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मनरेगा: क़रीब 1.5 करोड़ काम मांगने वालों को अब तक काम देने से किया गया इनकार

हर साल फंड की कमी के कारण लगभग 14-17 प्रतिशत काम मांगने वालों को काम देने से इनकार कर दिया जाता है।
 MGNREGA
फ़ोटो साभार: पीटीआई

ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना उस वक़्त लाखों भारतीयों के लिए एक जीवन रक्षक योजना के रूप में उभरी है जब आम मज़दूर निरंतर और गंभीर बेरोज़गारी से जूझते रहे हैं। लेकिन आधिकारिक आंकड़ों की जांच करने से पता चलता है कि काम मांगने वालों की बहुत बड़ी संख्या को काम देने से इनकार किया जा रहा है और उन्हें काम नहीं दिया जा रहा है। चालू वित्त वर्ष (अप्रैल से अक्टूबर 2022) के पहले छह महीनों के भीतर, काम के लिए लगभग 1.5 करोड़ आवेदकों ने काम मांगने के लिए आवेदन किया था, लेकिन उन्हें काम देने से मना कर दिया या था।

इस योजना के लिए ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा बनाई गई आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध प्रगति रिपोर्ट के चार्ट में दिखाया गया है कि यह स्थिति पिछले कई वर्षों से जारी है।

यहां तक कि 2020-21 और 2021-22 में जो महामारी के वर्ष हैं, इस दौरान, जब योजना के तहत काम शुरू हुआ था, तो काम न मिलने का मामला जारी रहा और उनकी संख्या काफ़ी बढ़ गई थी। 2020-21 में यानी पहले पूर्ण लॉकडाउन और फिर सामान्य गतिविधियों पर जारी प्रतिबंधों के कारण, आमतौर पर लोग किसी भी तरह के रोज़गार की तलाश में थे और 13.3 करोड़ से अधिक लोगों ने मनरेगा के तहत सरकार से काम की मांग की थी। जबकि वास्तव में उपरोक्त दर्ज आवेदकों में से कुल 11.2 करोड़ लोगों को ही काम मिला था। यानी क़रीब 2.1 करोड़ लोगों को काम देने से इनकार कर दिया गया था। 2021-22 के दूसरे महामारी के वर्ष को लें, तो पाएंगे कि 12.4 करोड़ लोगों ने काम के लिए आवेदन किया था, लेकिन फिर से, केवल 10.6 करोड़ लोगों को काम मिला यानी लगभग 1.73 करोड़ लोगों को काम से मना कर दिया गया।

यह अंतर महामारी से पहले भी मौजूद था लेकिन यह इतना अधिक नहीं था। उदाहरण के लिए,  2019-20 में, 9.3 करोड़ लोगों ने काम के लिए आवेदन किया था, जिसमें से 7.9 करोड़ लोगों को काम मिला और लगभग 1.5 करोड़ बिना काम के रह गए थे। 2018-19 में, काम से इनकार किए गए लोगों की संख्या लगभग 1.3 करोड़ थी।

चालू वित्त वर्ष में, 21 अक्टूबर तक काम से इनकार करने वाले कुल आवेदकों में से लगता है लगभग 18 प्रतिशत को काम देने से इनकार किया गया है।

ये आधिकारिक संख्या है जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है वह यह कि, ये संख्या योजना के तहत काम देने से इनकार या निराशा की सही सीमा को नहीं दर्शाती हैं। कई लोगों को अनौपचारिक रूप से कह दिया जाता है कि काम के लिए आवेदन करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि किसी ख़ास समय पर कोई काम उपलब्ध नहीं होता है। इसलिए, जब काम की ज़रूरत या मांग (जैसा कि इसे कहा जाता है) मौजूद है, इस हिस्से को मनरेगा के रिकॉर्ड में कहीं भी दर्ज भी नहीं किया जाता है।

यह मनाही क्यों?

इसकी जांच करने से पहले कि यह इनकार क्यों होता है, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह लोकप्रिय तर्क है कि योजना मांग संचालित है, यह डेटा द्वारा इस मान्यता को रद्द कर देता है। यह तर्क दिया जाता है कि योजना के लिए फंड आवंटन पर कड़ा दबाव बनाना ज़रूरी है। जिससे वास्तविक मांग बिल्कुल भी परिलक्षित नहीं होती है क्योंकि लोग या तो काम के लिए आवेदन करने से हतोत्साहित हो जाते हैं या आवेदन करने के बाद वापस लौट जाते हैं। इसलिए, यह तर्क देना कि मनरेगा में काम, काम की वास्तविक तस्वीर को दर्शाता है, बात सही नहीं है, मांग इससे कहीं अधिक है।

आवेदकों को काम नहीं देने का असली कारण यह है कि आवंटित धन अपर्याप्त है और धन को जारी करने की गति काफ़ी धीमी है। साथ ही, पिछले कुछ वर्षों में, किसी एक वर्ष की देय राशि को अगले वर्ष तक खींचने की प्रणाली को संस्थागत रूप दे दिया गया है ताकि हर समय कम धन का इस्तेमाल करने का दबाव बना रहे। अधिकतर, वर्ष की शुरुआत सीमित आवंटन के साथ होती है और फिर कहीं न कहीं अतिरिक्त धनराशि दी जाती है, आमतौर पर यह राशि राज्य सरकारों, राजनीतिक दलों और मांग करने वाले समूहों द्वारा शोर-शराबे के बाद जारी की जाती है।

22 अक्टूबर के आंकड़ों के आधार पर नीचे दिए गए चार्ट में दिखाए गए चालू वर्ष की स्थिति पर एक नज़र डालें। वित्तीय वर्ष की शुरुआत में, योजना के लिए 59,795 करोड़ रुपये उपलब्ध  थे। यह केंद्र और राज्य के अनुदान थे और जो कुछ भी पिछले वर्ष से देर से लिया गया या जारी किया गया था। 22 अक्टूबर तक कुल वास्तविक ख़र्च 57,801 करोड़ रुपये था, जबकि वेतन सहित विभिन्न मदों के तहत 6,247 करोड़ रुपये बकाया रह गया था। यह लगभग 4,254 करोड़ रुपये लंबित या घाटा छोड़ देता है।

यह तब है जब आधा साल बीत चुका है। साल के अंत तक घाटा और लंबित वेतन के अधिक बढ़ जाने की संभावना है। न केवल जारी और उपलब्ध सारा पैसा पहले ही ख़र्च किया जा चुका है, बल्कि कई राज्य घाटे में चल रहे हैं। प्रत्येक राज्य के खाते को जोड़ने से चीजें समान नज़र आती हैं, लेकिन कुछ राज्यों में पहले से ही भारी घाटा है- जैसे तमिलनाडु (-1.79 लाख करोड़ रुपये का घाटा), पश्चिम बंगाल (-1.3 लाख करोड़ रुपये का घाटा), राजस्थान (-31,223 करोड़ रुपये का घाटा), महाराष्ट्र (- 35,663 करोड़ रुपये का घाटा), मध्य प्रदेश (-1.22 लाख करोड़ रुपये का घाटा) और कर्नाटक आदि में (-65,573 करोड़ रुपये) का घाटा है।

इस प्रकार फंड कम हो जाता है और मनरेगा योजना के दरवाज़े पर दस्तक देने वाले कई लोगों को काम देने से इनकार कर दिया जाता है।

इस विकट स्थिति से बाहर निकलने का एकमात्र तरीक़ा है कि केंद्र सरकार आवंटन को बढ़ाए और समय पर राशि जारी करे ताकि सभी आवेदकों को काम मिल सके।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

MGNREGA: Nearly 1.5 crore Job Seekers Refused Work Till Now

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