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जनता का थिएटर: इप्टा के 15वें राष्ट्रीय सम्मेलन के मौके पर स्थापना की कहानी

इप्टा का 15वां राष्ट्रीय सम्मेलन आगामी 17,18 और 19 मार्च को झारखंड के डालटनगंज में हो रहा है। सन् 1943 में हुआ इप्टा का पहला अधिवेशन ब्रिटिश हुकूमत, ज़मींदार प्रथा और फासिस्ट विरोधी आंदोलन को गतिशील बनाने का माध्यम था।
IPTA

(भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा का 15वां राष्ट्रीय सम्मेलन आगामी 17,18 और 19 मार्च को झारखंड के डालटनगंज में हो रहा है। जहां इप्टा से जुड़े देश भर के प्रतिनिधि शामिल हो रहे हैं। इस सम्मेलन से पहले हमें इप्टा का इंक़लाबी इतिहास और विरासत को जानना बेहद ज़रूरी है। इप्टा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि क्या है ?, किस तरह से ये राष्ट्रव्यापी संगठन अस्तित्व में आया ?

निरंजन सेन, इप्टा के दूसरे राष्ट्रीय महासचिव थे। जिन्होंने इस संगठन के राष्ट्रीय महासचिव की ज़िम्मेदारी तक़रीबन बीस साल तक संभाली। उन्होंने साल 1946 से लेकर 1964 एक लंबे समय तक इप्टा का नेतृत्व किया। इप्टा से जुड़े हुए उनके अनुभव और लंबा इंटरव्यू एक किताब 'इप्टा की अनकही कहानियां' के ज़रिए ज़ल्द ही पाठकों के सामने आ रहा है। जिसका संपादन मित्रा सेन मजूमदार, कामरेड दिलीप चक्रवर्ती और ज़ाहिद ख़ान ने मिलकर किया है। प्रस्तुत है इस महत्वपूर्ण किताब से निरंजन सेन के विचार, जो हमें इप्टा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में विस्तार से बतलाते हैं।)

बंबई (आज का मुंबई) में ख़्वाजा अहमद अब्बास, जसवंत ठक्कर और अली सरदार जाफ़री जो कि फ़ासीवाद विरोधी प्रगतिशील लेखक संघ के संगठक थे, साल 1943 के शुरुआती दौर में दिल्ली आए और उन्होंने ‘ये किसका ख़ून’ का मंचन किया। इस नाटक को अली सरदार जाफ़री ने ही लिखा था और निर्देशन अनिल डि सिल्वा ने किया था। यह 1943 के मार्च महीने की बात थी। यह सही है कि जब इस नाटक का मंचन मुंबई में किया गया था, उसी वक़्त पहली मर्तबा ‘जन नाट्य’ की धारा भारत के सांस्कृतिक दुनिया में उभर कर आई। यह समझना ज़रूरी नहीं है कि जन नाट्य आंदोलन का बहाव किस और था, बल्कि यह बात जानना महत्वपूर्ण है कि देश के लाखों लोगों की समस्याओं, संघर्ष, उत्साह और सपनों से जन नाट्य आंदोलन के बीज का अंकुरण हुआ था। 1942 में लाखों दर्शक इन नाटकों को देखने आए थे। जिसमें प्रमुख थे-शामलकर द्वारा लिखा मराठी नाटक ‘दादा’। जिसका निर्देशन डीएन गावनकर ने किया था। गुजराती नाटक ‘नर्मदा’ और ‘अग्गाढ़ी’। जिसे लिखा था सीसी मेहता और निर्देशन किया था जसवंत ठक्कर ने।

जून 1943 में मुंबई में कम्युनिस्ट पार्टी के अधिवेशन में देश के विभिन्न राज्यों में काम कर रहे भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक दल इकट्ठे हुए। दिल्ली से म्यूजिक का एक छोटा सा ग्रुप और पंजाब से स्टूडेंट के एक ग्रुप ने हिस्सा लिया। जिसका नेतृत्व पेरिन भरूचा (पेरिन रमेश चन्द्र) ने किया था, जो खु़द उस वक़्त स्टूडेंट थे। राजेन्द्र रघुवंशी जो आगरा के थे, उन्होंने उत्तर प्रदेश की टुकड़ी का नेतृत्व किया। हम सब ने मुंबई तक एक ही ट्रेन में सफ़र किया और सारे रास्ते गाते-बजाते आए। हमें मालूम नहीं था कि बंबई में हमारे लिए कौन सी रौशनी इंतज़ार कर रही थी। अनगिनत युवा, उभरते लेखक, गायक, संगीतकार और कलाकारों का हुजूम जो देश के कोने-कोने से, खेत-खलिहानों, श्रमिक संगठनों, गांवों से लोक कलाकार, कई नामी-गिरामी कलाकार, शहरों से लेखक और नाट्यकर्मी आए हुए थे। सभी टुकड़ियां कई दिनों तक अपनी कला का प्रदर्शन करती रहीं। इस आयोजन में देशभक्ति की कविताएं, फ़ासीवाद विरोधी जनगीत और लोकगीत पढ़े और गाये गए। यह सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत ही मनोग्राही और अनुप्राणित करने वाले थे। सभी अनजाने कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन मिशनरी उत्साह के साथ कर रहे थे। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों से आए साथी विभिन्न भाषाओं में अपनी विभिन्न कलाओं का प्रदर्शन कर रहे थे। मसलन ‘‘एक सूत्र बांधा आछे’ गीत जिसे देबव्रत विश्वास ने बांग्ला भाषा में पेश किया।

यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि कलाकारों का यह जमावाड़ा चाहे उसमें प्रसिद्ध हो, अंजान हो या फिर लोक कलाकार, वे सभी एक सूत्र में बंध चुके थे। जिनका आदर्श, लक्ष्य और समझ एक ही थी। वे एक बड़े परिवार के सदस्य थे। मेरे जैसे अनेक साथी जो पिछड़े इलाक़ों से आए थे, वे सही मायनों में यह पहला उत्सव जिसमें देश के कोने-कोने से आए कलाकारों की शिरकत को देखकर, अभिभूत हो गए थे। और यही वजह थी कि सुंदरीबाई हॉल, बंबई में यह सारे लोग मौजूद थे। उन्होंने इस अधिवेशन में हिस्सा लिया।

स्थापना दिवस पर आए सभी साथियों की मनोस्थिति,जो भावनाएं मेरे मन में उमड़ रही हैं, उससे कई गुना ज़्यादा थीं। उस समय इतने तरह के अलग-अलग प्रदर्शन हुए थे। उनमें से कुछ प्रमुख हैं, जैसे बंगाल ग्रुप के बिनय राय द्वारा प्रस्तुत किया गया बहुत ही संवेदनशील और फ़ासीवाद विरोधी गीत ‘‘हई हई जापान ऐई आइलो तड़ित, बार होव गाँएर गोरिल्ला जवान’’ और इसके अलावा वह गीत जो कहता है कि मालाबार क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाने वाले अंग्रेज़ों को बाहर करो। ‘‘फिराया दे दे दे मोदेर कायुम शहीदेरे।’’ इस देशभक्ति गीत में बिनय राय के गाने का अंदाज़ और उनकी आवाज़ में सोज़ और आग दोनों लाजवाब होती थी। देबव्रत विश्वास (जार्ज विश्वास) के द्वारा रबीन्द्र संगीत गाने का अंदाज़ गीतों को एक अलग ही गति देता था। मैं कलकत्ता (आज का कोलकाता) के दिनों से ही जार्ज से वाक़िफ़ था। पर बिनय, सुजाता दी, भूपति और अन्य लोगों से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी। क्रांतिकारी युवा लेखक सुभाष मुखोपाध्याय मेरे पूर्व परिचित थे। जिनका लिखा, ‘‘बज्र कंइे तोलो आवाज़’ गीत बंगाल ग्रुप ने इस उत्सव में गाया था।

नज़ीर, जो आंध्र प्रदेश के किसान गायक थे, उनकी बुर्रा कथा, जो कि आंध्र प्रदेश की एक नामी लोकगाथा है, उनके प्रदर्शन का अंदाज़ और आवाज़ हम दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देती थी। बुर्रा कथा प्रस्तुत करने की उनकी तकनीक बहुत ही साधारण, पर दमदार थी। जिसमें वे एक वाद्य यंत्र हाथ में लिए, हल्का मेकअप और वेशभूषा के साथ अपने नाट्यकर्मियों के साथ, जिनमें कुछ गाते और कुछ ढपली बजाते थे। उनके ये साथी मंच पर समूह गान में नज़ीर का साथ देते थे। नज़ीर, बुर्रा कथा को छंद और नृत्य की मुद्रा में प्रस्तुत करते थे। इन बुर्रा कथाओं में सोवियत यूनियन की हिटलर के ख़िलाफ़ जंग की गाथा थी। इसके अलावा आंध्र प्रदेश के कलाकारों ने ‘टुन-टुन’, ‘मेडिसन मैन’ आदि कई लोक कलाओं का प्रदर्शन भी किया था। इनकी पेशकश और कला प्रदर्शन का अंदाज़ इतना शानदार था कि उन्हें समझने में भाषा ने कोई अड़चन नहीं डाली। आंध्र प्रदेश के ग्रुप का नेतृत्व डॉ. जी राजाराव कर रहे थे। गुजरात से आए ग्रुप ने ‘गरबा’ नृत्य का प्रदर्शन किया था। जबकि ‘बंबई जन नाट्य संघ’ में उस समय हिंदी, मराठी और गुजराती भाषी शामिल थे। ‘बंबई जन नाट्य संघ’ ने डीएन गावनकर द्वारा निर्देशित ‘पोवाड़ा’ और 'तमाशा' का प्रदर्शन किया। जिसमें उनके प्रमुख साथी थे अण्णा भाऊ साठे और अमर शेख़।

इसके अलावा अन्य प्रदेशों से छोटे-छोटे ग्रुपों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। दिल्ली का नेतृत्व मैंने किया। साल 1942 और 1943 के दरमियान हमने जो समूह गीत लिखे थे, उन्हें प्रस्तुत किया। इस अधिवेशन में हिस्सा लेकर, हमने बहुत कुछ सीखा। अनेक अनुभवों का आत्मसात किया। दूसरे प्रदेशों की आधुनिक कला से भी हमने बहुत कुछ सीखा। इस उत्सव के संगठनकर्ताओं में अहम रहे-एक प्रगतिशील व्यक्तित्व जसवंत ठक्कर, प्रगतिशील लेखक संघ के लीडर अली सरदार जाफ़री, ख़्वाजा अहमद अब्बास, अनिल डि सिल्वा, डीएन गावनकर, मामा फानालकर और दीगर। हमें इन शख़्सियात से जो प्यार, मुहब्बत और अपनापन मिला, वह मैं कभी नहीं भूल सकता। हमारे कामरेड साथियों की आपसी भाईचारे की गर्माहट कभी ठंडी नहीं हुई। हमने आपस में विचारों का आदान-प्रदान किया।

अधिवेशन के आख़िरी दिन सभी प्रतिनिधि और प्रतिभागी जो भिन्न राज्यों से आए थे, सुंदरीबाई हॉल में इकट्ठे हुए। महाराष्ट्र के प्रसिद्ध नाटककार मामा वारेकर, लेखक और दानिश्वर डॉ. मुल्कराज आनंद, ख़्वाजा अहमद अब्बास, एटक के अध्यक्ष कामरेड एनएम जोशी, किसान सभा संघ के नेता सुमति सुहानी आम्बेडकर, कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव पीसी जोशी और इसके अलावा अनेक प्रसिद्ध लेखक और बुद्धिजीवी बड़ी तादाद में मौजूद थे। तमाम बहस-मुबाहिसों और विचार-विमर्श के बाद, एक संगठन की स्थापना करने की सहमति हुई। जिसका संगठन राष्ट्रीय स्तर पर किया गया और इस तरह 'भारतीय जन नाट्य संघ' यानी इप्टा की स्थापना हुई।

वहां यह भी तय हुआ कि देश के विभिन्न राज्यों में जो भी इकाइयां स्वतंत्र रूप से सांस्कृतिक कार्यक्रम कर रही हैं, उनका इप्टा में विलय कर दिया जाए। गांव, कारखानों और शहरों से जो भी लेखक, गायक, नाट्यकर्मी और संगीतकार उभर कर आ रहे हैं, उनको इप्टा में शामिल किए जाने के संभाव्य उपाय की खोज की जाए। संक्षेप में इप्टा का पहला अधिवेशन ब्रिटिश हुकूमत, ज़मींदार प्रथा और फासिस्ट विरोधी आंदोलन को गतिशील बनाने का माध्यम था। जिसके लिए हमारे देश के हर बुद्धिजीवी चाहे वे प्रगतिशील लेखक हों, नाट्यकर्मी या संगीतकार हों, हमेशा प्रयत्नशील रहे हैं। लेखक, चित्रकार, संगीतकार, नृत्य शिल्पी, नाट्यकर्मी और तमाम तकनीकी कर्मियों ने इस गवेषणा में अपने आप को पूरी तरह से समर्पित कर दिया। ताकि देश में उभर रही ज़मींदार प्रथा और फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ आम लोगों का इन मुद्दों के प्रति एक नज़रिया और राय बने। हमें कला के नये-नये क्षेत्रों को ख़ोज निकालना था। ताकि इप्टा, आम जनता के संघर्ष और उनके स्वप्नों को साकार करने, विदेशी शासन से मुक्ति और लोकतंत्र क़ायम करने के आंदोलन को आगे बढ़ा सके। इन सभी मुद्दों का जहां समर्थन किया गया, वहीं ज़ोरदार तालियों और जोश के साथ स्वागत किया गया। शाम को गिरनी कामगार मैदान में एक सामूहिक रैली निकाली गई। जिसमें मुम्बई और आसपास के इलाकों से हज़ारों की तादाद में श्रमिक वर्ग और अन्य वर्ग के लोग शामिल हुए। महाराष्ट्र के कलाकारों द्वारा जिसमें प्रमुख थे अण्णा भाऊ साठे, अमर शेख़, जिनका नेतृत्व डीएन गावनकर कर रहे थे। इस टोली ने सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए। जिसमें ‘तमाशा’, ‘पोवड़ा’ और ‘लावणी’ मुख्य थे। इसके अलावा ‘दादा’ नाटक का मंचन किया गया। जिसमें कपड़ा मिलों में काम करने वाले श्रमिकों के जीवन को दर्शाया गया था।

हज़ारों-हज़ार की तादाद में उपस्थित लोगों ने इप्टा और अखिल भारतीय समिति की स्थापना का स्वागत नारेबाजी से किया। इस प्रकार इप्टा का जन्म हुआ और सर्व भारतीय स्तर पर इस आंदोलन को एक रूप और गति देने का यह एक बड़ा प्रयास था। इप्टा की बुनियादी कोशिश रही, समूह गान और एक्शन ऑपेरा, जो लोकगाथाओं पर आधारित हों। उनका विकास करना, उन्हें आगे लाना। ताकि आम लोग उन्हें आसानी से समझ पाएं। इप्टा के समूह गान, लोगों को जहां अपनी ओर बरबस ही आकर्षित और मंत्रमुग्ध करते थे, वहीं ये प्रेरणादायक भी थे। हम सभी प्रतिनिधि जो देश के विभिन्न प्रदेशों से आए थे, इप्टा के इस संदेश और एक नई प्रतिबद्धता को तैयार करने के संकल्प के साथ इसे कश्मीर से कन्याकुमारी, पहाड़ों से मैदान तक फैलाने का जज़्बा लिए, अपने-अपने प्रदेशों में लौट आए। हमारा सिद्धांत था- "जनता का थिएटर : अवाम का, अवाम द्वारा, अवाम के लिए" और ‘‘भारतवर्ष के मेहनती लोगों की जयकार उनके संगीत में गूंजे।’’

प्रस्तुति—मित्रा सेन मजूमदार और ज़ाहिद ख़ान

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