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#महाराष्ट्र_सूखा : किसान अपने मवेशियों को न बेच पा रहे हैं, न बचा पा रहे हैं!

क़र्ज़ और पीने के पानी की कमी को लेकर किसान चिंतित हैं कि वे अपने मवेशियों को आख़िर कैसे बचा पाएंगे।
Hingoli Market
हिंगोली बाज़ार। फोटो : अमय तिरोदकर

[वर्ष 1972 के बाद से महाराष्ट्र कई बार सूखे की मार झेला लेकिन इस बार ये राज्य सबसे ज़्यादा प्रभावित है। राज्य सरकार ने 350 में से 180 तहसीलों को सूखा घोषित कर दिया है। पूरा मराठवाड़ा (दक्षिणी और पूर्वी महाराष्ट्र का क्षेत्र) क्षेत्र अब बेहद ख़तरनाक स्थिति में है। न्यूज़क्लिक द्वारा ग्राउंड रिपोर्ट की श्रृंखला का अगला भाग]

मराठवाड़ा के हिंगोली ज़िले के 63 वर्षीय साहेबराव बंगर पशु व्यापारी हैं। हिंगोली में मवेशियों के साप्ताहिक बाज़ार में रिपोर्टर ने बंगर से मुलाक़ात की। बंगर ने कहा, “देखिए, मुझे आपसे बात करने का कितना समय  है। यदि आप इस बाज़ार में लगभग तीन साल पहले आए होते तो मैं आपसे एक शब्द भी बात नहीं कर पाता। पर क्या करें? धंधे की मिट्टी की भी क़ीमत नहीं रही।”

वे पिछले 25 वर्षों से इस व्यवसाय में हैं। बंगर इस बाजार में सात से आठ मवेशी बेचते थे। वे कहते हैं, “यह इस ज़िले का बाज़ार है। यहां इस तरह का कारोबार होता है। अब मैं पांच मवेशियों को भी इस बाज़ार में नहीं लाता। जितना मैं यहां कमाता हूं उससे कहीं ज्यादा टैंपो का किराया [मवेशियों के लिए] है।

हम महाराष्ट्र में कहीं भी जाते हैं हर जगह की कहानी यही है। व्यापक रूप से चर्चा की गई और आलोचना की गई कि यह सब महाराष्ट्र पशु संरक्षण अधिनियम 2015 की वजह से है। ये अधिनियम जिसके चलते राज्य में गोमांस प्रतिबंध को लागू किया गया है वह किसानों के परेशानियों को बढ़ाने के साथ-साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मंदी का एक प्रमुख कारण भी है।

पीने के पानी और क़र्ज़ जैसे मुद्दों के अलावा महाराष्ट्र का बड़ा हिस्सा सूखे की मार झेल रहा है ऐसे में किसान चिंतित हैं कि वे अपने मवेशियों को कैसे बचा पाएंगे। न्यूज़़क्लिक ने अपनी पहली की रिपोर्ट में इसका जि़क्र किया था कि किस तरह किसान चारे की कमी की वजह से पशुओं को कम क़ीमत पर बेच रहे हैं।

उस्मानाबाद के लीत गांव के शंभुराजे निम्बालकर के पास दो गायें थीं और उन्होंने दोनों गायों को बेच दिया। वे कहते हैं, “सामान्य बाजार दरों के हिसाब से हम 1 लाख 40 हजार रुपये कमा लेते थे। लेकिन मवेशी बाजार पहले से ही ख़राब हो गया है और इसके अलावा यहां अब पानी की कमी भी है। मुझे सिर्फ 60,000 रुपये ही हासिल हुए हैं।” उस्मानाबाद के हिवरा गांव के 78 वर्षीय गहिनाथ जगदाले ने न्यूज़क्लिक को बताया कि उन्होंने गुजारा करने के लिए अपनी तीन गायों को बेच दिया। “हमारे पास पीने के लिए पानी नहीं है। फिर मैं उन गायों को कैसे रख पाऊंगा? उन्हें चारे और पानी की आवश्यकता होती है।” ऐसी विकट स्थिति में मवेशियों की बिक्री से किसानों को कई तरह से मदद मिली। हालांकि गोवंश हत्‍या बंदी उनके समक्ष बड़ी रुकावट बन गई है।

हिंगोली ज़िले की वसमत तहसील के एक किसान पंडितराव होदे कहते हैं, “देखिए अब किसानों को दोनों तरफ से मारा जा रहा है। पहला, हमें सरकार से पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं मिल रही है। इसलिए, मवेशियों की बिक्री से हमें कुछ वित्तीय राहत मिली। लेकिन सरकार ने इसे अधिनियम में शामिल कर लिया है और किसान अपने मवेशियों की अच्छी क़ीमत पाने में असफल हो रहे हैं।”

किसानों के साथ-साथ व्यापारियों को जो सबसे ज्यादा तबाह करने वाले है वह है कालीन पर प्रतिबंध। लातुर ज़िले के निलंगा मवेशी बाज़ार में बरशी सोलापुर से आए एक व्यापारी अशोक गवहाने कहते हैं, “देखिए, हम व्यापारी हैं। लेकिन मैं आपको बता दूं कि कोई भी गोमांस के लिए अपनी गायों को नहीं बेचता था। गोमांस के लिए जो बेचा जा रहा था वह बैल, सांड और भैंस था। गायों को हमेशा दूध के लिए बेचा जाता था। सरकार को इस कानून को लागू करने से पहले कालीन प्रतिबंध के बारे में सोचना चाहिए था।”

जैसा कि सभी लोग जानते हैं इस अधिनियम को लागू करने के पीछे का मक़सद पूरी तरह से सैद्धांतिक था। यह छिपा नहीं है कि इसके पीछे एजेंडा आश्चर्यजनक रूप से पूरी तरह से मुस्लिम-विरोधी है। हालांकि इस दावे के समर्थन के लिए कोई डेटा नहीं है, लेकिन यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मुस्लिम समुदाय की एक बड़ी संख्या बीफ उद्योग में काम करती है। हालांकि महाराष्ट्र में भी हिंदू व्यापारी भी हैं, और सरकार को यह समझना चाहिए कि व्यापार और अर्थव्यवस्था हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अंतर नहीं करते हैं।

निलंगा बाजार में आए तौफीक बेपारी और बालाजी तरंगे दोनों 15-20 साल से इस व्यवसाय में हैं। तौफीक का कहना है, “अगर हम 60,000 रुपये में एक सांड खरीदते हैं तो हमें इसे कई बाज़ारों में ले जाना पड़ता है। यदि यह सांड नहीं बिकता है तो हम इसे अपने पास रखते हैं। एक पशु पर हर महीने पानी और चारे का खर्च लगभग 3,000-4,000 रुपये होता है। इसलिए सांड की लागत इस तरह बढ़ जाती है। इन्हें बाजार तक ले जाने और उन्हें वापस लाने की अतिरिक्त लागत भी है। तो कुल मिलाकर लागत केवल डेढ़ महीने में 70,000 रुपये हो जाती है। अगर हमें 70,000 रुपये नहीं मिलते हैं तो हमें क्या करना चाहिए?”

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(बालाजी तरंगे। फोटोः अमय तिरोदकर)

तरंगे ने कहा, “पहले, हैदराबाद और मुंबई की कंपनियां बैल और भैंस के लिए ग्रामीण बाजारों तक आती थीं। यह स्पष्ट रूप से बीफ के लिए ही आती थी। अब चूंकि बाजार बंद है तो हम यहां व्यापार करने में असफल हो रहे हैं।”

ऐसी हालत में किसान सरकार की तरफ देख रहे थे जिसे उन्होंने चुना है। लेकिन सरकार किसानों के बचाने में स्पष्ट रूप से विफल रही है। एक किसान ने सवाल किया, “अगर सरकार हमारी बात नहीं सुनेगी तो हम क्या करेंगे?"

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