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कर्नाटक : क़र्ज़ बढ़ा, लेकिन सारा पैसा ख़र्च कहां हुआ?

पूंजी आउटले के मुताबिक भाजपा सरकार के कार्यकाल में सामाजिक क्षेत्र के ख़र्च में गिरावट आई है।
Basavaraj Bommai
फ़ोटो साभार: PTI

कर्नाटक की निवर्तमान भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार बड़े पैमाने पर वित्तीय गड़बड़ी को अपने पीछे छोड़ कर जा रही है। शायद यही कारण है कि कई जनमत सर्वेक्षणों के साथ-साथ जमीनी रिपोर्टों से भी संकेत मिले रहे हैं कि पार्टी का सत्ता में वापस आना शायद है। 

आश्चर्यजनक बात यह है की, भारत के सभी राज्यों में से चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था पर शासन करने के बावजूद, जबकि आम तौर पर कर्नाटक को आधुनिक उद्योग का केंद्र माना जाता है, बावजूद इसके भाजपा सरकार ने पिछले चार वर्षों में भारी उधार लिया है और खुद को एक गहरे गड्ढे में धकलने की कोशिश की है। (सनद रहे कि भाजपा, कर्नाटक विधानसभा चुनाव के एक साल बाद 2019 में सत्तारूढ़ कांग्रेस-जनता दल (सेक्युलर) गठबंधन में दलबदल करने के बाद वापस सत्ता में आई थी।)

भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) द्वारा जुटाए गए राज्य बजट के आंकड़ों के अनुसार, मार्च 2023 तक राज्य की बकाया देनदारियां (यानि कर्ज़) 5.35 लाख करोड़ रुपये यहा, जो 2018 में 2.46 लाख करोड़ रुपये था। यदि इसे प्रति मतदाता पर कर्ज़ के संदर्भ में देखा जाए तो यह बड़ी तेज़ वृद्धि को दर्शाता है, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है। मतदाता संख्या, दोनों चुनावी वर्षों के लिए बनी मतदाता सूची से ली गई है और जनसंख्या अनुमानों की तुलना में बहुत बेहतर तस्वीर पेश करती है। 

इसलिए: पिछले पांच वर्षों में प्रति मतदाता कर्ज का बोझ आश्चर्यजनक रूप से 106 प्रतिशत बढ़ गया है – जो प्रति मतदाता 49,505 रुपये से बढ़कर 1,02,107 रुपये हो गया है। देश के बहुत कम राज्यों में कर्ज में इस तरह की जबरदस्त बढ़ोतरी देखने को मिलती है।

मतदाता संख्या क्रमशः 2018 और वर्तमान विधानसभा चुनावों से पहले चुनाव आयोग की विज्ञप्ति से ली गई है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि नई क्षमताओं में निवेश करने के लिए उधार लेना जरूरी है, और विशेष रूप से उन स्थितियों में जहां केंद्रीय सहायता या कर्ज़ बहुत तंग हैं या आसानी से उपलब्ध नहीं है, जैसा कि 2017 में माल और सेवा कर या जीएसटी लागू होने के बाद हाल के वर्षों में हुआ है। 

इसमें कुछ सच्चाई भी है और चूंकि सभी राज्य सरकारों को कोविड महामारी से निपटने से संबंधित खर्चों के बोझ को झेलना पड़ा था, इसलिए उनकी वित्तीय स्थिति हाल के दिनों में और अधिक अस्थिर/खराब हो गई है।

ऐसी हालात में किसी भी राज्य सरकार से यह उम्मीद की जाएगी कि वह वित्त/धन को सामाजिक क्षेत्रों पर निरंतर खर्च करे, विशेष रूप से महामारी जैसे गंभीर समय में यह जरूरी है जहां लोग गंभीर हालत का सामना कर रहे थे। इसमें लोगों की स्वास्थ्य देखभाल सहायता, भोजन सहायता और अन्य प्रकार के सामाजिक कल्याण उपायों के रूप में सहायता की जरूरत थी। फिर, निश्चित रूप से, एक बार जब महामारी घटने लगी, तो खर्च के अन्य मदों में उछाल आना था - जैसे कि पूंजीगत व्यय - जो रोजगार को बढ़ावा देकर अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में सरकार के अभियान को दिखाता है। 

हालाँकि, लगता कुछ ऐसा है कि कर्नाटक का इन मामलों में रिकॉर्ड बहुत ही खराब रहा है।

शिक्षा, स्वास्थ्य पर ख़र्च

जैसा कि नीचे दिया गया चार्ट दिखाता है कि, 2022-23 के अपने बजट में, कर्नाटक की 'डबल इंजन' सरकार ने शिक्षा पर अपने कुल व्यय का 12 प्रतिशत खर्च करने की योजना बनाई थी। यह सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों (यूटी) के कुल मिलाकर 13.6 प्रतिशत के खर्च से  कम है।

इसी तरह, "चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण" पर खर्च सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 5.7 प्रतिशत के खर्च के मुक़ाबले कुल व्यय का 5.4 प्रतिशत आंका गया है। 

वास्तव में, शिक्षा पर कर्नाटक सरकार का व्यय का हिस्सा 2019-20 में लगभग 12.4 प्रतिशत से घटकर 2022-23 में 12 प्रतिशत हो गया है। चिकित्सा और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च 2019-20 में 4.1 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 (संशोधित अनुमान) में 5.8 प्रतिशत हुआ,  जो महामारी में बढ़ती मांगों को दर्शाता है, लेकिन तब से इसमें गिरावट का रुझान देखा गया है, जो 2022-23 में कुल खर्च का 5.4 प्रतिशत हो गया है। 

अन्य उपायों से यह भी पता चलता है कि भाजपा सरकार अपने संसाधनों को लोगों के कल्याण की दिशा में लगाने में किस हद तक विफल रही है। राज्य के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के हिस्से के रूप में विकास पर खर्च 2020-21 में 9.4 प्रतिशत से घटकर 2021-22 (आरई) में 8 प्रतिशत हो गया और 2022-23 के बजट अनुमानों में इसे घटाकर 7.6 प्रतिशत कर दिया गया था। सामाजिक क्षेत्र का व्यय भी 2020-21 में जीएसडीपी के 5 प्रतिशत से घटकर 2021-22 (आरई) में 4.9 प्रतिशत हो गया और फिर 2022-23 के बजट अनुमानों में इसे जीएसडीपी के मुक़ाबले 4.5 प्रतिशत पर आंका गया था।

यह सब जो दर्शाता है वह स्पष्ट है: कर्नाटक की "डबल इंजन" सरकार एक प्लेबुक का अनुसरण कर रही है जो कई अन्य भाजपा-नीत राज्य सरकारों का ही एक मॉडल नज़र आता है। इसमें मुख्य रूप से वाणिज्यिक या बाजार उधारी के माध्यम से राजस्व बढ़ाना शामिल है, लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक कल्याण आदि जैसे सार्वजनिक कल्याण पर व्यय में कटौती करना शामिल है।

पूंजी आउटले/परिव्यय

शायद बढ़े हुए कर्ज का इस्तेमाल इंफ्रास्ट्रक्चर जैसे पूंजी परिव्यय को वित्तपोषित करने के लिए किया जा रहा है, जो एक समय के अंतराल के बाद लोगों के काम आएगा? लेकिन खर्च के मौजूदा आंकड़ों से भी ऐसा नहीं लगता है। उदाहरण के लिए, जीएसडीपी के हिस्से के रूप में पूंजी परिव्यय 2020-21 में 2.6 प्रतिशत से घटकर 2021-22 (आरई) में 1.9 प्रतिशत हो गया है और 2022-23 के बजट अनुमानों में उसी स्तर पर बना हुआ है। इस तथ्य के अलावा कि परिव्यय बहुत कम है, यह 2022-23 के बजट में स्थिर है, जिसका अर्थ है कि प्रभावी रूप से यह मुद्रास्फीति के हिसाब से नीचे जा रहा है।

यदि कोई कर्नाटक के मेट्रिक्स की तुलना सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के साथ करता है, जैसा कि आरबीआई की रिपोर्ट में दर्ज किया गया है, तो तस्वीर स्पष्ट हो जाती है, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है।

इस प्रकार जो उभर कर सामने आता है वह दोहरी मार की एक दुखद तस्वीर है जिसे 'डबल इंजन' सरकार (केंद्र और राज्य में भाजपा सरकार) कहा जाता है। कम खर्च के कारण न केवल राज्य के लोग विभिन्न अधिकारों से वंचित हो गए हैं, बल्कि बड़े पैमाने पर व्यावसायिक उधारी से भविष्य की किसी भी संभावना से समझौता किया गया है, जिसे आने वाले वर्षों में चुकाना होगा।

बसवराज बोम्मई सरकार लोगों की उपेक्षा वाली अपनी इन नीतियों के साथ-साथ एक गहरी धारणा है यह भी है कि यह एक बहुत ही भ्रष्ट सरकार है, जिसकी वजह से इसे कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। 10 मई को ईवीएम में इसकी किस्मत का फैसला होगा और 13 मई को नतीजे आएंगे। 

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Karnataka: Increased Debt, But Where Was All the Money Spent?

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