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कोरोना लॉकडाउन में घने वनों से घिरे बैगाचक में बांटा गया परंपरागत खाद्य पदार्थ, दिया पोषण-सुरक्षा का मॉडल

आदिवासी बहुल बैगाचक में काम करने वाले राहत-कार्य समूह से जुड़े लोगों ने डिंडौरी और पड़ोसी जिले अनूपपुर के लगभग साढ़े चार सौ जरूरतमंद परिवारों को जो राशन-किट दी उसमें मुख्य रुप से कोदो-कुटकी रखी गई थी।
राशन वितरण के दौरान वृद्ध, विधवा, विकलांग और अभावग्रस्त व्यक्तियों को प्राथमिकता दी गई। फोटो: नरेश बिस्वास
राशन वितरण के दौरान वृद्ध, विधवा, विकलांग और अभावग्रस्त व्यक्तियों को प्राथमिकता दी गई। फोटो: नरेश बिस्वास

कोरोना महामारी की दूसरी लहर जब अपने चरम पर थी और भारत में सरकार द्वारा घोषित लॉकडाउन की वजह से सामान्य जन-जीवन लगभग पूरी तरह से ठहर गया था, तब बड़े शहरों से लेकर छोटे-छोटे गांवों तक बड़ी संख्या में भारतीय परिवारों के सामने कोरोना संक्रमण से विकट स्थिति यह बन गई थी कि वह अपनी जरूरत का राशन कैसे जुटाएं। हालांकि, इस आपातकालीन स्थिति में भी कई छोटे-छोटे सामाजिक समूह संगठित और सक्रिय हुए, जिन्होंने जरूरतमंद लोगों के हाथों तक राहत राशन पहुंचाया।

एक ओर जहां ये सामाजिक राहत समूह राशन के तौर पर जरूरतमंद लोगों तक दाल, तेल, नमक और शक्कर के साथ सामान्यत: गेंहू का आटा और चावल बांट रहे थे, वहीं दूसरी ओर मध्य-प्रदेश के एक अति पिछड़े कहे जाने वाले डिंडौरी जिले के बैगा आदिवासी बहुल बैगाचक में काम कर रहे एक समूह ने जरूरतमंद बैगा परिवारों को गेंहू के आटे और चावल की बजाय आदिवासियों के खान-पान में शामिल कोदो-कुटकी जैसा मौटे अनाज बांटा।

इसी वर्ष जून महीने के मध्य में जब कोरोना महामारी और सख्त लॉकडाउन के कारण लोगों के हाथों से काम पूरी तरह छिन गए थे और उनके घरों में खाने के लिए राशन नहीं बचा था, तब बैगाचक में काम करने वाले इस समूह से जुड़े व्यक्तियों ने डिंडौरी और पड़ोसी जिले अनूपपुर के लगभग साढ़े चार सौ जरूरतमंद परिवारों को जो राशन-किट दी उसमें मुख्य रुप से कोदो-कुटकी रखी गई।

इस बारे में इस समूह से जुड़े नरेश बिश्वास बताते हैं कि उन्होंने बैगा परिवारों के लिए वही राशन बांटा जो उनके दैनिक खान-पान का अभिन्न हिस्सा रहा है, लेकिन बाजार के दबाव के कारण पिछले कुछ वर्षों से बैगा आदिवासियों द्वारा इस तरह का मोटा अनाज उगाने के बावजूद वे उसे खुद नहीं खा पाते और पैसे की खातिर उसे ऊंचे दामों पर बेच देते हैं।

कोरोना लॉकडाउन के दौरान बैगा परिवारों को कोदो-कुटकी वितरित की गई। फोटो: नरेश बिश्वास

नरेश बिश्वास कहते हैं, "जो कोदो-कुटकी आदिवासी उगा रहा है, कितने अफसोस की बात है कि वह उसे अपने परिवार तक को नहीं खिला पा रहा है, क्योंकि उसके उगाए मौटे अनाज की मांग मुंबई और पुणे जैसे बड़े शहरों के अमीर परिवारों द्वारा लगातार बढ़ती जा रही है, वह सुगर-फ्री और स्वास्थ्य के अनुकूल कहे जाने वाले कोदो-कुटकी को अधिक से अधिक कीमत देकर भी खरीदना चाहते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि बैगाचक का आम बैगा आदिवासी किसान कोदो-कुटकी की फसल को बाजार में बेच आता है और खुद पीडीएस (सार्वजनिक वितरण प्रणाली) का राशन अपने परिवार के खाने के लिए लाता है, जो कोदू-कुटकी के मुकाबले में अपेक्षाकृत कम पौष्टिक माना जाता है।"

बैगा परिवारों को कोदो-कुटकी बांटने को लेकर इस समूह से जुड़े व्यक्तियों की दूसरी दलील यह है कि कोरोना महामारी के समय पहली प्राथमिकता होनी चाहिए कि हर जरूरतमंद परिवार को न सिर्फ पर्याप्त मात्रा में भोजन मिले, बल्कि इस महामारी से लड़ने के लिए उन्हें पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक भोजन भी मिले, ताकि स्वास्थ्य की दृष्टि से कोरोना संक्रमण के मुकाबले के लिए उनका शरीर अच्छी तरह से लड़ने के लिए तैयार रहे।

ऐसे में यह समझने की जरूरत भी है कि जो सरकारी तंत्र और संस्थाएं विशेष तौर से आदिवासी बहुल क्षेत्रों में भूख और कुपोषण के लिए कार्य कर रही हैं, उनकी प्राथमिकता में भोजन की सुरक्षा के साथ-साथ पोषण की सुरक्षा भी सबसे ऊपर होनी चाहिए। इस कड़ी में आदिवासी परिवारों को अधिक से अधिक मात्रा तक राशन पहुंचाना तो एक उद्देश्य होना ही चाहिए, लेकिन इसी के साथ यह उद्देश्य भी होना चाहिए कि ऐसे परिवारों के बच्चों को कुपोषण से मुक्ति दिलाने के लिए उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में उनके ही खान-पान में शामिल रहे पौष्टिक आहार भी मुहैया कराया जाए।

वहीं, बैगाचक क्षेत्र में तिलपिड़ी गांव के एक बैगा आदिवासी किसान इतबारी बैगा मानते हैं कि कोदो-कुटकी गेंहू और चावल से कई गुना अधिक पौष्टिक आहार होता है। उनके मुताबिक जहां एक किलो चावल 30 से 32 रुपए में मिलता है, वहीं बाजार में एक किलो कोदो की कीमत 65 से 70 रुपए तक होती है। ऐसे में कई व्यक्तियों को यह लग सकता है कि बैगा आदिवासी परिवारों के लिए कोदो जैसा इतना मंहगा अनाज क्यों बांटा जा रहा है, जबकि गेंहू और चावल बाजार में बहुत आसानी से और सस्ती दर पर भी उपलब्ध है। लेकिन, इस बात को समझने के लिए उन्हें यह बात भी जाननी चाहिए कि कोई आम आदमी जितना चावल खाता है, उससे आधी मात्रा में कोदो खाने से उसका पेट भर जाता है।

जाहिर है कि जहां 20 किलो चावल बांटना जरूरी होता है, वहां 10 किलो कोदो बांटने से ही काम चल सकता है। इस तरह, चावल के मुकाबले मंहगा कोदो खरीदने के बाद भी ज्यादा पैसा खर्च नहीं करना पड़ता है, क्योंकि चावल की जगह आधी मात्रा तक भी कोदो मिले तो आदमी का पेट कहीं अच्छी तरह से भर जाता है। इसलिए, इस समूह के लिए कोदो-कुटकी बांटने के लिए ज्यादा पैसा खर्च नहीं करना पड़ता है।

मध्य-भारत के आदिवासी क्षेत्रों में भोजन की सुरक्षा से जुड़े मुद्दे पर बातचीत करते हुए नरेश बिस्वास यह मानते हैं कि जिन जगहों पर कुपोषण की समस्या विकराल हो रही है, उन जगहों पर पौष्टिक आहार पर आधारित वितरण की अनदेखी करना इस समस्या के स्थायी समाधान से मुंह मोड़ने जैसा है। दूसरे शब्दों में कुपोषण खत्म करने के नाम पर यदि सरकार या गैर-सरकारी संस्थाएं पौष्टिक भोजन की बजाय दवाइयां बांटें तो उसे समस्या के अस्थायी समाधान के रुप में देखा जाना चाहिए। इसका मतलब तो यही हुआ कि जब मरीज बीमार पड़े तो उसे दवाइयां खानी हैं, लेकिन प्रश्न है कि पर्याप्त पौष्टिक आहार की कमी से यदि कोई बच्चा या व्यक्ति बीमार पड़ा है तो उसके स्वास्थ्य के लिए उस व्यक्ति तक पौष्टिक आहार पहुंचाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

इस तरह, कोरोना महामारी के दौरान लगाए गए सख्त लॉकडाउन के बीच बैगाचक में बैगा आदिवासियों के लिए पोषण-सुरक्षा को लेकर चलाए गए इस अभियान में कहीं-न-कहीं यह संदेश देने की कोशिश भी की गई है कि बैगा आदिवासियों को यदि अपने लिए अच्छा भोजन चाहिए तो उन्हें सबसे पहले अपने और अपने परिवार के लिए भी ऐसा भोजन बचाना चाहिए। दूसरा, उन्हें अधिक से अधिक मात्रा में कोदो-कुटकी जैसे मौटे अनाज को उगाने के लिए बैगाओं की परंपरागत खेती की तरफ भी लौटना पड़ेगा, जो खेत, खेती, प्रकृति, रसायन-मुक्त फसल, कम लागत और जीव-विविधता के अनुकूल भी है।

इस बारे में बैगाचक क्षेत्र में तलाई डबरा गांव के निवासी गोठिया बैगा कहते हैं कि उनके बाप-दादा कोदो-कुटकी और उसी तरह की अन्य अनाज उगाने के लिए जिस पद्धति से खेती करते थे, वह खत्म हो रही है। पहले एक ही खेत में कई तरह के बीज एक साथ उगाते थे। इससे भोजन की विविधता उनकी थाली में भी दिखती थी। लेकिन, नई तरह की खेती के साथ जब एक ही खेत में एक ही किस्म की फसल उगाई जा रही है तो उन्हें खाने के लिए एक ही तरह की फसल का भोजन मिल रहा है और इससे उनके खाने की आदतों में बदलाव भी आया है।

नरेश बिश्वास कहते हैं, "आदिवासी क्षेत्रों में जहां बच्चे बड़ी संख्या में कुपोषित हो रहे हैं, वहां पौष्टिक भोजन की सुरक्षा के लिए पौष्टिक आनाज उत्पादित करने वाली प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि खेतों में जो अनेक तरह के बीज उगाए जाएं, वे वहां के बच्चों की थाली तक भी आसानी से और स्वाभाविक रुप से पहुंच सकें और उन्हें सरकारी या संस्थाओं की मदद के बिना अपने आसपास से ही पोषण की सुरक्षा हासिल हो सके।"

इसी तरह, आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी महिलाएं बड़ी संख्या में एनीमिया से ग्रसित हो रही हैं। इस बारे में नरेश बिस्वास का मानना है कि स्थानीय समुदाय के बाहर से समाधान देखने की बजाय भीतर से इसके उपायों पर सोचना चाहिए और ऐसी खेती तथा व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहिए, जो उन्हें बाजार के दबावों से मुक्त रखे। साथ ही उन्हें उनकी ही जगहों पर ही पर्याप्त मात्रा में पौष्टिक आहार उपलब्ध करा सके।

वहीं, बैगाचक में तलाई डबरा गांव की ही ग्वालिन बाई बताती हैं कि यदि बैगा परिवार चाहें तो नमक और कपड़े छोड़कर किसी चीज के लिए उन्हें बाजार न जाना पड़े, क्योंकि बैगा परिवार की जरूरत की लगभग सारी चीजें उन्हें जंगल से ही मिल सकती हैं। यही वजह है कि ग्वालिन बाई और उनके जैसे कई बैगा महिला और पुरुष पिछले आठ-दस वर्षों से अपने बीजों को बचाने के एक अनूठे अभियान से जुड़े हैं। इसके लिए गांव-गांव में बीज बैंक बनाए जा रहे हैं। इसके तहत प्राकृतिक खेती के लिए बैगा समुदाय के कई मुखिया अपनी पंचायतों के जरिए आपस में एक-दूसरे को देसी बीजों की अनेक किस्में बांट रहे हैं। इनका मानना है कि यदि इन्होंने कोदो-कुटकी की पैदावार बढ़ाई तो उसका एक हिस्सा वे अपने परिवार के इस्तेमाल के लिए भी बचाकर रख सकते हैं।

इस बारे में ग्वालिन बाई कहती हैं, "अगर हमने अपने बीज बचा लिए, पुरानी खेती से उन्हें खूब पैदा करने लगे तो खाने और अपनी पसंद का खाने के लिए हम किसी के मोहताज न रहेंगे।"

वहीं, नरेश बिस्वास बताते हैं कि प्राकृतिक खेती पर आधारित परंपरागत खेती और पोषण-सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए कोदो-कुटकी के अलावा बैगा समुदाय के पास कई दूसरे किस्मों का मोटा अनाज भी उपलब्ध है, जैसे- सावा, सेलहार और मंदिया आदि। यह सिर्फ अनाज की विभिन्न किस्में भर नहीं हैं, बल्कि यह किस्में इतनी पौष्टिक होती हैं कि बैगा इन्हें औषधियों की तरह इस्तेमाल करते हैं।

दूसरी तरफ, कोरोना लॉकडाउन में जब बाजार बंद रहे तो ऐसे समय बैगा आदिवासियों को भी हरी सब्जियां मिलने में मुश्किल आने लगी। नरेश बिश्वास बताते हैं कि ऐसी स्थिति ने बैगा समुदाय के एक तबके को यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया कि वे अपने जंगल से किन-किन चीजों का इस्तेमाल साग-सब्जी बनाने के लिए कर सकते हैं। इस तरह, कोरोना लॉकडाउन के समय उनके द्वारा कई तरह के फल, फूल, जड़ और पत्तियों की पहचान की गई है, जिन्हें बैगा कभी अपने भोजन में इस्तेमाल करते थे।

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