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विचार-विश्लेषण: विपक्ष शासित राज्यों में समानांतर सरकार चला रहे हैं राज्यपाल
संविधान निर्माताओं ने संविधान में जब राज्यपाल पद का प्रावधान किया था तो इसके पीछे उनका मकसद केंद्र और राज्य के बीच बेहतर तालमेल बनाना और देश के संघीय ढांचे को मजबूत करना था...मगर अफ़सोस ऐसा हो न सका। वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन का विश्लेषण
अनिल जैन
22 Dec 2021
Governor
अपनी भूमिका को लेकर लगातार चर्चा में राज्यपाल: (बाएं से) आरिफ़ मोहम्मद ख़ान, भगत सिंह कोश्यारी और जगदीप धनखड़

देश में पिछले कुछ सालों के दौरान तमाम संवैधानिक पदों में सबसे ज्यादा बदनाम अगर कोई हुआ है तो वह है राज्यपाल का पद। वैसे यही सबसे ज्यादा बेमतलब का पद भी है। इसीलिए भारी भरकम खर्च वाले इस संवैधानिक पद को लंबे समय से सफेद हाथी माना जाता रहा है और इसकी उपयोगिता तथा प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं। सवाल उठाने का मौका भी और कोई नहीं बल्कि कई राज्यपाल खुद ही अपनी हरकतों से उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ज्यादातर राज्यपाल उन राज्यों के होते हैं, जहां केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकारें होती हैं।

संविधान निर्माताओं ने संविधान में जब राज्यपाल पद का प्रावधान किया था तो इसके पीछे उनका मकसद केंद्र और राज्य के बीच बेहतर तालमेल बनाना और देश के संघीय ढांचे को मजबूत करना था। यानी राज्यपाल के पद को केंद्र और राज्य के बीच पुल की भूमिका निभाने वाला माना गया था। आजादी के बाद विभिन्न राज्यों में राज्यपाल नियुक्त किए गए ज्यादातर लोग स्वाधीनता सेनानी और संविधान सभा के सदस्य रहे थे। इस नाते वे संवैधानिक मूल्यों और प्रावधानों की गहरी समझ रखते थे, लिहाजा उन्होंने संविधान की मंशा के मुताबिक केंद्र और राज्य के बीच पुल की भूमिका ही निभाई, जिससे केंद्र और राज्य के बीच कभी टकराव के हालात पैदा नहीं हुए। इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही कि उस दौर में अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का राज्यों को छोड़ कर लगभग सभी राज्यों और केंद्र में एक ही पार्टी का शासन रहा। लेकिन 1977 के बाद से स्थिति बदल गई।

1977 में केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ ही केंद्र और राज्यों में एक पार्टी की सत्ता पर इजारेदारी टूट गई और यहीं से शुरू हुआ राज्यपालों नियुक्ति और उनकी भूमिका पर सवाल उठने का सिलसिला। जिस पद को केंद्र और राज्य के बीच पुल माना जाता था, वह धीरे-धीरे सुरंग में तब्दील होता गया। इसके लिए किसी एक दल को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जिस भी पार्टी या गठबंधन की केंद्र में सरकार बनी उसने अपने चहेते लोगों को राज्यपाल बनाया और उन राज्यपालों ने केंद्र में सत्ताधारी दल के विरोधी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने और उनके कामकाज में अडंगे लगाना शुरू कर दिए।

चूंकि राज्यपाल का चयन और नियुक्ति केंद्र सरकार करती है, लिहाजा राज्यपाल के पद पर नियुक्ति पाने वालों में ज्यादातर वे लोग होते हैं, जो केंद्र में सत्ताधारी दल से जुड़े होते हैं। वैसे अब तो रिटायर्ड न्यायाधीशों, नौकरशाहों और फौजी अफसरों को भी इस पद पर नियुक्त किया जाने लगा है, लेकिन ज्यादातर राजनीति से जुड़े लोगों को ही राज्यपाल बनाया जाता है। सत्ताधारी दल का नेतृत्व जिन लोगों को थका-हारा, असंतुष्ट या अनुपयोगी मान लेता है, उन्हें वह किसी न किसी प्रदेश का राज्यपाल बना देता है। इसलिए ऐसे लोग राजभवनों में जाकर अपने सूबे की विपक्ष शासित सरकार को परेशान या अस्थिर करना अपनी अहम जिम्मेदारी समझते हैं। मानो ऐसा करना उनकी 'नियुक्ति की अनिवार्य सेवा शर्तों’ में शामिल हो।

विपक्ष शासित राज्य सरकारों को राज्यपालों द्वारा परेशान या अस्थिर करने की हरकतें कांग्रेस के जमाने भी होती थीं, लेकिन कभी-कभार ही। मगर पिछले पांच-छह वर्षों के दौरान तो ऐसा होना सामान्य बात हो गई है। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि राज्यों में तो वहां की सरकारों के खिलाफ राज्यपालों ने एक तरह से आंदोलन ही छेड़ रखा है। ऐसा लग रहा है मानो इन राज्यों के राजभवन पार्टी कार्यालय के रूप में तब्दील हो गए हैं और राज्यपाल नेता प्रतिपक्ष के भूमिका धारण किए हुए हैं।

कुछ राज्यों में तो इस समय राज्यपाल समानांतर सरकार चला रहे हैं। बिहार इसका एक अपवाद है। वहां भाजपा के समर्थन वाली सरकार है और वह खुद भी सरकार में शामिल है, फिर भी वहां के राज्यपाल की स्वायत्त सत्ता है, जिसे लेकर सरकार और राज्यपाल में पिछले दिनों टकराव की स्थिति बनी। राज्यपाल फागू चौहान विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति और सेवा विस्तार को लेकर विवादों में घिरे। उन्होंने राज्यपाल बन कर आने के बाद से अपने गृह राज्य उत्तर प्रदेश के फैजाबाद से लाकर सुरेंद्र प्रताप सिंह को तो गोरखपुर से लाकर राजेंद्र प्रसाद को बिहार के अलग अलग विश्वविद्यालयों का कुलपति बनवाया। उनके लाए कई और लोग भी कुलपति बने। इनमें से कई लोगों के ऊपर रिश्वत लेने और दूसरी कई गड़बड़ियों के आरोप लगे हैं। इन आरोपों के बावजूद राज्यपाल कार्यालय से एक कुलपति को सेवा विस्तार और दूसरे विश्वविद्यालय का प्रभार भी मिला। जब बिहार सरकार को इसकी जानकारी हुई तो उसने तीन नए विश्वविद्यालयों को राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर रखा। राज्यपाल इससे इतने नाराज हुए कि उन्होंने तीनों विश्वविद्यालयों की स्थापना संबंधी विधेयक को ही लटका दिया।

राजस्थान, पंजाब, और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की और केरल में वाम मोर्चा की सरकार हैं। इन राज्यों में भी राज्यपाल और सरकार के बीच आए दिन टकराव के हालात बनते रहते हैं। कुछ समय पहले केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए विवादास्पद कृषि कानूनों पर विचार करने के लिए राजस्थान, पंजाब और छत्तीसगढ़ की सरकारों ने अपने यहां राज्य विधानसभा का विशेष सत्र बुलाना चाहा तो इसके लिए पहले तो वहां के राज्यपालों ने मंजूरी नहीं दी और और कई तरह के सवाल उठाए। बाद में केंद्र सरकार के निर्देश पर विधानसभा सत्र बुलाने की मंजूरी दी भी तो विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय कृषि संबंधी केंद्रीय कानूनों के विरुद्ध पारित विधेयकों और प्रस्तावों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया।

बहरहाल विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर बिहार की तरह केरल में भी राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और राज्य सरकार के बीच ठनी हुई है। केरल के राज्यपाल कुलपतियों की नियुक्ति में राज्य सरकार की भूमिका से बेहद नाराज हैं। उन्होंने कन्नूर विश्वविद्यालय, कालड़ी के शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय आदि में कुलपति की नियुक्ति का विरोध किया। उन्होंने सरकार से कहा है कि वह विश्वविद्यालयों के कामकाज में दखल देना बंद करे या एक अध्यादेश लाकर राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति का पद खुद संभाल ले ताकि वे कुलपति के पदों पर अपने मनचाहे लोगों को नियुक्त कर सके। राज्यपाल सरकार से इतने नाराज हैं कि उन्होंने यहां तक कह दिया कि राज्य की उच्च शिक्षा व्यवस्था कुत्तों के हाथ में चली गई है।

केरल में इससे पहले भी सरकार और राज्यपाल के बीच ऐसा ही टकराव पैदा हुआ था। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए संशोधित नागरिकता कानून के खिलाफ जब केरल विधानसभा मे प्रस्ताव पारित हुआ था तो राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने उसे पता नहीं किस आधार असंवैधानिक बता दिया था। बाद में जब राज्य सरकार ने इस कानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो राज्यपाल ने इस पर भी ऐतराज जताया और कहा कि सरकार ने ऐसा करने के पहले उनसे अनुमति नहीं ली। यही नहीं, राज्यपाल इस मुद्दे को लेकर मीडिया में भी गए। मीडिया के सामने भी वे राज्यपाल से ज्यादा केंद्र सरकार के प्रवक्ता बनकर पेश आए और नागरिकता संशोधन कानून पर राज्य सरकार के एतराज को खारिज करते रहे।

उधर अपने पद की गरिमा और संवैधानिक मर्यादा लांघने को लेकर अक्सर चर्चा मे रहने वाले महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी अपनी राजनीतिक ढिठाई का प्रदर्शन करते हुए एक साल से ज्यादा समय से विधान परिषद के 12 सदस्यों के मनोनयन की फाइल रोक कर बैठे हैं। अपने इस रवैये को लेकर हाई कोर्ट की ओर से शर्मिंदा करने वाली टिप्पणी किए जाने के बाद भी राज्यपाल सरकार की ओर से भेजी गई 12 नामों की मंजूरी नहीं दे रहे हैं।

दरअसल महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की अगुवाई में चल रही महाविकास अघाड़ी की सरकार शुरू से ही राज्यपाल के निशाने पर रही है। अव्वल तो उन्होंने केंद्र सरकार और भाजपा के प्रति अपनी वफादारी का परिचय देते हुए शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन के बहुमत को नजरअंदाज कर भाजपा के बहुमत के दावे का परीक्षण किए बगैर अचानक रात के अंधेरे में ही देवेंद्र फड़णवीस को शपथ दिला दी थी। यह और बात है कि फड़णवीस को महज दो दिन बाद ही इस्तीफा देना पडा था और राज्यपाल को न चाहते हुए भी महाविकास अघाड़ी के नेता उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलानी पड़ी थी।

बाद में कोश्यारी ने पूरी कोशिश इस बात के लिए की कि उद्धव ठाकरे छह महीने की निर्धारित समय सीमा में विधान मंडल का सदस्य न बनने पाएं। वह मामला भी आखिरकार तब ही निबटा जब ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दखल देने की गुहार लगाई। प्रधानमंत्री के दखल से ही वहां विधान परिषद के चुनाव हुए और ठाकरे विधान मंडल के सदस्य बन पाए थे।

यही नहीं, कुछ महीनों पहले जब कोरोना संक्रमण के खतरे को नजरअंदाज करते हुए महाराष्ट्र के भाजपा नेताओं ने राज्य के बंद मंदिरों को खुलवाने के लिए आंदोलन शुरू किया तो राज्यपाल ने खुद को उस मुहिम से जोड़ते हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा। उन्होंने अपने पत्र में मंदिर न खोलने के लिए ठाकरे पर बेहद अशोभनीय तंज करते हुए कहा, ''पहले तो आप हिंदुत्ववादी थे, अब क्या सेक्युलर हो गए हैं?’’

पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ राज्य सरकार का टकराव भी जगजाहिर है। ताजा मामला हावड़ा नगर निगम संशोधन विधेयक का है। विधानसभा से पास होने के बाद राज्यपाल की मंजूरी के लिए फाइल गई है और मंजूरी से पहले राज्यपाल और जानकारी मांग रहे हैं। इस मामले में स्पीकर के साथ भी उनकी नोक-झोंक हुई है। इसी साल राज्य में विधानसभा चुनाव होने के पहले तो राज्यपाल धनखड़ ने केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के साथ मिलकर सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के खिलाफ एक तरह से युद्ध ही छेड़ रखा था। भाजपा का लक्ष्य किसी तरह पश्चिम बंगाल का चुनाव जीतकर अपनी सरकार बनाना था। चूंकि उस युद्ध के सेनापति केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह थे, इसलिए राज्यपाल धनखड़ ने भी वफादार सूबेदार की तरह खुद को उस युद्ध में झोंक रखा था।

कोई भी राज्यपाल अगर अपने सूबे की सरकार के किसी कामकाज में कोई गलती पाए तो इस बारे में उन्हें सरकार का ध्यान आकर्षित करने या सरकार से जवाब तलब करने का पूरा अधिकार है। सरकार को किसी भी मुद्दे पर अपने सुझाव या निर्देश देना भी राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में आता है। लेकिन पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ऐसा नहीं करते।

लोकदल, जनता दल, कांग्रेस आदि कई राजनीतिक घाटों का पानी पी चुकने के बाद भाजपा में शामिल हुए राजस्थान के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जगदीप धनखड़ राज्यपाल के रूप में भी आमतौर पर मीडिया के माध्यम से ही सरकार से संवाद करते हैं। वे कभी राज्य की कानून-व्यवस्था को लेकर सार्वजनिक रूप से सरकार की खिंचाई करते है तो कभी राज्य सरकार की नीतियों की कमियां गिनाते हैं। वे विभिन्न सरकारी महकमों के शीर्ष अफसरो को भी सीधे निर्देश देते रहते है। कुछ समय पहले तो राज्यपाल ने यहां तक कह दिया था कि पश्चिम बंगाल 'पुलिस शासित राज्य’ बन गया है। उन्होंने राज्य के शीर्षस्थ पुलिस अधिकारी पर तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता की तरह काम करने का आरोप लगाते हुए राज्य सरकार के खिलाफ 'सख्त’ कार्रवाई करने की चेतावनी भी दे डाली थी। धनखड़ से पहले उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ भाजपा नेता केशरीनाथ त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। उनका भी पूरा कार्यकाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से टकराव में ही बीता था।

पिछले सात सालों के दौरान राज्यों में चुनाव के बाद विपक्ष को सरकार बनाने से रोकने, विपक्षी दलों की सरकारों को विधायकों की खरीद-फरोख्त के जरिए गिराने या गिराने की कोशिश करने और वहां भाजपा की सरकार बनाने के कारनामे भी खूब हुए हैं। इन सभी खेलों में राज्यपालों की भूमिका पर सख़्त सवाल उठे हैं। इस सिलसिले में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का जिक्र तो ऊपर हो ही चुका है। उनके अलावा कर्नाटक में वजुभाई वाला, राजस्थान में कलराज मिश्र, जम्मू-कश्मीर में सत्यपाल मलिक, मध्य प्रदेश में लालजी टंडन(अब दिवंगत), मणिपुर में नजमा हेपतुल्लाह और गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा (अब दिवंगत), मध्य प्रदेश में आनंदीबेन पटेल, उत्तर प्रदेश में राम नाईक, राजस्थान में कल्याण सिंह आदि के दलीय राजनीति से प्रेरित असंवैधानिक कारनामे भी जगजाहिर हैं।

राज्यपाल के पद पर रहते हुए अशोभनीय और विभाजनकारी राजनीतिक बयानबाजी करने वालों में मेघालय, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे तथागत रॉय का नाम भी उल्लेखनीय है। पश्चिम बंगाल में भाजपा के अध्यक्ष रहे तथागत रॉय ने राज्यपाल रहते हुए महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की तारीफ करने से लेकर मुसलमानों का मताधिकार छीन लेने जैसे कई बयान दिए। लेकिन उनका सबसे चौंकाने वाला बयान था कि भारत में हिंदू-मुस्लिम समस्या का समाधान सिर्फ गृहयुद्ध से ही निकल सकता है। हैरानी की बात है कि उनके इस बेहद आपत्तिजनक और भड़काऊ बयान का भी केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने संज्ञान नहीं लिया।

कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राज्यपाल पद के अवमूल्यन में कांग्रेस शासन के दौरान जो कमियां रह गई थीं, वह पिछले छह-सात वर्षों के दौरान केंद्र सरकार के संरक्षण में तमाम राज्यपालों ने अपने कारनामों से पूरी कर दी हैं। राज्यपालों के अमर्यादित, असंवैधानिक और गरिमाहीन आचरण के जो रिकॉर्ड इस दौरान बने हैं, उनको अब शायद ही कोई तोड़ पाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

ये भी पढ़ें: मतदाता पहचान कार्ड, सूची को आधार से जोड़ने सहित चुनाव सुधार संबंधी विधेयक को लोकसभा की मंजूरी


 

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