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न्यूनतम मज़दूरी: छोटे व्यवसायों की व्यवहार्यता पर एक नकली बहस 

न्यूनतम मज़दूरी की दरों में बढ़ोत्तरी वास्तव में दिहाड़ी मज़दूरों और छोटे व्यवसायों के बीच में पारस्परिक लाभकारी गठबंधन के तौर पर एक आधार का काम कर सकती है।
न्यूनतम मज़दूरी
चित्र मात्र प्रतिनिधित्व हेतु। तस्वीर सौजन्य: फ्लिकर 

पूँजीवाद के “रुढ़िवादी” समर्थक एक बार फिर से न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि के विरोध में आवाज उठा रहे हैं। अतीत में भी उन्होंने इसके खिलाफ संघर्ष किया था जब उन्होंने उचित मजदूरी मानक अधिनियम (1938) को रोकने की कोशिश की थी, जिसने पहली बार अमेरिकी न्यूनतम मजदूरी की दर को अनिवार्य बनाया था। इसके विरोधियों द्वारा जिन तर्कों में प्रमुखतया से पेश किया गया था, वह है: न्यूनतम मजदूरी को निर्धारित करने या बढ़ाने से छोटे नियोक्ताओं के लिए अस्तित्व का संकट उठ खड़ा हो सकता है। वे तबाह हो सकते हैं या फिर कर्मचारियों को बर्खास्त कर सकते हैं; किसी भी सूरत में नौकरियों के खोने का खतरा बना हुआ है।

बेहद सरल तरीके से इसमें मान कर चला जाता है कि न्यूनतम मजदूरी और लघु व्यवसायों के बीच में आवश्यक अंतर्विरोध मौजूद है। यह धारणा विरोधियों को यह दावा करने में सक्षम बनाती है कि क़ानूनी तौर पर न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण न करने से, जैसे कि इसमें बढ़ोत्तरी न करने से नौकरियों को बचाया जा सकता है। इस प्रकार व्यवस्था, विकल्प के तौर पर बेहद मामूली मजदूरी प्राप्त करने वाले श्रमिकों के सामने कम मजदूरी या कोई भी मजदूरी नहीं का विकल्प प्रस्तुत करती है।

संयुक्त राज्य अमेरिका में “उदारवादियों” में से ज्यादातर ने इस धारणा को स्वीकार कर लिया है कि अंतर्विरोध के चलते वह अंतिम विकल्प ही आवश्यक है। हालाँकि वे यह प्रदर्शित करने की कोशिश में लगे रहते हैं कि उच्चतर न्यूनतम मजदूरी से प्राप्त होने वाले सामाजिक लाभ, घटी हुई रोजगार की दर से होने वाले सामाजिक नुकसानों को पार कर सकते हैं। प्रभावी तौर पर उनके विचार में न्यूनतम मजदूरी की उच्चतर दरों के जरिये वस्तुओं एवं सेवाओं की मांग में वृद्धि होती है। न्यूनतम मजदूरी के कारण यदि किसी मजदूर को निकाल दिया जाता है तो बढ़ती मांग में को पूरा करने के लिए उसे कहीं और काम मिल सकता है। रुढ़िवादियों और उदारवादियों की इस प्रकार की असंख्य अनुभवजन्य अध्ययनों में आमतौर पर विरोधाभासी निष्कर्ष देखने को मिल सकते हैं।

अमेरिकी पूंजीवाद के वास्तविक इतिहास में बुनियादी रूप से न्यूनतम मजदूरी अपने शुरूआती काल से ही कम रही है। वास्तविक अर्थों में (न्यूनतम मजदूरी से असल में क्या खरीदा जा सकता है), इसमें लंबे समय से चली आ रही घटोत्तरी, इसके 1968 में शीर्ष के बाद से चली आ रही है। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में हर साल होने वाली वृद्धि के बावजूद अंतिम बार इसमें 2009 में (जब इसे 7.25 डॉलर प्रति घंटे किया गया था) बढ़ोत्तरी की गई थी। अमेरिकी व्यवसायिक हितों के साथ-साथ “रुढ़िवादी” राजनेताओं, मीडिया और शिक्षाविदों ने इसे जो समर्थन दिया है, उसने आम जन के बीच में इस विचार को भर दिया है कि यदि न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि की जाती है तो यह दोयम मजदूरी हासिल करने वाले श्रमिकों (अधिकतर छोटे व्यवसायों से जुडी नौकरियों को खोकर) को मदद पहुंचाने के बजाय उन्हें नुकसान पहुंचाने वाला साबित होगा। न्यूनतम मजदूरी पर चलने वाली यह बहस तब तेज होने लगती है जब कभी आम लोगों का ध्यान में यह मुद्दा आकार ग्रहण करने लगता है, जिसे मुख्यतया रुढ़िवादी/व्यवसायी पक्ष द्वारा “जीता” गया है।

अभी तक रुढ़िवादियों और बड़े व्यापारिक समूहों की राजनीतिक प्रभावशीलता के बावजूद, उनके तर्क - और पूरी बहस ही तार्किकता की कसौटी पर त्रुटिपूर्ण रहे हैं। इसकी अन्तर्निहित सोच, साझी समझ निरर्थक और बेतुकी रही है। मुख्य रूप से यह संयुक्त राज्य अमेरिका में न्यूनतम मजदूरी के स्तर, उद्येश्य और सामाजिक प्रभावों को कमतर करने के उद्येश्य से की जाती रही है।

न्यूनतम मजदूरी की दरों में वृद्धि कर श्रमिकों को जीने के लिए एक अच्छी मजदूरी का भुगतान करने से छोटे व्यवसायों को कोई खतरे जैसी बात नहीं है। जब न्यूनतम मजदूरी की दर में बढ़ोत्तरी की जाती है तो उत्तरार्ध को धंधा बंद करने या श्रमिकों को निकाल बाहर करने की जरूरत नहीं पड़ती है। वास्तव में न्यूनतम मजदूरी को बढ़ाने के लिए दिहाड़ी मजदूरों और छोटे व्यवसायों के बीच में पारस्परिक लाभाकारी गठबंधन के लिए एक आधार निर्मित होना आवश्यक है। 

कुछ ने इस धारणा से लड़ने तक का साहस किया कि वर्तमान में अमेरिका में प्रति घंटे 7.25 डॉलर की दर न्यूनतम संघीय मजदूरी की दर शालीनता के खिलाफ एक आक्रोश है। यह औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं के बीच में दी जाने वाली सबसे कम मजदूरी में से एक है: जो कि “विश्व के सबसे अमीर देशों” के बीच में एक प्रकार से कुख्यात उपलब्धि हुई।

इसलिए इस प्रकार के आक्रोश की रक्षा हमेशा कहीं और पर ध्यान केन्द्रित करके की जाती रही है। हमसे कहा जाता है कि छोटे व्यवसायों से हमदर्दी रखनी चाहिए जिनके मुनाफे और उनके इस प्रकार बने रहने की व्यवहार्यता ही खत्म हो जाती है, यदि उन्हें बढ़ी हुई न्यूनतम मजदूरी की दरों का भुगतान करने के लिए विवश होना पड़ता है। इसी प्रकार हमें न्यूनतम दिहाड़ी मजदूरों से भी सहानुभूति रखने की गुज़ारिश की जाती है, जो ऐसे में बेरोजगार हो सकते हैं जब उनके नियोक्ता उन्हें बढ़ी हुई दरों पर न्यूनतम मजदूरी दे पाने में असमर्थ हो जायेंगे। इस प्रकार से न्यूनतम मजदूरी को बढाये जाने के विरोधियों को जो निष्कर्ष प्रिय हैं, वह यह है कि: कम मजदूरी पाने वाले श्रमिकों और छोटे व्यवसायों का हित इस बात में छुपा है कि वे न्यूनतम मजदूरी को बढाये जाने के विरोध में खुद को शामिल कर लें।

इस प्रकार के तर्कों में इतनी अधिक खामियां हैं कि यह तय कर पाना बेहद कठिन हो जाता है कि कहाँ से इसे ध्वस्त करने की शुरुआत की जाए। हमें इस बात को भी अवश्य नोट करना चाहिए कि इसके निष्कर्षों में साफ़-साफ़ छिपा हुआ है कि यदि हम न्यूनतम मजदूरी को 7.25 डॉलर प्रति घंटे से भी कम कर दें, तो बेरोजगारी की दर में और भी कमी लाने को संभव बनाया जा सकता है। लेकिन यह अपने आप में इतना बकवास आइडिया है कि दक्षिणपंथी शायद ही कभी इस हद तक जाने का प्रयास कर पाते हैं। उनकी हिम्मत जवाब देने लगती है।

दिहाड़ी मजदूरों के इतिहास से हम एक समानांतर उदाहरण को पेश कर सकते हैं जब उन्होंने पांच साल की उम्र तक के बच्चों तक को इसमें शामिल कर रखा था। तब इसके समानांतर यह तर्क रखा जाता था कि बाल श्रम की प्रथा को जारी रखने से (इससे उत्पन्न होने वाले शोषण और दुर्व्यहार के साथ) गरीब परिवारों के उपर एक तरह से अहसान किया जा रहा था। जब बाल श्रम को गैर-क़ानूनी घोषित किया जा रहा था, उस दौरान पूंजीवाद के पक्ष-पोषकों द्वारा इस बात पर जोर दिया जा रहा था कि इसके चलते दो त्रासदियाँ अवश्यंभावी हैं। पहला, गरीब परिवारों को उनकी कमाई में नुकसान उठाना पड़ेगा क्योंकि वे पूंजीवादी नियोक्ताओं को मजदूरी के तौर पर अपने बच्चों की श्रम शक्ति को नहीं बेच पायेंगे। दूसरा, वे व्यवसाय जिनका लाभ कुछ हद तक कम दरों पर काम करने वाले बाल श्रम पर निर्भर था, वे बर्बाद हो सकते हैं और इसके चलते जो वयस्क हैं वे भी बेरोजगार हो जायेंगे।

यहाँ पर पर यह ध्यान देना उल्लेखनीय होगा कि निरंतर चलाए गए राजनीतिक संघर्षों के बाद कहीं जाकर बाल श्रम को गैर-क़ानूनी घोषित किया जा सका था। इसके बचाव में खड़े लोगों के तर्कों को ख़ारिज कर दिया गया था और इसके बाद शायद ही कभी दक्षिणपंथियों और “रुढ़िवादी” साहित्य में भी ये बातें दोबारा सुनाई पड़े हों। बच्चों के पूर्व पूंजीवादी नियोक्ताओं ने अपने लाभ और उत्थान के लिए अन्य साधनों को तलाशा, जिसमें (वयस्कों को अधिक भुगतान करने, उत्पादकता में सुधार करने, अन्य इनपुट्स को किफायती बनाने एवं अन्य के जरिये) उपाय शामिल थे। 

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि पिछली एक शताब्दी से अमेरिकी पूंजीवाद बाल श्रम के बिना भी समृद्ध हुआ है। और जहाँ पर अमेरिकी पूंजीपतियों ने विदेशों में खुद को स्थानांतरित कर बच्चों को रोजगार पर रखा, वहां पर भी विपक्ष ने जो अमेरिका में हुआ उसे दोहराने का काम किया है, भले ही इसकी रफ्तार धीमी रही हो। जैसा बाल श्रम के साथ देखने को मिला है, ऐसा ही कुछ बेहद कम न्यूनतम मजदूरी के संदर्भ में भी देखने को मिल सकता है।

फिर कैसे एक सभ्य समाज अपने श्रमिकों के लिए बेहतर आजीविका प्रदान करने के लिए न्यूनतम मजदूरी की दरों को बढ़ा सकता है और साथ ही साथ छोटे व्यवसायों के हितों की रक्षा करने में भी सफल हो सकता है? इसका समाधान बेहद सीधा है। छोटे व्यवसायों के लिए उच्च न्यूनतम मजदूरी का भुगतान करने के लिए अतिरिक्त श्रम लागत के लिए अलग से व्यवस्था करके। इसमें से निम्नलिखित में से कुछ का संयोजन कर इसे मुहैया कराया जा सकता है: सरकारी खरीद में से नए और महत्वपूर्ण हिस्से में से, करों में राहत देकर, और सरकारी सब्सिडी के जरिए इसे संपन्न किया जा सकता है।

फिलहाल इस प्रकार के समर्थन मुख्यतया बड़े व्यवसायों के पक्ष में हैं, और इस प्रकार इसके कई प्रयास असल में छोटे व्यवसायों को खत्म करने और हटाने के काम में आ रहे हैं। उन समर्थनों को छोटे व्यवसायों के लिए विशेष ध्यान/लक्ष्य करके पुनर्वितरण किये जाने की जरूरत है।

इसकी पात्रता हासिल करने के लिए छोटे व्यवसायों को यह साबित करना होगा कि न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि करने से उनके कुल वेतन बिलों में कैसे बढ़ोत्तरी हुई है। इस रास्ते पर चलकर समाज ठोस रूप से छोटे व्यवसायों को समर्थन दे सकता है और बेहतर न्यूनतम मजदूरी के जरिए जुड़वा साझे सामाजिक मूल्यों में अभिवृद्धि कर सकता है।

असल में यह प्रस्ताव न्यूनतम मजदूरी की बहस को बदलकर रख देता है। यह इस बात से राहत दिलाता है कि न्यूनतम मजदूरी में बढ़ोत्तरी से यह सवाल स्पष्ट होने लगता है कि नियोक्ताओं का वह कौन सा हिस्सा होगा जो अल्पावधि में इस बोझ की भरपाई करने में सक्षम हो सकता है। कम मजदूरी पाने वाले श्रमिकों और छोटे व्यवसायों के एक प्रभावी राजनीतिक गठजोड़ के जरिये बड़े व्यवसायों को अपने सरकारी व्यापार में से कुछ हिस्से का नुकसान उठाकर, उच्च दरों पर करों को चुकाकर, या कम सब्सिडी को हासिल कर – इस भरपाई के जरिये छोटे व्यवसायों के लिए न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि को संभव बनाना होगा।

कई दशकों से बड़े और छोटे व्यवसाय के एक वैकल्पिक राजनीतिक गठजोड़ ने न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि को या तो अवरुद्ध या विलंबित कर रखा है। इस उत्तरार्ध वाले गठबंधन की कुछ भी आवश्यकता नहीं है, या वास्तव में यह हमेशा प्रतिस्पर्धी श्रम और छोटे व्यवसाय, जिसे उच्चतर न्यूनतम मजदूरी के लिए राज्य से अधिक समर्थन की दरकार रहती है के उपर छाया रहता है। इसी प्रकार से वर्तमान में जारी बहस में भी छोटे व्यवसाय को ही सिर्फ बढ़ी हुई न्यूनतम मजदूरी की संभावित लागतों को ही हमेशा वहन करने की आवश्यकता नहीं है।  

न्यूनतम मजदूरी को लेकर चलने वाली बहस काफी लंबे अर्से से एकतरफा चली आ रही है। आलोचना विहीन इस बहस की मीडिया कवरेज ने बड़े व्यवसायों को असल में इसके द्वारा लघु व्यसाय क्षेत्र को बनाये रखने के लिए उचित हिस्से को चुकाने से बचा रखा है। जबकि इसी दौरान श्रमिकों और छोटे व्यवसायों द्वारा चुकाए जाने वाले करों ने बड़े व्यवसायों के हितों का पक्षपोषण करने का काम किया है।

अधिकांश अमेरिकी लघु व्यवसायों को फलते-फूलते देखना चाहते हैं। साथ ही अधिकाँश लोग बड़े व्यावसायिक घरानों के आलोचक भी होते जा रहे हैं: “अविश्वास” सरकार के नियमों के साथ-साथ लोकप्रिय विचारधाराओं का हिस्सा बना हुआ है। हमें चाहिए कि अब से हम इस पुरानी बहस को सही करने का काम करें, ताकि अतीत से एक भिन्न राह पर चलते हुए न्यूनतम मजदूरी को तय करने के लिए एक अलग राजनीतिक गठबंधन की रुपरेखा को तय कर सकें।” 

रिचर्ड डी. वुल्फ, मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय, एमहर्स्ट में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर एमेरिटस होने के साथ-साथ न्यूयॉर्क में न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी के अंतर्राष्ट्रीय मामलों में स्नातक कार्यक्रम में विजिटिंग प्रोफेसर हैं।

इस लेख को इकॉनमी फॉर आल द्वारा निर्मित किया गया है, जो कि इंडिपैंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की एक परियोजना है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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