मुस्लिम-यादव से आगे बढ़कर अखिलेश की PDA रणनीति ने यूपी में कमाल किया
लखनऊ: समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव के पारंपरिक मुस्लिम-यादव मतदाता आधार से परे समुदायों तक रणनीतिक पहुंच, खासकर उनके पीडीए (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) की रणनीति और मुद्दों ने उनकी पार्टी के चुनावी समर्थन को बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन समुदायों के साथ प्रभावी ढंग से जुड़कर और उनकी चिंताओं को दूर करके, अखिलेश सपा की अपील को व्यापक बनाने और उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत करने में सक्षम रहे हैं।
राज्य में सपा के नेतृत्व में विपक्षी इंडिया ब्लॉक की 80 लोकसभा सीटों में से 43 सीटें जीतने में सफलता वास्तव में एक उल्लेखनीय बदलाव है, जो मतदाताओं से मजबूत जनादेश का संकेत है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के प्रभुत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) द्वारा 36 सीटें जीतने के बावजूद, यह भाजपा के प्रदर्शन में उल्लेखनीय गिरावट को दर्शाता है, विशेष रूप से इसके उग्र सांप्रदायिक अभियान और दुर्जेय राजनीतिक तंत्र को देखते हुए यह गिरावट बड़ी है।
इसके अलावा, सपा और कांग्रेस के बीच सफल गठबंधन, साथ ही आरक्षण, संविधान में प्रस्तावित बदलावों पर बहस, बेरोजगारी, महंगाई और जाति जनगणना की मांग जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर भाजपा के खिलाफ एक सुसंगत नैरेटिव ने अखिलेश की चुनावी रणनीति को और मजबूत किया। इस गठबंधन की केमिस्ट्री और साझा नैरेटिव ने भाजपा के खिलाफ एक संयुक्त मोर्चा प्रदान किया और मतदाताओं के भीतर आवाज़ पैदा की।
2024 के लोकसभा चुनावों में सपा की चुनावी सफलता उसके नेता अखिलेश यादव के लिए 2017 से लगातार असफलताओं के बाद एक महत्वपूर्ण बदलाव का संकेत है। यूपी में 80 में से 37 सीटें जीतकर, सपा ने राज्य में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया, और खुद को राज्य में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में स्थापित किया है।
यह जीत विशेष रूप से उल्लेखनीय है क्योंकि यह सत्तारूढ़ भाजपा की कीमत पर आई है, जिसकी सीटों की संख्या 2019 के लोकसभा चुनावों में 62 से घटकर 33 हो गई है।
देश में भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सपा का उभरना उत्तर प्रदेश से बाहर इसके बढ़ते प्रभाव और अपील को रेखांकित करता है। यह चुनावी परिणाम बदलती राजनीतिक गतिशीलता और मतदाताओं की भावनाओं को भी दर्शाता है, जो सपा के लिए नए जनादेश और भारत के सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों में से एक में भाजपा के लिए एक महत्वपूर्ण झटका है।
मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा), जिसने 2007 में पूर्ण बहुमत के साथ राज्य पर अपना दबदबा बनाया था, औपचारिक रूप से एक नगण्य शक्ति में सिमट कर रह गई, तथा शून्य सीटों और 9.39 फीसद वोट शेयर के साथ तीसरे स्थान पर पहुंच गई है।
वोट शेयर में वृद्धि
2004 के लोकसभा चुनाव में जब सपा ने 35 सीटें जीती थीं, तब उसके संस्थापक मुलायम सिंह यादव यूपी में सरकार चला रहे थे। इस बार पार्टी को यह सफलता सात साल तक राज्य में सत्ता से बाहर रहने के बावजूद मिली है।
मतदान प्रतिशत के हिसाब से सपा को 2024 में 33.59 फीसदी वोट शेयर मिला, जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में उसे 18.11 फीसदी वोट मिले थे। कांग्रेस को 2019 के 6.36 फीसदी के मुकाबले 9.46 फीसदी वोट शेयर मिला और 0.47 फीसदी वोट तृणमूल कांग्रेस को मिले, जिसने भदोही से चुनाव लड़ा था।
2022 के यूपी विधानसभा चुनावों में, सपा का वोट शेयर 32.1 फीसदी था और सीटों की संख्या 2017 में 47 से बढ़कर 111 हो गई थी, जिसने इसके 2024 के प्रदर्शन की नींव रखी थी।
2022 के विधानसभा चुनावों में, सपा ने अपने मुस्लिम-यादव वोट बैंक से आगे बढ़कर गैर-यादव ओबीसी+यादव+मुस्लिमों का जातिगत गठबंधन बनाना शुरू कर दिया है।
2024 के चुनावों के लिए इस फॉर्मूले को बरकरार रखते हुए अखिलेश ने इसे पीडीए नाम दिया - पिछड़ा (यादव और गैर-यादव सहित पिछड़े), दलित और अल्पसंख्यक (अल्पसंख्यक, बड़े पैमाने पर मुस्लिम) थे।
अर्थशास्त्री और गिरि इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के निदेशक अजीत कुमार सिंह कहते हैं, "यह चुनाव अमीरों और गरीबों के बीच की लड़ाई पर केंद्रित था। पिछले 10 सालों में गरीबों की स्थिति और खराब हुई है। किसानों की शिकायतें हैं और सांप्रदायिक हिंदुत्व विचारधारा का समर्थन करने वाले छात्र और युवा बेरोजगारी से पीड़ित हैं, जिन्होंने इस बार सत्तारूढ़ (भाजपा) सरकार को वोट नहीं दिया।"
सिंह ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, "दलित और पिछड़े समुदाय, जो 2014 से भाजपा का समर्थन कर रहे थे, अब पार्टी के साथ नहीं हैं। बीएसपी के वोट शेयर में भारी गिरावट से संकेत मिलता है कि इसके मूल मतदाता इंडिया ब्लॉक की ओर चले गए हैं।" उन्होंने आगे कहा कि इस बार राज्य में 'मोदी मैजिक' नहीं चला।
कई विशेषज्ञों का कहना है कि भाजपा मतदाताओं के वास्तविक मूड को समझने में विफल रही है। राज्य में, जहां जातिगत अंकगणित अभी भी प्रासंगिक है, भाजपा सपा-कांग्रेस के पक्ष में जातिगत समीकरण को समझने में विफल रही है।
लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुधीर पवार ने न्यूज़क्लिक को बतया कि, "राज्य के लोग हिंदू-मुस्लिम के नाम पर बंट नहीं सकते क्योंकि देश में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। सत्तारूढ़ सरकार न केवल लोगों के मूड को भांपने में विफल रही, बल्कि रोज़गार सहित पिछले चुनावों के दौरान किए गए वादों को पूरा करने में भी विफल रही है।"
भाजपा के सहयोगी बुरी तरह विफल रहे
इसके अलावा, भाजपा को एनडीए सहयोगियों से भी बहुत कम समर्थन मिला है। मुखर सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (एसबीएसपी) के प्रमुख ओम प्रकाश राजभर अपने बेटे के घोसी से चुनाव हारने के बाद राजभर वोट पाने में असमर्थ रहे, जबकि कुर्मी वोटों के लिए भाजपा की सहयोगी अपना दल (सोनीलाल) दो सीटों में से केवल एक सीट ही जीत पाई। इसी तरह, संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद, जिन्हें निषाद समुदाय से समर्थन मिलने की उम्मीद थी, अपनी संत कबीर नगर सीट पर कब्जा नहीं कर पाए।
जयंत चौधरी की अगुआई वाली राष्ट्रीय लोक दल (आरएलडी) ने पश्चिमी यूपी में दो सीटें हासिल कीं; फिर भी, वे महत्वपूर्ण मुजफ्फरनगर सीट हार गए, और लखीमपुर खीरी में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के खिलाफ किसानों का गुस्सा शांत नहीं हुआ, जिसके कारण उन्हें हार का सामना करना पड़ा। साथ ही, सपा के खिलाफ भाजपा के ‘वंशवाद’ वाले बयान ने भी लोगों को प्रभावित नहीं किया।
युवाओं के भीतर लगातार पेपर लीक, नौकरियों के निजीकरण और सरकारी नौकरियों में आरक्षण मानदंडों से जुड़े मुद्दों के बारे में व्याप्त शिकायतों ने उन्हें इंडिया ब्लॉक का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया है। ये चिंताएं व्यापक सामाजिक-आर्थिक मुद्दों को दर्शाती हैं जो मुद्दे युवा मतदाताओं के बीच काफी चिंतनीय हैं, जो अक्सर ऐसी नीतियों से सीधे प्रभावित होते हैं।
बढ़ती बेरोजगारी, अग्निवीर जैसी अलोकप्रिय योजनाएं और भाजपा का अहंकार तथा हिंदू सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और ध्रुवीकरणकारी बयानबाजी के ज़रिए मतदाताओं को लुभाने पर अत्यधिक निर्भरता, इसके लिए विनाशकारी साबित हुई है।
एक्सिस माई इंडिया सर्वे और सोशल मीडिया कैंपेन दोनों में ही इंडिया ब्लॉक के संदेश युवाओं को पसंद आए। इन मुद्दों को संबोधित करने और समाधान पेश करने पर जोर देने से युवा मतदाताओं के दिलों में जगह बनी, जो अपनी चिंताओं के लिए ठोस जवाब चाहते थे।
विश्लेषकों ने महिला मतदाताओं के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी) कार्यक्रमों से जोड़ा, जिसके बारे में उन्होंने विस्तार से बात की। निष्कर्षों से पता चलता है कि भले ही राज्य के मतदाताओं में महिलाओं की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है, लेकिन वे किसी एक मुद्दे से प्रभावित नहीं हुईं। विश्लेषकों ने कहा कि वास्तव में, उनके राजनीतिक निर्णयों को समझना पुरुषों के निर्णयों जितना ही कठिन है।
मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :
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