ओडिशा: ईंट-भट्टे के कारोबार में जलती आदिवासी ज़िंदगी

कोरापुट ज़िले में ईंट–भट्ठे का कारोबार एक कुटीर उद्योग का रूप ले चुका है। शुरुआत में यह कारोबार आत्मनिर्भरता का स्रोत था, लेकिन अब यह गले की फांस बन चुका है। जिसकी चपेट में सबसे ज्यादा बच्चे आए हैं, जो बाल–मज़दूरी करने के लिए बाध्य हैं।
कोरापुट, दक्षिण ओडिशा का एक आदिवासी बहुल जिला है। जो छत्तीसगढ़ और आंध्र प्रदेश से नजदीक है। यहां कोंध, परजा, गदाबा, पाइका जैसी प्राचीन अनुसूचित जनजातियां निवास करती है। कोरापुट के सड़कों से गुजरते हुए पास के खेतों में ईंट भट्टे के गुंबदनुमा आकृति का दिखना बेहद आम है।
घर में कैसे बनाया जाता है ईंट
कोरापुट का केंदार गांव— ऊंचे पहाड़ के तलहटी में बसे इस गांव में लगभग 70 परिवार रहते हैं। यहां 5 परिवार ईंट भट्टे का काम करता है। ईंट बनाने का काम यहां घरेलू स्तर पर होता है। जिसमें परिवार के सभी सदस्यों की भागीदार होती है।
यह फ़रवरी का महीना है, सूर्य माथे पर धूप उगल रहा है। 46 साल के ‘सदा जानी’ पिछले चार घंटे से ईंट के लिए मिट्टी गूंथ रहे है। यह बहुत ही महीन काम है। पहाड़ पर एक सीढ़ीनुमा खेत है, खेत की मिट्टी एकदम लाल है। सदा और उनके परिवार के छह बच्चे पहले मिट्टी को काटते हैं फिर उसपर पानी डालकर जोर–जोर से गीली मिट्टी पर कूदते हैं, यह प्रक्रिया लगभग दो घंटे तक चलती है। उसके बाद गूंथे हुई मिट्टी को बाहर ले जाकर इकट्ठा किया जाता है।
सदा की पत्नी गायत्री गूथीं मिट्टी को एक सांचे में डालती है और कुछ दूर ले जाकर सांचे को उलट देती है। अब मिट्टी एक कच्ची ईंट में बदल चुका है। लेकिन इस कच्चे ईंट को पूरा तैयार होने के लिए अभी कई जटिल प्रक्रिया से गुजरना होगा।
कच्चे ईंट को एक गुम्बद के आकार के टीले में सजाया जाता है। दो ईंट के बीच पर्याप्त जगह रखी जाती है जिसमें धान की भूसी और लकड़ी के कोयले को रखा जाए। कुछ दिनों के बाद उसमें आग लगा दी जाती है। यह पूरी ईंट तैयार होने की प्रक्रिया है।
ईंट बनाने की प्रक्रिया जितनी जटिल है, उससे कहीं ज्यादा जटिल जीवन इन आदिवासी मजदूरों का है। जो ईंट भट्टी में अपनी देह को झोंक रहे हैंं।
कैसे शुरू हुआ कारोबार
2017 में प्रकाशित स्लेवरी इन इंडियाज ब्रिक किन्स की रिपोर्ट के अनुसार, “पूरे भारत में लगभग 2.3 करोड़ मजदूर ईंट भट्ठे के कारोबार में मजदूरी करते हैं”।
इन आदिवासी इलाकों में घर में ईंट बनाने का काम पलायन से जुड़ा है। 1960 के दशक में ओडिशा के कुछ जिलों में अकाल और भुखमरी जैसी समस्या पैदा हुई। इन जिलों में कालाहांडी, रायगढ़ा और कोरापुट जैसे जिले की स्थिति बेहद खराब थी। यह जिले आंध्र प्रदेश से सटे भी थे। यहां से आदिवासी मजदूरों का पलायन शुरू हुआ। अस्सी और नब्बे के दशक में पलायन में और तेजी आई जब इस इलाके में सुखा पड़ा और फसलों की पैदावार में भारी कमी आई।
आदिवासी मजदूर ठेकेदारों के माध्यम से आंध्र प्रदेश के बड़े-बड़े ईंट भट्टे में जाते रहे और आंध्र प्रदेश के भट्टे के मालिक, ठेकेदार के साथ गठजोड़ करके इन मजदूरों का शोषण करते रहे। आज भी कई मजदूर पलायन के लिए मजबूर हैं।
हमारी मुलाकात हुई बिशु से, बिशु 2015 तक आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के ईंट भट्टे में अपने पूरे परिवार के साथ घूम-घूम काम करते रहे। बिशु बताते हैं, “ईंट बनाने का काम जनवरी से जून तक ही चलता है। इसी समय बारिश आने की संभावना कम होती है। आंध्र में हमें परिवार के हिसाब से वेतन मिलता था। पहले ठेकेदार हमें 50 हजार रुपया एडवांस देकर ले जाता था। फिर वहां रोज़ खाने के लिए 80 रुपया मिलता था। इतने रुपए में पूरे परिवार को एक दिन खाना होता था जो कि मुश्किल था। 1000 ईंट को बनाने पर भट्ठे का मालिक 370 रुपया देता था। हम पूरा परिवार मिलके एक महीने में 10 हजार के आस-पास ईंट बना पाते थे। हमारे परिवार में 5 लोग थे। इतने मेहनत के बाद एक आदमी लगभग 6 हजार रुपए एक महीने में कमा पाता था”।
बिशु अब कोरापुट में ही ईंट भट्टे का कारोबार करते हैं, बिशु कहते हैं, “जब हमने अपने यहां कारोबार शुरू किया तो शुरुआत में बहुत फायदा हुआ। ठेकेदार हमारी मदद भी करते थे। वे हमें कोयला और एडवांस पैसे भी उपलब्ध कराते थे। और समय – समय पर ईंट भी ले जाते थे। पर अब बहुत यह घाटे का सौदा हो चुका है। हमारे कई खेत गड्ढे में बदल चुके हैं, उसमें अब खेती नहीं की जा सकती”।
पिछले 10 साल से यहां के मजदूरों ने अपने घर में ही ईंट बनाने का काम शुरू किया। यहां वैसे चुनौतियां कम है। पलायन की समस्या से आदिवासी मजदूरों को छुटकारा मिल गया, खेती के साथ एक कारोबार को चला सकते है। एक या दो परिवार के लोग साथ मिलकर एक पहाड़ी खेत का चुनाव करते है। खेत चुनते समय यह ध्यान रखा जाता है कि वहां पानी की सुविधा हो।
उसी खेत से मिट्टी की कटाई की जाती है। और फिर उसे ईंट का आकार दिया जाता है। ईंट पकाने के लिए धान की भूसी और लकड़ी का कोयला ठेकेदार के तरफ से उपलब्ध कराया जाता है। बाद में ईंट बिक्री के समय इसका पैसा कट जाता है।
शोषण में कैसे तब्दील हुआ कारोबार
मजदूरों का कहना है कि यह कारोबार अब उनके शोषण का जरिया बन चुका है। ईंट बनाने वाले समूह के मुखिया अनिल बताते हैं, “मेरा पूरा परिवार एक महीने में 20 हजार ईंट बना पाता है। ईंट जब तैयार हो जाता है तो ठेकेदार ट्राली लेके आता है और ईंट लादकर ले जाता है। हमें प्रति ईंट 3 रुपया दिया जाता है। जबकि ठेकेदार उसे 6 से 7 रुपए तक बेचता है। हमारे पास कोई साधन नहीं है, न ही ग्राहकों तक हमारी पहुंच है। जिसका खामियाजा हम भुगतते हैं”।
इस काम को करने के लिए ठेकदार, मजदूरों को ब्याज पर पैसा भी उपलब्ध कराते हैं जिससे वे ईंट पकाने के लिए धान की भूसी और कोयला जैसे अन्य संसाधन खरीदें। यहां के मजदूर कर्ज की समस्या से भी बहुत परेशान है।
अनिल कहते हैं, “यह कारोबार साल में 6 महीने ही चलता है। जनवरी से जून तक ही हम ईंट बना पाते हैं, उसके बाद बारिश का मौसम आ जाता है जिसमें काम रुक जाता है। इस समय हम ठेकेदार पर आश्रित होते हैं, वे हमें कर्ज देते हैं। और बाद में हम ब्याज के साथ चुकाते हैं।
बाल मज़दूरी करने को विवश बच्चे
इस कारोबार की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि बच्चे बाल मजदूरी करने को बाध्य हो रहे हैं। सदा जानी के घर में 5 बच्चे हैं। दो उनके बच्चे हैं और 3 उनके भाई के। बच्चों की उम्र 8 वर्ष से लेकर 15 वर्ष तक है। सदा से इस विषय पर पूछने पर वे कहते हैं, “बच्चे 6 महीने तो स्कूल जाते ही हैं इस समय थोड़ा काम बढ़ जाता है तो वे हमारी मदद करते हैं। हम उनसे छोटा काम लेते हैं।
यह कहने पर कि बाल मजदूरी गैरकानूनी है, सदा कहते हैं, “ फिर सरकार हमें पैसा दे, हम बच्चों को काम नहीं करने देंगें।
हमने बच्चों से बात करने की कोशिश की, “एक बच्चे ने कहा कि वह सप्ताह में दो से तीन दिन स्कूल जाता है क्योंकि उस दिन स्कूल में खाना अच्छा मिलता है। बाकी दिन काम करता है।
एक लड़की जिसकी उम्र 15 साल थी, ने बताया, “हम कहीं और काम करने नहीं जाते यह घर का काम है। हम अपने घर वालों के साथ काम करते हैं। लेकिन हमें स्कूल जाने का समय नहीं मिलता”।
शिक्षा विभाग से जुड़े एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर बताया, “ओडिशा सरकार बच्चों के ड्रॉप-आउट को लेकर काम कर रही है, ST और SC समुदाय से आनेवाले बच्चों के लिए स्कॉलरशिप और छात्रावास की सुविधा भी उपलब्ध कराई जा रही है। सबसे ज्यादा ड्रॉप आउट अभिभावकों के पलायन और बच्चों के अन्य काम में जुड़ने के कारण होता है। जिसका कोई ठोस उपाय अभी नजर नहीं आ रहा है”।
NIRC की प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में सबसे ज्यादा बाल-मजदूर की संख्या भारत में हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 79.7 मिलियन बच्चे बाल मजदूरी कर रहे हैं। ओडिशा में बाल मजदूरों के संख्या 4 लाख के आस-पास है।
कुछ व्यवसाय को मानवाधिकार आयोग ने चिह्नित किया है, इन व्यवसाय में सबसे ज्यादा बाल – मजदूर काम करते हैं। ईंट भट्टे का कारोबार भी इस सूची में शामिल है।
देश के संविधान ने बाल मजदूरी को खत्म करने के लिए कानून बनाए हैं। मौलिक अधिकार के तहत अनुच्छेद 21(a) में शिक्षा का अधिकार, अनुच्छेद 23(a) में मनुष्यों के अवैध व्यापार और जबरन मजदूरी पर रोक और अनुच्छेद 24 फैक्ट्री आदि में बच्चों के काम पर लगाए जाने पर रोक लगाता है।
बाल मजदूरी अधिनियम 1986 के अनुसार 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों किसी भी तरीके का काम लेने पर सख्त मनाही है।
लेकिन फिर वही सवाल उठता है कि ग़रीब के परिवार का पेट कैसे पले। इसे हल किए बिना न ग़रीब आदिवासी का शोषण रुकेगा, न उनके बच्चों की मज़दूरी।
(लेखक अभी ओडिशा में एक फेलो के रूप में काम कर रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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