सर्वोच्च न्यायालय ने चुनावी बांड को बताया असंवैधानिक
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को 2018 की चुनावी बांड योजना को सर्वसम्मति से असंवैधानिक करार दे दिया है।
भारत के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली एक संविधान पीठ जिसमें जस्टिस संजीव खन्ना, बी.आर. गवई, जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा शामिल थे, ने माना कि स्वैच्छिक राजनीतिक योगदान का खुलासा न करना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है।
बेंच ने तर्क दिया कि लोकतंत्र में सूचना के अधिकार में राजनीतिक फंडिंग के स्रोत को जानने का अधिकार भी शामिल है। सूचना के अधिकार को केवल अनुच्छेद 19(2) के माध्यम से प्रतिबंधित किया जा सकता है। हालांकि काले धन पर अंकुश लगाने का आधार अनुच्छेद 19(2) में "नहीं मिलता" है।
इसके अलावा, यह भी माना गया कि कॉर्पोरेट्स द्वारा असीमित राजनीतिक फंडिंग स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है और इसलिए यह अनुच्छेद 14 के तहत यह स्पष्ट रूप से मनमाना है।
अदालत ने वित्त विधेयक, 2017 के माध्यम से किए गए संबंधित संशोधनों को भी रद्द कर दिया है।
अदालत ने योजना के तहत जारीकर्ता बैंक भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) को चुनावी बांड जारी करने पर तुरंत रोक लगाने का निर्देश दिया है।
इसने एसबीआई को अब तक खरीदे गए चुनावी बांड पर डेटा प्रस्तुत करने का भी निर्देश दिया है, जिसमें खरीदारों के नाम, खरीद का मूल्य और योगदान हासिल करने वाले राजनीतिक दलों के नाम देना भी शामिल हैं।
खंडपीठ ने निर्देश दिया है कि उक्त जानकारी भारत निर्वाचन आयोग को 31 मार्च तक प्रकाशित करनी होगी।
अदालत 2018 की चुनावी बांड योजना की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी जो चुनावी बांड को इस प्रकार परिभाषित करती है: "एक वचन पत्र की प्रकृति में जारी किया गया बांड जो एक वाहक बैंकिंग साधन होगा और इसमें खरीदार का या बांड पाने वाले का नाम नहीं होगा।"
योजना के अनुसार, बांड एक हजार, दस हजार, एक लाख, दस लाख और एक करोड़ रुपये के मूल्यवर्ग में जारी किए जा सकते हैं।
पृष्ठभूमि
चुनावी बांड योजना वित्त विधेयक, 2017 के माध्यम से पेश की गई थी, जिसके लिए जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, (आरपीए) 1951 ; आयकर अधिनियम, 1961; कंपनी अधिनियम, 2013 और विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम, (एफसीआरए) 2010 में संसोधन किया गया था।
इसे भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 31 (डिमांड बिल और नोट जारी करना) में संशोधन करके अधिसूचित किया गया था।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(ए), 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर संशोधनों को चुनौती देते हुए कई याचिकाएं दायर की गईं थीं।
याचिकाकर्ताओं द्वारा यह तर्क दिया गया कि चुनावी योजना "हमारे लोकतंत्र की जड़" को कुतरती है। उत्तरदाताओं ने इस योजना का बचाव करते हुए कहा कि यह "चुनावों में अशुद्ध और काले धन को खत्म करने" के लिए महत्वपूर्ण था।
असंशोधित आरपीए में, धारा 29 सी (राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त दान की घोषणा) के तहत, यदि किसी राजनीतिक दल को एक वित्तीय वर्ष में एक व्यक्ति से बीस हजार रुपये से अधिक का योगदान मिलता है तो उन्हें ऐसे दान की रिपोर्ट चुनाव आयोग को देनी होती है।
यदि चुनावी बांड के माध्यम से योगदान किया जाता है तो 2017 के संशोधन ने इस तरह की रिपोर्टिंग को हटा दिया था।
चुनावी बांड योजना में प्रावधान किया गया है कि केवल वे राजनीतिक दल जो आरपीए की धारा 29ए के तहत पंजीकृत हैं, और जिन्होंने पिछले आम चुनावों में लोक सभा या विधान सभा के लिए डाले गए वोटों में से कम से कम 1 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं वे ही बांड पाने के पात्र होंगे।
कंपनी अधिनियम के तहत, किसी भी निगम या कंपनी द्वारा राजनीतिक दल को दिया गया योगदान पिछले तीन वित्तीय वर्षों के दौरान औसत शुद्ध लाभ के 7.5 प्रतिशत की सीमा से अधिक नहीं हो सकता है।
2017 के संशोधन ने कंपनी अधिनियम की धारा 182 (राजनीतिक योगदान के संबंध में निषेध और प्रतिबंध) के तहत उस प्रावधान को हटा दिया, जो इस आवश्यकता को अनिवार्य करता था।
कंपनी अधिनियम में एक और संशोधन धारा 182(3) को चुनौती दी गई थी, जिसके तहत पहले उस राजनीतिक दल का नाम, जिसे दान दिया गया था, राशि के विवरण के साथ खुलासा करना पड़ता था।
संशोधन के बाद, उस राजनीतिक दल का नाम उजागर करने की जरूरत नहीं थी जिसे दान दिया गया था। केवल दान की कुल राशि का खुलासा करना होता था।
आयकर अधिनियम, 1961 के तहत, संशोधन से पहले, धारा 13ए में यह प्रावधान था कि किसी राजनीतिक दल को स्वैच्छिक योगदान के माध्यम से किसी भी आय को आयकर की गणना में किसी व्यक्ति की कुल आय में शामिल नहीं किया जाता था, बशर्ते कि राजनीतिक दल इसे बरकरार रखे। ऐसे योगदानों का एक रिकॉर्ड, जिसमें ऐसे योगदान देने वाले व्यक्तियों के नाम और पते शामिल हैं।
संशोधन के बाद, राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के रूप में हासिल होने वाले ऐसे योगदान का रिकॉर्ड बनाए रखने की आवश्यकता नहीं थी।
एफसीआरए के तहत, राजनीतिक दलों और लोक सेवकों को विदेशी योगदान निषिद्ध था। संशोधन के बाद, सरकार ने "प्रभावी रूप से" विदेशी दान की अनुमति दे दी थी।
गौरतलब है कि भारत के निर्वाचन आयोग ने 2018 चुनावी बांड योजना का विरोध किया था।
गुरसिमरन कौर बख्शी द लीफलेट में स्टाफ राइटर हैं
सौजन्य: द लीफ़लेट
मूल अंग्रेजी लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
SC Declares Electoral Bonds Unconstitutional, Asks SBI to Stop Sale
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