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नई शिक्षा नीति और कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट छात्रों-शिक्षकों को शिक्षा से दूर करने का माध्यम!

शिक्षक दिवस पर बधाई के बजाय शिक्षकों के मौजूदा हालात और वर्तमान शिक्षा व्यवस्था पर चिंतन का समय है। नई शिक्षा नीति की खामियां औऱ सीयूईटी की गड़बड़ी शिक्षा के अति-केंद्रीकरण के साथ छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ है।
teachers day

शिक्षा और शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय शिक्षक दिवस का विशेष महत्व है। इस दिन छात्रों के साथ-साथ देश भी शिक्षकों को याद करता है, उनका सम्मान करता है। हर साल की तरह इस साल भी शिक्षक दिवस पर कई कार्यक्रम हुए, शिक्षकों को उत्कृष्टता के लिए पुरस्कार दिए गए, लेकिन इन सब के बीच राजधानी दिल्ली में छात्रों और शिक्षकों के एक संयुक्त मोर्चे ने नई शिक्षा नीति और कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट यानी सीयूईटी को लेकर एक प्रेस वार्ता के माध्यम से अपनी चिंता जाहीर की। इस फोरम ने शिक्षा में कॉरपोरेटाइजेशन, आरक्षण की अनदेखी और इसके अति-केंद्रीकरण को छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ बताया। साथ ही सरकार से विश्वविद्यालयों के बजट में कटौती के बजाय उसे बढ़ाए जाने पर विचार करने की बात दोहराई।

बता दें कि सोमवार, 5 सितंबर को देश के पूर्व राष्ट्रपति डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन पर देशभर में शिक्षक दिवस के तमाम आयोजन हुए, शिक्षकों के योगदान को याद किया गया। इसी कड़ी में दिल्ली के प्रेस क्लब में ज्वाइंट फोरम फॉर मूवमेंट ऑन एजुकेशन के बैनर तले शिक्षा और शिक्षकों के समक्ष आज के समय में मौजूद तमाम समस्याओं और चुनौतियों पर चर्चा की। इसके अलावा सरकार की तमाम शिक्षा विरोधी नीतियों के खिलाफ एकजुटता भी जाहीर की।

क्या है शिक्षा के क्षेत्र में आज की समस्याएं और चुनौतियां?

दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) और फेडरेशन ऑफ सेंट्रल-यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (फेडकूटा) की पूर्व अध्यक्ष नंदिता नारायण ने अपने शुरुआती संबोधन में शिक्षकों को आज के समय में तनख्वाह से लेकर पेंशन और मेडिकल रीम्‍बर्समेंट में सामने आ रही दिक्कतों के बारे में अवगत कराते हुए कहा कि सरकार नई नीतियों के जरिए शिक्षकों को ही शिक्षा व्यवस्था से बाहर कर देना चाहती है। नंदिता के अनुसार शिक्षकों का खर्चा अब सरकार नहीं उठाना चाहती, इसलिए शिक्षा विरोधी नीतियों को लागू किया जा रहा है, जिससे धीरे-धीरे शिक्षक खुद ही अपने दायरे में सिमट जाए और आवाज़ तक न उठा सके।

नई शिक्षा नीति और कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट के मुद्दे पर बोलते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इसे शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की जानी-समझी साज़िश करार दिया। उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा कि आज सरकार शिक्षक को गुरु बनाकर उसका महिमामंडन करने में व्यस्त है लेकिन शिक्षकों और शिक्षा की असल समस्याओं को दरकिनार कर रही है। अपूर्वानंद के मुताबिक नई शिक्षा नीति में लेक्चर्स को ज्यादा से ज्यादा डिजिटलाइज करके शिक्षकों को हटाने की कोशिश की जा रही है। और इन सबका सिलसिला विश्वविद्यालयों को बदनाम करने के साथ ही शुरू हो गया था। उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि आज विश्वविद्यालयों के शिक्षकों से सरकारी कर्मचारियों की तरह कोड ऑफ कंडक्ट साइन करवाया जा रहा है, जिसके तहत शिक्षक कहीं और किसी भी मुद्दे पर अपनी बात तक खुलकर नहीं रख पाएंगे, वो सरकार की शिक्षा विरोधी नीतियों पर ना चाहते हुए भी चुप्पी साधने पर मजबूर किए जा रहे हैं।

शिक्षा को प्राइवटाइज़ करने का नया तरीका

इसी वार्ता में आगे बढ़ते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की प्रोफेसर निवेदिता मेनन ने कहा कि ये पहली बार है जब अभी तक सेंट्रल यूनिवर्सिटीज में नए छात्रों का दाखिला पूरा नहीं हुआ। जुलाई में जहां कक्षाएं शुरू हो जाती थीं, वहीं अब तक हम एडमिशन तक नहीं कर पाए हैं। ये शिक्षा को प्राइवटाइज़ करने का नया तरीका है, जहां सरकारी कॉलेजों में दाखिला बाद में और प्राइवेट में पहले हो रहा है। निवेदिता ने एक अहम पहलु की ओर ध्यान आकर्षित किया कि पहले यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन विश्वविद्यालयों को ग्रांट दे देती थी, लेकिन अब हाइयर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी (हेफा) विश्वविद्यालयों को लोन दे रही है जिसके बदले वो अपनी मन-मर्जी मुताबिक सिलेबस और नीतियां लागू करवा सके। इसके अलावा निवेदिता ने विलय प्रणाली पर भी सवाल उठाते हुए पूछा कि 3 हजार से 4 हजार बच्चों को एक साथ टीचर कैसे पढ़ा सकता है। डिजिटल माध्यम क्लासरूम की जगह कैसे ले सकते हैं?

अल्पसंख्यक संस्थानों में फंड की कटौती के मामले को केंद्र में रखते हुए जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर मज़िद जमिल और शिखा कपूर ने कहा कि जामिया जैसे संस्थान में आज छात्रों के लिए बेसिक क्लासरूम सुविधाएं भी नहीं हैं। बजट की कमी के चलते पानी, बिजली और लिफ्ट की मैंटेनेंस तक नहीं हो पा रही है। ये सरकार का सीधा-सीधा संस्थान को टारगेट करने की कोशिश है, जहां हाशिए पर खड़े लोग पढ़ने आते हैं, गरीब अल्पसंख्यक जो मदरसों में पढ़े हैं और मुख्यधारा से बेहतर शिक्षा के सहारे जुड़ना चाहते हैं। सरकार उन्हें अपनी शिक्षा विरोधी नीतियों के जरिए रोकना चाहती है।

शिखा कपूर ने नई शिक्षा नीति के तहत सीयूईटी में वैकल्पिक प्रश्नों यानी मल्टीपल चॉइस सवालों के नकारात्मक पहलू को उजागर करते हुए कहा कि ये तरीके गणित के लिए शायद फिर भी चल सकते हैं लेकिन सोशल साइंसेस जैसे विषयों में ये बिल्कुल अस्वीकार्य हैं। ये उन लोगों द्वारा तैयार किए जा रहे हैं, जिनका अकैडमिक्स से कोई लेना-देना ही नहीं है, शिक्षकों को इसमें शामिल ही नहीं किया गया। उन्होंने सच्चर कमेटी की रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए नई शिक्षा नीति में आरक्षण की अनदेखी को भी शिक्षा तक पहुंच के खिलाफ बताया।

समृद्ध लोगों को फायदा और वंचितों-शोषितों को शिक्षा से दूर

जेएनयू शिक्षक संघ की ओर से बोलते हुए प्रोफेसर सुचारिता सेन ने कहा कि सरकार की मंशा सरकारी शिक्षा को समाप्त कर प्राइवेट शिक्षा व्यवस्था को आगे बढ़ाना है, जिसके जरिए देश के केवल एक-दो लोगों को फायदा पहुंचाने की कोशिश की जा रही है। उन्होंने जेएनयू में एमफिल के कोर्स की बात रखते हुए कहा कि इसे खत्म कर सरकार कुछ कंपलसरी कोर्स शुरू करना चाहती है, जो शिक्षा के व्यवसायीकरण को बढ़ावा देंगे। सुचारिता के अनुसार सीयूईटी मुख्य रूप से छात्रों को रोकने का तरीक़ा है। ये एक ऐसा फ़िल्टर है जो केवल समृद्ध लोगों को फायदा पहुंचाएगा और वंचितों शोषितों को शिक्षा से दूर कर देगा।

वहां उपस्थित और भी विभिन्न संस्थानों और विश्वविद्यालयों के छात्र और शिक्षकों ने अपनी बातों में नई शिक्षा नीति और सीयूईटी के संबंध में कई महत्वपूर्ण बातें रखीं। जैसे नई शिक्षा नीति में स्कूल कॉम्प्लेक्स का प्रावधान किया गया है। ऐसे में जो स्कूल अच्छे होगें, वो और अच्छे होते चले जाएँगे और ख़राब स्कूल और अधिक ख़राब। ये हम सब जानते हैं कि सरकारी स्कूल प्राइवेट के मुक़ाबले कहाँ हैं। तो इससे फ़ायदा प्राइवेट वालों को ही होगा। इसके अलावा 12वीं की परीक्षा पास कर कॉलेजों में प्रवेश लेते रहे छात्रों के ऊपर अब सीयूईटी के रूप में एक और परीक्षा लाद दी गई है। जिसके लिए आगे चलकर कोचिंग का बाज़ार खड़ा हो जाएगा।

वोकेशनल कोर्स के नाम पर गरीबों को मुख्यधारा से अलग करने की एक कोशिश

कई वक्ताओं ने कहा कि सरकार नई शिक्षा नीति के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें कर रही है, लेकिन ये वोकेशनल कोर्स के नाम पर ग़रीब और निचले तबके के लोगों को मुख्यधारा से अलग करने की एक कोशिश है। स्किल इंडिया मिशन के बहाने ऐसे लोगों को कम दिहाड़ी के दुकानों पर मज़दूरी करने के लिए धकेल दिया जाएगा। 12वीं अगर पास भी कर लेंगे तो डॉक्टर इंजीनियर नहीं बन पाएँगे। शायद सरकार चाहती है कि लोग पकौड़े तलकर ही खुश रहें। कई शिक्षकों ने इंडियन एजुकेशन सर्विस, राष्ट्रीय शोध प्रतिष्ठान, नेशनल हायर एजुकेशन रेगुलेटरी ऑथोरिटी, नेशनल टेस्टिंग एजेंसी जैसी नई-नई संस्थाओं पर भी सवाल उठाएं। उनका मानना थे कि इन संस्थानों के माध्यम से सरकार केजी से पीजी तक सब कुछ अपने हाथ में ले लेना चाहती हैं, जिसमें स्वयं सेवकों का भी अहम रोल है। कई लोगों ने इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एजेंडा भी बताया, जो पूरे भारत के शिक्षा का भगवाकरण करना चाहती है।

गौरतलब है कि सालों से शिक्षा के लिए संघर्ष कर रहे लोगों का नारा है कि बजट का दसवां हिस्सा शिक्षा के लिये निर्धारित किया जाए, शिक्षा को आखिरी पंक्ति के लोगों तक पहुंचाया जाए, ये केवल कुछ लोगों तक ही सिमट कर ना रहे। क्योंकि हमारा देश संविधान से चलता है और यहां सभी को शिक्षा का अधिकार है। लेकिन चूंकि शिक्षा संविधान में समवर्ती सूची का विषय है, जिसमें राज्य और केन्द्र सरकार दोनों का अधिकार होता है, इसलिए राज्य सरकारें इसे पूरी तरह नई शिक्षा नीति को माने ये ज़रूरी नहीं है। लेकिन ज्यादातर राज्यों में जहां बीजेपी की डबल इंजन सरकार है वहां इसका लागू होना तय माना जा रहा है। ऐसे में शिक्षा से जुड़े लोगों में एक भय पैदा हो गया है कि कहीं विश्व गुरु की चाह रखने वाला भारत वास्तविक शिक्षा और शिक्षकों से ही दूर न हो जाए।

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