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‘शाहीन बाग़; लोकतंत्र की नई करवट’: एक किताब, ताकि सालों-साल सनद रहे महिलाओं का संघर्ष

ये किताब किसी एक स्थान पर बैठकर तमाम जगहों का लिखा हुआ संकलनभर नहीं है, अपितु ये पत्रकार भाषा सिंह की आंखों देखी है, जिसे उन्होंने खुद अपने रिपोर्टिंग के दौरान अनुभव किया।
शाहीन बाग़

"शाहीन बाग़ लोकतंत्र का एक ऐसा अहम अध्याय हैजिसकी ज़िन्दा मिसालों की गूंज बहुत लंबे समय तक फ़िज़ाओं में रहेगी। यहां से जो ऊर्जा पैदा हुईवह रूप बदलकर तमाम गतिविधि केंद्रों में संचित हो जाएगी।"

पत्रकार भाषा सिंह की किताब ‘शाहीन बाग़: लोकतंत्र की नई करवट’ की ये पंक्तियां हमें ऐतिहासिक शाहीन बाग़ आंदोलन के आगे का रास्ता दिखाते हुए इसे हमेशा ज़िन्दा रखने की बातें बताती हैं। ये किताब उस अभूतपूर्व संघर्ष का एक ज़िन्दा दस्तावेज़ है, जिसमें शायद पहली बार तंग गलियों और बंद दुकानों के बीच गालों पर तिरंगा चिपकाए इतनी तादाद में मुस्लिम बहुल इलाक़ों से औरतें और लड़कियां धरने पर बैठीं।

ये किताब अपने अंदर महज़ कुछ पन्ने नहीं समेटे हुए है, बल्कि ये मुसलमान औरतों की ताक़त की गठरी है, जो शायद सदियों से कहीं दिखी नहीं थी, और इस आंदोलन में वो कहीं हारी नहीं।

नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और एनआरसी के विरोध में सौ दिन से अधिक चले इस आंदोलन ने देश में विरोध-प्रदर्शन की परिभाषा बदल दी। आज़ाद भारत के नागरिक आंदोलनों में शाहीन बाग़ निश्चित तौर पर उस आंदोलन का प्रतीक है जो किसी एक भौगोलिक सीमा में सिमट कर नहीं रह सका और देश में सैकड़ों आंदोलन स्थलों के रूप में फैल गया। राजकमल प्रकाशन के उपक्रम सार्थक द्वारा प्रकाशित ये किताब राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग़ से लेकर देशभर के कोने-कोने में फैले अनगिनत शाहीन बाग़ों के शाहिनों की कहानी है, जो हाड़ कपा देने वाली ठंड में अपने मुल्क और जम्हूरियतत को बचाने सड़कों पर उतरीं।

ये किताब किसी एक स्थान पर बैठकर तमाम जगहों का लिखा हुआ संकलन भर नहीं है, अपितु ये पत्रकार भाषा सिंह की आंखों देखी है, जिसे उन्होंने खुद अपने रिपोर्टिंग के दौरान अनुभव किया।

धरनास्थल पर बैठी औरतें, हुक्मरानों पर तंज करती पेंटिंग्स, हिजाब पहने माइक से आज़ादी के नारे लगाती लड़कियां, संविधान की प्रस्तावना, फ़ातिमा शेख़ और सावित्री बाई फुले पुस्तकालय, डिटेंशन कैंप का ढांचा, गांधी और अंबेडकर की तस्वीरें और संघर्षों के तमाम नारे, गीत-गज़ल। ये सब आपके सामने इस किताब के जरिए एक बार फिर जीवंत हो जाते हैं, और आप आंदोलन को अपने घर में बैठे खुली आंखों से भी महसूस करने लगते हैं।

किताब में ख़ास क्या है?

इस किताब में कुल नौ अध्याय हैं, जो आपको परत दर परत शाहीन बाग़ के आंदोलन को समझाने के साथ ही वहां मौजूद बेमिसाल मिसालों, आवाज़ों, सृजन के नए तरीकों, संविधान को आत्मसात करते लोगों से भी रूबरू करवाते हैं। इसमें आंदोलन को बदनाम करने की साजि़श से लेकर मौजूदा सत्ताधारी पार्टी बीजेपी के एजेंडे और 'गोदी मीडिया' की भूमिका पर भी रौशनी डाली गई है। इसमें कोशिश ये भी की गई है कि शाहीन बाग़ की वास्तविक तस्वीर दिखाई जा सके, जो इस आंदोलन से पहले दुनिया के लिए बिल्कुल नई थी, या इस आंदोलन के बाद एकदम बदल गई।

किताब की शुरुआत ‘अमन के राग’ से होती है, जो हमें संविधान की मूल भावना से भी जोड़ती है साथ ही हिंदी साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर कवि शमशेर बहादुर सिंह की आज़ादी की कविता की याद दिलाती है। तो वहीं मशहूर उर्दू शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे' हमें एक साझी विरासत से जोड़ती है, जिसकी लड़ाई शाहीन बाग़ की नानियां-दादियां लड़ रहीं थी।

किताब के पहले अध्याय 'नई करवट' से शुरू हुई ये दास्तान आख़िरी अध्याय 'आगे का रास्ता' तक संघर्ष के किस्सों और किरदारों से लैस है। इसके एक अध्याय ‘आवाज़ें और सूरज से सामना’ में देशभर में फैले शाहीन बाग़ों की महिलाओं ने अपनी बात भाषा के सामने रखती हैं। वो कहती हैं कि आंदोलन ने देश के सामने सिर्फ मुस्लिम महिलाओं की भूमिका नहीं बदली, बल्कि घर के अंदर परिवारों के बीच उनके आपसी रिश्ते भी बदल दिये हैं। कई औरतें सड़क पर पहली बार अकेले निकलीं और सीधे रात-रात भर धरने में शिरकत करने लगीं।

इस दौरान लखनऊ के घंटाघर से एक ट्रांस महिला ज़ारा ने अपने समुदाय का दर्द सुनाते हुए कहा, “हम किन्नरों का कुछ होता भी नहीं है, न कोई घर, न मां-बाप। अब आप सोचो हम अपने दादा-परदादा के काग़ज़ कहां से दिखाएंगे? हम क्या दिखाएंगे और आप हमें कहां का मानोगे? हम इतने समय से अपने लिए काम मांग रहे हैं, सम्मान मांग रहे हैं, वो तो सरकार से देते नहीं बनता। उलटे हमारे लिए मुश्किलें खड़ी करती रही है। सीएए सिर्फ मुसलमानों के लिए नहीं, हर ग़रीब के लिए मुश्किल खड़ी करने वाला है। किन्नरों के लिए तो और ज्यादा मुश्किल है।"

भाषा सिंह ने इस आंदोलन की महत्ता को और समझने के लिए कई जानकारों से भी बातचीत की है, जिसमें योजना आयोग की पूर्व सदस्य सईदा हमीद, सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर, रैमॉन मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित सफाई कर्मचारी आंदोलन के नेता बेज़वाड़ा विल्सन, येल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रोहित डे जैसे नाम शामिल हैं, जिन्होंने अपनी नज़र से इस आंदोलन का बखूबी वर्णन किया है। इस आंदोलन की एक दिलचस्प बात किताब में लिखी गई है कि यहां तमाम तरह के विचारधाराओं के लोग शामिल हुए, जैसे उदारवादी, समाजवादी, गांधीवादी, प्रगतिशील, आंबेडकरवादी, वामपंथी आदि लेकिन इनमें कोई खास टकराव देखने को नहीं मिला।

औरतों ने अपनी तथाकथित कमज़ोरी को ताकत के तौर पर पेश किया

इस आंदोलन की एक ख़ास बात ये भी रही कि अक्सर जिन चीजों या बातों को औरतों की कमज़ोरी के तौर पर पेश किया जाता है, उन्हें ही उन्होंने अपनी ताकत बनाया। आंदोलन के औजारों की बात करें तो ये किताब 'तिरंगा, संविधान, संविधान की प्रस्तावना, प्यार-अमन की बातों को बेखौफ़ अंदाज़ में कहना और सीधे-सीधे सत्ता के शीर्ष से संवाद करना, हर जवाब को कलात्मक रूप से देना' की बात करती है, ये सारे तौर-तरीके शाहीन बाग़ की औरतों ने ईज़ाद किए।

भाषा सिंह ने शाहीन बाग़ से जुड़े उस मिथ का भी पर्दाफाश किया, जिसमें मीडिया के बड़े संस्थानों और बीजेपी नेताओं ने शाहीन बाग़ के पूरे आंदोलन को प्रायोजित बताया था। खुले तौर पर औरतों के संघर्ष को पैसे और बिरयानी से जोड़ा था। दीपक चौरसिया की कवरेज से लेकर एक युवक के गोली चलाने तक शाहीन बाग़ ने कैसे इस पूरे बदनामी के चक्र को भेदा और सच के साथ अपने आंदोलन से मथे अमृत को पूरे देश तक पहुंचाया, ये किताब उसका जीता जागता सबूत है। यहां इस बात का खास उल्लेख जरूरी है कि इतने लंबे आंदोलन के दौरान शाहीन बाग़ 'नो छेड़छाड़ जोन' बना रहा। आंदोलन में कहीं किसी बदतमीज़ी या छेड़छाड़ की खबर सामने नहीं आई, वो भी तब जब पूरी-पूरी रात औरतें सड़कों पर बैठी रहीं।

शाहीन बाग़ ने देश की महिलाओं के जीवित होने का एहसास पूरे देश को कराया। दिसंबर 2019 में शुरू हुए इस आंदोलन को बेइंतिहा मोहब्बत के साथ कई गुना नफ़रत भी मिली। महिलाओं के इस संघर्ष को बदनाम करने की खूब कोशिशें हुई। तरह-तरह के फ़ेक फ़ोटो और झूठे दावों के साथ इन महिलाओं का चरित्र-हनन किया गया। कई मुख्यमंत्रियों और बड़े नेताओं द्वारा महिलाओं को अपशब्द कहे गए। लेकिन धरने पर डटी औरतों का हौसला कम नहीं हुआ। वो और उत्साह से इस आंदोलन में शिरकत करने लगीं। टीवी चैनलों के डिबेट से लेकर न्यूज़ एंकरों के सवालों तक सबका बेबाकी से जवाब देने लगीं। आज़ाद भारत में ऐसा पहली बार हुआ जब इतनी बड़ी संख्या में मुस्लिम औरतें अपने हक के लिए सड़कों पर उतरीं।

'सजृन की तीखी धारमें क्रांतिकारी ग़ज़लोंगीतों और नज़्मों का संकलन

इस किताब का पांचवा अध्याय 'सजृन की तीखी धारबेहद खूबसूरती से उन सभी क्रांतिकारी ग़ज़लोंगीतों और नज़्मों को संजोए हुए हैजो इस पूरे आंदोलन में महिलाओं का हौसला और हिम्मत बनीं। अनगिनत लाइनें औरतों ने यहां प्रदर्शन में बैठकर लिखींतो कई प्रसिद्ध मौजूदा और पहले से लिखी रचनाओँ का सहारा लिया। फ़ैज़ की मशहूर नज़्म 'हम देखेंगे', वरूण ग्रोवर की कविता हम काग़ज़ नहीं दिखाएंगे', आमिर अज़ी़ज़ की नज़्म 'सब याद रखा जाएगासब कुछ याद रखा जाएगा', राहत इंदौरी का शेर 'सभी का खून है शामिल यहां कि मिट्टी मेंइस आंदोलन की जान बन गए थे।

एक और खास बात की इस आंदोलन में हर जगह संविधान की प्रस्तावना 'हम भारत के लोगका पाठ एक नहीं अपितु अनेक भाषाओं में हुआ। ये पाठ सत्ता को ये बताने के लिए काफी था कि हम सब एक हैं और यहां देश में विविधता में ही एकता है।

भाषा लिखती हैं कि कला हमारे दुख-गुस्सेनफ़रत-मोहब्बतजुड़ाव-अलगाव को व्यक्त करने का सबसे बेहतरीन जरिया होती है और यह कला कमोबेश हर एक आंदोलन की थाती होती है। किस तरह रूह को छूकर निकला है कोई सवालयह उस पर लिखी नज़्म-गीत-नारे-पेंटिग्स को पढ़-देखकर अंदाजा लग जाता है। इस मामले में भी शाहीन बाग़ आंदोलन बेमिसाल निकला। शब्दों की चिंगारियां पूरे देश में फैल गईंकहीं दीवारों पर उतर गईंकहीं सड़कों पर बिछ गईं।"

तेरे गुरूर को जलाएगी वो आग हूंआकर देख मुझे मैं शाहीन बाग़ हूं

शाहीन बाग़ का आंदोलन पहले दिन से ही सुर्खियों में था। ये एक आंदोलन से ज़्यादा नागरिक चेतना का प्रतीक थाइसकी वजह वहां धरने पर बैठी औरतें थी। कड़ाके की ठंड और पुलिस की लाठियों की परवाह किए बिना महिलाएं 'आज़ादीऔर 'हम संविधान बचाने निकले हैंआओ हमारे साथ चलोजैसे नारे लगाती थी और 'संविधान की प्रस्तावनाको हर दिन पढ़ती थीं। आलम यह हुआ कि दिल्ली से लेकर बंगाल तकबिहार से लेकर मुंबई और अन्य कई राज्यों में महिलाएं लामबंद हुईं और सत्ता की आंखों में आंख डालकर सवाल करने लगींउन्हें बाबा साहेब के संविधान की याद दिलाने लगीं। और इस तरह देश के नक़्शे पर कुछ ऐसे नए नाम आए जो विरोध के स्वर के लिए देश-विदेश में गूंजने लगे।

शाहीन बाग़ की दादी/नानी बिल्क़ीस बानो

गौरतलब है कि इस आंदोलन में लाख उकसावे और लांछनों के बावजूद इन महिलाओं ने अपना संयम नहीं खोया। आज़ाद भारत में महिलाओं का ऐसा आंदोलन शायद ही पहले देखा गया हो। आज शाहीनबाग़ में भले ही कोई महिला धरने पर नहीं बैठी है। लेकिनशाहीन बाग़ की नानियां-दादियां एक विचार बनकर हमेशा-हमेशा के लिए हर भारतीय के जेहन में रच-बस गई हैं। साल 2020 में टाइम मैग्ज़ीन ने 82 वर्षीय दादी/नानी बिल्क़ीस बानो को विश्व के 100 सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में शामिल किया था। भाषा सिंह ने भी दादी बिल्क़ीस समेत कई बुजुर्ग महिलाओं से बातचीत कर उनके बातों को आवाज़ दी है। भाषा के मुताबिक 'ये किताब इसलिए भी खास है ताकि सनद रहे कि लोकतंत्र की इस करवट का-इन आवाज़ों का सिर्फ मैं और आप ही श्रोता या साक्षी नहीं हैंबल्कि पूरा देश गवाह रहा है।'

आख़िर में सामाजिक कार्यकर्ता और कवि फ़राह नक़वी की शाहीन बाग़ पर लिखी एक कविता की पंक्तियां

दरिया तो भर गई मैं अब सैलाब हूं,

नज़र घुमा मैं अब हर शहर का शाहीन बाग़ हूं।

दबा सके न सौ तूफांमैं वो परवाज़ हूं

तू आ के देख औरत हूं और इंक़लाब हूं।

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