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42 फीसदी भारत सूखे की चपेट में, 6 फीसदी इलाके में हालात ख़तरनाक़

केंद्र सरकार द्वारा 2016 में जारी किया गया नवीनतम सूखा मैनुअल सूखा घोषित करने की प्रक्रिया को लंबा और कठिन बना देता है, विशेषज्ञों का कहना है कि आधिकारिक तौर पर बहुत देर से सूखा घोषित करने से बहुत बुरे प्रभाव निकलते हैं।
महाराष्ट्र में सूखे का संकट
Image Courtesy : IndiaSpend

मार्च, 2019 की ड्राउट अर्ली वार्निंग सिस्टम से मिली जानकारी के तहत भारत का 42 फीसदी इलाका इस समय सूखे से जूझ रहा है। इसमें से तकरीबन 6 फीसदी इलाके की स्थिति बहुत अधिक खतरनाक हो चुकी है। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार, गुजरात और उत्तर पूर्व के कुछ इलाके इस समय सूखे की चपेट में हैं। इन राज्यों में भारत की कुल आबादी की तकरीबन चालीस फीसदी आबादी रहती है। जबकि केंद्र सरकार ने अभी तक कहीं भी सूखे की घोषणा नहीं की है, वहीं पर आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा, राजस्थान की सरकारों ने अपने यहां के कई जिलों में सूखे की घोषणा कर दी है। मानसून का महीना तो अब शुरू हो रहा है। जबकि सूखे की चपेट से यह सारे इलाके तकरीबन दस महीने से पीड़ित हैं। 
इस स्थिति के लिए बारिश की कम मात्रा पहला कारण है। इंडियन मेट्रोलॉजिकल डिपार्टमेंट के आंकड़ों के अनुसार नॉर्थ-ईस्ट मानसून, जिसे 'पोस्ट-मानसून वर्षा' (अक्टूबर-दिसंबर) के रूप में भी जाना जाता है, जो भारत को 10-20% वर्षा प्रदान करता है,  इसमें साल 2018 में 44.2% की कमी रही। साल 2015 से भारत लगातार सूखे से जूझ रहा है केवल साल 2017 अपवाद के तौर पर रहा। कम बारिश की वजह से जलाशयों के पानी का जलस्तर कम होता जा रहा है। देश के 91 प्रमुख जलाशयों में तकरीबन 32 फीसदी की कमी दर्ज की गयी है। दक्षिण भारत के 31 प्रमुख जलाशयों में इस कमी का स्तर तकरीबन 36 फीसदी तक पहुँच चुका है। इस तरह के लम्बे दौर तक मौजूद रहने वाले सूखे से कई तरह की परेशानियां उपजती हैं। जमीन के अंदर अधिक पानी निकालने की वजह से भूमिगत जलस्तर कम हो जाता है। गाँव के लोग पानी की समस्या से परेशान होकर शहरों की ओर पलायन करते हैं। गाँवों के गाँव खाली होते जाते हैं। राज्यों और जिलों के बीच पानी को लेकर झगड़ें बढ़ते हैं। खेती-किसानी पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।  
फिर भी, केंद्र सरकार द्वारा 2016 में जारी किया गया नवीनतम सूखा मैनुअल सूखा घोषित करने की प्रक्रिया को लंबा और कठिन बना देता है, विशेषज्ञों का कहना है कि आधिकारिक तौर पर बहुत देर से सूखा घोषित करने से बहुत बुरे प्रभाव निकलते हैं। इसका मतलब है कि राहत के उपाय जैसे कि पेयजल उपलब्धता, रियायती दर पर डीजल और सिंचाई के लिए बिजली, राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत तयशुदा कामों के दिनों की संख्या में बढ़ोतरी नहीं की जाती है। और ऐसे माहौल में अगर चुनाव आ गया तो स्थिति बहुत अधिक गंभीर हो जाती है। 
शोधकर्ताओं का मानना है कि जलवायु परिवर्तन की दशाओं की वजह से सूखे की बारम्बारता बढ़ती जा रही है। आज हमलोग बहुत अधिक गर्म हो रही दुनिया में रह रहे हैं। अगर यह ऐसे ही बढ़ता रहा तो सूखे से बहुत भयंकर परिणाम निकल सकते हैं। ग्लोबल वार्मिंग की  वजह से उन दशाओं में भी कमजोरी आ रही है, जिनसे मजबूत मानसून बनता था और अधिक बारिश होती थी। जलवायु की दशाओं में इतना अधिक परिवर्तन हो रहा है कि केरल में भयंकर बाढ़ आती है तो तमिलनाडु और ओडिशा में भयंकर चक्रवात। इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज की रिपोर्ट के अनुसार साल 1800 यानी औद्योगिक क्रांति की शुरुआत से लेकर अब तक पृथ्वी के तापमान में एक फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। अगर इस तापमान में 1. 5 फीसदी से अधिक बढ़ोतरी हुई तो दुनिया के कई जगहों पर बारिश भयंकर होगी और साथ में सूखा भी भयंकर पड़ेगा। जलवायु परिवर्तन की वजह से मानसून लाने वाली दशाओं में परिवर्तन हो रहा है। इससे भारत के कई इलाके में बारिश होने के पैटर्न बदल रहे रहे हैं। इससे हो सकता है कि सूखा और बाढ़ की संभावनाएं और अधिक बढ़ती जाए। शायद यही वजह है  कि भारत के उत्तर पश्चिम इलाके में कम बारिश हो रही है और लगातरा सूखा पड़ रहा है। 
इसका खामियाजा कृषि अर्थव्यस्था को भुगतना पड़ता है। भारत की 50% आबादी कृषि पर निर्भर है। कृषि लायक जमीन के 50 फीसदी से जमीन पर बारिश होती है। सूखे की वजह से इन जमीनों पर होने वाली खेती पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ने वाला है। इससे सबसे अधिक नुकसान उन मजदूरों को होगा जो दूसरे के खेतों में मजदूरी कर अपना गुजारा करते हैं। सामान्य स्थिति  में उन्हें साल के औसतन 150 -160 दिन काम मिल जाता है। लेकिन सूखे के हालत में काम मिलने वाले दिनों की संख्या और कम हो जाती है। कर्जा लिए हुए किसान की स्थिति बदतर हो जाती है।

पर्यावरणविद हिमांशु ठक्कर कहते हैं कि ऐसे हालत में सरकार के जल संसाधन से जुड़े बड़े प्रोजेक्ट जैसे नदी जोड़ो परियोजना, हाइड्रो पावर, बड़े बाँध बनाने से ज्यादा मदद नहीं मिलती है। ऐसे हालात में माइक्रो इरिगेशन से जुडी परियोजनाएं है कारगर होती हैं। सूखे के ऐसे हालत से जूझने की पहली लड़ाई तो यह है कि सही समय पर स्वीकार कर लिया जाए किसी इलाके में सूखे की स्थिति है और उस तरह वहां पर काम किया जाए। पूरी तरह से यह लागू होने के बाद भी यह केवल तात्कालिक समाधान है। असली सामधान यह है कि जलवायु परिवर्तन से जूझने की हर लड़ाई कारगर तरह से लड़ी जाए और पूरी दुनिया को बाध्य किया जाए कि वह उस पर एकमत हो। साधारण शब्दों में यह कि भारत में बारिश उपयुक्त मानसूनी दशाओं से होती है। और इन दशाओं में परिवर्तन के लिए भारत जिम्मेदार नहीं है बल्कि पूरी दुनिया की ग्लोबल वार्मिंग इसे प्रभावित करती है। इसलिए सूखा चाहे महाराष्ट्र के लातूर में पड़े या मराठवाड़ा में लड़ाई केवल भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका से लेकर यूरोप तक में होनी चाहिए। और हमारी सरकारों को भी अपनी ज़िम्मेदारी पूरी ज़िम्मेदारी से निभानी चाहिए। 

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