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तमिलनाडु: छोटे बागानों के श्रमिकों को न्यूनतम मज़दूरी और कल्याणकारी योजनाओं से वंचित रखा जा रहा है

रबर के गिरते दामों, केंद्र सरकार की श्रम एवं निर्यात नीतियों के चलते छोटे रबर बागानों में श्रमिक सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं।
Rubber

श्रम अधिकारों और कल्याणकारी नीतियों पर केंद्र सरकार की ढुलमुल नीतियों के साथ, कन्याकुमारी जिले में छोटे रबर बागानों में कार्यरत श्रमिकों को पहले की तुलना में कहीं अधिक विकट चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जिले में 30,000 से अधिक श्रमिकों के लिए न्यूनतम मजदूरी और सामाजिक कल्याण के सरकारी उपायों तक अपनी पहुँच को बना पाना काफी दुरूह हो चुका है।

बेहद कठिन परिस्थितियों में काम करने वाले श्रमिकों को अपने लंबे कार्यकाल के दौरान घायल होने, आकस्मिक मौतों, जानवरों के हमलों और स्वास्थ्य संबंधी सवालों के संकटों का सामना करना पड़ता है। बागानों के प्रबंधन के द्वारा इन मुद्दों का हल नहीं निकाला जाता है। जिन विभिन्न सुविधाओं को किसी जमाने में श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए उपलब्ध कराई गई थीं, को कई निजी संपदाओं के प्रबंधन के द्वारा एक के बाद एक मुल्तवी किये जाने के क्रम को बदस्तूर जारी रखा जा रहा है।

ट्रेड यूनियनों की उपस्थिति के चलते संपदा (एस्टेट) के श्रमिक अपनी आवाज को बुलंद रख पा रहे हैं, जो कि जिले में रबर बागान श्रमिकों का एक छोटा हिस्सा मात्र है। निजी संपदाओं और छोटे बागानों में श्रमिकों के एक बड़े प्रतिशत को इस काम को सिर्फ अपनी मजदूरी में से की जाने वाली बचत से पूरा करना पड़ता है।

चूँकि तमिलनाडु में कन्याकुमारी ही एकमात्र ऐसा जिला है जहाँ रबर के बागान हैं, ऐसे में श्रमिकों की दुर्दशा पर बेहद कम ध्यान दिया जाता है, जबकि हकीकत यह है कि रबर उत्पाद राज्य के लिए अच्छा-खासा राजस्व इकट्ठा करते हैं। 

रबर की कीमत में अचानक भारी और अभूतपूर्व गिरावट ने रबर उद्योग की चमक को फीका करने और रोजगार के अवसरों को घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। 

1951 में पहला श्रम अधिनियम 

केरल और तमिलनाडु में कन्याकुमारी जिले को प्राकृतिक रबर की खेती के लिए पारंपरिक क्षेत्रों के तौर पर माना जाता रहा है। महाराष्ट्र एवं पूर्वोत्तर जैसे राज्यों को गैर-पारंपरिक क्षेत्रों के तौर पर माना जाता है।

हालाँकि रबर के बागानों की शुरुआत 1902 में तत्कालीन त्रावणकोर रियासत के राज्य में हुई थी, जिसमें केरल में दक्षिणी जिले और तमिलनाडु का कन्याकुमारी शामिल था, लेकिन श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कानून को स्वतंत्रता हासिल होने के बाद ही लागू किया जा सका था।

2 नवंबर, 1951 को संसद में प्लांटेशन लेबर एक्ट (पीएलए), 1951 संसद में पारित किया गया था, जिससे कि श्रमिकों के लिए कल्याणकारी योजनाओं को प्रदान करने और काम करने की परिस्थितियों का नियमन किया जा सके। इस अधिनियम में काम के घंटों विनियमित करने, कल्याणकारी उपायों को विस्तार देने, स्वास्थ्य एवं मजदूरी के साथ अवकाश को लागू करने के प्रावधानों को शामिल किया गया था। 

बागान को इस रूप में परिभाषित किया गया था जिसमें ‘चाय, कॉफ़ी, रबड़ या कुनैन को उगाने के लिए उपयोग की जाने वाली या किसी भी भूमि, जिसका क्षेत्रफल पच्चीस एकड़ या उससे अधिक माप का है, और जहाँ पर तीस या उससे अधिक लोग कार्यरत हैं, या पिछले बारह महीनों में किसी भी दिन काम पर नियुक्त किये गए थे। 

इस अधिनियम के लागू हो जाने के बावजूद, कई बागान इन प्रावधानों को लागू करने के प्रति अनिक्छुक बने रहे, जिसके चलते ट्रेड यूनियनों के द्वारा निरंतर संघर्ष का दौर जारी रहा। काम करने की परिस्थतियाँ असुरक्षित बनी रहीं जबकि न्यूनतम मजदूरी और कल्याणकारी उपाय वास्तविकता से कोसों दूर बने रहे। इस प्रकार के हालात अधिनियम लागू होने के 70 वर्षों बाद भी कमोबेश जस के तस बने हुए हैं। 

‘अतीत की ओर एक दृष्टिपात’

ट्रेड यूनियनों की ओर से बार-बार हस्तक्षेप और श्रमिकों के विरोध के बावजूद बागानों में श्रमिकों की दुर्दशा में शायद ही कोई बदलाव देखने को मिला हो। जिले में राज्य-स्वामित्व वाली अरासु रबर कारपोरेशन (एआरसी) के साथ-साथ निजी कंपनियों के स्वामित्व वाली कुल 25 संपदाएं हैं, जिनमें कुलमिलाकर 2000 श्रमिक कार्यरत हैं।

कन्याकुमारी जिला एस्टेट वर्कर्स यूनियन (केडीईडब्ल्यूयू) के अध्यक्ष, पी नटराजन ने कहा, “अधिकांश छोटे बागानों में कोई ट्रेड यूनियन काम नहीं कर रही है, जो बागानों के बड़े हिस्से के लिए जिम्मेदार हैं जिसमें लगभग 30,000 श्रमिक कार्यरत हैं। न्यूनतम मजदूरी सहित अन्य कल्याणकारी एवं सामजिक सुरक्षा उपाय अभी भी उनके लिए एक सपना बना हुआ है।”

अधिकांश छोटे उत्पादकों के द्वारा कर्मचारी राज्य बीमा एवं भविष्य निधि सहित अन्य कल्याणकारी उपायों को उपलब्ध नहीं कराया गया है। 

केडीईडब्ल्यूयू के महासचिव एम वलसा कुमार ने कहा, “ट्रेड यूनियनों के तहत संगठित श्रमिकों को न्यूनतम वेतन एवं अन्य लाभ प्रदान किये जा रहे हैं। वहीँ असंगठित श्रमिकों को मजदूरी एवं अन्य लाभों के लिए पूरी तरह से छोटे उत्पादकों के विवेक पर निर्भर रहना पड़ रहा है।”

श्रमिकों का पारिश्रमिक रबर के बाजार मूल्य के आधार पर निर्धारित किया जाता है, और यदि उनकी ओर से अधिक पारिश्रमिक या अन्य लाभों की मांग की जाती है तो उन्हें अपनी नौकरियों को खोने के खतरे का सामना करना पड़ता है।

‘कई मोर्चों पर असुरक्षित’

पिछले दो दशकों से रबर की कीमतें लगातार अस्थिर बनी हुई हैं, जबकि ऐतिहासिक रूप से कम कीमतों ने इस उद्योग को करीब-करीब खत्म होने की कगार पर ला खड़ा कर दिया है। भारत रबर का चौथा सबसे बड़ा उत्पादक देश है, लेकिन 2020 से यह दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता भी बन चुका है।

रबर की खेती में एक प्रमुख क्षेत्र ‘छोटे उत्पादकों’ का है जो रबर अधिनियम 1947 के मुताबिक 50 एकड़ से कम स्वामित्व के मालिक हैं। 

वाणिज्य विभाग की 2017-18 की वार्षिक रिपोर्ट में बताया गया है कि प्राकृतिक रबर में 89% संकुचन के कारण इसकी पौध फसल का निर्यात घट गया है। इस प्रकार के बागानों पर निर्भर छोटे उत्पादकों और श्रमिकों पर इसका भारी दुष्प्रभाव पड़ा है।

एक छोटे बागान पर कार्यरत एक बागान श्रमिक ने बताया, “जब बाजार में कीमतें कम होने लगती हैं तो छोटे उत्पादक श्रमिकों को रोजगार पर रखने से बचते हैं। जो उपज उन्हें हासिल होती है, वह कई बार श्रमिकों को समय पर भुगतान करने के लिए पर्याप्त नहीं होती है, जिसके चलते नुकसान उठाना पड़ सकता है। इससे श्रमिकों को काफी बुरी तरह से प्रभावित करता है, और इसका दुष्प्रभाव काफी लंबे अर्से तक जारी रहता है।”

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एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू जिस पर सबसे कम ध्यान दिया जाता है वह है बागान में कार्यरत श्रमिकों की सुरक्षा और स्वास्थ्य संबंधी मुद्दे। श्रमिकों के सामने व्यवसाय से जुड़ी चोटों और मानव-पशु के बीच के संघर्ष की घटनाएं अभी भी एक बड़ी चुनौती बनी हुई हैं।

वलसा कुमार ने कहा, “कंपनी संपदा श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए सीमित चिकित्सा, आवास एवं शैक्षणिक सुविधायें मुहैया कराती है, जो छोटे बागानों में पूरी तरह से अनुपस्थित है। पहाड़ी और असमतल इलाकों में जिस प्रकार के जोखिमों का उन्हें सामना करना पड़ता है, यह उनके लिए कई बार स्थायी विकलांगता का कारण बन जाता है। ऐसे कारकों पर सरकार की तरफ से भी बहुत कम ध्यान दिया जाता है।”

मानसून एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं के दौरान छोटे बागानों में काम करने वाले श्रमिकों को मुश्किल से ही कोई राहत मिल पाती है।

वलसा कुमार का कहना था, “राज्य और केंद्र सरकार दोनों के लिए राजस्व अर्जित करने में मदद पहुंचाने के बावजूद, बदले में बागान श्रमिकों को बहुत कम मिलता है। उनकी दुर्दशा पर अपना ध्यान देने में सरकारों की उपेक्षा बेहद निराशाजनक है।”

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केंद्र सरकार द्वारा श्रम कल्याण और निर्यात पर अपनाई गई नीतियों ने कन्याकुमारी में छोटे रबर बागानों के श्रमिकों को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित किया है। राज्य सरकार ने भी श्रमिकों की दुर्दशा पर न के बराबर ध्यान दिया है। 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

TN: Workers in Small Plantations Denied Minimum Wages, Welfare Measures

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