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क्या राजनीतिक मुनाफ़े के लिए भारत रत्न को टूल की तरह इस्तेमाल कर रही है सरकार?

सवाल उठ रहा है क्या भारत रत्न जैसे सर्वोच्च सम्मान को वोट बटोरने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है क्योंकि चौधरी चरण सिंह और डॉ. एमएस स्वामीनाथन जिन बातों के लिए देशभर में जाने जाते हैं, भाजपा का विचार और सरकार का आचरण ठीक उसके विपरीत दिशा में रहा है।
bharat ratna

देश में इस वक़्त 'भारत रत्नों' की बहार-सी दिख रही है। साल के दूसरे महीने में ही एक के बाद एक करके 5 भारत रत्नों का ऐलान हो गया। पहले कर्पूरी ठाकुर, इसके बाद लाल कृष्ण आडवाणी, फिर अचानक एक साथ तीन और नाम (तीनों ही मरणोपरांत) भारत रत्न के लिए घोषित किए गए। इनमें एक नाम दुर्घटनावश देश के प्रधानमंत्री बने और नवउदार नीतियों का अंधा कुआं कर गए पीवी नरसिम्हा राव का भी है। वही नरसिम्हा राव जो वैसे तो 18 भाषाओं के जानकार थे लेकिन 6 दिसंबर 1992 की घटना को रोकने के लिए एक भी भाषा में नहीं बोल सके। हालांकि अलग से उनके नाम की घोषणा की ज़रूरत नहीं थी, उन्हें और आडवाणी को संयुक्त रूप से एक साथ एक ही भारत रत्न दिया जाना ज़्यादा सटीक अभिव्यक्ति होती। खैर भारत देने के लिए इस तरह का कोई प्रावधान नहीं है।

हालांकि नियम तो ये है कि एक साल में तीन से अधिक भारत रत्न नहीं दिया जाना चाहिए लेकिन इस साल अब तक 5 नामों का ऐलान तो हो चुका है। बहरहाल आगे-आगे देखिए होता है क्या!

बिहार के जननायक कहे जाने वाले कर्पूरी ठाकुर को यह सम्मान देने के साथ ही यह साफ़ हो गया था कि इसके पीछे सम्मानित किये जाने की भावना से ज़्यादा वोट बटोरने की कामना है। हाल में घोषित बाक़ी दोनों नामों के साथ भी ऐसा ही है। इसके साथ-साथ इरादा 10 साल के मोदी राज की नाकामियों पर पर्दा डालने का भी है। यह बात इसलिए भी सही लगती है क्योंकि चौधरी चरण सिंह और डॉ. एमएस स्वामीनाथन जिन बातों के लिए देशभर में जाने और माने जाते हैं, भाजपा का विचार और सरकार का आचरण ठीक उसके विपरीत दिशा में रहा है।

चौधरी चरण सिंह उस सरकार में मंत्री, बाद में प्रधानमंत्री बने जिसने इस तरह के सम्मानों और पुरस्कारों का दिया जाना ही बंद कर दिया था। देश के बड़े हिस्से में उन्हें किसानो का प्रतिनिधि प्रतीक माना जाता है। उनकी पहचान खेती-किसानी को आत्मनिर्भर बनाने, उसके संकटों को दूर करने के हिमायती की है। राजनीति में वे उस धारा के माने जाते हैं जो देश के बड़े पूंजीपतियों द्वारा सब कुछ हड़प और हजम करने और संकटों का सारा बोझ कृषि क्षेत्र पर लाद देने के विरुद्ध भारत के धनी और संपन्न किसानो के हितों को आगे लाने वाली धारा है। मोटे तौर पर यह गांवों की कीमत पर शहरों को, कृषि की कीमत पर उद्योगों को ज़रूरत से ज़्यादा तवज्जो देने वाली आर्थिक नीतियों के विरोध की धारा है।

इस तरह देखा जाए तो भाजपा और मोदी सरकार ठीक उसी रास्ते पर चल रही है जिसकी सख्त मुखालफत चौधरी चरण सिंह की राजनीति की मुख्य धुरी थी। हुआ तो कर्पूरी ठाकुर के साथ भी ऐसा ही था, वे जिस तरह की समावेशी, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के उत्थान और भागीदारी की नीतियों के शिल्पकार माने और राजनीतिक जोखिम उठाकर उन्हें व्यवहार में उतारने के लिए जाने जाते हैं - जनसंघ के जमाने से ही भाजपा उसके विपरीत रही है।

ठीक यही स्थिति डॉ. स्वामीनाथन के बारे में है। वाम के समर्थन से चली यूपीए प्रथम की सरकार में बने साझा न्यूनतम कार्यक्रम की निरंतरता में नवंबर 2004 में राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन उनकी अध्यक्षता में हुआ था। अपने दो वर्ष के कार्यकाल में इस आयोग ने अपनी चार रिपोर्ट्स में भारत की कृषि और किसानों की स्थिति का अध्ययन किया, उसके कारणों का निदान किया और अक्टूबर 2006 में दी अपनी पांचवीं रिपोर्ट में उनका समाधान भी सुझाया। जल्द ही स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें जन आंदोलन का आधार बन गईं और देशभर के किसानों के बीच संघर्ष की लहर उभारते हुए 6 जून 2017 में हुए मंदसौर गोलीकांड के बाद एक सैलाब में बदल गई।

भाजपा ने कभी भी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मन से स्वीकार नहीं किया। हालांकि किसानों और ग्रामीण आबादी के बीच इस रिपोर्ट को लेकर जागी उम्मीदों के चलते इसका खुला विरोध करने का साहस वह नहीं जुटा पायी। साल 2014 के अपने चुनावी घोषणापत्र में उसने स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप C2+50% के हिसाब से उपज का दाम देने का वादा तक कर दिया। मगर सरकार बनने के बाद जल्द हक़ीक़त सबके सामने आ गई। 15 लाख रूपये और प्रति वर्ष  2 करोड़ रोज़गार के चुनावी वादों की तरह यह भी जुमला साबित हुआ। किसान संगठनो द्वारा चुनावी घोषणा पत्र के अनुरूप उपज के दाम दिए जाने के लिए जब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया गया तो मोदी सरकार ने बाकायदा शपथपत्र दाखिल करते हुए ऐसा करने से साफ़ इनकार कर दिया। कहा कि स्वामीनाथन सिफारिशों का पालन करना संभव ही नहीं है।

इतना ही नहीं, इससे भी और आगे जाते हुए सरकार खेती-किसानी विरोधी तीन कृषि क़ानून ले आई।  26 नवंबर 2020 से दिल्ली के 6-7 बॉर्डर पर शुरू हुए और 378 दिन तक चले ऐतिहासिक किसान आंदोलन की मुख्य मांगों में इन तीन कानूनों की वापसी के साथ स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों के अनुरूप उपज के दाम दिए जाना भी शामिल था। इस आंदोलन के साथ सरकार की ओर से जिस तरह का बर्ताव किया गया, वह देश कभी नहीं भुला सकता। भारी दमन, गालीगलौज और अनगिनत लानत मलामतें सहते और लखीमपुर खीरी के निर्मम हत्याकांड सहित आंदोलन के दौरान 715 से ज़्यादा शहादतें देते हुए यह संघर्ष जनता के समर्थन के साथ तीन क़ानून वापस करवाने में तो सफल हो गया मगर स्वामीनाथन आयोग के अनुरूप न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारंटी सहित बाक़ी मांगों पर हुए लिखित समझौते को लागू करने की दिशा में केंद्र सरकार एक इंच आगे नहीं बढ़ी। कुल जमा यह कि जिन डॉ. स्वामीनाथन के नाम से भाजपा को परहेज और काम से गुरेज है - उन्हें भी भारत रत्न से नवाजा जाना उनके प्रति सम्मान दिखाना नहीं उनके नाम को भुनाना और उनकी प्रतिष्ठा की आड़ में अपने किये धरे को छिपाना है।

इधर चौधरी चरण सिंह और स्वामीनाथन का पदाभिषेक किया जा रहा था उधर इन्हीं स्वामीनाथन की रिपोर्ट लागू करने की मांग पर दिए आश्वासन पर अमल की याद दिलाने पंजाब से हरियाणा होते हुए दिल्ली जाने वाले चरण सिंह के किसानों के रास्ते पर कीलें ठोंकी जा रही थीं, रबर की गोलियां चलाकर उन्हें घायल किया जा रहा था। जैसा आज तक कभी नहीं हुआ वैसा; खेती की मदद के लिए लाये गए ड्रोन को किसानो पर हमले के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया। निशाना बनाकर सैकड़ों आंसू गैस के गोले बरसाए जा रहे हैं।

11 दिसंबर 2021 को हुए लिखित समझौते को लागू कराने सहित अन्य मांगों को लेकर 16 फरवरी के ग्रामीण भारत बंद और औद्योगिक हड़ताल को विफल बनाने के लिए मध्यप्रदेश सहित भाजपा शासित राज्यों में किसान नेताओं की गिरफ्तारियां की जा रही थीं। सारे नियम कानूनों को ताक पर रखकर पंजाब के इलाके में घुसकर हरियाणा पुलिस ने जबरन कार्रवाई की।

एक तरफ स्वामीनाथन और चौधरी साहब को भारत रत्न दिया जा रहा है, दूसरी तरफ अंतरिम बजट में खेती किसानी के लिए बजट आवंटन एक बार और घटाया जा रहा था। फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की मद में कोई नया प्रावधान करने की बजाय उसकी मद में पहले की गई 30% की कमी को और बढाया जा रहा था। यह सब तब किया जा रहा था जब शासन के कार्यकाल में 2014 से 2022 के बीच  1 लाख 474 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं और इसी साल कृषि मंत्रालय ने 1 लाख 5 हज़ार 443 करोड़ रूपये बिना खर्च किये राजकोष में वापस लौटा दिए हैं।

डॉ. स्वामीनाथन की बेटी मदुरा स्वामीनाथन जो खुद वैज्ञानिक हैं, ने कहा, “ये किसान हैं, अपराधी नहीं हैं। मैं आप सभी से, भारत के प्रमुख वैज्ञानिकों से अनुरोध करती हूं कि हमें अपने अन्नदाताओं से बात करनी होगी, हम उनके साथ अपराधियों जैसा व्यवहार नहीं कर सकते।” ये कहकर मदुरा ने केंद्र सरकार को आईना दिखा दिया है।

भारत रत्न सम्मानितों के प्रति इस राजनीतिक कुनबे में कितना आदर है इसका जायजा, कुल 4 जीवित भारत रत्नों में से एकमात्र सोचने विचारने वाले नोबल सम्मानित अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के ख़िलाफ़ चलाये गए संघ भाजपा के अभियान से लिया जा सकता है। कोरोना महामारी के समय मोदी सरकार द्वारा पीड़ितों का इलाज करने, बीमारी का फैलाव रोकने की बजाय अपना प्रचार करने पर ज़्यादा जोर देने की अमर्त्य सेन द्वारा आलोचना किये जाने पर भाजपा नेताओं द्वारा इस विश्व विख्यात अर्थशास्त्री को भारत विरोधी, देशद्रोही यहां तक कि मनोरोगी तक कह दिया गया था। विश्वभारती के अपने वफादार कुलपति के जरिये भारत में उनके मकान को अवैध अतिक्रमण बताकर उसे गिरवाने तक की धमकी दिला दी गई थी।

महज एक पखवाड़े में दिए गए इन 5 भारत रत्न सम्मानों के पीछे एक और इरादा छुपा हुआ है। इसे आगामी चुनावों में छवि के सुधार और गठबंधन के विस्तार के लिए राजनीतिक टूल बना कर रख दिया गया है; जो सर्वोच्च नागरिक सम्मान का अपमान और सम्मानित किये गए व्यक्तियों का निरादर दोनों है। कर्पूरी ठाकुर के ज़रिए बिहार में नीतीश कुमार को पलटी मारने का कारण देने के बाद अब पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जयंत चौधरी और उनके रालोद को अपने पाले में लाने के लिए चौधरी चरण सिंह को साधने की कोशिश की गई है।

राजनीतिक हलकों में चुटकुला चल रहा है कि पंजाब में सुखबीर सिंह बादल के अकाली दल को वापस बुलाने के लिए प्रकाश सिंह बादल को, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे को लुभाने के लिए दिवंगत बाला साहब ठाकरे को भी मरणोपरान्त भारत सम्मान देने की घोषणा की जा सकती है।  क्या यह सच में चुटकुला भर है? नहीं! मोदी है तो मुमकिन है, कुछ भी हो सकता है।

कहते हैं कि वह समय सबसे औघड़ समय होता है जब चुटकुले सच बन जाते हैं। यह ऐसा ही समय है-इसकी दो विडंबनाएं हैं। एक तो ईदी अमीन से लेकर बुश जूनियर तक के लिए गढ़े गए हर तरह के चुटकुले जीते जागते सच बन कर सामने खड़े भी हैं, शीर्ष पर बैठे भी हैं। दूसरा यह कि मसखरी को तर्क, गालीगलौज को विमर्श,  गप्पों और कपोल कल्पनाओं को इतिहास,  झूठ और अफवाहों को सबूत की तरह इस्तेमाल किया जाना राजनीतिक चतुराई बताया जा रहा है। दूबरे के दो आषाढ़ की तरह इस विडंबना में भी एक अतिरिक्त विडंबना यह है कि जनता में एक हिस्सा ऐसा भी तैयार कर लिया गया है जो इस सबको मान भी रहा है।

मगर जैसा कि होता है कि विडंबनाओं में ही उनके उपचार की संभावनाएं भी निहित होती हैं, वैसा ही इस बार भी है। एक बार फिर दिल्ली की ओर मजबूत डग भरते किसान, 16 फरवरी को ग्रामीण भारत बंद और औद्योगिक हड़ताल को कामयाब बनाते भारी संख्या में मज़दूर और किसान इन्ही संभावनाओं का सड़कों पर दिखता उदाहरण है। यही संभावनाए रोजगार, महंगाई के ख़िलाफ़ गुस्से के रूप में घरों में, परिवारों में, आँगनो और चौबारों में बिखरी हुई हैं। इन्हीं का डर है जो मोदी सरकार और संघ की नींद हराम किये हुए है। वे पत्थर के कभी भी न पिघलने के मुगालते में मुतमईन हैं, तो अवाम, खासकर मेहनतकश अवाम, भी बेक़रार है अपनी आवाज़ में असर के लिए।

(लेखक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीच किसान सभा के संयुक्‍त सचिव  हैं। विचार निजी हैं।)

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