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कुर्मी/कुड़मी बनाम आदिवासियत विवाद को भाजपा ने बनाया राजनीतिक मुहरा : झारखंड के आदिवासी संगठन

कुर्मी को आदिवासी बनाने की मांग का विरोध करने वाले आदिवासियों का आरोप है कि कुड़मियों की यह मांग आदिवासियत का अतिक्रमण और उनके स्वतंत्र सामुदायिक अस्तित्व पर हमला है।
jharkhand

झारखण्ड प्रदेश के सियासी माहौल में एक बार फिर से सरगर्मी देखने को मिल रही है। जहां एक ओर कुड़मी/कुर्मी को आदिवासी बनाने की मांग को लेकर जगह जगह धरना-प्रदर्शन हो रहें हैं, तो वहीं दूसरी ओर प्रदेश के आदिवासी समुदाय के संगठन भी इस मांग के विरोध में आन्दोलन कर रहे हैं।

दीपावली व सोहराई परब के दूसरे ही दिन 25 अक्टूबर को कोल्हान क्षेत्र के मुख्यालय चाईबासा में ‘कोल्हान आदिवासी एकता मंच’ के बैनर तले कई आदिवासी संगठनों के सदस्यों ने सैकड़ों की तादाद में ‘प्रतिवाद मोटरसाइकिल मार्च’ निकाला। जिसमें पूरे प्रमंडल के सभी जिलों से आये आदिवासी युवाओं ने झारखण्ड में ‘कुड़मी को आदिवासी’ बनाने की मांग का ज़ोरदार विरोध प्रदर्शित किया। साथ ही इस मांग के समर्थन पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले जनप्रतिनिधियों व हेमंत सोरेन सरकार के मंत्री-विधायक आदिवासी नेताओं के साथ-साथ हेमंत सोरेन की चुप्पी के विरोध में उनके पुतले भी जलाए। इस विरोध कार्यक्रम के माध्यम से सभी आदिवासी राजनेताओं-विधायकों और सांसदों की चुप्पी पर भी सवाल उठाया

प्रदर्शन करनेवाले आक्रोशित आदिवासियों ने एक स्वर में कहा कि कुड़मी समुदाय को आदिवासी बनाने की मांग पूरी तरह से असंवैधानिक और आदिवासी विरोधी है। क्योंकि इस समुदाय के लोग न तो कभी आदिवासी रहें हैं और ना ही आदिवासी बन सकते हैं। उन्होंने ने सभी आदिवासी राजनेताओं को इस मामले में अपनी मंशा स्पस्ट करने के लिए 7 दिन का समय भी दिया है।

गौरतलब है कि बीते कुछ समय से राज्य के कुर्मी समुदाय का एक हिस्सा स्वयं को ‘कुड़मी’ बताकर आदिवासी घोषित करने कि मांग उठा रहा है। उत्तरी छोटानागपुर के कुर्मी बाहुल्य कई जिलों से लेकर कई इलाकों में धरना-प्रदर्शन और रैलियों के जरिये बड़ी-बड़ी जातीय गोलबंदी का सिलसिला जारी है। जो कि झारखण्ड के पड़ोसी राज्य पश्चिम बंगाल के भी कई जिलों तक विस्तार लिए हुए है।

इस सन्दर्भ में जानकारों के अनुसार झारखण्ड क्षेत्र में कुर्मी समुदाय को आदिवासी बनाने का विवाद काफी पुराना रहा है। कुर्मी को आदिवासी बनाने की मांग करने वालों का तर्क है कि 1931 तक यह समुदाय आदिवासी की श्रेणी में शामिल रहा है, जिसे बाद में हटा दिया गया। इस मांग का विरोध करनेवाले आदिवासी समुदाय के लोगों और संगठनों का आरोप है कि कुड़मियों की यह मांग आदिवासियत का अतिक्रमण और उनके स्वतंत्र सामुदायिक अस्तित्व पर हमला है।

आदिवासी समुदाय को मिलनेवाले संवैधानिक विशेषाधिकारों और आरक्षण के लाभ पर कुड़मियों की नज़र है। आदिवासी नेताओं का यह भी कहना है कि देश भर के आदिवासी आज अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं लेकिन कुर्मी समुदाय के लोग कभी भी इस मांग को नहीं उठाते हैं। जो साबित करता है कि पहले से ही वे किसी न किसी धर्म के अंतर्गत जी रहें हैं और उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है।

कुछ आदिवासी नेताओं का यह भी कहना है कि कुड़मी समुदाय के जिन लोगों का दावा है कि वे 1950 के पहले एसटी की सूची में शामिल थे, तो उन्हें अपने तर्कों और तथ्यों के साथ सुप्रीम कोर्ट में जाना चाहिए। इसे करने की बजाय रेल रोको, सड़क जाम और प्रदर्शन हंगामा करके बेवजह सामाजिक बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहिए।

आदिवासी संगठनों के लोग इस विवाद पर चुप्पी साधने वाले हेमंत सोरेन सरकार से लेकर उनके मंत्री-विधायकों समेत सभी आदिवासी विधायक-सांसदों पर “वोट और अवसरवादी राजनीति” करने का भी आरोप लगा रहें हैं। साथ ही उनका खुला आरोप है कि भाजपा और आजसू पार्टियां और उसके नेता अपनी राजनितिक रोटी सेंकने के लिए इस आन्दोलन को खुलकर बढ़ावा दे रहें हैं। यही कारण है कि कई इलाकों में जब रेल-रोको आन्दोलन हुआ तो केंद्र की सरकार के इशारे पर रेलवे ने इसे रोकने की बजाय मूक दर्शक बनकर पूरी मनमानी करने दिया।

फिलहाल स्थिति यही है कि इस प्रकरण में राजधानी रांची से लेकर दोनों पक्षों में सोशल मिडिया और सड़क पर तीखा आरोप-प्रत्यरोप जारी है। दोनों पक्षों ने आनेवाले समय में बड़ी बड़ी जनगोलबंदियों वाले प्रदर्शनों की घोषणा की है। निस्संदेह इससे एक सामाजिक तनाव और टकराव जैसे हालात बन रहें हैं। जिसे भड़काने और फैलाने में गोदी मीडिया और उसके लोग हर जुगत लगाये हुए हैं। जिसके लिए सिर्फ एक पक्ष की ख़बरों को व्यापक प्रचार देकर दूसरे यानी आदिवासी पक्ष की ख़बरों को सिरे से सेंसर कर देने जैसी कवायद भी साफ़ देखी जा सकती है।

उधर, झारखण्ड मामलों के कई विशेषज्ञों का साफ कहना है कि इस विवादास्पद प्रकरण और माहौल के पीछे सीधे तौर से भाजपा और उसकी केंद्र की सरकार लिप्त है। जो मिशन “ऑपरेशन लोटस” चलाकर देश में गैर भाजपा शासित प्रदेशों की लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारो को ‘अस्थिर करने या गिराने’ में पूरी ताक़त झोंके हुए है। यही वजह है कि झारखण्ड में हेमंत सोरेन की गठबंधन सरकार जब से सत्ता में आई है, उसे प्रदेश भाजपा से लेकर उनकी केंद्र सरकार प्रायोजित किसी न किसी सियासी तिकड़म का सामना करना पड़ रहा है।

कुड़मी/कुर्मी बनाम आदिवासी विवाद का वितंडे को इस क़दर बढ़ाया और फैलाया जा रहा है कि प्रदेश के राजनितिक दलों के अन्दर भी इसका साफ़ असर दिखने लगा है। गोदी मिडिया जमात और परदे के पीछे से संघ एजेंडे को परोसने वाली बौद्धिक चौकड़ी उलुल-जलूल के तर्क-तथ्यों का ऐतिहासिक हवाला देकर मनगढ़ंत बातें जोर-शोर से प्रसारित कर लोगों को गुमराह करने में जुटी हुई है।

उक्त पूरे प्रकरण को आदिवासी अधिकार मोर्चा व झारखण्ड जन संस्कृति मंच के नेतृत्वकर्त्ता तथा लम्बे समय से ‘जंगल-बचाओ’ अभियान से जुड़े युवा एक्टिविस्ट जेवियर कुजूर द्वारा एक दूसरे पहलू से देखना काफी मायने रखता है। उनका स्पष्ट मानना है कि यह पूरा वितंडा झारखण्ड में कॉर्पोरेट लूट को स्थायी और सर्वव्यापी बनाने के आर्थिक हितों को साधने के लिए ही खड़ा किया जा रहा है। क्योंकि हाल के समय में यहाँ के बचे-खुचे जल जंगल ज़मीन खनिज और प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के लिए आदिवासी समाज ‘आर-पार’ की लड़ाई लड़कर कंपनी-लूट को रोके हुए है।

छत्तीसगढ़ से लेकर झारखण्ड के पूरे आदिवासी इलाकों में “सलवा-जुड़ूम, ऑपरेशन ग्रीनहंट और माओवाद हटाने के नाम पर सीआरपीएफ़ कैम्प बिठाने” जैसे दमनात्मक कार्यनीतियों के बावजूद आदिवासी लगातार डटे हुए हैं। इसलिए अब आदिवासी समुदाय के अन्दर दूसरी जातियों को घुसाकर अपना एजेंट तैयार करने की चाल चली जा रही है। इसलिए अब ये मामला सिर्फ कुरमी बनाम आदिवासी का ही नहीं रह गया है, बल्कि व्यापक लोकतान्त्रिक ताकतों को ऐसे वितंडों से बचाने का भी बन गया है।

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