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नेहरू और लोहिया के रिश्ते: एक सच्चाई यह भी!

"मेरी राय में यह नेहरू-लोहिया रिश्तों का बहुत ही सरलीकरण और सामान्य ढंग से विश्लेषण है, जबकि नेहरू-लोहिया के रिश्तों का मामला इससे कहीं ज़्यादा गंभीर और निजी रंज़िश तक चला गया था"। वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली का आलेख
NEHRU AND LOHIA

समाजवादी आंदोलन के एक प्रमुख भाष्यकार और वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द मोहन ने नेहरू और लोहिया के रिश्तों पर हाल ही में एक लेख लिखा 'लोहिया और नेहरू: दोस्ती और दुश्मनी का सच' वह लिखते हैं 'आमतौर पर नेहरू और लोहिया रिश्तों की व्याख्या करते समय राममनोहर लोहिया को पण्डित नेहरू का सबसे बड़ा ‘दुश्मन’ माना जाता है। यह भी तथ्य है कि नेहरू ही कभी उनके नेता थे। उन्होंने नेहरू से गांधी तक का सफर कैसे तय किया, यह विषय बहुत लम्बी चर्चा की माँग करता है लेकिन इतना कहने में कोई हर्ज नहीं है कि इस बदलाव में न तो कोई न्यस्त स्वार्थ काम कर रहा था, न कोई व्यक्तिगत द्वेष था और न ही लोहिया किसी महत्त्वाकांक्षा के वश में होकर ऐसा कर रहे थे। इसी के चलते नेहरू-लोहिया टकराव में काफी सारे लोग नेहरू-गांधी का टकराव भी देखते थे और हैं।'

इसी तरह के कुछ और लेख भी हाल ही में प्रकाशित हुए हैं। मेरी राय में यह नेहरू-लोहिया रिश्तों का बहुत ही सरलीकरण और सामान्य ढंग से विश्लेषण है, जबकि नेहरू-लोहिया के रिश्तों का मामला इससे कहीं ज़्यादा गंभीर और निजी रंजिश तक चला गया था।दस्तावेज़ी तथ्य 'लोहिया और नेहरू' रिश्तों की कुछ दूसरी ही कहानी बयां करते हैं।

राममनोहर लोहिया जब 1933 में जर्मनी से वापस लौट कर आये (जहाँ वे हम्बोल्ट यूनिवर्सिटी में पीएचडी करने गए थे लेकिन वह पूरी नहीं हो पायी माने एवार्ड नहीं हो पाई) तो फ़ौरन राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हो गए और 1934 में बनी कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने।1936 में लखनऊ कांग्रेस में कांग्रेस पार्टी का दोबारा अध्यक्ष बनने के बाद जब जवाहरलाल नेहरू ने अपना सेक्रेटेरिएट बनाया तो 26 वर्ष के लोहिया को अखिल भारतीय कांग्रेस विदेश विभाग का सचिव बनाया।

1933 से लेकर 1947 तक की यदि राममनोहर लोहिया की राजनीति और उनके विचारों और सिद्धांतों पर गौर करें तो वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़िम्मेदार नेता होने के साथ साथ कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता भी थे। कांग्रेस की विदेश नीति बनाने के साथ साथ सांप्रदायिकता के सवाल पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी की रीति-नीति और सिद्धांत को भी बहुत मुखर रूप से पेश किया और राष्ट्रीय एकता तथा सांप्रदायिक सदभाव को राष्ट्रीय आंदोलन का एक प्रमुख स्तंभ बताया। मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत और 'हिंदुत्व' की राजनीति की पुरजोर मुखालिफत करते हुए डा. लोहिया ने मौलाना अबुल कलाम आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं का समर्थन किया और उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया।

उस समय तक सही मायनों में वह एक सच्चे राष्ट्रवादी नेता थे और 1947 में भारत विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान कई बार उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर मुसलमानों की जान बचायी। लेकिन 1947 में सोशलिस्ट पार्टी के कानपुर सम्मेलन के बाद जिसकी अध्यक्षता स्वयं लोहिया ने की थी और जिस सम्मेलन के एक वर्ष बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होने का फैसला किया, सरहदी गाँधी, खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़कर लगभग सभी तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं के बारे में डा. लोहिया की राय बदलने लगी।

जून 1947 में कांग्रेस कार्यसमिति की उस बैठक के बाद जिसमें देश के विभाजन को स्वीकार किया गया और जिसमें जयप्रकाश नारायण और लोहिया भी विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में शामिल हुए थे, कांग्रेस पार्टी के बारे में डॉ. लोहिया की राय बिलकुल बदल गई। देश विभाजन और आजादी के 7-8 माह बाद समाजवादियों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और डा. लोहिया कांग्रेस पार्टी और सरकार के विरोध में अब खुलकर आ गए।

यहीं से लोहिया के नेहरू विरोध बल्कि रंजिश की शुरुआत होती है।1952 के आम चुनाव के दौरान डा. लोहिया अपने पूर्व नेता जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी से इतने बदजन हो गए कि फूलपुर में वह पंडित नेहरू के विरोध में खड़े हिंदू महासभा के लोकसभा उम्मीदवार प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तक का समर्थन करने लगे।

इस बीच 1950 में राममनोहर लोहिया की अमेरिका यात्रा और उसे लेकर उठे विवाद ने भी नेहरू-लोहिया रिश्तों में और तल्ख़ी पैदा करदी। 12 फ़रवरी 1952 को जयप्रकाश नारायण ने पंडित नेहरू को एक पत्र लिखा कि बिहार के कई चुनावी हल्क़ों में कांग्रेसी, कम्युनिस्टों के साथ मिलकर यह दुष्प्रचार कर रहे हैं कि सोशलिस्ट अमेरिकी एजेंट हैं और यह नारा लगा रहे हैं कि 'अमरीका के तीन दलाल, मेहता, लोहिया, जयप्रकाश।'

इसके जवाब में पंडित नेहरू ने जयप्रकाश नारायण को 14 फरवरी 1952 को खत लिखा कि 'मैंने बिहार के सांसदों से इस बारे में मालूमात की लेकिन उन्होंने इस बारे अनभिज्ञता दिखाई कि उन्होंने इस तरह के नारे नहीं सुने। यक़ीनन अगर ऐसा कहा गया तो यह बहुत ही ग़लत था। लेकिन साथ ही बिहार के लोगों ने यह भी बताया कि सोशलिस्ट उम्मीदवारों ने खासकर राममनोहर लोहिया ने अपने कई भाषणों में (हमारे ख़िलाफ़) बहुत ही आक्रामक और निजी हमले किये।'

जयप्रकाश नारायण ने अपने पत्र में यह भी लिखा था कि 'कम्युनिस्ट कह रहे हैं कि लोहिया पर अमेरिका से सोशलिस्ट पार्टी के चुनाव प्रचार के लिए हज़ारों डॉलर लाने के जो आरोप लगे, दरअसल उसके लिए वाशिंगटन स्थित भारतीय दूतावास ज़िम्मेदार है।'

इसके जवाब में पंडित नेहरू ने लिखा कि 'भारतीय दूतावास ने कभी भी ऐसा कुछ नहीं कहा। मैंने खुद भारतीय राजदूत (विजयालक्ष्मी पंडित) से इस बारे में मालूमात की हालाँकि उन्होंने यह बताया कि वाशिंगटन में इस तरह की अफ़वाहें गश्त कर रही थीं कि लोहिया के अमेरिका आने का एक मक़सद सोशलिस्ट पार्टी के लिए चंदा इकठ्ठा करना था। हमारी राजदूत ने यह भी कहा कि उन्होंने ख़ुद इसकी सच्चाई जानने की कोशिश की और निजी तौर पर इन अफवाहों का खंडन भी किया। तुम्हें याद होगा नॉरमन थॉमस (1884-1968, अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के तीन बार राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार) जब पिछले वर्ष भारत आये थे तो उन्होंने कई मर्तबा यह बयान दिया था कि अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट मूवमेंट को भारत में सोशलिस्ट संगठन के विकास में मदद करनी चाहिए। मेरा ख्याल है उन्होंने 'जनता' को दिए गए एक इंटरव्यू में भी यह बात कही थी जबकि अख़बारों में इससे कहीं ज़्यादा बातें कही गयीं। इस समय मेरे पास इंडियन न्यूज क्रॉनिकल, दिल्ली, दिनांक 25 मार्च, 1951 से एक कटिंग है। इसमें नॉर्मन थॉमस ने कथित तौर पर नई दिल्ली में कहा था कि "दुनिया भर के समाजवादियों को भारत में समाजवादी अभियान की सहायता के लिए एक अंतरराष्ट्रीय कोष स्थापित करना चाहिए।" मुझे नहीं पता कि इस कथन का कभी खंडन किया गया था या नहीं। इसके तुरंत बाद लोहिया विश्व सरकार आंदोलन के अतिथि के रूप में अमेरिका गए, मेरा मानना है। संभवत: इस सब ने कुछ लोगों को यह विश्वास दिलाया कि अमेरिका में धन एकत्र किया जा सकता है।

मैं नहीं जानता कि तुम्हारे कहने का क्या मतलब है कि लोहिया और अमरीका स्थित भारतीय दूतावास के बीच ठीक से संपर्क नहीं बन पाया। जहां तक मैं जानता हूं, उनके बीच बिल्कुल भी संपर्क नहीं था और इसलिए साथ रहने या ठीक नहीं होने का कोई अवसर नहीं था। दरअसल, उस समय हमारे पास एक रिपोर्ट आई कि किसी समारोह में हमारे दूतावास के कर्मचारियों में से एक लोहिया से मिला और उन्हें हमारे चांसरी में आने के लिए आमंत्रित किया ताकि भारतीय अधिकारियों को उनसे बात करने का अवसर मिल सके। लोहिया का जवाब शिष्टाचार अनुरूप नहीं था। उसके बाद स्वाभाविक रूप से भारतीय दूतावास के कर्मचारियों का उनसे कोई और संपर्क नहीं रहा। भारतीय दूतावास की नजर में सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के आपत्तिजनक होने का कोई सवाल ही नहीं था और न है। विदेशों में हमारे मिशनों को निर्देश दिया जाता है कि वे प्रत्येक भारतीय आगंतुक, चाहे वह कोई भी हो, के प्रति शिष्टाचार का व्यवहार करें। उन्हें राजनीति या व्यक्ति के अन्य विचारों से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। साथ ही, भारतीय आगंतुकों से अपेक्षा की जाती है कि वे विदेश में हमारे मिशनों के प्रति सामान्य शिष्टाचार प्रदर्शित करें, भले ही उनका कोई भी विचार हो। मिशन उनके देश का प्रतीक है। किसी विदेशी द्वारा उस मिशन का कोई भी अनादर करने पर हमारे देश द्वारा गहराई से ऐतराज़ होगा, क्योंकि इसका मतलब देश का अपमान होता है। यह और भी आश्चर्य की बात है कि विदेश जाने वाला कोई भी भारतीय अपने दूतावास के साथ अभद्र व्यवहार करे। अन्य देशों में यह प्रथा नहीं है कि उनके नागरिक अपनी सरकारों और लोगों को नीचा दिखाने के लिए विदेश जाते हैं। वे अपने विवादों को अपने देश तक ही सीमित रखते हैं और उन्हें विदेश नहीं ले जाते हैं। मेरी राय में राममनोहर लोहिया ने इस हितकारी नियम का पालन नहीं किया और विदेशों में उनके संबोधनों का मुख्य कारण यहां की सरकार और अन्य लोगों को नीचा दिखाना था। तुमने (जयप्रकाश) अपने खत में मेरे एक बयान का भी जिक्र किया है कि "मैंने कहा है कि इन लोगों (सोशलिस्टों) ने जनसंघ के साथ चुनावी समझौता किया है।" यह बयान आंशिक रूप से सच है, लेकिन हर मौके पर मैंने यह पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया कि मैंने इस मामले में पार्टी को नहीं, बल्कि व्यक्तिगत उम्मीदवारों को संदर्भित किया, जिन्होंने कुछ स्थानीय व्यवस्थाएं की थीं, जो मेरी जानकारी में आई थीं। राजस्थान में कुछ लोग अपने को समाजवादी कहने वाले जागीरदारों का सहयोग कर रहे थे। जबकि हिमाचल प्रदेश में जनसंघ का सहयोग था और कई अन्य मामले मेरे संज्ञान में आए।

दूसरी ओर यह भी काफी संभावना है कि कुछ कांग्रेसी उम्मीदवारों ने स्थानीय गठजोड़ किए जो अवांछनीय थे। वास्तव में मैंने कुछ निश्चितता के साथ जहां कहीं भी इनका पता लगाया जा सका लगाया और कार्रवाई की। यदि आप मेरा ध्यान ऐसे किसी मामले की ओर दिला सकते हैं तो मैं निश्चित रूप से उनसे पूछताछ करूंगा।'सिलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू (सैकंड सीरीज,वॉल्यूम 17, पेज नंबर 163-164) और जयप्रकाश नारायण सिलेक्टेड वर्क्स वॉल्यूम 6 (1950-1954).

इन रिश्तों में और ज़्यादा तल्ख़ी दिसम्बर 1957 में उस समय आई जब राममनोहर लोहिया लखनऊ जेल में बंद थे और उन्होंने 10 दिसंबर 1957 को उत्तर प्रदेश सरकार के जेल मंत्री मुज़्ज़फ़्फ़र हुसैन को एक लंबा खत लिखा जिसका शीर्षक था "वशिष्ठ और वाल्मीकि।" यह खत राममनोहर लोहिया रचनावली भाग 2, पेज 149-165 में प्रकाशित हुआ है। इस खत में लोहिया ने नेहरू पर बहुत ही तीखे हमले किये हैं और उन्हें बौखलाया हुआ प्रधानमंत्री, हिन्दू, विदेशी, राजा और वशिष्ठी कट्टर ब्राह्मण के ख़िताब से नवाज़ा है (लेख संलग्न है)-

राममनोहर लोहिया का यह ख़त उत्तर प्रदेश के जेल मंत्री ने तत्कालीन मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द को भेज दिया जिसे सम्पूर्णानन्द ने 11 अप्रैल 1958 को पंडित नेहरू को भेजा। इसके जवाब में पंडित नेहरू ने 15 अप्रैल को लिखा:

"प्रिय सम्पूर्णानन्द, आपका 11 अप्रैल का पत्र कल मेरे पास पहुंचा जिसके साथ आपने मुझे राममनोहर लोहिया द्वारा भेजे गए एक लंबे पत्र की एक प्रति भेजी है, इसके लिए धन्यवाद। मैंने वास्तव में इसे ग़ौर से पढ़ा। अपने आप को वैसे देखना जैसे दूसरे देखते हैं, हमेशा मददगार होता है। (इसके साथ ही तंज़ करते हुए पंडित नेहरू ने लिखा) लेकिन मुझे लगता है कि आप हमेशा लोहिया के साथ इंसाफ़ नहीं करते। कभी उन्हें यूपी की किसी जेल में रखा जाता है। मुझे लगता है कि (उनके लिए) सही जगह पागलखाने में होती।"' सिलेक्टेड वर्क्स ऑफ़ जवाहरलाल नेहरू(सैकंड सीरीज, एक अप्रैल से 30 जून 1958, पेज नंबर 848).

नेहरू-लोहिया रिश्तों में यह तल्खी 1962 में हुए तीसरे आम चुनाव में और बढ़ी जब लोहिया फूलपुर में नेहरू के ख़िलाफ़ सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार बन कर चुनाव में उतरे। नेहरू ने लोहिया के इस फैसले का स्वागत किया पर चुनाव प्रचार के दौरान निजी हमलों से परहेज़ करने की सलाह दी। बावजूद इसके इस चुनाव के दौरान लोहिया ने नेहरू पर दो बड़े आरोप लगाए। उनका पहला आरोप था कि देश की दो तिहाई जनता को प्रतिदिन दो आने भी नसीब नहीं होते हैं, वहीं प्रधानमंत्री नेहरू पर रोजाना 25 हजार रुपए खर्च होता है। अपने दूसरे आरोप में लोहिया ने गोवा की आज़ादी को नेहरू द्वारा जनता को दी गई रिश्वत बताया। अपने दूसरे आरोप में लोहिया ने कहा कि अगर नेहरू चाहते तो गोवा बहुत पहले आजाद हो सकता था। चुनाव के दौरान, लोहिया ने अपनी एक चुनाव सभा में कहा कि 'मैं जानता हूं कि इस चुनाव में नेहरू की जीत निश्चित है, मैं इसे अनिश्चितता में बदलना चाहता हूं, ताकि देश बचे और नेहरू को भी सुधरने का मौका मिले।' इस चुनाव में मुक़ाबला कड़ा हुआ और लोहिया क़रीब 65000 वोटों से हारे। इससे पहले 1951 में लोहिया ने 'रोजी-रोटी कपड़ा दो, नहीं तो गद्दी छोड़ दो' का नारा नेहरू सरकार के खिलाफ दिया था।

1962 में भारत पर चीन के हमले के बाद तो लोहिया पंडित नेहरू और उनकी कांग्रेसी सरकार को राष्ट्रीय शर्म की सरकार कहने लगे और कांग्रेस पार्टी को सत्ता से हटाने के लिए वह 'शैतान से भी हाथ मिलाने' को तैयार हो जाते हैं। 1963 में उत्तर प्रदेश में हुए तीन उप चुनावों अमरोहा, जौनपुर और फ़र्रुख़ाबाद में तो डा. लोहिया ने न केवल जनसंघ का समर्थन लिया बल्कि जौनपुर में तो जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय के समर्थन में चुनाव सभाओँ को सम्बोधित भी किया। बदले में दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख ने फ़र्रुख़ाबाद में डा. लोहिया के समर्थन में चुनाव प्रचार किया और यहीं से जनसंघ का समर्थन लेने और देने की उनकी राजनीति की शुरूआत होती है। इसी वर्ष दिसंबर में कलकत्ते में अपनी पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में डा. लोहिया ने 'कांग्रेस हटाओ देश बचाओ' और गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया। उन्होंने सभी विपक्षी दलों जैसे जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों से ऐसी रणनीति बनाने का आह्वान किया ताकि आगामी चुनाव में कांग्रेस विरोधी मत बंटने न पावें और कांग्रेस हार जाए। कलकत्ता के इसी सम्मेलन में उनके दो प्रमुख शिष्यों मधुलिमए और जार्ज फ़र्नांडीज़ ने डा. लोहिया की पुरजोर मुख़ालिफ़त की। मधुलिमए तो विरोध स्वरूप सम्मेलन में शामिल तक नहीं हुए लेकिन उन्होंने जार्ज फ़र्नांडीज़ के जरिए कहलवाया कि गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर सांप्रदायिक शक्तियों का सहयोग लेने से डा. लोहिया का मुंह काला हो जाएगा।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमले के बाद डाक्टर लोहिया नेहरू विरोध के नाम पर इस हद तक गए कि जनसंघ के उस प्रस्ताव का समर्थन तक कर दिया जिसमें भारत द्वारा परमाणु बम बनाये जाने कि बात कही गयी थी। 12 अप्रैल 1964 को डाक्टर लोहिया और जनसंघ के नेता दीन दयाल उपाध्याय ने भारत-पाक महासंघ बनाये जाने को लेकर एक साझा बयान जारी किया। इसी बयान में कहा गया कि "हाल ही में पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर हुए दंगों के बाद दो लाख से भी ज्यादा हिन्दू और दूसरे अल्पसंख्यक भारत आने पर मजबूर हुए हैं। पूर्वी बंगाल में हुई घटनाओं से भारतीयों का क्रुद्ध होना स्वाभाविक है। हमारा यह निश्चित मत है कि पाकिस्तान में हिन्दुओ और अन्य अल्पसंख्यकों के जीवन और संपत्ति कि सुरक्षा कि गारंटी की ज़िम्मेदारी भारत सरकार कि है और उसे इस सम्बन्ध मैं सभी ज़रूरी और कानूनी क़दम उठाने चाहिए"।

यही वह दौर था जब डा. लोहिया ने आरएसएस और जनसंघ के शिविरों में जाना शुरू किया और उन्हें देशभक्ति के 'सर्टिफिकेट' दिए और भाषा के सवाल पर खास कर हिंदी के समर्थन के सवाल पर तो उनकी जमकर तारीफ की। दाड़ी-चोटी के सवाल पर और बीएचयू तथा एएमयू यानी बनारस विश्वविद्यालय से हिन्दू और अलीगढ विश्वविद्यालय से मुस्लिम शब्द हटाये जाने की उनकी मांग को उनके विरोधियों ने सांप्रदायिक क़रार दिया।

1960 के दशक में अरब-इस्राईल युद्ध के दौरान भी डाक्टर लोहिया का नजरिया नेहरू के मुक़ाबिले जनसंघ के ही ज्यादा नज़दीक था। जनसंघ इस मुद्दे पर पूरी तरह इस्राईल के साथ था और सरकार पर भी इस्राईल का पक्ष लेने के लिए दबाव बना रहा था जबकि कांग्रेस पार्टी की नीति राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से फलस्तीन का समर्थन करने की रही थी। इस विषय पर डा. लोहिया अपने अज़ीज़ दोस्त सिब्ते नकवी की शंकाओं का भी निवारण करने मैं विफल रहे (लोकसभा में लोहिया खंड 15 पृष्ठ 232-242 में विस्तृत पत्राचार का अवलोकन करें)।

पंडित नेहरू, लोहिया से उम्र में क़रीब 21 वर्ष बड़े थे और लगभग उनके पिता की उम्र के थे बावजूद इसके लोहिया, नेहरू के लिए तू-तड़ाक की भाषा का इस्तेमाल करते थे न केवल आपसी बातचीत में बल्कि लेखों और पत्रों में भी। "वशिष्ठ और वाल्मीकि" लेख उसका एक नमूना है। हालाँकि इसी लेख में उन्होंने नेहरू को अपना गुरु भी माना है।

इसके अलावा (मरहूम) जस्टिस राजिंदर सच्चर ने एक क़िस्सा सुनाया कि 1951 में जब लोहिया अमेरिका जाने वाले थे तो उस समय वह बाराखम्बा रोड स्थित अपने मित्र पदम सिंह के घर पर ठहरे हुए थे। सच्चर साहब की मौजूदगी में डा लोहिया के लिए एक फ़ोन आया उन्होंने अंदर जाकर बात की। जब लोहिया बाहर आये तो सच्चर साब ने पूछा "किस का फ़ोन था? डा लोहिया ने कहा नेहरू का था। सच्चर साहब ने पूछा पंडित जी क्या कह रहे थे? लोहिया बोले पूछ रहा था कि राममनोहर अमेरिका जा रहे हो? लेकिन दरअसल कहना चाह रहा था कि वहां जाकर सरकार के खिलाफ कुछ मत बोलना लेकिन कह नहीं पाया।"

1962 में चीनी हमले के समय लोहिया, नेहरू और उनकी सरकार से इतना खफा थे कि अपनी पार्टी द्वारा किये जाने वाले विरोध प्रदर्शनों में वह नारा लगवाते थे "देश पर हमला होता है और नेहरू पाजी सोता है।"

डा लोहिया पंडित नेहरू से निजी रूप से कितने बदज़न थे इसकी दूसरी मिसाल उनकी वेशभूषा ख़ासकर उनकी अचकन-शेरवानी और चूड़ीदार पायजामे पर की जाने वाली उनकी टिप्पणियां होती थीं। कई चश्मदीद लोगों का कहना है की नेहरू को शेरवानी और चूड़ीदार पायजामे में देखते ही वह टिप्पणी करते थे "बिलकुल तबलची और डोम-मिरासी लगता है।" कई मौक़ों पर उन्होंने नेहरू के दादा-परदादा को लेकर अशोभनीय टिप्पणियां भी कीं।

पूर्व केंद्रीय मंत्री सुश्री तारकेश्वरी सिन्हा ने एक मर्तबा धर्मयुग पत्रिका में डा लोहिया पर एक लेख लिखा था। उसमें उन्होंने लिखा की "एक मर्तबा मैंने डा लोहिया से पूछा कि आप तो नेहरू के प्रिय शिष्य थे फिर उनसे इतने बदज़न क्यूँ हो गए?" तो लोहिया का जवाब था "तारकेश्वरी तुम नहीं जानती उस बुत से हमें कितना प्यार था। लेकिन 15 अगस्त 1947 से पहले के नेहरू और 15 अगस्त 1947 के बाद के नेहरू में बड़ा फ़र्क़ है और इसलिए उस बुत का टूटना ज़रूरी है!"

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की एक समय के सबसे बड़े समाजवादी नेता और नेहरू के बड़े आलोचक जयप्रकाश नारायण के भी पंडित नेहरू से गहरे राजनीतिक मतभेद थे और एक अवसर पर तो जेपी ने सार्वजानिक रूप से ये बयान तक दे दिया कि भारत का जितना नुकसान अंग्रेज़ों के शासनकाल में नहीं हुआ उतना नेहरू के कुछ वर्षों के कार्यकाल में हो गया, बावजूद इसके पंडित नेहरू ने उसका बुरा नहीं माना और दोनों के बीच आपसी और निजी रिश्ते शालीनता के साथ बने रहे लेकिन ऐसा लोहिया-नेहरू रिश्तों के बारे में नहीं कहा जा सकता।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। हिंदी, उर्दू और अंग्रेजी में लिखते हैं और बीबीसी वर्ल्ड सर्विस के साथ 14 साल काम किया है। यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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