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पाकिस्तान-तालिबान संबंधों में खटास

अमेरिका इस्लामाबाद के साथ तालिबान के संबंध में उत्पन्न तनाव का फायदा उठाने की तैयारी कर रहा है।
Taliban

तालिबान के पिछले साल अगस्त में अफगानिस्तान की गद्दी पर काबिज होने के बाद बाहरी दखल उम्मीद से बहुत पहले ही दिखने लगा है। एक परिचित पैटर्न में,अफवाह की फैक्टरी फिर से चालू हो गई है।

रूसी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता मारिया ज़खारोवा ने तथाकथित नेशनल रेसिस्टेंस फ्रंट ऑफ अफगानिस्तान को पंजशीर प्रांत में मास्को द्वारा हथियारों की आपूर्ति किए जाने की अफवाह फैलाने के लिए अमेरिका को आड़े हाथों लिया।

ज़खारोवा ने कहा: "इस मुद्दे पर फर्जी खबरों की रिपोर्टों से मिलने वाले नतीजों की आशंका से हम यह स्पष्ट करना आवश्यक समझते हैं कि : जो कुछ भी कहा जा रहा है, उसमें रूस किसी भी तरह से शामिल नहीं है और वह अफगान विरोधी दलों को हथियार देने नहीं जा रहा है...यह बात मूल रूप से रूस के हितों के विपरीत है।" 

जाहिर है, कि मास्को ने इन अफवाहों से खुद को काफी परेशान महसूस किया और इसके दोहराए जाने के पहले से उसे खारिज करना मुनासिब समझा। ज़खारोवा ने रेखांकित किया कि "जातीय संघर्ष पर आधारित गृहयुद्ध को भड़काने में लगे" किसी भी अंतर-अफगान अंतर्विरोधों को अफगानिस्तान में स्थिति को अस्थिर करने में मास्को अपना योगदान नहीं देगा। 

दिलचस्प बात यह है कि रूसी विदेश मंत्रालय का खंडन राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से मंगलवार को पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान की फोन पर हुई बातचीत के कुछ ही घंटों बाद आया। हालांकि क्रेमलिन में पुतिन की बातचीत में अफगानिस्तान का जिक्र नहीं था, पर इस्लामाबाद में जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, इमरान खान ने पुतिन से कहा, "एक शांतिपूर्ण और स्थिर अफगानिस्तान क्षेत्रीय स्थिरता के लिए महत्त्वपूर्ण है। अफगानिस्तान गंभीर मानवीय और आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा है और इस महत्त्वपूर्ण मोड़ पर अफगानिस्तान के लोगों को अंतरराष्ट्रीय समुदाय का समर्थन बेहद अहम बना हुआ है। 

पाकिस्तानी बयान में यह भी कहा गया है कि इमरान खान ने अफगान लोगों की सख्त जरूरतों को पूरा करने के लिए अफगानिस्तान की वित्तीय संपत्तियों के उपयोग पर जारी रोक को हटाते हुए उन्हें जारी करने के महत्त्व को रेखांकित किया। इसके साथ ही, दोनों नेताओं ने अफगानिस्तान सहित विभिन्न क्षेत्रों में द्विपक्षीय सहयोग बढ़ाने और इसके लिए उच्च स्तरीय बातचीत करने पर भी सहमत हुए। 

इस महीने की शुरुआत में, कुछ ईरानी रिपोर्टों ने आगाह किया था कि तालिबान और हक्कानी नेटवर्क के साथ वित्तीय मामलों पर बातचीत के लिए अमेरिकी ट्रेजरी विभाग द्वारा दिए गए अनुमोदन के जरिए बाइडेन प्रशासन ने रूस,चीन और अन्य क्षेत्रीय देशों के साथ तालिबान के संबंधों के सकारात्मक परिपथ को जटिल करने के एक नए प्रयास का संकेत है। 

सीधे शब्दों में कहें तो वाशिंगटन की नई सोच यह है कि अमेरिकी सद्भावना दिखाने के जरिए तालिबान की उस पर निर्भरता बढ़ाई जाए और इस तरह उसके दबाव को कम किया जाए। इससे होगा यह कि काबुल की तरफ रूस, चीन, ईरान, पाकिस्तान, आदि के ध्रुवीकरण की गति धीमी पड़ जाएगी या बिल्कुल ही रुक जाएगी। 

जबकि इसके पहले अमेरिका अफगानिस्तान में अपनी अप्रत्यक्ष उपस्थिति बनाए रखने के लिए पश्चिमी गैर सरकारी संगठनों पर लगभग पूरी तरह से निर्भर था, अब वाशिंगटन के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय साधनों का उपयोग करके तालिबान का लाभ उठाने की फिराक में है। यह एक नया बदलाव है। 

मूल रूप से, वाशिंगटन की रणनीति में तालिबान को इस तरह से रियायतें देना शामिल हैं कि काबुल की रूस, चीन और अन्य क्षेत्रीय राज्यों (विशेषकर ईरान और पाकिस्तान) पर निर्भरता कम हो जाएगी। वास्तव में, वाशिंगटन तालिबान सरकार को लेकर पड़ोसी देशों की हिचक का फायदा उसे सीमित सहायता प्रदान करके उठा रहा है, जिससे उनके लिए काबुल में अंतरिम सरकार के साथ आगे बढ़ने का निर्णय लेना और भी मुश्किल हो जाता है। 

यह पहले मुर्गी या पहले अंडा वाली एक दुविधापूर्ण स्थिति है, जो तभी बदल सकती है, जब क्षेत्रीय देश इस समन्वित दृष्टिकोण को अपनाएं कि मौजूदा परिस्थितियों में तालिबान सरकार को मान्यता देना ही सबसे उचित निर्णय है। मसला यह है कि क्षेत्रीय देशों द्वारा तालिबानी हुकूमत की मान्यता रोके जाने से अफगानिस्तान में राज्य गठन की प्रक्रिया को बाधित कर रहा है और खुद तालिबान के उसके विद्रोही समूह से सत्ताधारी अभिजात वर्ग में कायाकल्प नहीं होने दे रहा है। 

इस बीच, जो सभी संकेत मिल रहे हैं, वह यह कि अमेरिका इस्लामाबाद के साथ तालिबान के रिश्ते में आ रह तनाव का लाभ उठाने की तैयारी कर रहा है। वाशिंगटन स्थित थिंक टैंक यूएस इंस्टीट्यूट ऑफ पीस (जो अमेरिकी कांग्रेस द्वारा स्थापित एक संघीय संस्थान है।) में एक हालिया चर्चा ने इस संभावना का अनुमान लगाया कि डूरंड रेखा को लेकर सीमा पर हाल की घटनाएं संभावित रूप से काबुल और इस्लामाबाद के बीच संबंधों में दरार पैदा कर सकती हैं। 

थिंक टैंक की उस चर्चा में भाग लेते हुए, राजदूत रिचर्ड ओल्सन (इस्लामाबाद में पूर्व अमेरिकी दूत) ने कहा कि "तालिबान के अपने समर्थन के लिए पाकिस्तान पर ऐतिहासिक निर्भरता के बावजूद" डूरंड लाइन के सवाल पर तालिबान का इस्लामाबाद के साथ "ब्रेक" हो सकना अवश्यंभावी है। इसलिए कि तालिबान हुकूमत की स्थिति 1947 से चली आ रही पिछली सभी अफगान सरकारों के रुख के अनुरूप है,  जो औपनिवेशिक युग की सीमा के पार पश्तूनों की मुक्त आवाजाही के अधिकार पर जोर देती है और डूरंड लाइन को एक अंतरराष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता नहीं देती है। 

ओल्सन ने आगे कहा: "यह मुद्दा इस तथ्य से और भी अधिक जटिल हो सकता है कि-मान्यता के मुद्दे के अलावा-पाकिस्तान अफगानिस्तान की राय से अलग डूरंड रेखा का सीमांकन करता है, और इस प्रकार पाकिस्तानी बाड़ का हिस्सा उस भूभाग में हो सकता है जिसे अफगानिस्तान (और संयुक्त राज्य अमेरिका समेत अधिकांश अंतरराष्ट्रीय समुदाय) भी उसे अफगान क्षेत्र में होना मानेगा।"

कृपया यहां चर्चा में उभर रहे उन सूक्ष्म संकेतों पर ध्यान दें जिनसे पता चलता है कि वाशिंगटन तालिबान की स्थिति के प्रति सहानुभूति रखता है। ओल्सन आगे कहते हैं: 

"लेकिन इस्लामाबाद के लिए, उसके अपने पश्तून क्षेत्रों में अशांति का सवाल अब तीन दशक पहले की तुलना में बहुत बड़ा है… काबुल द्वारा पाकिस्तानी तालिबान के लिए एक वास्तविक सुरक्षित पनाहगाह की अनुमति पहले से ही द्विपक्षीय संबंधों में एक बड़ी अड़चन है। यदि इस्लामाबाद को लगता है कि तालिबान अफगान डूरंड रेखा पर पारंपरिक स्थिति से आगे बढ़कर अपनी खोई हुई पश्तून जमीन को फिर से हासिल के लिए एक विद्रोहवादी आंदोलन का समर्थन करने पर आगे बढ़ गया है, तो दोनों देशों के संबंध पूरी तरह से टूट सकते हैं। इस्लामाबाद टीटीपी की उभरती नई ताकत के लिए भारतीय साजिशों को दोष दे रहा है,इसलिए इस संघर्ष के क्षेत्रीय निहितार्थ संभावित रूप से बड़े हैं। 

इसे भी पढ़ें: https://hindi.newsclick.in/Pakistan-reluctant-to-recognise-the-Taliban-government

निश्चित रूप से, ये पाकिस्तान में रहे एक पूर्व अमेरिकी राजदूत की विस्फोटक टिप्पणी हैं। दिलचस्प बात यह है कि उस यूएसआइपी चर्चा में सहभागी एक अन्य वक्ता ने अनुमान लगाया कि हालात और बुरे हो सकते हैं, "अगर तालिबान सीमा पर अपनी चुनौती को बढ़ाता है, तो पाकिस्तान तालिबान की आंतरिक राजनीति को और अधिक आक्रामक रूप से प्रभावित करने की कोशिश कर सकता है।" 

स्पष्ट रूप से, इस्लामाबाद के सामने एक बड़ी चुनौती है-तनाव को बढ़ाए बिना, दृढ़ रहना और तालिबान पर उचित और सुलह करने के लिए दबाव डालना। यहीं पर तालिबान को वाशिंगटन का संकेत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। 

तालिबान ने जिस तरह से हाल ही में इमरान खान द्वारा अफगानिस्तान में प्रशिक्षित कर्मियों को तैनात करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया, उससे पता चलता है कि उनके पैरों के नीचे की जमीन खिसक रही है। तालिबान को गुप्त पश्तून जातीय-राष्ट्रवाद के दोहन में राजनीतिक लाभ दिखाई देगा। 

इसी तरह, तालिबान पिछले साल के अगस्त में काबुल में काबिज होने में पाकिस्तानी सेना या साजो-सामान के समर्थन के लिए खुद को एहसानमंद नहीं मानता है, जिसके बिना उसकी हुकूमत में वापसी नामुमकिन होती। तालिबान ने आज अपने संबंधों में विविधता ला दी है और उसे आंतरिक रूप से भी किसी गंभीर विपक्षी खतरे का सामना नहीं करना पड़ रहा है। सबसे बढ़कर, तालिबान की मुख्य चुनौती वित्तीय और आर्थिक मोर्चे पर आती है और वहां पाकिस्तान के पास कोई उसकी सार्थक मदद करने की क्षमता ही नहीं है। 

पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार डॉ मोईद यूसुफ रात भर के दौरे पर मंगलवार को काबुल के लिए रवाना हो रहे हैं। उनके एजेंडे में दो प्रमुख मुद्दे होंगे-डूरंड रेखा की बाड़ लगाना और दूसरा, अफगान क्षेत्र से पाकिस्तान तालिबान और अन्य पाकिस्तान विरोधी तत्वों के लिए सुरक्षित पनाहगाहों को खत्म करना। 

अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे गए लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/souring-taliban-relations-pakistan

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