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कर्नाटक सरकार की ‘अन्न भाग्य योजना’ : FCI की बेतुकी दलील!

इस योजना के लिए मुुश्किल खड़ी हो गई है क्योंकि FCI ने, राज्य को इसके लिए चावल बेचने से ही इनकार कर दिया है। एक राज्य सरकार के साथ यह राजनीतिक भेदभाव बुनियादी तौर पर तो ग़रीबों पर ही एक प्रहार है।
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फ़ोटो साभार: ट्विटर

कर्नाटक सरकार की 1 जुलाई से अन्न भाग्य योजना शुरू करने की योजना मुश्किल में पड़ गयी है। इस योजना के अंतर्गत ग़रीबी रेखा के नीचे के हर एक परिवार को, हर महीने 10 किलोग्राम अनाज मुफ़्त मुहैया कराया जाना है।

ओछी राजनीति का खेल

इस योजना के लिए मुुश्किल इसलिए खड़ी हो गयी है क्योंकि भारतीय खाद्य निगम (FCI) ने, राज्य को इसके लिए चावल बेचने से ही इनकार कर दिया है। चूंंकि केंद्र सरकार की वर्तमान योजना, ग़रीबी रेखा से नीचे के हर एक परिवार को 5 किलोग्राम चावल मुफ़्त मुहैया कराती है, कर्नाटक की इस योजना से राज्य के 1.19 करोड़ बीपीएल तथा अंत्योदय कार्डधारकों को, हर महीने 5 किलोग्राम अनाज अतिरिक्त मिल जाता। इसके अलावा केंद्र सरकार वैसे भी पिछले कुछ समय से पांच किलोग्राम अनाज मुफ़्त देने की अपनी इस योजना को बंद करने के मंसूबे बना रही है, जिसे महामारी के दौर में शुरू किया गया था। इसलिए, कर्नाटक की योजना, जोकि राज्य की नवनिर्वाचित सरकार के चुनावी वादे का हिस्सा है, मुफ़्त चावल की योजना को स्थायित्व भी देने वाली थी।

कर्नाटक सरकार अब इस योजना के लिए चावल हासिल करने के लिए, दूसरे विकल्पों की तलाश कर रही है। इनमें अन्य केंद्रीय एजेंसियों तथा विभिन्न राज्य सरकारों से चावल हासिल करने का विकल्प शामिल है। लेकिन, राज्य सरकारों के पास फिलहाल इसके लिए पर्याप्त भंडार नहीं हैं जबकि अन्य केंद्रीय एजेंसियों को भी केंद्र सरकार द्वारा उसी तरह से कर्नाटक सरकार को चावल बेचने से रोका जा सकता है, जैसे भारतीय खाद्य निगम को रोका गया है। इसके अलावा, इन स्रोतों से चावल ख़रीदने की सूरत में, इस योजना का खर्चा उल्लेखनीय रूप से बढ़ जाएगा और यह राज्य के बजट से इसके लिए वित्त जुटाने को और भी मुश्किल बना देगा।

यह केंद्र की भाजपा सरकार और एक विपक्ष-शासित राज्य के बीच, किसी छित-पुट टकराव का ही मामला नहीं है। यह केंद्रीयकरण के अविश्वसनीय स्तर को दिखाता है, जिसे सिर्फ़ इसी उद्देश्य से आजमाया जा रहा है जिससे एक विपक्षी सरकार की एक जनहितकारी योजना को विफल किया जा सके और वह भी शुद्घ राजनीतिक कारण से। और यह राजनीतिक कारण है, यह सुनिश्चित करना कि विपक्षी पार्टी की सरकार, जनता के बीच ज़्यादा लोकप्रिय न हो जाए। वास्तव में यह और भी विडंबनापूर्ण है कि एक ओर तो केंद्र की भाजपा सरकार, कर्नाटक की नयी सरकार को अपने चुनावी वादे को पूरा करने से रोक रही है और दूसरी ओर, उसी राज्य में एक राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा, जोर-शोर से इसका तकाजा कर रही है कि नयी सरकार, अपने चुनावी वादे फौरन पूरे करे!

केंद्रीयकरण की पराकाष्ठा

बेशक, राज्य सरकारों की कल्याणकारी योजनाओं पर केंद्र का विरोध कोई नया भी नहीं है। केंद्र की कांग्रेसी सरकार ने जब सार्वजनिक वितरण प्रणाली के दायरे को कम किया था और सस्ते खाद्यान्न के प्रावधान को सिर्फ़ बीपीएल आबादी तक सीमित कर दिया था, उस समय केरल में, जहां तब तक सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली चल रही थी, एलडीएफ सरकार ने सार्वभौम सार्वजनिक वितरण प्रणाली को चालू रखने के लिए अपने ही संसाधनों से सस्ते खाद्यान्न की आपूर्ति हासिल करने की कोशिश की थी। इस काम के लिए उसने ख़ुद अपने ही राज्य के भीतर से भी कुछ चावल हासिल कर लिया था। लेकिन, भारतीय खाद्य निगम ने, हालांकि वह इस राज्य से सीधे कोई अनाज नहीं ख़रीदता है और इस राज्य को खाद्यान्न की कमी वाले राज्य का दर्जा हासिल रहा है, इस राज्य की सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिए अपनी आपूर्तियों में ठीक उतनी की कटौती कर दी थी जितनी राज्य सरकार की स्थानीय खरीदी थी!

इसलिए, पूरी तरह से अनुचित केंद्रीयकरण की परिघटना कोई नयी नहीं है। लेकिन, भाजपा सरकार ने इसे अभूतपूर्व ऊंचाई तक पहुंचा दिया है। वह तो एक राज्य को, जो पूरी तरह से कीमत देने के लिए तैयार है, ओपन मार्किट में बिक्री में चावल देने से भी इनकार कर रही है। बहरहाल, एक राज्य सरकार के साथ यह राजनीतिक भेदभाव बुनियादी तौर पर तो ग़रीबों पर ही एक प्रहार है। कर्नाटक की कांग्रेस सरकार के प्रति भाजपा की केंद्र सरकार की इस दुश्मनी की मार, आख़िरकार तो ग़रीबों पर ही पड़ने जा रही है।

खाद्य निगम की झूठी बहानेबाज़ी

बेशक, भाजपा सरकार यह स्वांग कर रही है कि कर्नाटक को भारतीय खाद्य निगम के भंडारों से चावल बेचने से उसके इनकार के पीछे, राजनीतिक कारण कहीं से भी नहीं हैं। लेकिन, उसे चावल न बेचने के लिए वे जो बहाने बना रहे हैं, पूरी तरह से झूठे हैं। पहला बहाना तो यह बनाया जा रहा है कि सरकार के पास, पर्याप्त भंडार ही नहीं हैं। लेकिन, अगर वाकई ऐसा होता तो केंद्र सरकार कैसे अगले कुछ हफ्तों में ही 5 लाख टन चावल (और 4 लाख टन गेहूं) बेचने की तैयारी कर रही होती, जिसके इरादे का उसने ऐलान किया था। कर्नाटक सरकार वास्तव में भारतीय खाद्य निगम से 2.46 लाख टन खाद्यान्न ख़रीदना चाहती थी और उसने यह अनाज एक राज्य सरकार को देने के बजाए, व्यापारियों को बेचने का ही फ़ैसला कर लिया है।

यहीं दूसरा बहाना आ जाता है। कहा जा रहा है कि व्यापारियों को अनाज बेचना तो, मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने का एक साधन है। वास्तव में भारतीय खाद्य निगम के चेयरमैन ने मीडिया से साफ़ तौर पर यह दलील दी है कि खुले बाज़ार में बिक्री की योजना तो एक मंहगाई-विरोधी कदम है, जिससे खाद्यान्न की कीमतों में ख़ुदरा मुद्रास्फीति को नीचे लाने में मदद मिलेगी। लेकिन, यह दलील बिलकुल बेतुकी सी लगती है। अगर खाद्यान्न की कीमतों में मुद्रास्फीति बेकार की मांग की वजह से आयी है और अगर इस मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाना है, तो इसका कहीं ज़्यादा कारगर तरीका यही है कि व्यापार के रास्ते के बजाए, उपभोग के रास्ते से, सरकारी भंडार से अनाज निकाला जाए। व्यापार के रास्ते से सरकारी भंडार से अनाज की निकासी की सूरत में तो इस तरह निकाले गए अनाज का आख़िरकार क्या उपयोग होता है, इस पर सरकार कोई नियंत्रण तो होगा नहीं और ऐन मुमकिन है कि इसको व्यापारियों द्वारा जमा कर के रख लिया जाए और इस तरह सरकारी भंडार से अनाज की निकासी का कीमतों पर कोई असर पड़े ही नहीं। इसलिए, मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने का कहीं ज़्यादा कारगर उपाय तो यही है कि अनाज राज्य सरकारों को मुहैया कराया जाए, जो इसका उपयोग जनता के उपभोग को बढ़ाने के लिए करेंगी न कि यह अनाज व्यापारियों के हाथों में दिया जाए, जो इसको जमा कर के रख सकते हैं।

खुले बाज़ार में बिक्री से महंगाई कम नहीं होती

वास्तव में यही भारत में बहुत ही आम अनुभव भी रहा है और साल 1972 से ही यह बात देखने में आ रही थी। उस साल, जब फसल ख़राब रहने की प्रत्याशा में खाद्यान्नों की कीमतों का ऊपर चढ़ना शुरू हो गया था, इंदिरा गांधी की सरकार ने जिसके पास खाद्यान्न के पर्याप्त भंडार जमा थे, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिए इस भंडार में अनाज से निकासी करने के बजाए कीमतों को अंकुश में रखने के लिए, अपने भंडार से खुले बाज़ार में अनाज की निकासी का रास्ता अपनाया। बहरहाल, व्यापारियों ने सरकार द्वारा बेचा जा रहा अनाज खुशी-खुशी ख़रीद तो लिया, लेकिन उसे जमा कर के रख लिया। इसका नतीजा यह हुआ कि मुद्रास्फीति ज्यों की त्यों बनी रही, जबकि सरकार के खाद्यान्न के भंडार अकारण ही खाली हो गए। तब से आधी सदी से ज़्यादा गुज़र चुकी है लेकिन भाजपा सरकार एक बार फिर वही गलती दोहरा रही है। वह मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने के लिए, राज्य सरकारों के माध्यम से, उपभोक्ताओं के लिए अनाज देने के बजाए, व्यापारियों के लिए अनाज की निकासी कर रही है।

बेशक, यह दलील भी दी जा सकती है कि कर्नाटक सरकार की उक्त योजना तो सीधे-सीधे ग़रीबी रेखा से नीचे की आबादी के उपभोग को बढ़ाने का काम करेगी और उन्हें खुले बाज़ार से बाहर खींचने का काम नहीं करेगी। दूसरे शब्दों में इस योजना के लाभार्थी अतिरिक्त अनाज ही खपा रहे होंगे, जो अनाज इससे पहले वे ख़रीदने की स्थिति में ही नहीं होते। इस तरह, ऐसा नहीं होगा कि इस योजना के ज़रिए सरकार जो अतिरिक्त अनाज मुहैया कराने जा रही है, वह इसके बिना खुले बाज़ार से उन्होंने जो अनाज खरीदा होता, उसकी जगह ले ले। इसलिए, खुले बाज़ार में अतिरिक्त मांग में कोई कमी नहीं आएगी और इसलिए, मुद्रास्फीति की दर में कोई कमी नहीं होगी।

बहरहाल, यह दलील दो वजहों से गलत है। पहली तो यह कि इसके पीछे का पूर्वानुमान ही गलत है। इस योजना से कुल मिलाकर क़रीब 4.42 करोड़ लोगों को लाभ मिलना है। इसलिए, यह सोचना बहुत ही गैर-यथार्थवादी लगता है कि इनमें से सारे के सारे लोग, बस अपना उपभोग बढ़ा रहे होंगे और नयी सरकार द्वारा मुहैया कराए गए अतिरिक्त अनाज के मिलने के बाद, किसी न किसी हद तक खुले बाज़ार से अनाज की उनकी ख़रीद में कोई कमी होगी ही नहीं। इसलिए, कर्नाटक की योजना के लागू होने से खुले बाज़ार में खाद्यान्न की मांग के दबाव में कुछ न कुछ कमी ज़रूर होगी और इस तरह खाद्यान्न मुद्रास्फीति में कुछ न कुछ अंकुश ज़रूर लगेगा।

भाजपा की केंद्र सरकार का अक्षम्य अपराध

दूसरे, मुद्रास्फीति को लेकर चिंतित होने की तो मुख्य वजह ही यह होती है कि इससे मेहनतकश ग़रीबों पर चोट पड़ती है, क्योंकि उनका उपभोग घट जाता है। ऐसे में अगर ग़रीबों के उपभोग को सीधे-सीधे बढ़ाया जा रहा हो, तब तो इससे ख़ास फर्क ही नहीं पड़ता है कि मुद्रास्फीति घट जाती है या नहीं? जब ग्लोबल हंगर इंडेक्स पर भारत सौवें स्थान से भी नीचे चल रहा हो, ऐसे में खुले बाज़ार में खाद्यान्न में मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने की चिंता करना, गलत प्राथमिकताओं को ही दिखाता है।

इसलिए, हम चाहे किसी भी पहलू से देखें, भाजपा सरकार की उक्त कार्रवाई अक्षम्य लगती है। मुद्रास्फीति की चिंता का तो सिर्फ़ बहाना है और केंद्र सरकार शुद्घ राजनीतिक भेदभाव की कार्रवाई करते हुए, कर्नाटक को खाद्यान्न बेचने से इनकार कर रही है। यह अक्षम्य है क्योंकि यह तो ग़रीबों की कीमत पर राजनीति का खेल, खेलना है। दूसरी ओर, अगर केंद्र सरकार को वाकई इसकी फिक्र हो रही है कि वह अगर कर्नाटक सरकार को अनाज बेचती है, तो मुद्रास्फीति पर काबू नहीं कर पाएगी, तो यह मुद्रास्फीति को लेकर पूरी तरह से गलत समझ तथा उसके प्रति पूरी तरह से गलत रुख को ही दिखाता है और यह भी अक्षम्य है।

देश के खाद्य प्रशासन का इस तरह का केंद्रीयकरण, ऐसी विभाजनकारी प्रवृत्तियों के बढ़ने का ख़तरा पैदा करता है, जो देश की समूची खाद्य अर्थव्यवस्था को ही कमज़ोर कर देगी। मिसाल के तौर पर अगर, इस तरह का भेदभाव झेल रहे विपक्ष-शासित राज्य, भारतीय खाद्य निगम को पूरी तरह से किनारे ही करने का फ़ैसला कर लेते हैं, तब तो राष्ट्रीय स्तर पर संचालित पूरी की पूरी सार्वजनिक वितरण व्यवस्था ही अवहनीय हो जाएगी।

बेशक, भाजपा को तो शायद सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सीमित होने की कोई ख़ास परवाह नहीं होगी क्योंकि आम जनता की ज़रूरतों की न तो उसे ज़रा भी समझ है और न कोई चिंता ही है। आख़िरकार, भाजपा सरकार जो तीन कृषि क़ानून लाई थी, जिन्हें उसे किसानों के कड़े विरोध के सामने आख़िरकार वापस भी लेना पड़ा था, वे क़ानून सार्वजनिक वितरण व्यवस्था को सीमित करने का ही तो काम करने वाले थे। बहरहाल, उसकी इस करतूत से देश का भारी नुकसान होगा।

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