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नज़ीर कथा कीर्तन: नफ़रत के दौर में मोहब्बत की संगीतमय प्रस्तुति

आज जब नफ़रत का सांप अपना फन फैलाए खड़ा है, ऐसे दौर में अवाम से मोहब्बत की अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब को याद करना न सिर्फ़ वक़्त की ज़रूरत है बल्कि हम सबकी ख़ासकर एक कलाकार की ज़िम्मेदारी भी है। इसे अवाम के शायर नज़ीर अकबराबादी के बहाने खेल तमाशा थियेटर ग्रुप ने बख़ूबी निभाया है।
Nazir Katha Kirtan

आशिक़ कहो, असीर कहो, आगरे का है

मुल्ला कहो, दबीर कहो, आगरे का है

मुफ़्लिस कहो, फ़क़ीर कहो, आगरे का है

शायर कहो, नज़ीर कहो, आगरे का है

नज़ीर अकबराबादी....जनता का कवि...जनता का शायर। नज़ीर को फिर फिर याद करना अपनी जड़ों से जुड़ना है, अपनी गंगा-जमुनी तहज़ीब से जुड़ना है, अपनी साझा जन संस्कृति को याद करना है...आम अवाम यानी मेहनतकशों की ज़िंदगी से जुड़ना है, मोहब्बत का सबक़ सीखना है।

वो ज़िंदगी का मेला हो, खेल-तमाशा हो, तीज-त्योहार हों, जीवन की सख़्तियां हों या रंगीनियां....सबकुछ अगर एक जगह मिलता है तो उसका नाम है नज़ीर अकबराबादी। 18वीं सदी में आगरा की गलियों से निकली ये सदा आज भी पूरे हिन्दुस्तान के दिलों को पुकार रही है....आबाद कर रही है। बर्बादी के बरअक्स आबादी की आवाज़...नफ़रत के बरअक्स मोहब्बत की आवाज़...जात-धरम के बरअक्स इंसान की आवाज़...अभिजात के बरअक्स आम जन की आवाज़...वो आवाज़ जो हमारा सरमाया है...वो आवाज़ है नज़ीर अकबराबादी की आवाज़।

यह आवाज़ अपने और उसके बाद के दौर के फ़नकारों के संग-साथ है और उनसे जुदा भी है....जुदा इस मायने में कि उसमें महलो-दोमहलो की रंगीनियां, बादशाहों और उनकी बेगमों की अटखेलिया या महबूब से इश्क़ का ही बयान नहीं बल्कि ग़रीब के झोपड़े और सड़क के आदमी की भी होली, ईद-दिवाली दिवाली है। उसमें घोड़े-तांगे की भी आवाज़ है तो चिड़ियों की भी सदा भी गूंजती है। तो खीरे-ककड़ी वाले की भी पुकार है। ख़ुदा है तो महादेव भी और श्याम सलोना भी...पीर-फ़क़ीर हैं तो वाहे गुरु भी। हर ढंग और हर रंग में अयां होती है नज़ीर की शायरी।

और नज़ीर और उनकी शायरी को मंच पर एक बार फिर उतारने की भरसक कोशिश की है खेल तमाशा थियेटर ग्रुप के युवा कलाकारों ने। एक बार फिर इसलिए क्योंकि हमारे महान नाट्यकर्मी हबीब तनवीर साहब ने आगरा बाज़ार में जिस ख़ूबी से नज़ीर को उतारा वो बेमिसाल था। उसकी याद आज भी ज़हनों में ताज़ा है और उन्हीं को समर्पित करते हुए खेल तमाशा ग्रुप ने नज़ीर को एक बार फिर याद किया...याद दिलाया।

शनिवार, 20 मई को दिल्ली के मंडी हाउस स्थित श्रीराम सेंटर में खेल तमाशा ग्रुप ने थियेटर आर्टिस्ट रजनीश बिष्ट के निर्देशन में "नज़ीर कथा कीर्तन" नाम से नज़ीर के जीवन और शायरी को नए संगीत में ढालकर मंच पर उतारा। इस नाट्य ग्रुप के सभी कलाकार नौजवान लड़के लड़कियां थे, जिनका जोश देखते ही बनता था। हर कलाकार कई-कई फ़न में माहिर...वो गा भी रहे हैं और एक से बढ़कर एक अलग अलग वाद्य यंत्र बजा भी रहे हैं। क्या ढोलक, क्या मंजीरा, क्या हारमोनियम, क्या घुंघरू और क्या हैंड ड्रम (CAJON)। इसके अलावा मुंह से अलग-अलग पशु-पक्षियों की आवाज़ निकालना (BEAT BOXING) भी बेहद अनूठा था। कई नज़्मों की पेशकश में स्त्री और पुरुष पात्र बदल दिए गए, यानी लड़कियां, अल्हड़ लड़कों के किरदार में चुहल और छेड़छाड़ करती नज़र आईं तो लड़के, लड़कियों की भूमिका में लजाते-शर्माते नज़र आए, यह भी अच्छा प्रयोग था।

इन नौजवान कलाकारों ने नज़ीर की ग़ज़लों-नज़्मों को नई धुनों में पिरोने का प्रयोग किया जो काफी अच्छा लगा। बेहद जोशीली और रंगारंग प्रस्तुति थी। कुछ बानगी देखिए--

जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियां

फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियां

नज़ीर की इस नज़्म में रोटियों के जरिये इस दुनिया की पूरी हक़ीक़त को हमारे सामने रख दिया जाता है। इसे सभी कलाकारों ने पूरे मन और दम से गाया। और आदमी-नामा और बंजारा-नामा की भी प्रस्तुति ख़ूब रही-

दुनिया में पादशह है सो है वो भी आदमी

और मुफ़्लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी

...

टुक हिर्स-ओ-हवा को छोड़ मियां मत देस बिदेस फिरे मारा

क़ज़्ज़ाक़ अजल का लूटे है दिन रात बजा कर नक़्क़ारा

क्या बधिया भैंसा बैल शुतुर क्या गू में पल्ला सर-भारा

क्या गेहूँ चाँवल मोठ मटर क्या आग धुआँ और अँगारा

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बंजारा

पूरे जीवन का फ़लसफ़ा इन नज़्मों में मिलता है। इसी कड़ी में आगरे की ककड़ी की पेशकश भी शानदार रही

क्या ख़ूब नर्मो नाज़ुक, इस आगरे की ककड़ी

और जिसमें ख़ास काफ़िर, इस्कन्दरे की ककड़ी

होली की बहारें गाते हुए भी कलाकारों ने काफी रंग भरने की कोशिश की

जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की

और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की

परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की

ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की

पूरी प्रस्तुति में ख़ूब जोश था, नई धुनें थी…यानी आनंद था, रंगारंग माहौल था...लेकिन एक कमी यही रही कि नज़ीर के जीवन और समय को जिस संज़ीदगी से बताना था...वो कुछ छूट गया….पूरी प्रस्तुति ज़्यादा ही संगीतमय हो गई… यही नहीं उनकी ग़ज़लों-नज़्मों के कई-कई शेर और बंद प्रयोग किए गए, अगर इसे कुछ कम कर उनका और क़लाम इस्तेमाल किया जाए तो और बेहतर होता।

इस प्रस्तुति में चिड़ियों की आवाज़ जिस ख़ूबसूरती से उकेरी गई...वहीं होली की बहार उस ढंग से नहीं आ पाई...जैसे वह पढ़ते हुए छा जाती है...नज़ीर के शब्दों में जो जादू है...जो मंज़रकशी यानी दृश्यचित्र हैं वो बेपनाह हैं….जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की….यह रंग झमकना अपने आप में ऐसा मज़ा देता है जो इस प्रस्तुति में उस ढंग से ज़ाहिर नहीं हो पाया...लगा कि अति उत्साह में नज़ीर की होली को आज की कुछ-कुछ बेशऊर होली में बदल दिया गया है। वो प्यार...वो नज़ाकत, वो शाइस्तगी...पूरी रंग में न झलक सकी।

ख़ैर… कुछेक कमियों को छोड़कर कुल मिलाकर यह एक शानदार प्रस्तुति थी। इसके लिए खेल तमाशा ग्रुप वाकई बधाई का पात्र है। सबसे ज़रूरी बात कि हमारे इस दौर में जब जात-मज़हब के नाम पर समाज में बाक़ायदा रणनीति और संगठित तौर पर घृणा, नफ़रत फैलाई जा रही है। लोगों को एक-दूसरे से अलग किया जा रहा है...ज़बान (भाषा) और अदब (साहित्य) को भी बांटा जा रहा है….ऐसे दौर में नज़ीर को याद करना वाकई अपने प्यारे गंगा-जमुनी हिन्दुस्तान को याद करना है और साथ ही एक हस्तक्षेप और प्रतिरोध के तौर पर पूरे दम से खड़ा होना है।

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