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'मैं भी ब्राह्मण हूं' का एलान ख़ुद को जातियों की ज़ंजीरों में मज़बूती से क़ैद करना है

रैना ने अगर “मैं ब्राह्मण हूं” कह कर खुद को संबोधित कर दिया तो इसमें गलत क्या है? तो चलिए इस तरह के ढेर सवालों के जवाब के लिए सुसंगत और जायज राय बनाने की तरफ चलते हैं।
मैं भी ब्राह्मण हूं
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

भारतीय जनमानस के बीच भारतीय क्रिकेट टीम भारत का पहचान का बोझा लेकर चलती है। लेकिन एक कंपनी के मातहत चलने वाली भारतीय क्रिकेट टीम को लेकर कभी यह बहस नहीं छिड़ी कि अभी तक के भारतीय क्रिकेट टीम के कितने खिलाड़ी भारत के निचली जातियों से आते हैं? तब भी नहीं जब भारतीय क्रिकेट टीम नवाबों का खेल हुआ करती थी और अब भी नहीं जब यह भारत के गली-मोहल्ले तक का खेल बन चुकी है।

अगर यह बहस नहीं छिड़ी तो कैसे संभव है कि पूरी जिंदगी की हकीकत 22 गज जमीन को मानने वाले क्रिकेटर कभी भारत के अंदर मौजूद जाति के उठापटक को समझ पाएंगे। उनके अवचेतन में तो यही होगा जो भारत का मुखर समाज हम सबके अवचेतन में भरता रहता है कि भारतीय संस्कृति का मतलब हिंदू संस्कृति है और हिंदू संस्कृति का मतलब ब्राह्मण संस्कृति है।

भारत के भूतपूर्व क्रिकेटर और चेन्नई सुपर किंग के खिलाड़ी सुरेश रैना ने तमिल नाडु प्रीमियर लीग क्रिकेट कमेंट्री के दौरान यह कहा "मैं सोचता हूं कि मैं भी एक ब्राह्मण हूं। मैं 2004 से चेन्नई में खेल रहा हूं। मुझे यहां की संस्कृति से प्यार है। मुझे अपने टीममेट से प्यार है। ..... मुझे यहां की संस्कृति से प्यार है और मैं खुद को भाग्यशाली समझता हूं कि मैं यहां से खेल रहा हूं।"

रैना के इस बयान के बाद सोशल मीडिया पर बवाल मच गया। "मैं भी ब्राह्मण" नाम से बहस की बाढ़ छिड़ गई। ढेर सारे लोगों की तरफ से यह तर्क सुनाई देने लगा कि लोग जब खुद को पिछड़ा और दलित बताकर संबोधित करते हैं तो किसी तरह का बवाल नहीं होता। यहां तक कि भारत के प्रधानमंत्री सहित ढेर सारे नेता अपनी राजनीति करते वक्त खुद की जातीय पहचान को आगे रख कर बात करते हैं तो किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। तो रैना ने अगर “मैं ब्राह्मण हूं” कह कर खुद को संबोधित कर दिया तो इसमें गलत क्या है? तो चलिए इस तरह के ढेर सवालों के जवाब के लिए सुसंगत और जायज राय बनाने की तरफ चलते हैं।

तो सबसे पहले यह कि यहां पर रैना की बात नहीं हो रही। रैना के वक्तव्य से पैदा हुई सवालों के जवाब की तलाश हो रही है। कोई भी अगर यह कहे कि वह सोचता है कि वह ब्राह्मण है इसलिए उसे अमुक संस्कृति से प्यार है और वह संस्कृति अगर भारत और दक्षिण भारत की हो तो इसका मतलब यह है कि न ही वह भारत को जानता है, न ही दक्षिण भारत को जानता है और तमिलनाडु को तो बिल्कुल भी नहीं जानता है। आंकड़ों के हिसाब से देखा जाए तो तमिलनाडु के आबादी में ब्राह्मणों का हिस्सा महज 6 से 7 फ़ीसदी के आसपास है। अगर संस्कृति के तौर पर देखा जाए तो पूरे भारत में तमिलनाडु एक ऐसा राज्य है जो जाति विरोधी राजनीति का सबसे बड़ा प्रतीक है। बीसवीं सदी की शुरुआत से लेकर अब तक तमिलनाडु की सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता में जाति विरोधी संघर्ष ही केंद्र में रहा है। इसलिए भारत के तकरीबन सभी कद्दावर राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कांग्रेस और भाजपा जैसी भारत की मुख्य पार्टियां तमिलनाडु के सत्ता में मजबूत जगह पाने में अब तक असफल रही हैं।

अब आते हैं दूसरे सवालों के जवाब पर। वरिष्ठ पत्रकार और जातिगत मसलों पर मुखर होकर अपनी बात रखने वाले दिलीप मंडल न्यूज़क्लिक से बात करते हुए कहते हैं कि भारत में जातियों का क्लेम करना यानी जातियों का अपनी पहचान का दावा किसी एक जाति की विशिष्टता नहीं है। भारत में तकरीबन 5 से 6 हजार जाति सभाएं चलती रहती हैं, समझ लीजिए कि तकरीबन हर जाति यह काम करती है। यहां सेवा के नाम पर तमाम तरह के काम किए जाते हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि दिक्कत कहां से शुरू होती है? हिंदू धर्म के भीतर जातिगत संरचना असमानता के आधार पर ऊपर से लेकर नीचे के क्रम में बंटी हुई है। जहां पर सबसे ऊपरी पायदान पर ब्राह्मण मौजूद है और निचली पायदान पर सफाई का काम करने वाली जातियां। एक दो फ़ीसदी जागरूक लोगों को छोड़कर देखा जाए तो हिंदू धर्म का अधिकतर हिस्से का मानस ब्राह्मण को ही अपने जीवन का अगुआ मानता है।  जन्म लेने पर बच्चे का नाम, किसी शुभ काम का मुहूर्त, शादी से जुड़े तमाम तरह के कर्मकांड से लेकर मृत्यु से जुड़े तमाम तरह के कर्मकांड ब्राह्मणों के अगुवाई और मार्गदर्शन में ही किए जाते हैं। इसी प्रक्रिया को संस्कृतिकरण भी कहते हैं। जहां पर निचली जातियां अपने ऊपर जातियों के रहन-सहन का नकल करती हैं। उसे ही अपना मापदंड बनाकर आगे बढ़ती हैं। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो ब्राह्मणों को दरकिनार कर अपनी जिंदगी जीते हैं।

ऐसे में अगर कोई अपने कार के पीछे मैं भी ब्राह्मण और परशुराम की फोटो लगा रहा है तो निचली जातियां भी यही करेंगी। इसीलिए डॉक्टर अंबेडकर कहते हैं कि ब्राह्मण ही हिंदुओं का बुद्धिजीवी वर्ग है। जब तक ब्राह्मण आगे बढ़कर जातिगत पहचान को खत्म करने का जिम्मा नहीं उठाते तब तक अगर जाति खात्मे जैसी कोई परियोजना है तो वह खत्म नहीं होने वाली।

डॉ लक्ष्मण यादव जाति के मुद्दे पर सामाजिक जागरूकता फैलाने का जबरदस्त काम कर रहे हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। उनका कहना है कि जब निचली जाति के लोग खुद की जाति का दावा पेश करते हैं तो उसमें विशेषाधिकार की मांग नहीं होती। बल्कि वह अपना हक मांग रहे होते हैं। जैसे अगर कोई कहे कि मैं पिछड़ों की जमात से आता हूं तो वह अप्रत्यक्ष तौर पर अपने साथ हुई नाइंसाफीयों को समाज के सामने पेश कर रहा होता है।

अपने हक और अधिकार को समाज से मांगने की अभिव्यक्ति कर रहा होता है। फिर भी अब तक यही होते आया है कि जब भी निचली जाति के लोग जातिगत भेदभाव के सवाल पर मुखर होकर बोलते और लिखते हैं तो उन्हें जातिवादी कह दिया जाता है। यह जीवन के हर क्षेत्र में है। राजनीति, साहित्य से लेकर अकादमी की दुनिया सब जगह यह होता है। जबकि वह अपने अधिकार की लड़ाई लड़ रहे होते हैं। लेकिन यहीं पर अगर कोई कहे कि "मैं ब्राह्मण हूं" तो इसके साथ निकलने वाली अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति वंचना की नहीं होती। अपने साथ हुए नाइंसाफी की नहीं होती। बल्कि अपनी श्रेष्ठता और विशेषाधिकार का दावा करने की होती है। सु

रेश रैना जाने या अनजाने में यही बात कह रहे हैं कि मैं सोचता हूं कि मैं ब्राह्मण हूं... मुझे यहां की संस्कृति से प्यार है." इस अभिव्यक्ति में कहीं से भी वंचना की झलक नहीं दिखती। बल्कि ब्राह्मण होने के नाते तमिलनाडु की संस्कृति से लगाव की अभिव्यक्ति होती है। यह एक तरह का श्रेष्ठता भाव है। जिसे कोई नहीं छोड़ना चाहता। जो ब्राह्मण है, उसे लगता है कि वही भारत की संस्कृति है। ब्राह्मण होने के नाते उसने सारा भारत जान लिया। एक बात पर कभी गौर कीजिएगा कि आखिर क्या वजह है कि कश्मीरी पंडितों का संबोधन कश्मीरी प्रवासी कहकर नहीं होता? इसका एक ही उत्तर है एक तरह की श्रेष्ठता और विशेषाधिकार होने का भाव जिसे कोई नहीं छोड़ना चाहता।

इस कड़ी की अंतिम बात कि बहुत सारे लोग ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद में कंफ्यूज हो जाते हैं। होने लगता है कि ब्राह्मणवाद का मतलब ब्राह्मणों का विरोध है। जबकि ऐसा नहीं है। समाज और संस्कृति के विशेषज्ञ प्रोफ़ेसर चंदन श्रीवास्तव कहते हैं कि ब्राह्मण एक जाति का नाम है। लेकिन ब्राह्मणवाद एक विचारधारा है। एक तरह की प्रवृत्ति है। 

ब्राह्मणवाद एक जाति विशेष से नहीं जुड़ा जैसे मार्क्सवाद सिर्फ कामगार तबके का विचार नहीं। इसमें सभी शामिल है जो पूंजी संचय की प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ते हैं। एंजिल्स खुद एक पूंजीपति के पुत्र थे। ठीक इस तरह ब्राह्मणवाद एक ऐसी विचारधारा है जिसका जुड़ा पूरे समुदाय से है। जिसकी पैठ पूरे जनमानस में समाई हुई है। 

ब्राह्मणवाद मूलत: समुदाय के भीतर गैर बराबरी का विचार है। छूत और अछूत के आधार पर एक दूसरे के साथ अलगाव करने का विचार है। शुद्धता और शुद्धता के आधार पर इस पूरी सृष्टि को बांट देने का विचार है। इसमें सभी शामिल है। ऊंची जातियों से लेकर निजी जातियां सभी। निचली जातियां भी अपने से नीची जातियों के साथ भेदभाव का ही रवैया अपनाती हैं। यही ब्राह्मणवादी विचारधारा है। भारतीय समाज में इस की ही मजबूत पकड़ है। सुरेश रैना जब या कह रहे हैं कि मैं यह सोचता हूं कि मैं ब्राह्मण हूं....तब वह इसी विचारधारा से संचालित होते हुए खुद को दूसरे से अलग करते हैं और तमिल नाडु से अपने लगाव को जोड़ना शुरू कर देते हैं। 

भारत का संविधान इस तरह के जनमानस की कल्पना नहीं करता जिसकी प्रेरणा और पहचान का स्त्रोत भारत का नागरिक होने की बजाय जाने अनजाने में वह विचारधारा बने जिसके केंद्र में भेदभाव निहित है।

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