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केवल आर्थिक अधिकारों की लड़ाई से दलित समुदाय का उत्थान नहीं होगा : रामचंद्र डोम

आर्थिक और सामाजिक शोषण आंतरिक रूप से जुड़े हुए हैं। माकपा की पोलिट ब्यूरो में चुने गए पहले दलित सदस्य का कहना है कि सामाजिक और आर्थिक दोनों अधिकारों की लड़ाई महत्वपूर्ण है।
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कोलकाता: 'जनता के डॉक्टर' के नाम से मशहूर डॉ रामचंद्र डोम, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की हाल ही में केरल के कन्नूर में संपन्न हुई 23वीं पार्टी कांग्रेस में पोलिट ब्यूरो में चुने जाने वाले पहले दलित सदस्य हैं।

डॉ डोम, बीरभूम (आरक्षित) निर्वाचन क्षेत्र और बाद में बने बोलपुर निर्वाचन क्षेत्र से सीपीआई (एम) की ओर से सात बार लोकसभा सांसद रहे हैं, डॉ डोम ने बचपन से ही गरीबी और सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ़ लड़ाई लड़ी है, लेकिन ये हालत भी उन्हें एक चिकित्सक बनने से नहीं रोक पाए। वर्तमान में, वह देश भर में दलित समुदाय के उत्थान के लिए काम करने वाले अखिल भारतीय संगठन, दलित शोशणन मुक्ति मंच के महासचिव हैं।

रामचन्द्र डोम 

न्यूज़क्लिक ने 63 वर्षीय कम्युनिस्ट नेता के साथ उनके जीवन और समय, वाम आंदोलन में उनकी भागीदारी और दलित आंदोलन के सामने आने वाली चुनौतियों पर बात की है। यहाँ संपादित अंश पेश किए जा रहे हैं।

एससी : कृपया हमें अपने बचपन और संघर्षों के बारे में कुछ बताएं।

आरडी: मेरा जन्म तत्कालीन गरीबी से त्रस्त गांव चिल्ला में हुआ था, जो बीरभूम के एक दुर्बोध हिस्से में मौजूद है और में एक अनुसूचित जाति डोम परिवार में पैदा हुआ था। मेरे पिता और उनके भाइयों के पास जोतने के लिए केवल 1.5 बीघा जमीन थी, इसलिए, उन्हें परिवारों को चलाने के लिए ग्रामीण कारीगरों (बढ़ईगीरी) के रूप में भी काम करना पड़ता था। हम छह भाई और तीन बहनें थे और मैं अपने भाई-बहनों में तीसरा था।

हमारे समय में (1960 और 70 के दशक में) गाँव में बहुत कम लोग ही पढ़ाई का खर्च उठा पाते थे। मेरे बड़े भाई को मेधावी होने के बावजूद 9वीं कक्षा में आधी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। दो अन्य भाइयों को स्कूलों में पढ़ने का मौका नहीं मिला और वे ग्रामीण कारीगरों के रूप में काम करने लगे। केवल एक छोटा भाई स्नातक हुआ और वर्तमान में सरकारी सेवा में है।

मुझे हर कदम पर सामाजिक कुरीतियों से जूझना पड़ा, हालांकि मेरे स्कूल में मेरे शिक्षकों ने मुझे काफी प्रोत्साहित किया, जिनमें से कई शिक्षक वामपंथी थे। उन्होंने मेरी पढ़ाई में मेरी मदद की और मुझे अपने बच्चे की तरह पाला।

70 के दशक में, अपने स्कूल के वर्षों के दौरान, मैं छात्र आंदोलन से जुड़ गया और मुझे सामाजिक उत्पीड़न और तत्कालीन सत्ताधारी पार्टी (कांग्रेस) की यातना का सामना करना पड़ा, पढ़ाई करने का साहस दिखाने और साथ ही छात्र आंदोलन में शामिल होने के कारण मेरे स्कूल के वर्षों के दौरान मुझ पर मुकदमा चलाने के लिए एक गण अदालत (कंगारू अदालत) का गठन भी किया गया था। मुझे गांव के दबंगों के हमलों का सामना करना पड़ा। हालाँकि, जल्द ही मेरे गाँव ने वामपंथी मोड़ ले लिया और मुझ पर हो रहे अत्याचार के विरोध में हम सब एकजुट हो गए थे।

माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद, और संयुक्त प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद 1976 में मैंने प्री-मेडिकल पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया था। एक बार फिर इस उपलब्धि में मेरे शिक्षकों की भूमिका काबिले तारीफ थी। मेरे गाँव के कई शिक्षकों और शुभचिंतकों ने भी कोलकाता में कोर्स करने के लिए आर्थिक रूप से मेरी मदद की थी।

कोलकाता में, मैं शुरू में स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) के राज्य के कार्यालय में रहा और फिर एक अन्य सेवारत व्यक्ति के साथ दमदम पाटीपुकुर इलाके की झुग्गियों में एक कमरा ले लिया। उस समय तक, मैंने कुछ पैसे कमाने के लिए कोलकाता में निजी ट्यूशन भी लेना शुरू कर दिया था।

1977 में, पश्चिम बंगाल में एक राजनीतिक परिवर्तन हुआ (वाम मोर्चा सत्ता में आ गया) जिसने मुझे अनुसूचित जाति के लिए बने वजीफा को समय पर हासिल करने में मदद की और मैं मेडिकल छात्रों के लिए बने एनआरएस (निल रतन सरकार) छात्रावास में चला गया और पहाई के साथ विभिन्न मेडिकल कॉलेजों में एसएफआई संगठन बनाने के काम में शामिल हो गया। 

1984 में, मैंने अपनी चिकित्सा शिक्षा पूरी की और 1986 में एक ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र में एक डॉक्टर के रूप में बीरभूम चला गया। बाद में, मैं स्वास्थ्य ब्लॉक चिकित्सा अधिकारी भी बन गया था। हालाँकि 1989 में, माकपा ने मुझे अपनी सरकारी नौकरी छोड़ने के लिए कहा, और मैंने नौकरी छोड़ दी थी। उसी वर्ष पार्टी ने मुझे लोकसभा चुनाव में बीरभूम से प्रतिनिधित्व करने के लिए नामित किया। इस प्रकार मेरा संसदीय जीवन शुरू हुआ।

इस सब के बीच, मैं युवा आंदोलन के प्रमुख आयोजकों में से एक था और डेमोक्रेटिक यूथ फेडरेशन ऑफ इंडिया या डीवाईएफआई का केंद्रीय कार्यकारी सदस्य बना।

वैसे, एमबीबीएस पास करने के बाद मैं अपने समुदाय का दूसरा ऐसा व्यक्ति बना जो एक मेडिकल प्रैक्टिशनर बन गया था।

दलित आंदोलन के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर आपका क्या विचार है?

दलित का अर्थ है उत्पीड़ित और उत्पीड़ित वर्गों के उत्थान का आंदोलन मध्य युग के दौरान शुरू हुआ था। श्री चैतन्यदेव ने भक्ति आंदोलन की शुरुआत की, जिसकी नींव उत्पीड़ित वर्गों के उत्थान पर आधारित थी। उत्पीड़ित वर्गों के उत्थान के लिए यह पहला संगठित आंदोलन था

समकालीन समय में, ये डॉ बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर थे जिन्होंने इस आंदोलन का आगाज़  किया था। बंगाल में, जोगेन मंडल ने आंदोलन का नेतृत्व किया और यह आंदोलन का बड़ा केंद्र था। बाबासाहेब ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण सुनिश्चित करके दलितों को स्वतंत्र भारत में उनके उत्थान का मार्ग प्रशस्त करने का अवसर दिया था। हालाँकि, यह एक सर्व-अनुकूल प्रणाली नहीं थी।

बंगाल में हाशिए के वर्गों के उत्थान में वाम मोर्चा सरकार की क्या भूमिका रही है?

वाम मोर्चा सरकार के शासन के दौरान, स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन किया गया था। स्कूल के बुनियादी ढांचे में काफी सुधार हुआ था। समय पर वजीफा दिया गया और राज्य के विभिन्न हिस्सों में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के छात्रावासों ने काम करना शुरू कर दिया था। मध्याह्न भोजन योजना के साथ, वाम मोर्चा सरकार ने हाशिए के वर्गों को शिक्षा के क्षेत्र में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया था। संक्षेप में कहें तो राज्य में वामपंथी शासन के 34 वर्षों के दौरान वंचित समाज के तबकों को बहुत फायदा हुआ था। 

आपने कहा है कि देश में दलितों के उत्थान के लिए आरक्षण ही एकमात्र रास्ता नहीं है। क्यों?

भूमि अधिकार, काम का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, आवास का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार और राजनीतिक सशक्तिकरण जाति-प्रधान भारतीय समाज की जड़ों को नष्ट करने की कुंजी है। सामाजिक सशक्तिकरण के बिना दलितों के उत्थान का आंदोलन अधूरा रहेगा। आज भी दक्षिण भारतीय राज्यों में केरल को छोड़कर कई मंदिरों में दलितों को प्रवेश करने का अधिकार नहीं है।

आर्थिक और सामाजिक शोषण आंतरिक रूप से जुड़े हैं। हमारी पार्टी के अनुसार, दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ी जातियाँ भारत में वर्ग संघर्ष के प्रमुख घटक हैं। सामाजिक और आर्थिक दोनों अधिकारों के लिए लड़ाई महत्वपूर्ण है। केवल दलितों के आर्थिक एजेंडे पर लड़ने से समुदाय का उत्थान नहीं होगा, जिस तरह केवल सामाजिक एजेंडे के लिए लड़ने से भी कोई फायदा नहीं होगा। इन दोनों एजेंडे को आत्मसात करने से ही उत्पीड़ित वर्गों का वास्तविक उत्थान हो सकता है। हम मार्क्सवादियों का दृढ़ मत है कि इसके लिए एक क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता है।

देश में दलितों की वर्तमान स्थिति क्या है?

उत्तर भारत में, सामाजिक और जातिवादी विभाजन बेहद तेज हैं। पश्चिम बंगाल में, लंबे वाम शासन के कारण और समाज सुधारवादी आंदोलनों के कारण, ये विभाजन इतने गंभीर नहीं हैं। हालांकि, समाज के सामंती अवशेष अभी भी बहुत सक्रिय हैं। इसलिए, वर्तमान समय में पश्चिम बंगाल में दलित, आदिवासी और महिलाओं का एक वर्ग तरक्की विरोधी तत्वों का आसान निशाना बनता जा रहा है। इधर, इन मुद्दों पर शासकों का दृष्टिकोण भी महत्वपूर्ण है। इससे पहले इस तरह की किसी भी घटना के खिलाफ सख्ती से निपटा जाता था। अब राज्य सरकार के ढुलमुल रवैये के कारण ऐसी घटनाएं अक्सर हो रही हैं और बढ़ रही हैं। 

पिछले आठ वर्षों से, देश पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी के लोग शासन कर रहे हैं, जो मनुवादी दर्शन में विश्वास करते हैं। उनका मुख्य उद्देश्य वर्ण व्यवस्था (जाति व्यवस्था) की जड़ों को फिर से मजबूत करना है। उनका मूल उद्देश्य वर्तमान संविधान को नष्ट करके हिंदू राष्ट्र का निर्माण करना है।

यह ऐसा है जैसे कि देश वापस मध्य युग में लौट रहा है, जहां दलितों के यौन उत्पीड़न और सामाजिक उत्पीड़न में तेजी से वृद्धि के पीछे प्रतिगामी मानसिकता वाली प्रतिक्रियावादी ताकतों को देखा जा सकता है। पुलिस रिकॉर्ड केवल बड़े गुनाहों का छोटा सा हिस्सा है। बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस ने तरक्की विरोधी राज की शुरुआत की है और देश में संघ परिवार इस तरह के आतंक की साजिश रच रहा है।

पिछले दो वर्षों के दौरान यानी महामारी काल में शोषण कई गुना बढ़ गया है। एक मजबूत प्रतिरोध आंदोलन बनाने का यह सही समय है।

दलितों को न्याय न मिले इसके लिए उनके रास्ते बाधित किए जा रहे हैं। दूसरी ओर, केंद्र और राज्य सरकारों के इशारे पर बड़े पैमाने पर निजीकरण की पहल शुरू हो गई है, दोनों ही नव-उदारवादी नीतियों का पालन कर रहे हैं और देश के प्राकृतिक संसाधनों, जैसे जल, जंगल और आदिवासियों के भूमि संसाधनों के निगमीकरण का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं।

निजी क्षेत्र में कोई आरक्षण नहीं है। इससे सबसे ज्यादा प्रभावित वर्ग दलित, आदिवासी और आबादी के अन्य पिछड़े वर्ग हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े पैमाने पर निजीकरण और केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकार की इकाइयों में सरकारी विभागों में भर्ती रुकने के कारण शिक्षा और रोजगार खत्म हो रहे हैं।

इसलिए निजी क्षेत्र में शिक्षा और रोजगार में आरक्षण लागू किया जाना चाहिए और यदि आवश्यक हो तो इसके लिए संविधान में उपयुक्त संशोधन किया जाना चाहिए।

केवल सामाजिक आंदोलन ही दलितों और आदिवासियों की चिंताओं को दूर नहीं कर सकते हैं। केंद्र सरकार और उसके निजीकरण की नीतियों मोड को बदलने की लड़ाई शुरू की जानी चाहिए और सामाजिक आंदोलनों को इस सब के साथ-साथ चलना चाहिए। ऐसा कोई एक अकेला दलित संगठन नहीं कर सकता है। इसलिए एक सही रास्ता लिया जाना चाहिए। अकेले सहजता ऐसा नहीं कर सकती है।

दलित आंदोलन के सामने क्या मुद्दे हैं?

अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिए बनी उप-योजनाओं को वर्तमान सरकार ने निरर्थक बना दिया है और साथ ही आदिवासियों और दलितों के लिए योजना प्रक्रिया भी बेमानी हो गई है। इन योजनाओं का तत्काल कायाकल्प किया जाना चाहिए और दलितों और आदिवासियों के लिए उप-योजनाओं के लिए वैधानिक प्रावधान पेश किया जाना चाहिए। नीति आयोग द्वारा उप-योजनाओं के रखरखाव और जनसंख्या अनुपात के अनुसार बजटीय आवंटन बढ़ाने जैसे मुद्दों को उठाया जाना चाहिए।

पानी, जंगल और आदिवासियों के जमीन के अधिकार के मामले में समाज के वंचित तबकों के अधिकारों से समझौता नहीं किया जाना चाहिए साथ ही एससी/एसटी छात्रावास के मामले में भी कोई समझौता नही होना चाहिए। मनरेगा (ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना) को बढ़ावा देने के लिए आंदोलन किया जाना चाहिए, और इसे शहरी क्षेत्रों में भी शुरू किया जाना चाहिए। अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के खिलाफ अत्याचार की रोकथाम जैसे अधिनियमों को मजबूत किया जाना चाहिए।

दलित आंदोलन के सामने क्या बाधाएं हैं?

चूंकि केंद्र सरकार को फासीवादी एजेंडे को बढ़ा रही है, इसलिए सरकार के खिलाफ़ चल रहे सभी आंदोलनों को बल प्रयोग से दबाया जा रहा है, जैसा कि भीमा कोरेगांव आंदोलन में देखा गया था जब कई कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया और जो आज भी सलाखों के पीछे कैद हैं। लोकतांत्रिक आंदोलनों के लिए जगह ख़त्म की जा रही है।

उत्तर प्रदेश के चुनावों में, हमने सूक्षम सोशल इंजीनियरिंग का नतीजा देख लिया है, जो व्यावहारिक रूप से दलित समाज में विभिन्न विभाजनों का इस्तेमाल है, जो उन्हें हिंदुत्व के दायरे में लाने के लिए एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है। यह देश में संगठित दलित आंदोलन के लिए एक आघात साबित हुआ है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Only Fighting for Economic Rights Won’t Uplift Dalit Community: Ramchandra Dom

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