Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

लाल बहादुर वर्मा : एक स्वप्नदर्शी इतिहासकार

उनका (लाल बहादुर वर्मा का) मानना था कि सब से पहले इंसान को एक बेहतर वैज्ञानिक चेतना से संपन्न व्यक्ति होना होगा तथा समाज को बनाने की लड़ाई में सभी प्रगतिशील लोगों तथा विचारों को एकजुट होना पड़ेगा।
Lal Bahadur Verma

वर्ष 2021 के मई-जून माह मेरे जीवन के सबसे दुखद महीने थे। कोरोना महामारी ने मेरे अनेक‌ प्रियजनों और मित्रों को मुझसे हमेशा के लिए जुदा कर दिया, मेरे पापाजी, कामरेड मीनाक्षी, लेखक और कहानीकार रमेश उपाध्याय और उपन्यासकार मंजूर एहतेशाम, लेकिन उसमें सबसे अधिक महत्वपूर्ण नाम था - 'इतिहासकार, नाट्य रंगकर्मी' और 'एक्टिविस्ट प्रोफेसर लाल बहादुर वर्मा' का। 17 मई 2021 को वह मनहूस दिन था, जब एक मित्र ने फोन पर सूचित किया कि वर्मा जी अब नहीं रहे। कोरोना महामारी ने उन्हें भी लील लिया था। किसी फिल्म की तरह उनके साथ बिताए गए चार दशक मेरी आंखों के सामने घूमने लगे। मार्च माह (2021) में वे किसान आंदोलन में सहभागिता करने के लिए दिल्ली-गाजीपुर बार्डर पर आए थे।‌ दिल्ली में यह जगह मेरे घर से बहुत निकट थी, इसलिए उन्होंने मुझे फोन करके मिलने के लिए बुलाया। उस समय मेरा एक ऑपरेशन होने के कारण मैं घर पर स्वास्थ्य लाभ कर रहा था, इसलिए मैं जा न सका। मेरी अस्वस्थता की बात सुनकर वे ख़ुद मेरे घर आने को तैयार थे, लेकिन मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें आने से रोक दिया, क्योंकि वे खुद पूरी तरह स्वस्थ नहीं थे। कुछ ही माह पूर्व उनकी हृदय की बाईपास सर्जरी हुई थी, अंतिम बार न मिल पाने का मुझे हमेशा अफ़सोस रहेगा।

मैं 16 वर्ष की उम्र में इंटरमीडिएट‌ परीक्षा पास करने के बाद, जब गोरखपुर के रामदत्तपुर‌ मोहल्ले में उनके घर पर मिला‌ था, उस समय तक बौद्धधर्म के प्रति मेरे अंदर जबरदस्त आकर्षण था। बातचीत में उन्होंने बताया कि ईसाई, इस्लाम और बौद्धधर्म इन सभी आधुनिक धर्मों की अपने प्रारंभिक दौर में एक प्रगतिशील भूमिका थी। उन्होंने अपने समय के समाज की रूढ़ियों पर प्रहार किया, लेकिन आज के आधुनिक समाज में धर्मों की प्रगतिशील भूमिका समाप्त हो गई है तथा ये प्रतिक्रियावाद के गढ़ बन गए हैं। उनकी इस धारणा ने मेरे ऊपर गहरा असर डाला और मैं बौद्धभिक्षु बनने की जगह मार्क्सवाद की राजनीति की ओर आकृष्ट हुआ। राहुल सांकृत्यायन को पढ़ने के बाद उनकी इस धारणा की पुष्टि हुई। गोरखपुर जैसे सामंती मूल्य-मान्यताओं वाले समाज में अगर एक प्रोफेसर सड़क पर नुक्कड़ नाटक करे, पर्चे बांटे, छात्रों से हाथ मिलाए, तो यह इस समाज के लिए अजूबा ही होता है। मेरा‌ उनसे और 'संचेतना संस्था' से जुड़ने का यह भी एक बहुत बड़ा कारण था। वास्तव में उनको जनवाद की प्रेरणा फ्रांस‌ से मिली थी, जहां जाने-माने इतिहासकार और विचारक 'रेमो आरां' के निर्देशन में उन्होंने डीलिट की उपाधि प्राप्त की थी। फ्रांस में 1967 के उस दौर में जब वे वहां पर थे, तब वहां एक बड़ा छात्र आंदोलन हुआ था, जिसने वहां की सत्ता को हिला कर रख दिया था तथा प्रधानमंत्री 'द गाल' को इस्तीफा तक देना पड़ा था। इस आंदोलन के समर्थन में बड़े पैमाने पर फ्रांसीसी बुद्धिजीवी सड़कों पर आए, यहां तक कि महान विचारक 'सार्त्र' तक‌ ने इसके समर्थन में पेरिस की सड़कों पर खड़े होकर पर्चे बांटे थे। इसका उनके मन पर गहरा प्रभाव पड़ा था। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि फ्रांस के छात्र अपनी गर्मी की छुट्टियों में पैसा जुटाने के लिए सेब के बागानों में ‌चले जाते थे तथा किसानों के साथ काम करते थे। उन्होंने ख़ुद कई बार यह काम किया था। इन सबसे उनके मन पर शारीरिक श्रम के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण पैदा हुआ तथा उनका मार्क्सवाद की ओर आकर्षित होने का यह भी एक बड़ा कारण था। उन्होंने इस छात्र आंदोलन तथा फ्रांस में छात्रों के जनजीवन पर केंद्रित एक महत्वपूर्ण उपन्यास 'पेरिस 1967' भी लिखा था। तात्कालीन फ्रांस के छात्रों के उद्वेलन तथा उनके जनजीवन पर केंद्रित यह उपन्यास आज भी बहुत महत्वपूर्ण है। दुर्भाग्य से यह आज अनुपलब्ध है तथा इसे आज पुनः प्रकाशित करने की जरूरत है।

मुझे लगता है कि उनका सबसे महत्वपूर्ण अवदान यह था कि उन्होंने सांस्कृतिक कर्म के द्वारा लोगों को इतिहासबोध की चेतना से लैस करने और जनता के आंदोलन से जोड़ने का प्रयास किया। 'राष्ट्रीय जनवादी सांस्कृतिक मोर्चे' की गोरखपुर इकाई 'संचेतना' के माध्यम से उन्होंने सांस्कृतिक आंदोलनों में अनेक नए प्रयोग किए। उदाहरण के लिए:- हर माह किसी राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दे पर दो पेज का एक पर्चा 'आह्वान' नाम से संचेतना से निकलता था, जिनमें से अधिकांश उन्हीं के लिखे होते थे। हम‌ लोग 25 पैसे की न्यूनतम धनराशि लेकर इस पर्चे का वितरण करते थे। बहुत ज़रूरतमंदों को मुफ़्त भी दे देते थे। दो-तीन वर्षों में ऐसे सैकड़ों पर्चे निकले, जिसका न केवल गोरखपुर में बल्कि समूचे उत्तर प्रदेश में यहां तक कि नेपाल तक में गहरा असर पड़ा। बहुत से लोग इसके माध्यम से संचेतना से जुड़े तथा बाद में वामपंथी आंदोलन से भी। दुर्भाग्यवश अधिकांश पर्चे अब‌ नहीं मिलते हैं। इन्हें एकत्र करके पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की आज बहुत ज़रूरत है। उन्होंने हर वर्ष '22जनवरी' को 'चौरीचौरा दिवस' मनाने की शुरुआत की थी।‌ इसी दिन आज से करीब सौ वर्ष पहले गोरखपुर के निकट चौरीचौरा में असहयोग आंदोलन कर रहे किसानों पर अकारण गोली चलाने पर आक्रोशित किसानों ने चौरीचौरा थाना फूंक\ दिया था, जिसमें अनेक पुलिसवाले जलकर मर गए थे। इस अवसर पर उन्होंने एक महत्वपूर्ण पर्चा भी लिखा था, जिसमें उन्होंने 'शाहिद अमीन' और 'सुभाष चंद्र कुशवाहा' के चौरीचौरा पर पुस्तक लिखने से बहुत पहले ही इसे बड़ा जन आंदोलन बताया था तथा इसकी तुलना '1779 की फ्रांसीसी क्रांति' की उस घटना से की थी, जिसमें जनता ने 'पेरिस' के निकट 'वास्तील' के किले को ध्वस्त करके उसमें क़ैद बहुत से क्रांतिकारियों को छुड़ा लिया था। इस घटना के बाद ही फ्रांस में क्रांति की शुरुआत हुई थी। इसके अलावा उन्होंने '1857 के महान विद्रोह' को भी 'क्रांति दिवस' के रूप में मनाने की शुरुआत की थी, लेकिन मुझे इसमें सबसे महत्वपूर्ण लगता है कि 'एंगेल्स' के 'जन्मदिवस' को 'मित्रता दिवस' के रूप में मनाना। मार्क्स और एंगेल्स की वैचारिक मित्रता इतिहास में बहुत प्रसिद्ध है, इन दोनों ने मिलकर बहुत सा लेखन किया और आंदोलनों में भाग लिया, वास्तव में दोनों लोग एक-दूसरे के पूरक थे। इस आयोजन को मनाने का वर्मा जी का उद्देश्य यह बताता है कि मित्रता का आधार वैचारिक ही होना चाहिए। उनकी प्रेरणा से देश के अनेक भागों में इस दिवस को मनाने की शुरुआत हुई है।

इस वर्ष दिल्ली में बड़े पैमाने पर इसका आयोजन हुआ था। वे इतिहास के शिक्षक थे, इतिहास को देखने का उनका दृष्टिकोण किताबी न होकर पूर्णतः वैज्ञानिक था। वे मानते थे कि इतिहास भूत, वर्तमान और भविष्य के बीच निरंतर चलने वाला एक संवाद है। वे इतिहासजीविता के विरोधी थे, जैसा कि आज हो रहा है। वे इतिहास को एक जीवित वस्तु के रूप में देखते थे तथा उसे सामाजिक परिवर्तन का उपकरण बनाना चाहते थे, इसके लिए उन्होंने 'इतिहासबोध' नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। ‌सौभाग्य से मैं प्रारंभ से ही इस पत्रिका जुड़ा था।

यह पत्रिका सामान्य इतिहास की पत्रिकाओं की तरह आंकड़ों के न तो जंगल थीं, न राजा-रानी की कहानियां थीं, इसमें उन्होंने इतिहास को वर्तमान की समस्याओं और उनमें निहित जन आंदोलनों से जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने बहुत से दस्तावेजी अंक निकाले, जिसमें फ्रांसीसी क्रांति के '200 वें वर्षगांठ' पर 'पूंजीवाद की पुनर्स्थापना और समाजवाद की समस्याएं', 'साहित्य और संस्कृति का इतिहास' जैसे ढेरों विशेषांक तथा सामान्य अंक‌ भी‌ प्रकाशित हुए। इतिहास को विचारधारात्मक हथियार के रूप में देखने की जगह वे भविष्य के निर्माण के लिए इतिहास से सबक लेना सिखाते हैं, इसके लिए उन्हें लगता था कि इतिहास को जनता की निगाह से देखा जाए। बाद के दौर में उन्होंने एक महत्वपूर्ण किताब 'भारत का‌ जन‌ इतिहास' लिखा। इस पुस्तक में उन्होंने भारतीय इतिहास को कथित मुख्य भूमि के इतिहास से आगे जाकर व्याख्यायित किया। इस महत्वपूर्ण पुस्तक को उन्होंने 'हावर्ड जिन' द्वारा लिखित 'पीपल्स हिस्ट्री ऑफ द अमेरिका' की तरह लिखने का प्रयास किया है। मैंने उन्हें इस किताब के बारे में बताया था कि उनको इस पुस्तक को और विस्तार से लिखना चाहिए। उन्होंने वादा भी किया था, लेकिन उनके निधन से उनका यह महत्वपूर्ण काम अधूरा ही रह गया। इससे पहले उन्होंने इतिहास पर एक अन्य पुस्तक 'इतिहास के बारे में' लिखी थी। उनकी यह पुस्तक भी बहुत महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने जन इतिहास के बारे में अनेक महत्वपूर्ण बातें बताई। वास्तव में इतिहासबोध केवल इतिहास की पत्रिका नहीं थी। सामाजिक-राजनैतिक मुद्दों के अलावा कला, साहित्य और संस्कृति को भी इसमें पूरा स्थान मिलता था। यह पत्रिका लगातार निकलती तथा बंद होती रही। बाद में जब पत्रिका को निकालना मुश्किल हो गया, तब उन्होंने अलग-अलग विषयों पर केंद्रित इतिहासबोध पुस्तिकाएं निकालीं। 'क्या आप खुश हैं', 'खुद को गंभीरता से लीजिए' जैसी बातें उनके विमर्श में शामिल थीं।

मनुष्य की निजी अस्मिता और उसके जीवन की गुणवत्ता उनकी चिंताओं से कभी दूर नहीं हुई। पुनर्जागरण के बाद का यूरोप हमेशा उनके सपनों में रहा, जहां मनुष्य की अस्मिता का सम्मान निश्चित हुआ था, इसलिए उस काल के साहित्य का उन्होंने बड़े पैमाने पर फ्रेंच और अंग्रेजी दोनों भाषाओं से हिंदी में अनुवाद भी किया। विशेष रूप से महान अमेरिकी उपन्यासकार 'हावर्ड फास्ट' के ऐतिहासिक गल्प 'बासंती सुबह'(अप्रैल मार्निंग), 'तीन क्रांतियों का प्रवक्ता'(सिटिजन टामपैन), 'अपराजित' (अनवैंक्विस्ड) तथा 'अमेरिकन' का अनुवाद,'जैक लंडन' के प्रसिद्ध उपन्यास 'आयरन‌ हील' का अनुवाद। इसके अलावा उन्होंने इतिहास के अनेक और दुर्लभ ग्रंथों का भी हिंदी में अनुवाद किया। इसमें 'आर्थर थमारविक' की नेचर ऑफ हिस्ट्री' और 'क्रिस हरमन की पीपल्स हिस्ट्री ऑफ द वर्ल्ड' का अनुवाद शामिल है।

बीसवीं सदी के सर्वाधिक मान्य और लोकप्रिय इतिहासकार 'एरिक हॉब्सवॉम' की इतिहास श्रृंखला की पुस्तक 'द एज ऑफ रिवोल्यूशंस' का अनुवाद। एक बार उन्होंने मुझे बताया था कि उनकी योजना दुनिया के करीब सौ चर्चित इतिहास की पुस्तकों का अनुवाद हिंदी में करने की है। उन्होंने उस पर काम भी शुरू कर दिया था, परंतु दुर्भाग्यवश उनकी यह योजना अधूरी ही रह गई। उनके केवल ये अनुवाद ही उनकी स्मृतियों को अक्षुण्ण रखने के लिए पर्याप्त हैं। 70-80 के दशक में उन्होंने एक साहित्यिक पत्रिका 'भंगिमा' भी निकाली थी। इस पत्रिका को भी देशव्यापी ख़्याति मिली थी तथा आज के हिंदी के बड़े लेखक-कवियों को प्रारंभिक दौर में उन्होंने प्रकाशित किया था। आज इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी लोग इस पत्रिका के पुराने अंकों की मांग करते रहते हैं।

1985 में जब उनके 'मणिपुर विश्वविद्यालय' में 'प्रोफेसर' बनकर जाने की बात हुई, तो बहुत लोगों ने उन्हें रोका क्योंकि दूसरे प्रदेश में यह पद लेने के कारण उनकी वरिष्ठता कम होती, जैसा कि बाद में हुआ भी तथा जीवन भर उनके पेंशन का मामला अटका रहा, परंतु इन सबकी परवाह न करते हुए भी वे मणिपुर गए क्योंकि नये लोगों से मिलने और नया समाज देखने की उनकी हमेशा आकांक्षा रहती थी। उन्होंने अपनी आत्मकथा में मणिपुर को अपना दूसरा जन्म बताया। उन्होंने लिखा कि हमारे इतिहास में उत्तर-पूर्व की जनजातियों का इतिहास कभी नहीं लिखा गया। हम जितना यूरोप-अमेरिका को जानते हैं, उससे बहुत कम अपने देश के लोगों को। उन्होंने उत्तर-पूर्व की जनजाति और समाज पर केंद्रित उपन्यास 'उत्तर-पूर्व' भी लिखा था, जो संभवतः हिंदी में इस विषय पर पहला उपन्यास है। आज के मणिपुर के हालात को समझने के लिए यह उपन्यास आज और भी प्रासंगिक हो गया है, लेकिन दुर्भाग्यवश यह भी इस समय अनुपलब्ध है। दो भागों में उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी है। यह आत्मकथा केवल उनके जीवन की कहानी ही नहीं है, इसमें जहां वर्मा जी अपने जीवन की कहानी कहते हैं, वहीं आज़ादी के बाद पनपे मध्यवर्ग की इच्छाओं, आकांक्षाओं, महत्वाकांक्षाओं, संघर्षों तथा उनके टुच्चेपन के साथ ही यह कहानी भारत के समूचे कालखंड को भी उद्घाटित करती है। निजी जीवन के प्रसंग, बौद्धिक विकास, आंदोलनों के दिन, रचनात्मकता, साहित्य-विचार-मार्क्सवाद के द्वंद्व इस आत्मकथा को एक वृहत्तर आयाम देते हैं। हिंदी क्षेत्र के बौद्धिक और वैचारिक जीवन की झलकें वैयक्तिक विकास के प्रश्नों से गुंथकर इसे एक बहुत महत्वपूर्ण पुस्तक बना देती हैं। मेरा सौभाग्य है कि उन्होंने अपनी आत्मकथा के पहले भाग से कुछ चैप्टर मुझे फोन पर सुनाए थे। अनेक बातें उन्हें विस्मृत हो गई थीं, मेरे बताने पर बाद में उन्होंने जोड़ा। मैंने पहले भाग की एक विस्तृत समीक्षा लिखी थी, जो अनेक वेबसाइट्स पर प्रकाशित भी हुई थी। उन्होंने आत्मकथा के दूसरे भाग में इस पर कृतज्ञता भी प्रकट की। दूसरा भाग काफी महत्वपूर्ण है, इसमें उन्होंने विभिन्न वामपंथी ग्रुपों से अपने संबंधों, बहसों और मतभेदों को बहुत स्पष्टता से दर्ज़ किया है। मैंने इसकी भी एक विस्तृत समीक्षा लिखी थी, लेकिन दुर्भाग्यवश वे उसे पढ़ न सके। गोरखपुर से लेकर पेरिस, मणिपुर, इलाहाबाद, दिल्ली और देहरादून तक की उनकी यात्रा; एक बेहतर इंसान, जो अपने को बदलते हुए दुनिया को बदलने की चाहत रखता हो, उसकी यात्रा है। 'जर्मन नाटककार ब्रेख्त' उनका प्रिय नाटककार था। उसका एक प्रसिद्ध नाटक 'गैलीलियो' है, जो उन्हें बहुत पसंद था, इसका मंचन उन्होंने कई बार किया था।

इस नाटक का मुख्य पात्र गैलीलियो वैज्ञानिक था, जिसने पहली बार यह बताया था कि धरती सूरज के चारों ओर चक्कर लगाती है न कि सूरज। उसकी इस खोज ने तात्कालीन यूरोप की धर्मसत्ता और राजसत्ता दोनों को हिलाकर रख दिया था, क्योंकि उसकी यह बात चर्च की अवधारणाओं के ख़िलाफ़ थी। उसे चर्च के सामने पेश होना पड़ा, जहां उसे कहा गया कि वह अपनी प्रतिस्थापना को वापस ले ले, क्योंकि यह धर्मविरोधी है, यद्यपि कुछ समय के लिए दबाव में उसने अपने कदम पीछे खींचे, लेकिन वह अपनी प्रतिस्थापनाओं पर हमेशा दृढ़ बना रहा। 1984 में; जब 'भोपाल गैस कांड' हुआ, जिसमें हजारों लोग गैस रिसाव से मारे गए थे, तब उन्होंने इस पर आधारित एक नाटक 'ज़िंदगी ने एक दिन कहा' लिखा था। यह नाटक गोरखपुर, दिल्ली और इलाहाबाद में मंचित किया गया था। यह नाटक एक सच्ची घटना पर आधारित है, जिसमें एक फिल्मकार और उसकी पत्नी एक पिक्चर की शूटिंग करने के लिए उस समय भोपाल में थे, जब यह घटना घटित हुई। उस फिल्मकार के मन में यह द्वंद्व उठता है कि वह फिल्म की शूटिंग करे या पीड़ितों की मदद। वास्तव में उसका यह द्वंद्व कला के सामाजिक सरोकारों की भूमिका पर भी हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। बाद में नाटक के अंत में फिल्मकार अपने द्वंद्व से मुक्त होकर अपनी फिल्म का सारा पैसा पीड़ितों की सहायता में लगा देता है और खुद भी दोनों पति-पत्नी उन पीड़ितों की सहायता करने लगते हैं।‌

मैं अकसर सोचता हूंं कि इन दोनों नाटकों 'गैलीलियो' और 'ज़िंदगी ने एक दिन कहा' के नायकों का द्वंद्व वास्तव में एक मध्यमवर्गीय व्यक्ति का, या कहें लाल बहादुर वर्मा जी का ख़ुद का भी था; एक ओर उच्च मध्यवर्गीय जीवन और दूसरी ओर एक बेहतर दुनिया बनाने का स्वप्न, लेकिन उन्होंने दोनों नाटकों के नायकों की तरह इसका दूसरा पहलू भी चुना। "विचारधारा उनके लिए कंधे पर लादकर चलने वाली नाव नहीं थी, बल्कि नदी पार करने का एक साधन था।" बुद्ध का यह कथन उनके जीवन के लिए लगातार प्रेरणा सूत्र बना रहा, यही कारण है कि उनकी विचारधारा हमेशा विकासमान रही। एक बार मैंने अचानक उन्हें पूछा,"आप मार्क्सवादी क्यों हैं? उन्होंने मुझसे कहा, "आज मुझे इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए मार्क्सवाद सबसे सही राह लगती है, कल अगर इससे बेहतर कोई राह दिखेगी, तो उस पर चल पडूंगा।" अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं, "सोवियत यूनियन के विघटन के बाद जब टीवी पर लेनिन की मूर्ति खंड-खंड होकर धूल खाती दिखी थी, तो मन में अचानक आया था, मूर्तियां बनेंगी तो टूटेंगी भी। मूर्तिपूजा एक शॉर्टकट है और एक बेहद लोकप्रिय शॉर्टकट, क्योंकि वह हमें भक्त बनाकर अपनी जिम्मेदारियों और अपने विकास के दायित्व से मुक्त कर देता है। तब से ही मैंने अनुयायी होने को विचलन और भटकाव कहना शुरू कर दिया है। अनुयायी ही मठ बनाते हैं और अपने प्रिय कवि मुक्तिबोध के शब्दों में कहता ही रहा हूं, "तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।" इसलिए अपने जीवन की एक उपलब्धि पर गर्व करने का जोखिम उठा लिया है, इस नाम के साथ।"

"हालांकि मैंने बार-बार लिखना शुरू कर दिया है कि मैं कोई वादी नहीं रहा, बस संवादी हूं, पर मेरे कुछ मित्र मेरे लेखन का मूल्याकंन करते हुए मुझे याद दिलाते हैं कि सारत: तो मैं अभी भी 'मार्क्सवादी' हूं। मन से मैं यह नहीं मानता, क्योंकि मार्क्स की कई मूल स्थापनाओं पर मेरे मन में सवाल उठ गए हैं, पर खुलकर नहीं कहता, क्योंकि आज की राजनीति में मार्क्सवादी ही औरों से बेहतर दिखते हैं।"

ये दो लंबे उदाहरण मैंने इसलिए दिए हैं, क्योंकि ये उनकी बदलती विचारधारा और सोच को दर्शाते हैं। बाद के दौर में लिखी उनकी तीन पुस्तकों "क्रांतियां तो होंगी ही", "अधूरी क्रांतियों का इतिहासबोध" और "गांधीगिरी बनाम दादागिरी और ग़ुलामगिरी" को पढ़ने से उनके विचारों में निरंतर बदलाव दिखाई पड़ता है। उन्होंने दुनिया भर में हुई क्रांतियों का सार संकलित कर इसमें दर्शाया है तथा आगे के चिंतन के लिए कुछ सूत्र भी सुझाए हैं। उनके चिंतन का केंद्र मनुष्य और उसमें निहित जनवादी चेतना थी, इसलिए वे कम्युनिस्ट समाजों में अभिव्यक्ति की आज़ादी के दमन को लेकर भी काफी चिंतित थे। वे इन समाजों के पतन का कारण इसको भी मानते थे। वे कहा करते थे कि "पूंजीवादी जनतंत्र ने हमें जो आज़ादी दी है, हमें उससे आगे बढ़ने की जरूरत है।"

अनेक मुद्दों पर असहमति के बावजूद इस मुद्दे पर मेरी उनसे पूर्ण सहमति थी। वे विचारधारा को समृद्ध करने के लिए गांधी, अम्बेडकर और बुद्ध की करुणा को जोड़ने के पक्षधर थे। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं कि इन्हीं कारणों से लोग उन्हें विचारधारा से विचलित होना बताते हैं, लेकिन उनका मानना था कि मानवता की बेहतरी के लिए जो भी विचार अच्छे हों, उन्हें अपनाना चाहिए। इसके लिए वे सांस्कृतिक कर्म को एक महत्वपूर्ण औज़ार मानते थे, यही कारण है कि उन्होंने सभी सांस्कृतिक संगठनों को एकजुट करके 'साझा सांस्कृतिक अभियान' जैसा एक आंदोलन विकसित करने का प्रयास भी किया था। इसमें उन्हें कुछ हद तक सफलता भी मिली थी। एक 'जर्मन यहूदी कवि पास्टर निमोलर': जो फ़ासिस्टों द्वारा उत्पीड़ित थे, उसकी एक कविता ; जिसका अनुवाद ख़ुद वर्मा जी ने हिन्दी में किया था, वे उसे अकसर सुनाते थे-

"पहले वे यहूदियों के लिए आए,

मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।

फिर वे ट्रेड यूनियनों के लिए आए,

मैं कुछ नहीं बोला, क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।

फिर वे कम्युनिस्टों के लिए आए,

फिर भी मैं कुछ नहीं बोला क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।

फिर वे मेरे लिए आए,

कोई नहीं बचा था,जो मेरे लिए बोलता।"

वास्तव में इस कविता के पीछे वर्मा जी का समूचा जीवन दर्शन छिपा था। उनका मानना था कि एक बेहतर वैज्ञानिक चेतना से संपन्न व्यक्ति तथा समाज को बनाने की लड़ाई में सभी प्रगतिशील लोगों तथा विचारों को एकजुट होना पड़ेगा। अगर हम इस दिशा की ओर थोड़ा भी क़दम बढ़ाते हैं, तो यह लाल बहादुर वर्मा जी के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest