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यूक्रेन से सरज़मीं लौटे ख़ौफ़ज़दा छात्रों की आपबीती

कोई बीमारी की हालत में ख़ुद को शॉल में लपेटे था, तो कोई लगातार खांस रहा था। कोई फ़ोन पर परिवार वालों को सुरक्षित वापस लौट आने की ख़ुशख़बरी दे रहा था। तो कुछ के उड़े चेहरों पर जंग के मैदान से बच कर निकल आने का एहसास पढ़ा जा सकता था।
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आंखों में दहशत, होठों को दांतों तले दबाये, हाथों को ऊपर उठा कर सरेंडर करने के लिए तैयार चार साल की सीरियाई बच्ची की तस्वीर ने 2015 में पूरी दुनिया की आंखों को नम कर दिया था। कैमरे को बंदूक़ समझ कर सहमी इस बच्ची की तस्वीर ने बयां कर दिया कि युद्ध का हासिल क्या होता है। 

वो साल 2014-15 की बात थी। और आज 2022 में दुनिया एक बार फिर रिफ़्यूज़ी नाम की जमात में इज़ाफ़े को देखने के लिए तैयार है। वो कौन लोग होते हैं जिनके पास सारे ऑप्शन ख़त्म हो जाते हैं और उनके लिए वाहिद जंग ही मसले का हल बन जाती है और इस हल को चुनते हुए वो उन लोगों को भी शामिल कर लेते हैं जो कभी भी जंग नहीं चाहते। जंग के इस गुणा-भाग को कोई नहीं समझ सकता, लेकिन जो समझ में आता है वो मैंने कुछ चेहरों को पढ़ने के दौरान समझा। 

दिल्ली के इंदिरा गांधी एयरपोर्ट पर अभी मैं पहुंची ही थी कि दूर से पता चल रहा था कि बच्चों का ये जत्था यूक्रेन से आने वालों का ही है। चेहरे पर हैरान, परेशान से भाव, कोई ख़ुद में ही डूबा ख़ामोश, तो किसी चेहरे पर अपने वतन लौटने की ख़ुशी। कोई बीमारी की हालत में ख़ुद को शॉल में लपेटे था, तो कोई लगातार खांस रहा था। कोई फ़ोन पर परिवार वालों को सुरक्षित वापस लौट आने की ख़ुशख़बरी दे रहा था। तो कुछ के उड़े चेहरों पर जंग के मैदान से बच के निकल आने का एहसास पढ़ा जा सकता था। चेहरे पर हंसी और आंखों में दहशत साफ़ बता रही थी कि शायद इन्हें ख़ुद भी इस बात का एहसास नहीं हो पा रहा कि ये वाक़ई उस जंग के मैदान से लौट आए हैं जहां इन्हीं की तरह पढ़ने गए कर्नाटक के नवीन की लाश भी शायद अब तक परिवार के पास नहीं पहुंच सकी है।

लगातार बच्चों के आने का सिलसिला जारी था। और हर किसी के पास अपनी-अपनी कहानी थी। जहां कुछ बच्चे अब भी कुछ ना बोल पाने की हालत में थे, तो कुछ बहुत कुछ बता देने को आतुर दिखे। इन बच्चों में कोई कीव से आ रहा था तो कोई ख़ारकीव से, कोई ओडिसा से तो कोई विनीतसिया  (Vinnytsia)  और  Chernivtsi से। 

केरल के रहने वाले इन दो छात्रों से मैंने बात करने की इजाज़त मांगी।  मेरे एक बार पूछने पर ही वो राज़ी हो गए। उन्होंने मुझे बताया कि वो सामान ख़रीदने के लिए खड़े थे और बस पल की दूरी पर उन्होंने मौत को देखा। जो उन्होंने महसूस किया कि उससे उबरने में उन्हें वक़्त लगने वाला है। हालांकि इस हाल में भी ये बच्चे उन दो टैक्सी ड्राइवर का शुक्रिया करने से नहीं चूके जिन्होंने इन भारतीय छात्रों को सुरक्षित होस्टल तक और फिर होस्टल से पोलैंड बॉर्डर तक पहुंचाया। अपनी जान जोख़िम में डालकर इन बच्चों को छोड़ने आए एक ड्राइवर ने रोते हुए कहा कि ''कम से कम आप यहां से सुरक्षित निकल जाओ हम नहीं निकल सकते क्योंकि हमारे परिवार और बच्चे अब भी यही हैं''।

मैं इन दो छात्रों से बात कर ही रही थी कि क़रीब बैठे एक और छात्र विवेक अपनी कहानी सुनाने लगा और बात-बात पर कहने लगा कि हालात अच्छे नहीं थे और वो एक ही सांस में अपनी कहानी बताने लगा। उन्होंने बताया कि "मुझे लगा कि मैं मरने वाला हूं, मैं अपने फ्लैट में ही था, तभी मैंने खड़की से बाहर देखा, मुझे लगा कि सूरज हमारी तरफ़ आ रहा है, लेकिन वो मिसाइल थी। उसका धमाका बहुत ही तेज़ था। मेरी दोस्त मेरे साथ ही थी और उसने दहशत में रोना शुरू कर दिया। मैं भी दहशत से भर गया। करीब डेढ़ घंटे तक गोलीबारी की आवाज़ आती रही। क़रीब दो घंटे बाद हम मेट्रो स्टेशन की तरफ़ भागे।'' बातों-बातों में पता चला कि यूक्रेन में मारे गए नवीन को ये छात्र जानता था। हालांकि वो उससे महज़ एक बार ही मिला था, लेकिन उसने बताया कि उसका सीनियर नवीन का दोस्त था, जिससे पता चला कि होशियार नवीन अपनी पढ़ाई को लेकर बेहद संजीदा था।  

बात जैसे ही नवीन की शुरू हुई तो मेरी नज़रों के सामने नवीन के पिता की तस्वीर घूमने लगी। ज़ार-ज़ार रोते हुए BBC को दिए उनके इंटरव्यू की वो बात मेरे ज़हन में आने लगी जिसमें वे कह रहे थे कि मैं जब भी बंकर और मेट्रो स्टेशन बेसमेंट की तस्वीर देखता हूं तो ऐसा लगता है कि नवीन भी वहीं कहीं होगा पर वो वहां नहीं है।

बेगुनाह नवीन की इस मौत के दर्द को शायद फिलिस्तीन के कवि महमूद दरवेश अपनी इन लाइनों में पहले ही लिख कर छोड़ गए थे। 

युद्ध ख़त्म हो जाएगा 

लीडर एक दूसरे से हाथ मिलाएंगे 

लेकिन बूढ़ी औरत अपने शहीद बेटे का इंतज़ार करती रह जाएगी 

वो लड़की अपने पति की राह देखेगी 

वो बच्चे इंतज़ार करेंगे अपने नायक पिता का 

मैं नहीं जानता हमारी मातृभूमि को किसने बेचा 

लेकिन मैंने देखा उसकी क़ीमत किसने चुकाई। 

दरवेश के दीवान को आज की तारीख़ में हर चौक-चौराहे पर लगा देना चाहिए ताक़ि लोग जाने की जंग की क़ीमत हमेशा ही उन्हें चुकानी पड़ती है जो कभी भी जंग नहीं चाहते। दरवेश ने जंग की हक़ीक़त को दर्द की स्याही में डूबो कर बयां किया, लेकिन सद अफसोस जो जंग करते हैं वो दरवेश को नहीं पढ़ते। समझ का फेर है, वर्ना जंग का हासिल जीत कैसे हो सकती है, बल्कि जंग तो दर्द, जुदाई, गम और किसी तरह बच गए वो जिंदा लोग होते हैं जो हर दिन ख़ुद से जुदा हुए लोगों की याद में मरते हैं, अंदर ही अंदर टूटते और ख़ाली होते जाते हैं।

ख़ुशनसीब हैं वो परिवार जिनके बच्चे घर लौट आए लेकिन नवीन के पिता का इंतज़ार अब कभी ख़त्म नहीं होने वाला। नवीन के परिवार ने कभी जंग नहीं चाही, लेकिन नवीन उस जंग का शिकार हो गया जो राजनीति से ज़्यादा अहम की लड़ाई दिख रही है। 

दो देशों के बीच चल रही जंग की तपिश सोशल मीडिया पर भी नज़र आ रही है। ऐसा ही एक वीडियो वायरल हो रहा है यूक्रेन के एंबेसडर का, जिसमें वो UN में एक मैसेज पढ़ रहे हैं। बताया जा रहा है कि ये मैसेज एक रूसी सैनिक का बताया जा रहा है जो उन्होंने अपनी मां को लिखा था। वो सैनिक लिखता है 

"Mama, I'm in Ukraine. There is a real war raging here. I'm afraid

We are bombing all of the cities together, even targeting civilians.

We were told that they would welcome us, 

and they are falling under our armored vehicles

throwing themselves under the wheels and not allowing us to pass 

They call us fascists. Mama, this is so hard

(मां, मैं यूक्रेन में हूं 

यहां एक जंग चल रही है 

मुझे बहुत डर लग रहा है 

यहां शहरों पर बम गिराए जा रहे हैं, आम नागरिकों को निशाना बनाया जा रहा है 

हमें बताया गया था कि यूक्रेन के लोग हमारा स्वागत करेंगे 

लेकिन ये हमारी गाड़ियों के सामने आ रहे हैं 

हमारी गाड़ियों को रोकने के लिए गाड़ियों के पहियों के नीचे आने के लिए तैयार हैं 

मां, ये हमें फास्टिट बुला रहे हैं 

मां, ये बेहद मुश्किल है) 

ये कैसी जंग है जिसमें हिस्सा लेने वालों तक के दिल पसीज रहे हैं, लेकिन विश्व के नक्शे को बदल देने की सनक वाले शह और मात के खेल में इंसानी जानों को मोहरा बना कर चल रहे हैं। 

जंग से किसी तरह निकल आने वालों को आस-पास के देश बहुत ही मोहब्बत से मिल रहे हैं। और ऐसी ही मदद की एक कहानी मुझे केरल के सरवण ( sarvan ) ने सुनाई।  सरवण ने बताया कि कैसे उन्हें बॉर्डर क्रॉस करने के दौरान परेशानी झेलनी पड़ी, मुझसे बात करने के दौरान सरवण लगातार खांस रहे थे। पूछने पर पता चला कि उन्हें बुख़ार भी है। सरवण ने बताया कि वो तीन दिन तक भारी बर्फ़बारी के दौरान बॉर्डर पर खड़े थे, उन्होंने मुझे वो वीडियो भी दिखाया। मेरी बर्फ़बारी के साथ बहुत ही ख़ूबसूरत यादें जुड़ी हैं, आसमान से गिरती बर्फ़ देखना अपने आप में ही अद्भुत लगता है । लेकिन सरवण ने बर्फ़बारी का जो वीडियो दिखाया वो देखकर मुझे रोना आ रहा था, भारी बर्फ़बारी में बच्चों के सिर पर बर्फ़ परत दर परत गिर रही थी। जिन बच्चों को हल्का सा ज़ुख़ाम होने पर मां-बाप दवाई और गर्म कपड़े लेकर दौड़ने लगते हैं उन्हें जब पता चला होगा कि उनके कलेजा का टुकड़ा जमा देने वाली सर्दी में बॉर्डर पर खड़ा है, तो उनके दिलों पर क्या गुज़र रही होगी। सरवण ने बताया कि लैपटॉप समेत उनका क़रीब-कऱीब सारा सामान खो गया था और जब वो रोमानिया में दाख़िल हुए तो एक तरह से खाली हाथ थे। लेकिन उन्होंने बताया कि उनकी ये हालात देखकर रोमानिया में जो भी उनसे मिला, बेहद मोहब्बत से मिला। उन्होंने मुझे अपनी स्वैट शर्ट खींच कर दिखाते हुए कहा कि ''मुझे ये रोमानिया के एक पुलिस वाले ने दिया था'' इसके साथ ही उन्होंने मुझे वो लगेज बैग भी दिखाया जो उन्हें उस पुलिस वाले ने दिया था।  साथ ही उन्होंने उस महिला के साथ अपनी तस्वीरें दिखाई जो इस परेशानी में देश से दूर एक मां की तरह मिली। जिसने ना सिर्फ़ सरवण का ख़्याल रखा, बल्कि जिस वक़्त सरवण अपने वतन जाने के लिए हवाई जहाज में बैठे,तो उन्होंने व्हाट्सएप पर मैसेज करके आसमान से ख़ूबसूरत रोमानिया को देखने और दोबारा आने को कहा। सरवण से अपने देश पहुंच कर चैन की सांस ली, लेकिन उन्हें अब भी अपने उन दोस्तों की चिंता है जो यूक्रेन में फंसे हैं उन्होंने बताया कि यूक्रेन में कुछ एक जगह भारतीयों के साथ भेदभाव हो रहा था, उन्हें ट्रेन में नहीं चढ़ने दिया जा रहा था उनके साथ मारपीट भी की जा रही थी। सरवण चाहते हैं कि हर कोई सुरक्षित जंग के मैदान और माहौल से बाहर निकल आए। लेकिन जंग ने जो छाप उनके ज़ेहन में छोड़ दी, उसे वो ताउम्र नहीं भुला पाएंगे। वक़्त के साथ सरवण दोबारा रूटीन लाइफ़ में  लौट आएंगे, लेकिन जो पीछे रह जाएगा वो कैलेंडर में साल 2022 होगा, जिसे याद किया जाएगा, रूस-यूक्रेन के बीच लड़ी गई जंग के साल के तौर पर। 

सरवण से मैंने भारत तक पहुंचने के दौरान सरकार की तरफ़ से मिली मदद के बारे में समझने की कोशिश की तो उन्होंने बताया कि सरकार हमें सिर्फ़ बॉर्डर पर मिल रही है, लेकिन बॉर्डर तक पहुंचना बेहद मुश्किल है, कुछ के लिए नामुमकिन जैसा है। हालांकि यूक्रेन बॉर्डर के क्रॉस करते ही उन्हें बेहद शानदार तरीक़े से ठहराया जा रहा है। अच्छा-खाना-पीना और रहने के लिए बहुत ही अच्छा इंतज़ाम है। लेकिन ये सब यूक्रेन के बाहर है, जिन इलाक़ों में ज़बरदस्त बमबारी की जा रही है, वहां बहुत ही दहशत का माहौल है। कई छात्र होस्टल या बंकर से निकल कर बॉर्डर तक जाने की हिम्मत करने से डर रहे हैं। 

एयरपोर्ट पर एक अलग ही माहौल था। खारकीव से आए छात्र, कीव से लौटे छात्र को अपनी कहानी बता रहे थे, तो ओडिसा से लौटे छात्र विनीतसिया के छात्रों की बॉर्डर तक पहुंचने की कहानी सुन रहे थे। दर्द, हिम्मत, बेरुखी की ये बातें मेरे कानों से गुज़र रही थी कि तभी मैंने एक बच्ची को अपने परिवार से लिपटते देखा। मध्य-प्रदेश की इस बच्ची को लेने क़रीब-क़रीब पूरा परिवार आया था। खारकीव से आई इस छात्रा ने बताया कि बेहद बुरे हालात में खारकीव से निकले। उन्हें भारत तक पहुंचने में 10 दिन लग गए। लेकिन उनका कहना था कि बस हम भारत पहुंच गए यही काफी है। घर लौट आने की ख़ुशी इस छात्रा के चेहरे पर साफ नज़र आ रही थी। लेकिन जब मैंने इस छात्रा को लेने आए उनके एक रिश्तेदार से बात की तो उन्होंने बताया जंग रूस और युक्रेन के दरम्यान नहीं ''बल्कि हमारे घरों में चल रही थी, हम ख़ुद से कैसे हर लम्हा लड़ रहे थे, ये हम ही जानते हैं।'' बच्चों को अपने पास पाकर ये रिश्तेदार और परिवार वाले भारत सरकार का शुक्रिया करते भी दिखे। 

फिर मेरी मुलाक़ात आनंदू से हुई। बेहद ज़िंदा दिल लड़का, चेहरा कुछ मुरझा गया था, लेकिन चेहरे पर बड़ी सी स्माइल थी। उनके बुरी तरह से फटे हुए होठ बता रहे थे कि वो पानी की कमी से दो-चार होकर लौटे हैं। डिहाइड्रेशन के निशान उनके चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहे थे। लंबी बातचीत के बाद आनंदू ने अपने पैरों के उन ज़ख़्मों को दिखाया जो 63 किलोमीटर पैदल चलने के बाद उन्हें परेशान कर रहे थे। अपने मां-बाप की इकलौती संतान आनंदू ने जब ये अपनी मां को बताया होगा तो क्या गुज़री होगी उनके दिल पर। आनंदू ने बताया कि कैसे वो अकेले यूक्रेन में भटक रहे थे एक बॉर्डर से दूसरे बॉर्डर जाने की जद्दोजहद में लगे हुए थे। उनकी बातों से लग रहा था कि यूक्रेन में बॉर्डर तक पहुंचने में सरकार से ज़्यादा भारतीय छात्र ही एक दूसरे का हाथ थामे मदद करते नज़र आए। वो ख़ुद उन जूनियर छात्रों को यूक्रेन के पुलिस वालों और अधिकारियों की बातों को ट्रांसलेट कर-करके बता रहे थे। उन्होंने बताया कि विनीतसिया  (Vinnytsia)  से निकलने के दौरान वो शहीनी बॉर्डर पहुंचे, उनके मुताबिक़ बॉर्डर क्रॉस करने के दौरान ये बॉर्डर सबसे बुरा है। यहां यूक्रेन के जवान भारत के छात्रों की बजाए पहले यूक्रेन के लोगों को निकाल रहे थे। आनंदू ने वहां मौजूद एक गार्ड से बातचीत की, तो उन्हें एहसास हुआ कि भारत का रूस-युक्रेन को लेकर रुख़ और तमाम वोटिंग से ख़ुद को अलग करने का नतीजा था कि वहां के लोगों ने भारत की ये छवि बना ली कि वो रूस के साथ है। इसलिए इसका ख़ामियाज़ा वहां से निकल रहे भारतीय छात्रों को चुकाना पड़ा। 

हालांकि आनंदू ने बताया कि जैसे ही उन्होंने बॉर्डर क्रॉस किया तो भारत की तरफ़ से जो इंतज़ाम थे, वो किसी रेड कार्पेट ट्रीटमेंट से कम नहीं लग रहे थे। वो मुझसे लगातार कह रहे थे कि आप मेरी पूरी बात लिखिएगा अच्छी भी और बुरी भी। उन्होंने उस लज़ीज़ खाने की तस्वीर भी मेरे साथ साझा की जो उन्हें वहां परोसा गया था। 

इसमें कोई शक नहीं कि बॉर्डर पर मदद मिल रही है, लेकिन बॉर्डर तक पहुंचना जंग में फंसे छात्रों के लिए दूसरा जन्म लेने की तरह है। यूक्रेन में लगातार हालात बिगड़ रहे हैं। भारी संख्या में छात्रों को निकाला जा रहा है। छात्र लगातार अपने वीडियो और तस्वीरें शेयर कर रहे हैं। हो सकता है कि देर-सवेर सभी छात्र घर लौट आएंगे, लेकिन नहीं लौट पाएगा तो नवीन। 

कई छात्र पांच या फिर छह साल से यूक्रेन में रह रहे हैं। घर से दूर ये उनका दूसरा घर बन चुका है। वहां के लोगों से दोस्ती, मोहब्बत के रिश्तों ने उन्हें अपना बनाया लिया। आज जब ये बच्चे अपने देश में हैं, तो इन्हें जंग में फंसे अपने उन रिश्तों की परवाह है जो वो अपने पीछे वहां छोड़ आए हैं। लेकिन अपने साथ ले आए हैं तो वो है एक सवाल कि आख़िर ये जंग कब ख़त्म होगी। पर इसका जवाब कौन देगा? नेता या फिर महमूद दरवेश की ये चंद लाइनें

वह बोली - हम कब मिलेंगे?

मैंने कहा - युद्ध समाप्त होने के एक साल बाद।

उसने कहा - युद्ध कब समाप्त होगा?

मैंने कहा - जब हम मिलेंगे। 

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