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राजस्थान चुनाव: डूंगरपुर में गौरक्षकों ने मवेशी व्यापार को तबाह कर दिया !

गौरक्षकों ने ज़िले के पशु व्यापारियों को व्यवसाय छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया है। यह समस्या इस चुनावी राज्य में कोई मुद्दा नहीं है।
Rajasthan Elections
बंसी लाल लगभग पांच दशकों तक पशु व्यापारी थे। गौरक्षकों ने उन्हें अपनी आजीविका छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया।

कमलनाथ बंजारा (63) बेहद दुखी हैं। वे पशु व्यापार के लाभदायक दिनों को याद करते हैं और बताते हैं कि कैसे उनके तीन बेटों ने इस व्यवसाय को अपनाया था।

डूंगरपुर जिले के देवल ब्लॉक में 100 मीटर की जगह दिखाते हुए वह कहते हैं, "यह जगह उन गायों, भैंसों और बैलों से भरी हुई थी जिन्हें हमने राजस्थान भर के पशु मेलों से खरीदा था।"

गौरक्षा और गांठदार त्वचा रोग ने डूंगरपुर के पशु का व्यापार करने वाले समुदाय को गंभीर रूप से प्रभावित किया है जिसे अपने हाल पर छोड़ दिया गया है।

देवाल ब्लॉक में लगभग 35 बंजारा परिवार आधे प्लास्टर किए घरों में रहते हैं जिनमें चूल्हे और कुछ ही शौचालय हैं।

विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान सभी राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं ने इन परिवारों से मुलाकात की लेकिन किसी ने भी बड़े पैमाने पर गौरक्षकों के कारण होने वाली उनकी समस्याओं के समाधान का वादा नहीं किया।

इन परिवारों के अनुसार, गौरक्षकों ने व्यापार, डेयरी व्यवसाय और खेती से जुड़े हजारों लोगों की आजीविका छीन ली है।

डूंगरपुर में पांच दलों के बीच मुकाबला होगा जिनमें कांग्रेस विधायक गणेश घोगरा समेत भाजपा, सीपीआई (एम) और क्षेत्रीय भारतीय ट्राइबल पार्टी और भारतीय आदिवासी पार्टी शामिल है।

अफसोस की बात है कि पशु व्यापार में घाटा और बंजारों की अनदेखी कोई चुनावी मुद्दा नहीं है।

जहां गांठदार त्वचा रोग से राज्य भर में 59,000 से अधिक मवेशियों की मौत हो गई और 2022 में दूध उत्पादन में 21% की कमी आई वहीं डूंगरपुर और बांसवाड़ा जैसे क्षेत्र भी गौरक्षकों की चपेट में आ गए। 2017 में एक प्रमुख पशु मेले में, गाय के व्यापार में 95% की गिरावट आई और यह कभी नहीं बढ़ा।

कमलनाथ न्यूज़क्लिक को बताते हैं, “हमने लगभग पांच साल तक इंतजार किया। लेकिन हर बार जब हम पुष्कर, गंगापुर या ब्यावर में पशु मेलों से लौटते तो भीलवाड़ा-राजसमंद बेल्ट में हमारा इंतजार कर रहे 40-50 गौरक्षकों की भीड़ हमें पीटना शुरू कर देती।”

मवेशी व्यापारियों के अनुसार, वे हमेशा बिक्री/खरीद की रसीद और खरीदार का पता, फोन नंबर और अन्य विवरण रखते और यहां तक कि खरीदारी के उद्देश्य के बारे में भी पूछते लेकिन गौरक्षक पूरी तरह से नफरत से भरे होते।

बबलू कहते हैं, ''दो साल पहले, कमलनाथ और आठ अन्य व्यापारी 140 बैलों के साथ एक मेले से वापस जा रहे थे। जब हम उदयपुर पहुंचे तो एक भीड़ ने हम पर हमला किया और हमें पीटना शुरू कर दिया। जब पुलिस पहुंची तो हममें से तीन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। हमने उन्हें बाहर निकाला और उनमें से एक को कुछ दिनों के लिए अस्पताल में भर्ती कराया गया।”

व्यापारियों के मुताबिक गौरक्षक न तो उनकी बात सुनते हैं और न ही उनकी रसीद देखते हैं। उनका आरोप होता है कि बिना सबूत के बैल, गाय और भैंसों को हम बूचड़खाने ले जा रहे हैं। लोगों का आरोप है कि पुलिस ने हमेशा व्यापारियों के खिलाफ कार्रवाई की है।

2012 में गौरक्षकों द्वारा पन्ना लाल बंजारा और उनके पिता और कुछ अन्य पशु व्यापारियों पर हमला किया गया। इसके बाद से पन्ना अपने खिलाफ दर्ज मामले की अदालती सुनवाई में भाग ले रहे हैं।

2012 में, बंसीलाल बंजारा, उनका बेटा और कुछ अन्य ग्रामीण 15 गायों के साथ गंगापुर से लौट रहे थे। उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया, “जब हम बनेरा पहुंचे, तो जीतू बाना नाम के एक व्यक्ति और अन्य लोगों ने हमें रोका। बिना दस्तावेज़ या कोई स्पष्टीकरण मांगे, उन्होंने हमारी पिटाई की और हमें पुलिस को सौंप दिया।''

बंसीलाल का बड़ा बेटा पन्ना एक महीने तक जेल में रहा। मामला लंबित है और पन्ना 250 किमी दूर से सुनवाई में भाग ले रहा है।

पन्ना जो नौ साल से इस व्यवसाय में था वह अब दिहाड़ी मजदूर है। वह बताते हैं, “हमारी पारिवारिक आय 12,000 रुपये से कम है और मेरा योगदान 2,500 रुपये है। कल्पना कीजिए कि 11 साल पुराने मामले की सुनवाई में भाग लेने के दौरान मैं अपने घरेलू खर्चों को कैसे चलाता हूं। भले ही हमने व्यवसाय बंद कर दिया है, लेकिन दाग अभी भी बाकी हैं।

सबसे बुरी चीज यह है कि गौरक्षक कभी भी हमलों के दौरान छीने गए मवेशियों को वापस नहीं करते हैं। वह आगे कहते हैं, “हम घाटा बर्दाश्त नहीं कर सके और कारोबार छोड़ दिया। प्रत्येक पशु मेले के बाद इस तरह का मामला होने पर इसे जारी रखना संभव नहीं था। हमें इसका विकल्प चुनना था।''

कोई विकल्प नहीं बचा होने के कारण, कमलनाथ जैसे व्यापारी दिहाड़ी मजदूर बन गए हैं और घर मरम्मत करवाने और बच्चों को अच्छे स्कूल में भेजने का सपना टूट गया है। वह कहते हैं, ''जब मेरे परिवार की स्थिति में सुधार होना शुरू हुआ तो कारोबार गौरक्षकों की भेंट चढ़ गया।''

गौरक्षकों की मार डूंगरपुर के किसानों पर भी पड़ी है। अधिकांश खेत ढलुआ जमीन पर है जहां बैलों की आवश्यकता होती है। अधिकांश सीमांत किसान, जिनके पास मैदानी इलाकों में लगभग दो बीघे हैं, ट्रैक्टर खरीदने में सक्षम नहीं हैं।

उदाहरण के लिए, पाल पदर गांव के किशन ने बंजारों से सस्ती कीमत पर बैल और गायें खरीदीं। उन्हें खेती छोड़कर मजदूरी करना पड़ रहा है।

बंजारों के व्यवसाय खोने से जिले की बहुसंख्यक 80 फीसदी ग्रामीण आबादी के सेहत पर भी असर पड़ा है। जिले में पोषण की कमी है और अधिकांश ग्रामीण सूखी सब्जियों पर निर्भर हैं क्योंकि महंगी हरी सब्जियां उनकी पहुंच से बाहर हैं। दूध उनके आहार का एक अनिवार्य हिस्सा था लेकिन गौरक्षकों ने पोषण के इस अहम स्रोत को बुरी तरह प्रभावित किया।

मवेशियों के व्यापार से अच्छा मुनाफा होता था और यह किसानों के लिए पोषण और आजीविका का स्रोत भी था। मेले में 2,000 रुपये से 3,000 रुपये में खरीदी गई गाय की कीमत जिले में 7,000 रुपये से 8,000 रुपये में मिलती है। गाय की राजनीति ने न केवल इस समुदाय की आजीविका छीन ली बल्कि उसके सपनों को भी चकनाचूर कर दिया।

अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर‍ क्लिक करें:

Rajasthan Elections: Cow Vigilantes Choke Cattle Trade to Death in Dungarpur

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