अक्टूबर में आये जीएसटी में उछाल को अर्थव्यवस्था में सुधार के तौर पर देखना अभी जल्दबाज़ी होगी
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एक अबाबील का दर्शन मात्र ही गर्मी के मौसम का संकेत नहीं हो सकता, किंतु लंबे वक्त से मंदी की मार से परेशान नरेंद्र मोदी सरकार जो कि इससे उबरने के जरा से भी संकेत को दोनों हाथों से भींचने के लिए बैचेन है, के लिए अक्टूबर महीने के वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के आंकड़े बेहद काम आये हैं।
1.30 लाख करोड़ रूपये मूल्य के अप्रत्यक्ष करों के सबसे महत्वपूर्ण स्रोत के संग्रह के साथ, केंद्रीय वित्त मंत्रालय ने तत्काल इन आंकड़ों को अर्थव्यवस्था के बार फिर से पटरी पर लौटने के संकेत की पुष्टि के तौर पर हथिया लिया है। मंत्रालय की ओर से इशारा किया गया है कि ये आंकड़े जीएसटी वसूली के अब तक के दूसरे सबसे बड़े आंकड़े हैं, जो अप्रैल में इकट्ठा किये गए 1.40 लाख करोड़ रूपये के बाद से सबसे अधिक हैं।
हालाँकि, कुछ एहतियात के साथ इस आनंदोत्सव के साथ बर्ताव समझदारी भरा हो सकता है। अप्रैल में 1.40 लाख करोड़ रूपये के शिखर को छूने के बाद अगले दो महीनों में जीएसटी राजस्व 30% से अधिक गिर गया था (नीचे दर्शाए गये चार्ट पर नजर डालें)। इसके अलावा, इस वित्तीय वर्ष में कुलमिलाकर जीएसटी संग्रह की राशि 8.06 लाख करोड़ रूपये है, जो दो वर्ष पहले सात महीनों में जुटाए गए राजस्व की तुलना में मात्र 15% अधिक है। चूँकि कर संग्रह को हमेशा सांकेतिक सन्दर्भ में दिखाया जाता है, ऐसे में लगभग 7.5% की औसत वार्षिक वृद्धि दर बमुश्किल से मुद्रास्फीति के साथ चल पाती है।
महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था की एक अनोखी विशेषता इसके लंबवत विकास प्रक्षेपवक्र के नुकसान के तौर पर देखने को मिला है। अर्थव्यवस्था अपने त्वरित आवेश और विशेष रूप से शुरू हो गई है क्योंकि भारत अपने स्वंय के खर्चों के जरिये इसे आगे बढ़ाने वालों में से सबसे कंजूस रहा है।
अर्थव्यवस्था की पुनर्वापसी के कयास लगाना तीन कारणों से बेहद जोखिमभरा है। पहला, जैसा कि साक्ष्य से पता चलता है, आय के धराशायी होने और इसके फलस्वरूप उपभोग व्यापक रूप से हुआ है। दूसरा, उपभोग में असमानता, जिसे महामारी के दौरान आय और धन के असमान वितरण ने काफी बढ़ा दिया है (जैसा कि शेयर बाजार में इसे लगातार उछाल में देखा जा सकता है)। तीसरा, चूँकि महामारी के सबसे बुरे दौर के दौरान अपेक्षाकृत समृद्ध लोगों द्वारा पसंद किये जाने वाली वस्तुओं की खपत को भी दरकिनार कर दिया गया था, बाद के दौर में मांग में वृद्धि के चलते उसके कुछ हिस्से में उछाल आना स्वाभाविक है- जिसे उदहारण के तौर पर वर्तमान में जारी त्योहारी सीजन में देखा जा सकता है।
ठीक एक साल पहले की घटनाओं को याद करना शायद इस बात को बेहतर तरीके से उजागर कर सकता है। अक्टूबर 2020 में, सरकार ने अक्टूबर 2019 की तुलना में जीएसटी संग्रह में 10% की उछाल को इस बात के प्रमाण के तौर पर खूब बढ़चढ़कर दर्शाया था कि अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है। वास्तव में, तत्कालीन वित्त सचिव अजय भूषण पांडेय ने दावा किया था कि राजस्व में यह बढ़ोत्तरी न सिर्फ यह संकेत दे रही थी कि आर्थिक स्थिति में सुधार शुरू हो गया है बल्कि यह एक स्थाई आधार पर आगे बढ़ रही है। आश्चर्यजनक ढंग से आज की तरह तब, नार्थ ब्लॉक के दिग्गजों के द्वारा माल की आवाजाही के इलेक्ट्रोनिक पंजीकरण - ई-वे बिलों के मासिक उत्पादन में बढ़ोत्तरी की प्रवत्ति को अर्थव्यवस्था के पटरी पर लौटने के संकेत के तौर पर प्रचारित किया गया था।
इस विषय पर बेंगलुरु स्थित चार्टर्ड अकाउंटेंट अभिलाष आर ने न्यूज़क्लिक को बताया है कि ई-वे बिलों की मात्रा में बढ़ोत्तरी को “किसी भी सूरत में आवश्यक तौर पर उच्च जीएसटी वसूली के परिणाम के तौर पर नहीं समझा जाना चाहिए।” चूँकि ई-वे बिल माल की आवाजाही के लिए अनिवार्य हैं, इसलिए इसकी उच्च मात्रा का आशय सिर्फ इतना है कि माल को ग्राहकों के पास भेजा जा रहा है। उन्होंने समझाया “राजस्व के दृष्टिकोण से ई-वे बिल को राजस्व-तटस्थ समझना चाहिए।”
अभिलाष इस बारे में विस्तार से बताते हुए कहते हैं कि, चूँकि ई-वे बिल आम तौर पर विभिन्न पार्टियों द्वारा एक व्यवसाय से दूसरे व्यवसाय के लिए जारी किये जाते हैं और इसके जरिये दोनों पार्टियाँ अपने जीएसटी भुगतान को सेट करती हैं, ऐसे में सरकार के लिए आय प्राप्ति सिर्फ उसी सूरत में संभव हो पाती है जब अंतिम उपभोक्ता असल में सामान की खरीद करता है। इसलिए ई-वे बिलों की अधिक मात्रा किसी भी सूरत में उच्च राजस्व की गारंटी नहीं है। उनका मानना है कि ई-वे बिलों और जीएसटी राजस्व के बीच में सिर्फ 30% का सहसंबंध हो सकता है। उनका कहना था कि ई-वे बिलों को जीएसटी राजस्व के लिए प्रॉक्सी के तौर पर इस्तेमाल करना या मांग के तौर पर प्रोजेक्ट करना - और इसलिए इसे विकास बताना - गंभीर जोखिमों से भरा है।
अभिलाष ने अपने स्वंय के अनुभव की और भी इंगित करते हुए बताया कि उच्च जीएसटी संग्रह की एक बड़ी वजह पिछले कुछ महीनों से आक्रामक टैक्स ऑडिट से भी काफी हद तक प्रभावित हो सकती है। वास्तव में, मंत्रालय ने दावा किया है कि इन उपायों ने मई 2021 के बाद से रिटर्न फाइल दाखिल करने के प्रतिशत में बढोत्तरी करने में मदद की है। हालाँकि, उनका मानना था कि इस प्रकार के उपायों से कुछ लाभ हासिल कर पाने की भी एक सीमा है। उनका मानना है कि कर प्रशासन में सुधार के जरिये राजस्व में किसी भी प्रकार की बढ़ोत्तरी बेहद मामूली ही हो सकती है।
अन्य स्रोतों से प्राप्त साक्ष्य भी अर्थव्यवस्था के बारे में धूमिल तस्वीर की ही पुष्टि करते हैं, जबकि इसके उलट मंत्रालय हमें विश्वास दिलाने में जुटी हुई है। उदाहरण के लिए, उधार पर हालिया आंकड़े इस बात की पुष्टि करते हैं कि बैंकों द्वारा ‘रिटेल’ क्षेत्र में उधार ने अब उद्योग जगत को उधारी देने के मामले में पछाड़ दिया है। रिटेल क्षेत्र में उधारी, बैंकिंग की बोलचाल की भाषा में एक विस्तृत शब्द है, जिसे कंज्यूमर ड्यूरेबल या घरों की खरीद के साथ-साथ क्रेडिट कार्ड-आधारित खरीद के लिए भी इस्तेमाल किया जाता है। सबसे गौर करने वाली बात या है कि इसमें पर्सनल लोन भी शामिल है।
सरकार की ओर से मौद्रिक नीति के साधनों का इस्तेमाल करने पर लगातार जिद, जैसे कि ब्याज दरों को लगातार कम रखने के कारण बैंक ऋण को धनी व्यक्तियों के हाथों में हस्तांतरित कर दिया है। महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि इनमें से किसी भी उपाय के जरिये अर्थव्यवस्था को पटरी पर नहीं लाया जा सका है। सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह है उद्योगों को दिए जाने वाले बैंक कर्जों में तीव्र गिरावट न सिर्फ बैंकरों के ऋण देने की अनिच्छा को दर्शाता है बल्कि उद्योगपतियों की ओर से निवेश करने की इच्छा की कमी की ओर भी इंगित करता है। ऐसे में निवेश के अभाव में आखिर विकास कहाँ से होने जा रहा है यह एक स्पष्ट प्रश्न बना हुआ है।
सेंटर ऑफ़ मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) द्वारा उपभोक्ता संवेदी सूचकांक (अक्टूबर के लिए) के ताजा आंकड़े मंत्रालय के अर्थव्यवस्था में सुधार के दावों का खंडन करते हैं। सूचकांक (सितंबर-दिसंबर 2015 में आधार 100) के मुताबिक फरवरी 2020 में 105.3 की तुलना में मात्र 59.4 पर था, जो भारत में महामारी की चपेट में आने से ठीक पहले था। खपत में भारी गिरावट विकास के लिए महत्वपूर्ण दुष्परिणामों का सूचक है। उदाहरण के लिए, जीडीपी को देखने का एक तरीका यह भी है इसे अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों से होने वाले खर्चों के सन्दर्भ में विभाजित कर दिया जाये। चूँकि निजी अंतिम उपभोग खर्च सकल घरेलू उत्पाद के तकरीबन 60% हिस्से के आसपास बैठता है, ऐसे में अर्थव्यवस्था में सुधार के सतत स्तर पर बनाए रखने के लिए खपत की दर में आवश्यक सुधार बेहद जरुरी है।
सीएमआईई के प्रबंध निदेशक और सीइओ, महेश व्यास ने हाल ही सूचित किया था कि दीवाली से पहले के कुछ हफ्तों के दौरान कंज्यूमर सेंटिमेंट में पिछले दो वर्षों की तुलना में कोई सुस्पष्ट सुधार देखने को नहीं मिला है। वस्तुओं और कारों की बिक्री को तो भूल ही जाइए, लोग तो इस मौजूदा त्योहारी सीजन में कपड़े और जूते-चप्पल जैसे नॉन-ड्यूरेबल वस्तुओं तक की खरीद के मूड में नहीं हैं। उनका कहना था “आधे से अधिक परिवारों को लगता है कि एक साल पहले की तुलना में कंज्यूमर नॉन-ड्यूरेबल वस्तुओं की खरीद करने का यह सबसे खराब समय है।”
ऐसे में यह स्पष्ट है कि जीएसटी पर नवीनतम आंकड़े का इस्तेमाल मंत्रालय द्वारा दिवाली से पहले सेंटिमेंट को बढ़ावा देने की एक बैचेन कोशिश में एक नैरेटिव खड़ा करने से अधिक कुछ नहीं है। हमेशा की तरह सच्चाई जल्द ही इसे साबित कर देगी।
मासिक जीएसटी संग्रह
स्रोत: वित्त मंत्रालय
लेखक ‘फ्रंटलाइन’ के पूर्व एसोसिएट संपादक रहे हैं, और इसके अलावा आप तीन दशकों से अधिक समय तक द हिन्दू ग्रुप के लिए काम कर चुके हैं। व्यक्त किये गए विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
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