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प्रधानमंत्री मोदी की देन: देश में गृहयुद्ध और सीमा पर युद्ध जैसे हालात

सरकार की उदासीनता के चलते जहां देश की सीमाएं सुरक्षित नहीं रह गई हैं और शक्तिशाली पड़ोसी चीन के साथ युद्ध का खतरा मंडरा रहा है। वहीं, पिछले छह सालों के दौरान देश के भीतर बना जातीय और सांप्रदायिक तनाव का समूचा परिदृश्य गृहयुध्द जैसे हालात का आभास दे रहा है।
Narendra Modi

छह साल पहले नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के ढाई महीने बाद जब स्वाधीनता दिवस पर लाल किले से पहली बाद देश को संबोधित किया था तो उनके भाषण को समूचे देश ने ही नहीं बल्कि दुनिया के दूसरे तमाम देशों ने भी बड़े गौर से सुना था।

विकास और हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद की मिश्रित लहर पर सवार होकर सत्ता में आए नरेंद्र मोदी ने अपने उस भाषण में देश की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर बदलने का इरादा जताते हुए देशवासियों और खासकर अपनी पार्टी तथा उसके सहमना संगठनों के कार्यकर्ताओं से अपील की थी कि अगले दस साल तक देश में सांप्रदायिक या जातीय तनाव के हालात पैदा न होने दें।

प्रधानमंत्री ने कहा था- 'जातिवाद, संप्रदायवाद, क्षेत्रवाद, सामाजिक या आर्थिक आधार पर लोगों में विभेद, यह सब ऐसे जहर हैं, जो हमारे आगे बढ़ने में बाधा डालते हैं। आइए, हम सब अपने मन में एक संकल्प ले कि अगले दस साल तक हम इस तरह की किसी गतिविधि मे शामिल नहीं होंगे। हम आपस में लड़ने के बजाय गरीबी से, बेरोजगारी से, अशिक्षा से तथा तमाम सामाजिक बुराइयों से लड़ेंगे और एक ऐसा समाज बनाएंगे जो हर तरह के तनाव से मुक्त होगा। मैं अपील करता हूं कि यह प्रयोग एक बार अवश्य किया जाए।’

मोदी का यह भाषण उनकी स्थापित और बहुप्रचारित छवि के बिल्कुल विपरीत, सकारात्मकता और सदिच्छा से भरपूर था। देश-दुनिया में इस भाषण को व्यापक सराहना मिली थी, जो स्वाभाविक ही थी। राजनीतिक और कारोबारी जगत में भी यही माना गया था कि जब तक देश में सामाजिक-सांप्रदायिक तनाव या संघर्ष के हालात रहेंगे, तब तक कोई विदेशी निवेशक भारत में पूंजी निवेश नहीं करेगा और विकास संबंधी दूसरी गतिविधियां भी सुचारु रूप से नहीं चल सकती हैं, इस बात को जानते-समझते हुए ही मोदी ने यह आह्वान किया है।

प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद उम्मीद लगाई जा रही थी कि उनकी पार्टी तथा उसके उग्रपंथी सहमना संगठनों के लोग अपने और देश के सर्वोच्च नेता की ओर से हुए आह्वान का सम्मान करते हुए अपनी वाणी और व्यवहार में संयम बरतेंगे। लेकिन हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री की नसीहत को उनकी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ता तो दूर, केंद्र और राज्य सरकारों के मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और पार्टी के प्रवक्ताओं-जिम्मेदार पदाधिकारियों ने भी तवज्जो नहीं दी। इन सबके श्रीमुख से सामाजिक और सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाले नए-नए बयानों के आने का सिलसिला जारी रहा।
 
इसे संयोग कहे या सुनियोजित साजिश कि प्रधानमंत्री के इसी भाषण के बाद देश में चारों तरफ से सांप्रदायिक और जातीय हिंसा की खबरें आने लगी। कहीं गोरक्षा तो, कहीं धर्मांतरण के नाम पर, कहीं मंदिर-मस्जिद तो कहीं आरक्षण के नाम पर, कहीं गांव के कुएं से पानी भरने के सवाल पर तो कहीं दलित दूल्हे के घोड़ी पर बैठने को लेकर, कहीं वंदे मातरम् और भारतमाता की जय के नारे लगवाने को लेकर।

इसी सिलसिले में कई जगह महात्मा गांधी और बाबा साहेब आंबेडकर की मूर्तियां को भी विकृत और अपमानित करने तथा कुछ जगहों पर नाथूराम गोडसे का मंदिर बनाने जैसी घटनाएं भी हुईं। हैरानी और अफसोस की बात तो यह है कि इन सारी घटनाओं को सिलसिला कोरोना जैसी भीषण महामारी के दौर में भी नहीं थमा है।

ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाएं मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले नहीं होती थीं। पहले भी ऐसी घटनाएं होती थीं, लेकिन कभी देश के इस कोने में तो कभी उस कोने में, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद तो ऐसी घटनाओं ने देशव्यापी रूप ले लिया। संगठित तौर पर ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया जाने लगा। यहां तक कि 2002 की भीषण सांप्रदायिक हिंसा के बाद शांति और विकास के टापू के रूप में प्रचारित मोदी का गृह राज्य गुजरात भी मोदी के प्रधानमंत्री बनने के कुछ समय बाद ही जातीय हिंसा की आग में झुलस उठा।

अगस्त 2015 में गुजरात में पटेल बिरादरी ने आरक्षण की मांग को लेकर एक तरह से विद्रोह का झंडा उठा लिया। व्यापक पैमाने पर हिंसा हुई। अरबों रुपए की सरकारी और निजी संपत्ति आगजनी और तोड़फोड़ का शिकार हो गई। एक 24 वर्षीय नौजवान अपनी बिरादरी के लिए हीरो और राज्य सरकार के लिए चुनौती बन गया। आंदोलन को काबू में करने के लिए राज्य सरकार को अपनी पूरी ताकत लगानी पड़ी।

इस हिंसक टकराव के कुछ ही दिनों बाद उसी सूबे में दलित समुदाय के लोगों पर गोरक्षा के नाम पर प्रधानमंत्री की पार्टी के सहयोगी संगठनों का कहर टूट पड़ा। दलितों ने यद्यपि जवाबी हिंसा नहीं की लेकिन उन्होंने अपने तरीके से अपने ऊपर हुए हमलों का प्रतिकार किया। हालात इतने बेकाबू हो गए कि सूबे की मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। हालांकि सामाजिक तनाव वहां अभी भी बरकरार है।

गुजरात की इस घटना के चंद महीनों बाद ही 2016 के जून महीने में दिल्ली से सटे हरियाणा में भी जाट समुदाय ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया। उस आंदोलन ने जिस तरह हिसक रूप धारण किया वह तो अभूतपूर्व था ही, राज्य सरकार का उस आंदोलन के प्रति मूकदर्शक बने रहना भी कम आश्चर्यजनक नहीं था। हरियाणा वह प्रदेश है जहां प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता के सहारे भाजपा ने पहली बार अपनी सरकार बनाई थी।

प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र वाले सूबे यानी उत्तर प्रदेश में तो हालात आज तक बेहद गंभीर बने हुए हैं। वहां गोरक्षा के नाम पर भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ताओं ने पहले से ही आतंक मचा रखा था, जिसका सिलसिला वहां भाजपा की सरकार बनने के बाद और तेज हो गया। लंबे समय से सांप्रदायिक तनाव को झेल रहे इस सूबे को सत्ता परिवर्तन के साथ ही जातीय तनाव ने भी अपनी चपेट मे ले लिया।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गृह जिले गोरखपुर से शुरू हुआ जातीय हिंसा का सिलसिला अब पूरे प्रदेश में फैल चुका है। सांप्रदायिक आधार मुस्लिम समुदाय का उत्पीड़न तो अब पुलिस की मदद से बाकायदा सरकार के स्तर पर हो रहा है।

मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ, बिहार, पंजाब और झारखंड में भी पिछले छह वर्षों के दौरान जातीय और सांप्रदायिक तनाव की अनेक घटनाएं हुई हैं। कहीं दलित समुदाय के दूल्हे का घोड़ी पर बैठना गांव के सवर्णों को रास नहीं आ रहा है तो कहीं दलितों को सार्वजनिक कुएं से पानी भरने और मंदिर में प्रवेश करने की कीमत चुकानी पड़ रही है।

चूंकि ऐसी सभी घटनाओं को भाजपा के विधायक, सांसद और मंत्री स्तर के नेताओं की शह पर अंजाम दिया जाता है, लिहाजा स्थानीय पुलिस-प्रशासन भी सत्ता-शीर्ष पर बैठे लोगों की भाव-भंगिमा के अनुरूप कदम उठाते हुए मामले पर लीपापोती कर देता है।

चूंकि शुरू में तो यह माना गया था और अपेक्षा की गई थी कि इस तरह की घटनाएं प्रधानमंत्री की मंशा और विकास के उनके घोषित एजेंडा के अनुकूल नहीं हैं, लिहाजा ऐसी घटनाओं पर प्रधानमंत्री राज्य सरकारों और अपने पार्टी कॉडर के प्रति सख्ती से पेश आएंगे, लेकिन इस अपेक्षा के उलट प्रधानमंत्री मोदी न सिर्फ मूकदर्शक बने रहे, बल्कि विभिन्न राज्यों में विधानसभा चुनाव के दौरान दिए गए उनके विभाजनकारी भाषणों से भी उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ा और इस तरह की घटनाओं में इजाफा होता रहा।

कहीं उन्होंने श्मशान और कब्रस्तान की बात कही, तो कहीं पर कहा कि अगर भाजपा हार गई तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। कहने की आवश्यकता नहीं कि खुद प्रधानमंत्री ही लालकिले से अपने पहले संबोधन में किए गए आह्वान को भूल गए।

यही नहीं, सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करने के मकसद से ही उनकी सरकार ने विवादास्पद नागरिक नागरिकता संशोधन कानून भी पारित कराया और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने का इरादा जताया। जब इसके खिलाफ देशभर में आंदोलन हुआ तो पुलिस के जरिए उस अहिंसक आंदोलन को भी बलपूर्वक दबाने की कोशिशें हुईं।

उस आंदोलन को बदनाम करने के लिए कई जगह तो पुलिस के लोगों ने ही सादे कपडों में तोड़फोड़ की कार्रवाई को अंजाम दिया और प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक रूप से उस तोड़फोड़ के लिए बगैर नाम लिए मुस्लिम समुदाय को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा कि ऐसे लोगों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है।

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ दिल्ली के शाहीन बाग में चले महिलाओं के ऐतिहासिक आंदोलन को बदनाम करने के लिए तरह-तरह के भड़काऊ बयान प्रधानमंत्री की पार्टी के नेताओं और मंत्रियों ने दिए, जिसकी परिणति भीषण दंगों में हुई।

हैरानी की बात यह है कि सभी ऐसे सभी नेताओं के भड़काऊ बयान और भाषण रिकॉर्ड पर होने के बावजूद पुलिस ने उन्हें छोड़ दिया और दंगों का आरोपी उन लोगों को बनाया जो दंगों को शांत करने में या दंगा पीड़ितों की मदद में जुटे हुए थे।

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के जरिए देश भर में बनाए जा रहे नफरत के माहौल और दिल्ली में हो रहे दंगों के दौरान ही कोरोना महामारी ने भारत में दस्तक दे दी थी। इस महामारी की भयावहता को देखते हुए लगा था कि अब तो सरकार अपना पूरा ध्यान महामारी से निबटने में लगाएगी और उसकी ओर से सांप्रदायिक नफरत को बढ़ावा देने जैसा कोई काम नहीं होगा। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार व पार्टी ने यहां भी निराश किया।

महामारी की आड़ में भी नफरत का एजेंडा स्थगित नहीं हुआ। दिल्ली में हुए तबलीगी जमात के एक कार्यक्रम को कोरोना फैलने का कारण बताकर प्रचारित कर टीवी चैनलों और सोशल मीडिया के माध्यम से देश भर में ऐसा माहौल बना दिया गया मानो इस महामारी का संबंध सिर्फ मुसलमानों से ही है और देश में वे ही इसे फैला रहे हैं।

इस दौरान प्रधानमंत्री राष्ट्र को संबोधित करने कई बार टीवी पर भी आए, लेकिन उन्होंने इस अभियान तरह के अभियान पर खेद तक तक नहीं जताया। नफरत भरे प्रचार और उस पर प्रधानमंत्री की चुप्पी का परिणाम यह हुआ कि कई जगह मुसलमानों का सामाजिक बहिष्कार किया जाने लगा। कहीं पर सब्जी या फल बेचने वालों को हिन्दुओं की बस्ती में घुसने से रोका गया तो कई हिंदू दुकानदारों ने मुसलमानों को सामान बेचने से मना कर दिया।

भाजपा शासित राज्यों में इस तरह की नफरत फैलाने में पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने भी अहम भूमिका निभाई। इस सबकी दुनिया भर में प्रतिक्रिया हुई और विश्व स्वास्थ्य संगठन को अपील जारी करनी पड़ी कि इस महामारी को किसी धर्म, संप्रदाय और नस्ल विशेष से जोड़ कर न देखा जाए। कई मुस्लिम राष्ट्रों ने आधिकारिक तौर पर भारत सरकार के समक्ष इस नफरत भरे अभियान को लेकर विरोध दर्ज कराया। लेकिन यह अभियान तभी थमा जब यह महामारी देशभर में व्यापक तौर पर फैल गई और कई केंद्रीय मंत्री, भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, विधायक और भाजपा के अन्य बड़े नेता भी इसकी चपेट में आने लगे।

प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों और कार्यक्रमों से देश की अर्थव्यवस्था का जो हाल हुआ और राष्ट्रीय सुरक्षा के मोर्चे पर सरकार किस तरह कमजोर और दिशाहीन साबित हो रही है, उसकी तस्वीर भी कम भयावह नहीं है। सरकार की उदासीनता के चलते जहां देश की सीमाएं सुरक्षित नहीं रह गई हैं और शक्तिशाली पड़ोसी चीन के साथ युद्ध का खतरा मंडरा रहा है, वहीं, पिछले छह सालों के दौरान देश के भीतर बना जातीय और सांप्रदायिक तनाव का समूचा परिदृश्य गृहयुध्द जैसे हालात का आभास दे रहा है। अफसोस की बात यह है कि मुख्यधारा का मीडिया सरकार का पिछलग्गू बनकर इस परिदृश्य को और ज्यादा भयावह बनाने का काम कर रहा है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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