडीएस तक पहुंच नहीं है, पिछले साल के लॉकडाउन के दौरान उन लोगों तक दिल्ली सरकार ने अपनी पहुंच बनाने की कोशिश की थी। दिल्ली हाई कोर्ट ने हाल ही में इस राहत उपाय के लिए 20 लाख लाभार्थियों की मनमानी सीमा निर्धारित करने के लिए दिल्ली सरकार की खिंचाई की है। यही बात एनएफ़एसए कवरेज अनुपात पर भी लागू होती है क्योंकि उसे भी मनमाने तरीक़े से निर्धारित किया गया है।

इस तरह, सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की भावना की मांग है कि केंद्र एनएफ़एसए कवरेज अनुपात में बढ़ोत्तरी करे और उन्हें 2021 की अनुमानित आबादी पर लागू करे। ज़्यादा उदार पीडीएस कवरेज भारत के कामकाजी ग़रीबों की निर्लज्ज अनदेखी को दूर करने की तरफ़ बढ़ाया गया पहला क़दम है। लेकिन, इसके ठीक विपरीत हाल ही में मार्च 2021 में नीति आयोग और अन्य सरकारी सलाहकारों की तरफ़ से की गयी वह सिफ़ारिश है, जिसमें इस कवरेज में कमी लाने की बात कही गयी थी।

एक राष्ट्र, एक राशन?

दिलचस्प बात यह है कि मीडिया का ध्यान एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड या ओएनओआर (One Nation, One Ration) के आदेश पर केंद्रित था। इस ओएनओआर का मतलब क्या है? सिद्धांतिक तौर पर यह पीडीएस को "एक जगह से दूसरी जगह कहीं भी सुग्राह्य" बनाना है, यानी जिनके पास राशन कार्ड हैं, वे अपना राशन अपने स्थानीय पीडीएस डीलर से ही लेने को मजबूर हों, इसके बजाय वे देश के किसी भी हिस्से में अपना राशन ले सकें। ज़ाहिर सी बात है कि यह सुगाह्यता तब "मददगार" हो सकती है, जब राशन कार्ड वाले किसी प्रवासी श्रमिक के राशन कार्ड की अनदेखी की जा रही हो।

यह ओएनओआर उन लोगों की मदद करेगा, जिनके पास पीडीएस राशन कार्ड हैं, लेकिन यह भी तो पहले से तयशुदा निष्कर्ष नहीं है। जैसा कि सरकार की परिकल्पना थी कि पीडीएस राशन कार्ड की यह सुग्राह्यता आधार प्लेटफ़ॉर्म और ईपीओएस मशीनों के इस्तेमाल पर आधारित होगी। जैसा कि बार-बार यह बात सामने आती रही है कि इस तरह की प्रक्रिया से भी बड़ी संख्या में लोग लाभ पाने से वंचित रह जायेंगे। 2019 के लोकनीति सर्वेक्षण से पता चलता है कि 28% लोगों को आधार की वजह से अपने राशन से कम से कम एक बार इसलिए वंचित रह जाना पड़ा था, क्योंकि आधार को पीडीएस से जोड़ दिया गया है।

सैद्धांतिक तौर पर परिवार के जो सदस्य कहीं रह जाते हैं, वे स्थानीय राशन की दुकान से अपना राशन पाने के हक़दार हो सकते हैं। आज के समय में हमें मालूम है कि आधार-आधारित बायोमेट्रिक सत्यापन मात्रा के लिहाज़ से हो रही धोखाधड़ी से नहीं बचा पाता है (यानी, ईपीओएस में दी गयी मात्रा से ज़्यादा अनाज दर्ज किया जाता है)। जिनके परिवार गांव में रहते हैं, मगर जिनके पास कुछ भी नहीं है, ऐसे कामगार प्रवासियों को भी इस धोखाधड़ी से इस तरह से नुक़सान पहुंचाया जा सकता है कि कामगार किसी शहर में अपने हिस्से का राशन लेने जाये, मगर पीडीएस डीलर पूरे परिवार के कोटे की बिक्री को डिजिटल रूप से दर्ज कर ले।

आधार जहां कहीं भी इस्तेमाल किया गया है, वहां आधार-लिंकिंग में नाकामी, सर्वर और नेटवर्क की समस्यायें, बायोमेट्रिक सत्यापन में नाकामी, आधार कार्ड / नंबर के खो जाने जैसी अंतहीन समस्याओं की सूची की त्रुटियों की यह परेशानी बनी रही है।

दिल्ली में 2018 में हालात इतने ख़राब थे कि जब सभी पीडीएस आउटलेट पर आधार से जुड़ी समस्यायें बढ़ने लगीं, तो दिल्ली सरकार ने एक महीने के भीतर आधार-आधारित बायोमेट्रिक सत्यापन का काम ही बंद कर दिया था। इन सबके बावजूद ग़ैर-बायोमेट्रिक स्मार्ट कार्ड जैसी बेहतर तकनीकों पर चर्चा भी नहीं की जा रही है।

इस टेक्नोलॉजी के अलावा जानी-पहचानी दूसरी और भी परेशानियों हैं। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में पीडीएस मुफ़्त चावल के साथ-साथ दाल और तेल की आपूर्ति भी करता है। ऐसे में सवाल यहां यह उठता है कि क्या तमिलनाडु सरकार इन वस्तुओं को अपने यहां काम कर रहे बिहार के प्रवासी कामगारों को भी उपलब्ध करायेगी ? अगर इसके बरक्स बात की जाये, तो सवाल यह भी पैदा होता है कि क्या तमिल कामगारों को बिहार में दाल और तेल मिल पायेगा ?

इसी तरह, अलग-अलग सूबे में अलग-अलग क़ीमतें वसूली जाती हैं। कुछ सूबे में एनएफ़एसए द्वारा तय अनिवार्य क़ीमतों (जैसे चावल के लिए 3 रुपये प्रति किलोग्राम) पर पैसे लिये जाते हैं, लेकिन दूसरे सूबे इसे मुफ़्त या राज्य सरकार से मिलने वाले अतिरिक्त मूल्य सब्सिडी के साथ मुहैया कराते हैं। ओएनओआर सामाजिक सहायता की उस प्रणाली को पटरी से उतारने का अहम जोखिम पैदा कर रहा है, जिसे इसके सबसे सख़्त आलोचकों ने भी धीरे-धीरे इसकी सराहना करना शुरू कर दिया है।

डेटाबेस बनाने के अलावा और क्या है आदेश में

अदालत के इस आदेश में पीडीएस और सामुदायिक किचेन के विस्तार जैसे जिस खाद्य सुरक्षा के उपाय की बात की गयी है, वह अहम है और इसे अमल में लाना मुमकिन भी है। भारतीय खाद्य निगम (FCI) के पास 100 मिलियन टन खाद्यान्न है, जो बफ़र स्टॉक के तौर पर ज़रूरी मात्रा का 2.5 गुना है। कई सूबों में यह भी देखा गया है कि सामुदायिक किचेन का इस्तेमाल ख़ास तौर पर दिन के दौरान शहरी श्रमिकों (जैसे, कूरियर वाहक, खाना पहुंचाने वाला, ऑटोरिक्शा चालक, आदि) द्वारा किया जाता है।

हालांकि, ऐसी स्थिति में जहां लोग दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहे हों, उन्हें हर बार खाने के लिए क़तार में खड़ा कर देना ग़ैर-मुनासिब है और शर्मनाक भी है। कुछ राज्य सरकारों की ओर से मुहैया कराये गये साप्ताहिक सूखा राशन किट (खाद्य अनाज, तेल, दाल, मसाले, आदि सहित) को खाना पकाने के लिहाज़ से शहरी श्रमिकों द्वारा पसंद किया गया था, लेकिन यह अदालत के निर्देशों में शामिल ही नहीं है।

अदालत ने रोज़ी-रोटी को फिर से बहाल करने को लेकर भी कुछ नहीं कहा। मिसाल के तौर पर राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (NREGA) के शहरी अवतार "विकेंद्रीकृत शहरी रोज़गार और प्रशिक्षण" (DUET) कार्यक्रम के ज़रिये रोज़गार के अवसर पैदा करने के प्रस्ताव पर सरकार से आगे बढ़ने का अनुरोध किया जा सकता था।

नक़दी राहत के मुद्दे पर सरकार ने कहा था, " अदालत की तरफ़ से इस सिलसिले में कोई निर्देश जारी नहीं किया जा सकता", क्योंकि यह राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। इसके अलावा, इस बात का भी ज़िक़्र किया गया कि " श्रमिकों के पंजीकरण के बाद ही राज्य और केंद्र उन्हें कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दे पाने में सक्षम होंगे।"

सुप्रीम कोर्ट ने असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले श्रमिकों के राष्ट्रीय डेटाबेस को पूरा करने पर ज़ोर दिया, लेकिन एक केंद्रीकृत डेटाबेस के निर्माण के साथ-साथ श्रमिकों के पंजीकरण (जिसका वजूद तो है, लेकिन इस अधिकार को कमज़ोर तरीक़े से लागू किया गया है) की बात करने से शायद भ्रम पैदा होता है।

चूंकि तकनीकी विशेषज्ञ नीतिगत गुंज़ाइश पर हावी हो चुके है, यही वजह है कि हमारी सोच डेटाबेस का ग़ुलाम बन चुकी है। एक महंगा, केंद्रीकृत, त्रुटिपूर्ण डेटाबेस अगली गड़बड़ियों को जन्म देता है। सरकार ने असंगठित कामगारों का राष्ट्रीय डेटाबेस (NDUW) पर 45 करोड़ रुपये ख़र्च किये हैं, लेकिन मौजूदा श्रम क़ानूनों के तहत श्रमिकों को सुरक्षा शायद ही मिल पाती है। 

(रीतिका खेड़ा एक विकास अर्थशास्त्री और आईआईटी-दिल्ली में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।)

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हुआ था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Indian-Workers-Deserve-More-Than-Food-Security

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