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देशभक्ति का नायाब दस्तूर: किकबैक या कमीशन!

तिरछी नज़र: इतने कम किकबैक का सुन कर मन बहुत ही खट्टा था। कुछ सकून तब मिला जब पता चला कि यह खुलासा तो अभी एक ही है। इसके बाद अभी किकबैक के और भी खुलासे आने बाकी हैं।
देशभक्ति का नायाब दस्तूर: किकबैक या कमीशन!

अभी हाल ही में पता चला है कि रफ़ाल हवाई जहाज की खरीददारी में भी किसी को किकबैक, मतलब रिश्वत मिली है। और रिश्वत भी कितनी, बस आठ-साढ़े आठ करोड़। एक ओर तो मन बहुत प्रसन्न हुआ कि चलो, देश का दस्तूर तो निभाया गया। दूसरी ओर मन में निराशा भी बहुत हुई कि इतनी बड़ी डील में इतनी कम रिश्वत। यह तो रेट खराब करने वाली बात हुई। मोदी जी व्यापारी हैं, व्यापारियों के मित्र हैं। उनके राज में इतने कम की उम्मीद तो हरगिज ही नहीं थी। कुछ तो लिहाज रखा ही जाना था। कुछ तो ज्यादा होनी ही चाहिए थी। 

जहाँ तक बात है डील की। यह किसी को भी नहीं पता है कि यह डील वास्तव में कितने की है। यह या तो प्रधानमंत्री जी को पता है या फिर रक्षा मंत्री जी और वित्त मंत्री जी को। दो चार अफसरों को भी पता हो सकता है। वैसे कीमत भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश गोगोई जी और उनके साथ बैंच में शामिल अन्य न्यायाधीशों को भी पता हो सकती है लेकिन तभी यदि उन्होंने वह बंद लिफाफा खोला होगा जिसमें सरकार ने रफ़ाल जहाज की कीमत उच्चतम न्यायालय को बताई थी।

अगर रफ़ाल हवाई जहाज की कीमत के बारे में मोटा मोटा अंदाज लगायें तो, अखबारों में उसकी कीमत बताई जा रही थी कोई पंद्रह सौ करोड़ से सत्रह सौ करोड़ रुपए प्रति हवाई जहाज। छत्तीस रफ़ाल हवाई जहाजों की कीमत छोटे अनुमान से भी कोई चौवन-पचपन हजार करोड़ हुई। कुछ लोग डील के उनचास हजार करोड़ की होने का अंदाजा लगा रहे हैं। लेकिन इतनी बड़ी डील में से दलाली यानी किकबैक केवल साढ़े आठ करोड़। दशमलव आधा प्रतिशत से भी कहीं बहुत कम। हम कोई भिखमंगे हैं, भिखारी हैं कि जो मरजी पकड़ा दिया। छुट्टे पैसे तो हमारे यहाँ आजकल कोई भिखारी भी नहीं लेता है।

हमारे देश में खरीदारी दो तरह से होती है। एक अपने लिए और एक देश के लिए। अपने लिए खरीदने का क्या है, बाजार गये, जरूरत की चीज पसंद की, मोलभाव किया और खरीद लाये। हम भी खुश और दुकानदार भी खुश। हमें सामान मिला और उसे हाथों हाथ पैसे। वह थोड़े मुनाफे में भी सामान बेच देता है।

पर सरकारी खरीद में बहुत लफड़ा होता है। एक विभाग पहले 'डिमांड जनरेट' करता है। 'डिमांड जनरेट' कर दूसरे डिपार्टमेंट को भेजता है। दूसरा डिपार्टमेंट देखता है कि डिमांड जेनविन है भी या नहीं। अर्थात उस डिपार्टमेंट को भी इस खरीददारी में कोई लाभ होगा या नहीं। यदि उसे लाभ न हो तो वह डिमांड वापस भेज देता है। फिर डिमांड जाती है, 'टेक्नीकल कमेटी' के पास। वह भी अपने फायदे का हिसाब लगा लेती है। अंततः डिमांड जाती है वित्त विभाग के पास। वह कीमत के ऊपर अपना और बाकी सबका हिस्सा लगा कर निविदा पास कर देती है। पर यदि किसी ने कम कीमत कोट कर दी तो 'टेक्नीकल कमेटी' काम आती है। समझो फ्रांस वालों, हमारे यहाँ सब कुछ सामूहिक होता है। सबका रोल और सबका हिस्सा। यह दशमलव आधा प्रतिशत से काम नहीं चलेगा। हमारे यहाँ तो रेट दस से बीस प्रतिशत का है। तुम विदेशी हो, तुम्हारे यहाँ दस्तूर नहीं होगा इसलिए हम कम में मान जायेंगे। पर इतना कम में तो हरगिज नहीं। 

इतने कम किकबैक का सुन कर मन बहुत ही खट्टा था। कुछ सकून तब मिला जब पता चला कि यह खुलासा तो अभी एक ही है। इसके बाद अभी किक बैक के और भी खुलासे आने बाकी हैं। और वे इससे अधिक बड़े हैं। चलो बड़ी डील है। दस बीस पर्सेन्ट नहीं तो दो चार पर्सेन्ट कमीशन तो होना ही चाहिए। यह थोड़ी न है कि कोई कह रहा है कि न खाऊँगा, न खाने दूँगा तो वह स्वयं भी भूखा ही रह लेगा। औरों को भूखा रखना आसान है भई, पर अपनी भूख मारना, खुद भूखे रह जाना साधुओं-सन्यासियों और फकीरों को भी नहीं आता है। यह भी तो किसी फकीर ने ही कहा है, 'भूखे पेट भजन न होई, गोपाला'। 

देखो फ्रांस वालों, यह जो तुम किक बैक या कमीशन कह रहे हो न, यह हमारी देशभक्ति ही है। यह देश से बाहर गये पैसे को देश में वापस लाने का एक नायाब तरीका है। तो फ्रांस वालों, हमारे देश के महान दस्तूर का ध्यान रखना और हमें समूचित किक बैक यानी कमीशन पहूँचा देना। नहीं तो देख लेना। अब तो हमारे पास छप्पन इंच के सीने के साथ-साथ रफ़ाल भी है 

(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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