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न्यूज़क्लिक प्रकरण: मैकार्थीवाद का वैश्वीकरण

यह समूचा प्रकरण दो प्रकार की द्वंद्वात्मकता के काम कर रहे होने को दिखाता है। पहली द्वंद्वात्मकता है, ‘उदारपंथी’ और ‘‘फ़ासीवादी’’ मैकार्थीवाद के बीच और दूसरी वैश्वीकरण के दौर में मैकार्थीवाद से फ़ासीवाद की ओर।
Protest March
फ़ोटो: PTI

केंद्र सरकार जिस तरह से न्यूज़क्लिक के पीछे पड़ गयी है, उससे बचपन में पढ़ी हुई एक कहानी याद आ जाती है।

न्यूज़क्लिक के पीछे पड़ी सरकार

एक बार जंगल में शेर और बकरी एक ही जलधारा से पानी पी रहे थे। पर शेर तो बकरी को खाने के लिए किसी बहाने की तलाश में था, उसने बकरी पर इल्जाम लगाना शुरू कर दिया कि वह उसके पीने के पानी को गंदा कर रही है। बकरी ने डरते-डरते कहा कि महाराज यह कैसे हो सकता है, पानी तो आपकी तरफ से मेरी तरफ आ रहा है और मेरी तरह से तो पानी आपकी तरफ नहीं बल्कि नीचे की तरफ जा रहा है। तब शेर ने कहा अच्छा; तूने नहीं तो तेरे बाप ने मेरा पानी गंदा किया था।

मोदी सरकार सालों से न्यूज़क्लिक के पीछे पड़ी हुई थी। दिल्ली पुलिस और अन्य एजेंसियों ने किसी वित्तीय गड़बड़ी के साक्ष्य खोजने के लिए, उसके संस्थापक प्रबीर पुरकायस्थ के दफ्तर और घर की हफ्तों तक तलाशी ली थी। अपनी सारी कोशिशों के बावजूद, उन्हें न्यूज़क्लिक के खिलाफ कोई भी मामला बनाने के लिए कोई साक्ष्य नहीं मिले। और साक्ष्य मिलते भी कैसे क्योंकि उसमें कोई गड़बड़ी तो थी ही नहीं। उसके बाद अब सरकार ने उस पर पूरी तरह से नया आरोप मंढ दिया है, आतंक का आरोप। इसी के आधार पर अब उन्होंने न्यूज़क्लिक के दर्जनों कर्मचारियों तथा उसे सेवाएं प्रदान करने वालों तक को परेशान किया है और प्रबीर पुरकायस्थ तथा अमित चक्रवर्ती को अवैध गतिविधि निवारण कानून (यूएपीए) के अंतर्गत गिरफ्तार कर लिया है। इस कानून के प्रावधान इतने दमनकारी हैं कि इसके अंतर्गत गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति के लिए किसी भी तरह की राहत पाना बहुत ही मुश्किल होता है, फिर चाहे उस पर लगाए गए आरोप साफ तौर पर ऊटपटांग ही क्यों न हों, जैसे कि इस मामले में हैं।

न्यूयार्क टाइम्स का दुर्भावनापूर्ण लेख

बहरहाल, दिल्ली पुलिस के इस तरह पटरी बदलने पीछे भी, खुद हमारी सरकार का अपना मौलिक आइडिया नहीं है। सरकार को यह रास्ता सूझा है, न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक सरासर दुर्भावनापूर्ण लेख से, जिसमें नेविल रायसिंघम नाम के एक धनी व्यापारी पर, जो अमेरिका का नागरिक है, यह आरोप लगाया गया है कि वह चीनी सरकार की प्रचार मशीनरी से जुड़ा हुआ है और बड़ी मात्रा में पैसे का सहारा लेकर, अनेकानेक संस्थानों के जरिए चीनी प्रचार को फैला रहा है। इन अनेकानेक संस्थानों में चलताऊ तरीके से न्यूज़क्लिक का भी जिक्र किया गया है।

न्यूयार्क टाइम्स का यह लेख दुर्भावनापूर्ण है क्योंकि इसमें किसी भी अमेरिकी कानून के उल्लंघन का तो जरा सा भी साक्ष्य नहीं दिया गया है, फिर इसमें इशारों तथा तिर्यक-कथनों की शृंखला का सहारा लेकर, इस तरह की छवि बनाने की कोशिश की गयी है सिंघम जैसे लोगों के जरिए, दुनिया भर में चीनी प्रचार को फैलाने का, कोई विशाल षडयंत्र चल रहा है। न्यूयार्क टाइम्स के भेजे एक ई-मेल में सिंघम ने एलान किया था कि, ‘मैं इस तरह के हरेक इशारे का दो-टूक तरीके से खंडन करता हूं कि मैं किसी राजनीतिक पार्टी का सदस्य हूं या किसी सरकार या उनके प्रतिनिधियों के लिए काम करता हूं या उनसे आदेश लेता हूं या उनके निर्देशों का अनुसरण करता हूं। मैं पूरी तरह से अपने विश्वासों से ही संचालित हूं, जो मेरे निजी विचार हैं, जिन पर लंबे अर्से से मेरा यकीन है।’

न्यूयार्क टाइम्स का लेख सिंघम के इस दावे का सीधे खंडन नहीं करता है। और वह सिंघम द्वारा या उनसे धन-प्राप्त किसी भी संगठन द्वारा किसी भी अमेरिकी कानून के उल्लंघन का, सीधे कोई आरोप भी नहीं लगाता है। (देखें, मंथली रिव्यू ऑनलाइन, 12 अगस्त 2023 में केटलिन जोह्नस्टन का जानकारीपूर्ण लेख।) फिर भी न्यूयार्क टाइम्स का लेख प्रसंग निकालकर बहुत सारे ऐसे विवरण देता है, जिनका अपने आप में तो कोई खास महत्व नहीं है और जिनमें से किसी से भी सीधे सिंघम या कथित रूप से उनके साथ जुड़े हुए किसी भी संगठन पर, किसी गड़बड़ी का कोई आरोप भी नहीं बनता है; फिर भी सब मिलकर इसका भ्रम रचते हैं कि दुनिया के पैमाने पर, चीन के इशारे पर, एक साजिश चल रही है।

कुल मिलाकर मुद्दा यह है कि सिंघम ने ऐसा कुछ नहीं किया है, जो गैर-कानूनी हो। यहां तक कि न्यूयार्क टाइम्स का लेख तक सीधे उन पर कुछ भी गैर-कानूनी करने का आरोप नहीं लगाता है। अमेरिका में उनके द्वारा समर्थित जो संगठन हैं, उन्होंने भी कुछ भी ऐसा नहीं किया है, जो अवैध हो। और उन्होंने किसी चीनी प्रचार को फैलाने का भी काम नहीं किया है, सिवा एक आम साम्राज्यवाद विरोधी मार्क्सवादी रुख अपनाने के। न्यूयार्क टाइम्स  के लेख में बेईमानी और शरारत यह है कि यह निहितार्थत: और इशारों के जरिए, साम्राज्यवाद विरोध को चीनी प्रचार का समानार्थी बना देता है। और यहीं से यह मैकार्थीवादी उत्पीडऩ या विच हंट का रास्ता खोल देता है। हैरानी की बात नहीं है कि सीनेटर मार्को रुबियो ने, अमेरिकी एटॉर्नी जनरल, मेरिक गारलेंड को लिखी एक चिट्ठी में इसकी मांग भी उठा दी है कि अमेरिकी वामपंथी युद्ध विरोधी ग्रुपों की जांच की जानी चाहिए क्योंकि ‘वे चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) से जुड़े हुए हैं और अमेरिका में खुली छूट के साथ काम कर रहे हैं।’ (जोह्न स्टोन द्वारा उद्धत)

चीनी प्रचार का निराधार आरोप

बहरहाल, न्यूयार्क टाइम्स के लेख ने तो फिर भी खुद को इशारे करने तक ही सीमित रखा। ऐसा समझा जा सकता है कि उन्होंने ऐसा इस अखबार के वकीलों के निर्देश पर किया गया होगा, जो अखबार को कानूनी कार्रवाइयों से बचाने के लिए उत्सुक रहे होंगे। लेकिन, दिल्ली पुलिस के लिए तो ऐसी कोई सीमाएं हैं नहीं। उल्टे उसके हाथ में तो अब यूएपीए के रूप में एक ऐसा कानून है कि इसके तहत वह व्यक्तियों या संगठनों पर कुछ भी आरोप लगा सकती है, और उसे वर्षों तक नहीं भी हो तो भी महीनों तक तो अपने इन आरोपों को सही साबित करने की परीक्षा का सामना करना पड़ेगा। इसलिए, उसे न्यूयार्क टाइम्स के उसी लेख की बिनाह पर इसके अंधाधुंध और निराधार दावे करने में कोई हिचक नहीं हुई कि न्यूज़क्लिक का चीनी प्रचार के प्रसार के लिए इस्तेमाल किया जा रहा था।

मैं इन दावों को ‘‘निराधार’’ इसलिए कह रहा हूं कि मैं उसका नियमित पाठक हूं और मुझे न्यूज़क्लिक द्वारा ऐसी कोई चीज प्रकाशित किए जाने की जानकारी नहीं है, जिसे दूर से भी चीनी सरकार के किसी खास रुख से जुड़ा कहा जा सकता हो।

अंतरराष्ट्रीय मामलों पर आम वामपंथी या मार्क्सवादी परिप्रेक्ष्य से संचालित सामग्री की बात दूसरी है। हां! चीनी क्रांति के प्रति एक आम सम्मान बेशक उसके परिप्रेक्ष्य में बना रहा है। लेकिन, ऐसा सम्मान तो तीसरी दुनिया के हरेक सच्चे साम्राज्यवाद विरोधी के परिप्रेक्ष्य में शामिल होना ही चाहिए।

उदारपंथी से फ़ासीवादी मैकार्थीवाद की ओर

यह समूचा प्रकरण दो प्रकार की द्वंद्वात्मकता के काम कर रहे होने को दिखाता है। पहली द्वंद्वात्मकता है, ‘उदारपंथी’ और ‘‘फासीवादी’’ मैकार्थीवाद के बीच। न्यूयार्क टाइम्स को एक उदारपंथी अखबार माना जाता है। यह इसके बावजूद है कि यह अखबार दुनिया भर में अमेरिका के सामराजी युद्धों का आम तौर पर समर्थन करता है। और उदारपंथ के प्रवर्तकों के अनुसार इसका एक बुनियादी सिद्धांत है, समाज में विचारों व रायों की विविधता को और देश के स्वीकृत कानूनों के दायरे में ऐसे विचारों के प्रचार-प्रसार की स्वतंत्रता को, स्वीकार करना। न्यूयार्क टाइम्स का ऐसा एक लेख प्रकाशित करना, जो उसने तिनके की ओट के तौर पर चाहे जो भी सावधानियां क्यों न ओढ़ी हों, साम्राज्यवाद विरोधी, युद्ध विरोधी, वामपंथी समूहों के मैकार्थीवादी विच हॉन्टों को बढ़ावा देता है और इस तरह समाज में फासीवादी तत्वों को ताकतवर बनाता है, उक्त पहले प्रकार की द्वंद्वात्मकता को रेखांकित करता है।

यह इस तथ्य की संगति में ही है कि फासीवादी ताकतें जब सत्ता में आती हैं, उनके द्वारा वामपंथी तथा जनतांत्रिक आंदोलनों का दमन करने के लिए जिन हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है, वे हथियार अक्सर उनसे पहले सत्ता में रहे उदारवादी पूंजीवादी तत्वों द्वारा ही गढ़े गए होते हैं। इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि भारत में दुर्दांत तथा पूरी तरह से दुरुपयोग का शिकार यूएपीए कानून, पहले मनमोहन सिंह की उदारवादी पूंजीवादी सरकार ही लेकर आयी थी। यह दूसरी बात है कि जाहिर है कि मोदी सरकार अब, इस कानून में एक संशोधन जोडऩे के बाद, इसका उपयोग सिर्फ संगठनों के खिलाफ ही नहीं बल्कि व्यक्तियों के खिलाफ भी कर रही है। उदारपंथी कम्युनिज्म विरोध और फासीवादी दमन के बीच की इस द्वंद्वात्मकता को, नजरों से ओझल नहीं होने दिया जाना चाहिए।

वैश्वीकरण के दौर में मैकार्थीवाद से फ़ासीवाद

दूसरे प्रकार की द्वंद्वात्मकता को यह तथ्य प्रदर्शित करता है कि अमेरिका में उठाये गये, मैकार्थीवादी विच हंट की ओर एक ‘उदारपंथी’ कदम के दुष्परिणाम, भारत में दिखाई दे रहे हैं और इसे यहां एक फासीवादी सरकार द्वारा आगे बढ़ाया जा रहा है। मैकार्थीवाद का यह वैश्वीकरण, एक ऐसी परिघटना है, जो खास वैश्वीकरण के वर्तमान दौर की ही परिघटना है।

1924 में ब्रिटेन में जिनोविएव के फर्जी पत्र ने जो ‘लाल डर’ भडक़ाया था, जिसके चलते रेम्जे मैक्डोनॉल्ड के नेतृत्व वाली ब्रिटेन की पहली लेबर सरकार का पतन हो गया था, सारत: एक ब्रिटिश परिघटना ही थी। इसी प्रकार, 1950 के दशक में अमेरिका में सीनेटर मैकार्थी का विच हंट, जिसने अमेरिकी समाज पर एक अमिट छाप छोड़ी थी, सारत: एक अमेरिकी परिघटना थी, जिसके कोई उल्लेखनीय प्रत्यक्ष वैश्विक दुष्परिणाम नहीं थे। लेकिन, वैश्वीकरण के वर्तमान दौर में ऐसे किसी गढ़े हुए ‘लाल डर’ का प्रभाव, उसकी शुरूआत के देश तक ही सीमित नहीं रहता है। दुनिया के अन्य हिस्सों में इसका इस्तेमाल किया जाता है और अक्सर तो बहुत ही भयंकर तरीके से इस्तेमाल किया जाता है। न्यूयार्क टाइम्स यह दावा कर सकता है कि उसके लेख में तो सिंघम के खिलाफ या ऐसे संगठनों के खिलाफ जिनको सिंघम ने चंदा दिया हो सकता है, कोई प्रत्यक्ष, कार्रवाई करने लायक आरोप लगाए ही नहीं गए थे। पर तीसरी दुनिया के किसी भी देश में, जैसे कि वर्तमान मोदी राज में भारत में, जहां यूएपीए जैसे दमनकारी कानून का खुलकर इस्तेमाल किया जा रहा है, इस तरह के लेख का प्रगतिशील विश्व दृष्टि रखने वाले ऐसे व्यक्तियों के खिलाफ दहशतनाक परिणामों के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है तथा किया गया है, जो सत्ता के सामने सच बोलने का साहस दिखाते हैं और जनतांत्रिक भावना को जिंदा रखते हैं।

न्यूयार्क टाइम्स आज के दौर में अपने लेख के ऐसे असर से अनजान ही रहा हो, यह संभव नहीं है। यह तथ्य कि इसके बावजूद उसने आगे बढक़र इस तरह के एक लेख को प्रकाशित किया है, समकालीन पश्चिमी उदारतावाद के बारे में बहुत कुछ कह देता है।

आज के दौर में मैकार्थीवाद, चीन का हौवा खड़ा करने का रूप लेता है। और वही मोदी सरकार, जो इसके दावे करती है कि पिछले समय में चीन के हाथों भारत ने एक इंच भी जमीन नहीं खोयी है, विडंबनापूर्ण तरीके से उस चीन-विरोधी भावना का फायदा उठाने की कोशिश कर रही है, जो वास्तव में जमीन के गंवाए जाने की खबरों से पैदा हुई है। और इसके सहारे मोदी सरकार देश में स्वतंत्र मीडिया के नाम पर जो कुछ भी थोड़ा-बहुत बचा है, उसे भी मैकार्थीवादी उत्पीडऩ का निशाना बना रही है।

अगर उदारतावाद को सचमुच फासीवाद विरोधी होना है, तो उसे ‘‘लाल डर’’ फैलाने की अपनी प्रवृत्ति को और इससे भी ज्यादा आम तौर पर अपने मैकार्थीवादी झुकावों को त्यागना होगा। यह मौजूदा दौर में खासतौर पर जरूरी है, जब मैकार्थीवाद के तेजी से वैश्वीकृत हो जाने की प्रवृत्ति देखी जा सकती है और जब विश्व पूंजीवादी संकट ने दुनिया भर में फासीवाद के विकास के लिए उपयोगी जमीन तैयार कर दी है; उस फासीवाद के लिए जो इस तरह के मैकार्थीवादी विच हंटों से खुराक हासिल कर सकता है।

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

Globalisation of McCarthyite Witch-Hunts

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