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स्वतंत्रता सेनानाी और मज़दूरों की मुखर आवाज़ को नहीं मिला उचित स्थान 

‘तहरीके आज़ादी’ के सेनानी व मजदूरों की मुखर आवाज़ शहीद प्रो. अब्दुल बारी को नहीं मिल सका यथोचित स्थान। ‘शहादत-दिवस’ ने उठाये सवाल।   
Bari

लोकसभा चुनाव 2024 की राजनीतिक सरगर्मी ज़ोर पकड़ रही है। देश की संप्रभुता-तरक्की के साथ साथ यहां के नागरिकों के साथ साथ लोकतंत्र और संविधान की सलामती को लेकर अधिकांश राजनीतिक दल मतदाताओं की राजनीतिक गोलबंदी की तैयारियों में जुट गए हैं। इस परिदृश्य में ‘तहरीके आजादी’ के सेनानी व देश की ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ के साथ साथ मेहनतकश अवाम के हक़-हक़ूक़ के प्रणेता रहे प्रो. अब्दुल बारी की शहादत को याद किया जाना काफी महत्व रखता है। खासकर बिहार की जन राजनीति के लिए तो काफ़ी हद तक प्रेरणादायी भी कही जा सकती है। 

28 मार्च को पटना स्थित गांधी संग्रहालय के सभागार में इंडियन नेशनल मूवमेंट (INM) द्वारा प्रो. अब्दुल बारी की शहादत दिवस का आयोजन और इस अवसर पर ‘देश निर्माण में मजदूरों का योगदान’ परिचर्चा के माध्यम से मौजूदा राजनीतिक स्थितियों में प्रो. बारी की विरासत को लेकर काफी बातें हुईं। जिसमें हैदराबाद (तेलंगाना), पंजाब, दिल्ली और उत्तर प्रदेश समेत बिहार प्रदेश के कई वरिष्ठ सामाजिक एवं वामपंथी एक्टिविष्टों के साथ साथ उर्दू-हिंदी भाषा के बुद्धिजीवियों, नागरिक समाज के लोग और वाम दलों के प्रतिनिधि शामिल हुए। 
आयोजन और परिचर्चा के विषय के महत्व पर बोलते हुए कार्यक्राम के संयोजक युवा अधिवक्ता और सोशल एक्टिविष्ट जनाब काशिफ़ ने कहा कि इस समय पूरे देश में चलायी जा रही “नफ़रत और विभाजन” की सियासत के जवाब में चलाये जा रहे ‘एकता और अमन’ के सिलसिला की ही एक कड़ी है। प्रो. बारी ने जो संघर्ष चलाया था, वह आज भी जारी है। उस तहरीक से आज की नयी पीढ़ी को जोड़ना हमारा ही दायित्व है। 

परिचर्चा को आईएनएम के राष्ट्रीय नेताओं के अलावा विभिन्न राज्यों से आये प्रतिनिधियों ने प्रो. बारी के संघर्षमय व्यक्तित्व-कृतित्व की चर्चा करते हुए उनके विचारों और संघर्ष को एकजुट होकर आगे बढ़ाने पर ज़ोर दिया। 

बिहार विधान परिषद् की सदस्य और चर्चित मजदूर आन्दोलनकारी एक्टू की राष्ट्रीय नेता शशि यादव ने टाटा में प्रो. बारी द्वारा मजदूरों के अधिकारों को लेकर संघर्षों की जानकारी देते हुए उनकी ऐतिहासिक विरासत को आज भी प्रेरणादायी बताया। 

मजदूर आन्दोलनों और एटक वरिष्ठ नेतृत्वकारी गज़नफ़र नवाब ने बताया कि प्रो. बारी एटक बिहार के अध्यक्ष बनकर बिहार के साथ साथ कई अन्य राज्यों के मज़दूर आन्दोलनों को मजबूती दी। 

प्रो. बारी के पैतृक गांव क्षेत्र घोसी (जहानाबाद जिला) से माले के विधायक रामबली सिंह यादव ने देश विभाजन के समय दंगों की आग से झुलस रहे पूरे मगध इलाके में शांति-अमन बहाली में प्रो.बारी की अहम भूमिका को विशेष रूप से रेखांकित किया।  

समकालीन लोकयुद्ध पत्रिका से जुड़े युवा इतिहासकार डॉ. परवेज़ ने कहा प्रो. बारी द्वारा अपनी शहादत देकर चलाये गए साझी संस्कृति-साझी विरासत की ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ को मजबूती से आगे बढ़ने के साथ साथ ‘समझौताहीन मजदूर आन्दोलन’ चलाने की अवश्यकता है। 
परिचर्चा को संबोधित करते हुए कई वरिष्ठ वक्ताओं ने एक स्वर से कहा कि प्रो. अब्दुल बारी सरीखे इस देश के लिए अपनी शहादत देनेवालों की विरासत को आगे बढ़ाने को बेहद ज़रूरी बताते हुए कहा कि आज भी इस बात की बेहद ज़रूरत है कि प्रो. बारी को उनका सही स्थान दिया जाए। साथ ही उनके समेत तमाम शहीदों के सपनों को बचाने के लिए अभी सबका एक ही साझा कार्यभार है कि इस लोकसभा चुनाव में देश को विनाश की गर्त में ले जा रही सत्ता में काबिज़ राजनीतिक शक्तियों को परास्त किया जाए।  

कार्यक्रम में प्रो. बारी पर उर्दू में लिखित किताब का लोकार्पण भी किया गया। 

सनद रहे कि जोश-जज़्बे से भरे स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षाविद और उस दौर में मजदूरों की मुखर आवाज़ कहे जानेवाले बिहार के चर्चित राजनेता प्रो. अब्दुल बारी, अपने समय के एक क़द्दावर व्यक्तित्व रहे। महात्मा गांधी के आह्वान पर ‘असहयोग आन्दोलन’ की अग्रणी कतार में शामिल होकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में अहम भूमिका निभानेवाले प्रो. बारी जिस भी मोर्चे पर लगे, लोगों को संगठित करने का आदर्श प्रस्तुत किया। जमशेदपुर में मजदूरों का सबसे पहला कामगार संगठन, टाटा वर्कर्स यूनियन की स्थापाना कर, ग़ुलामी और पूंजी मालिकों के शोषण की दोहरी मार झेल रहे मजदूरों को संगठित कर अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने की चेतना देने का ऐतिहासिक काम किया।
सबसे बढ़कर, देश-विभाजन की त्रासद-ख़ूनी माहौल में भी ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ की हिफाज़त करते हुए समाज में आपसी भाईचारा-अमन कि खातिर ही वे 28 मार्च 1947 को फतुहा में शहीद हो गए।   

बावजूद इसके, कैसी भारी विडंबना है कि आज़ादी उपरांत स्वतंत्र राष्ट्र में न तो मुख्यधारा के स्वदेशी इतिहासकारों ने अब्दुल बारी की अविस्मर्णीय भूमिका को इतिहास में कोई वाज़िब स्थान दिया और न ही किसी सरकार ने कोई ठोस सम्मानजनक कार्य किया। 

दूसरी बड़ी विडंबना तो यह भी रही कि रुसी क्रांति और समाजवादी विचारधारा से प्रभावित होकर बिहार में संगठित मजदूर आन्दोलन और ट्रेड यूनियन निर्माण की सबसे पहली शुरुआत करने वाले मजदूरों के अतिप्रिय संगठक-प्रणेता को स्थापित वामपंथी पार्टियों व उसके मजदूर संगठनों-यूनियनों ने भी उनकी संघर्षशील विरासत को सहेजने-स्थापित करने का कोई उल्लेखनीय काम नहीं किया। हां इतना ज़रूर रहा कि सभा-सम्मेलनों इत्यादि में फ़क़त उनकी चर्चाएं होती रहीं, विशेषकर बिहार और टाटा में।   

बहरहाल, प्रो. अब्दुल बारी को याद करनेवाले-माननेवालों का आज भी यही कहना है कि- “देश बंटवारा” के दौर में किये जा रहे “सुनियोजित सांप्रदायिक दंगों के खूनी खेल” की साजिशों को नाकाम कर ‘अमन-एकता और इंसानियत’ को मजबूत बनाने के लिए जान तक की बाज़ी लगा देने वाले, ‘गंगा-जमुनी तहज़ीब’ के इस अज़ीम किरदार के विचारों-कार्यों को देश-समाज व लोगों में व्यापक रूप से स्थापित किया जाना बेहद ज़रूरी है।   
   
इस लिहाज से यह कहना लाज़मी है कि प्रो. अब्दुल बारी के शहादत दिवस के बहाने हुए साझा राजनितिक विमर्श-परिचर्चा के महत्व को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। खासकर उस दौर में जब इस देश की केन्द्रीय सत्ता में सवार सियासी ताक़तों पर हर तरफ से ये आरोप लगया जा रहा है कि वह “लोकतंत्र-संविधान और धर्मनिरपेक्षता” पर लगातार प्रहार कर रही है। इसलिए मौजूदा संगीन अंधेरे में प्रो. अब्दुल बारी की विरासत कि चर्चा और उसे आगे ले जाने का संकल्प लिया जाना असर लाएगा।

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