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यूपी: किसानों को 3 साल बाद मिला ब्लैक राइस का पैसा, सरकार-प्रशासन से नाख़ुश!

“पूर्वांचल के किसानों के पास तो खाद, बीज और कीटनाशक ख़रीदने तक के लिए पैसा नहीं है। ब्लैक राइस की खेती हम कर भी लें तो उसे लेकर हम कहां जाएंगे? बाज़ार में इसका न सही दाम मिल रहा है और न ही ख़रीदार।”
black rice

उत्तर प्रदेश के चंदौली में ब्लैक राइस (Black Rice) की खेती करने वाले किसानों के चेहरों पर करीब तीन साल के लंबे इंतजार के बाद थोड़ी रौनक लौटी है। चंदौली के 185 किसानों का 1123.14 क्विंटल ब्लैक राइस सिर्फ 36 लाख 70 हज़ार 740 रुपये में ही बिक पाया। चंदौली के कृषि उत्पादन मंडी में रखा किसानों का धान फिलहाल 32 रुपये प्रति किलो की दर से उड़ीसा की संस्था ने खरीदा है। किसानों के धान का भुगतान किया जा रहा है। हालांकि चंदौली के जिन किसानों का ब्लैक राइस इकट्ठा किया गया था उस समय उसकी अनुमानित कीमत करीब दो करोड़ रुपये आंकी गई थी।

चंदौली वह इलाका है जिसे 'धान का कटोरा' का रुतबा हासिल है। यहां चार बड़े बांध-नौगढ़, चंद्रप्रभा, मूसाखांड, लतीफशाह बियर और 73 बंधियों के सहारे बड़े पैमाने पर धान की खेती होती है। यहां के धान उत्पादकों को डबल इंजन की सरकार ने साल 2018 में बड़ा सपना दिखाया था और दावा किया था कि ब्लैक राइस की खेती से उनकी आदमनी चार गुना बढ़ जाएगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 20 मार्च 2022 को अपने लोकप्रिय कार्यक्रम ‘मन की बात’ में 'वोकल फॉर लोकल' का नारा देते हुए चंदौली के काले चावल की न सिर्फ तारीफ की, बल्कि यह दावा भी किया, "चंदौली का ब्लैक राइस भारत ही नहीं, विदेशों में भी सुर्खियां बटोर रहा है। लागत की तुलना में किसानों की आमदनी करीब चार गुना बढ़ गई है। यह चावल चंदौली के किसानों के घरों में समृद्धि लेकर आ रहा है।"

किसानों को टीस रही धान की खेती

चंदौली में इन दिनों धान की कटाई चल रही है। खेतों में कहीं कंबाइन मशीनों का शोर गूंज रहा है तो कहीं हंसिये और धान के मिलन का संगीत सुनाई देता है। कुछ लोग ख़रीद केंद्रों पर फसल की तौल करवाने में व्यस्त हैं। लेकिन उन सभी किसानों के मन में एक टीस जरूर उभरती है जब उनसे कोई ब्लैक राइस की खेती और उससे होने वाले मुनाफे का ज़िक्र करता है। चंदौली में शहाबगंज प्रखंड के भुड़कुड़ा गांव के एक प्रगतिशील किसान हैं विनोद सिंह। जुबान पर ब्लैक राइस का नाम आते ही इनका दर्द टीस मारने लगता है। वह कहते हैं, "सरकार ने हमें उस अंधेरी सुरंग में ढकेल दिया है जहां खुशहाली नहीं, सिर्फ तबाही का मंजर ही दिखता है। ब्लैक राइस की खेती से समृद्ध होने के सुनहरे सपनों ने हमारे हौसलों को बुरी तरह तोड़कर रख दिया है। पूंजी फंसाई, कड़ी मेहनत की और बंपर पैदावार हुई तो उपज बिकने के लाले पड़ गए। चंदौली के किसान 'वोकल फॉर लोकल' के नारे में फंसकर बर्बाद हो रहे हैं। बीजेपी के कुछ नेता बार-बार यह जुमला उछालते रहते हैं कि ब्लैक राइस की खेती से चंदौली के किसान मालामाल हो रहे हैं। सरकारी मशीनरी नेताओं को हमारी बर्बादी की कहानी क्यों नहीं सुनाती?"

विनोद कहते हैं, "कोई यह बताने वाला नहीं है कि ब्लैक राइस की खेती से डूब चुकी आमदनी कैसे निकालें? बैंक और साहूकारों का कर्ज कैसे उतारें और किसान अपनी बेटियों के हाथ कैसे पीले करें? चंदौली के जिन किसानों ने अपने बेहतर भविष्य के लिए ब्लैक राइस की खेती शुरू की, उनके अरमान कुछ ही सालों में टूटकर बिखर गए। कर्ज में डूबे तमाम किसान आज तक आर्थिक बोझ से नहीं उबर पाए हैं। तमाम किसान आज भी कर्ज के बोझ से दबे हैं। जिन लोगों ने बैंकों और साहूकारों से कर्ज लिया था, उनका बकाया आज तक चुकता नहीं हो सका है।"

चंदौली के हलुआ गांव के प्रगतिशील किसान कृष्णानंद सिंह न्यूज़क्लिक से कहते हैं, "हमारी गलती यह थी कि हम नौकरशाही के झासे में आ गए। साल 2018 में पहली मर्तबा ब्लैक राइस की खेती की। दूसरे साल 2019 में भी इस उम्मीद के साथ इस धान को रोपा कि हमारे हालात बदल जाएंगे। फसल भी अच्छी हुई। बेचने की कोशिश की तब समझ में आया कि इसका बाज़ार तो कहीं है ही नहीं। हमारी उपज न सरकार खरीदने को राजी हुई और न ही साहूकार। हमारे पास करीब पांच एकड़ जमीन है। बैंक से कर्ज लेकर हमने ब्लैक राइस समेत दूसरे धान की खेती की थी। सालों इंतजार के बाद हमारी उपज नहीं बिकी तो हमने इसकी खेती ही बंद कर दी।"

कृष्णानंद कहते हैं, "ब्लैक राइस की जगह हम नाटी मंसूरी, काला नमक और डीपीटी 5250 आदि प्रजातियों की धान की खेती करते हैं। जिस मकसद से चंदौली के किसानों से बड़े पैमाने पर ब्लैक राइस की खेती कराई गई थी, वो मकसद आज तक पूरा नहीं हो सका। हमने 128 किग्रा ब्लैक राइस तीन साल पहले चंदौली की उत्पादन मंडी में पहुंचाया था। इस साल हमें कुल 4016 रुपये मिले हैं। ब्लैक राइस की खेती उतनी जटिल नहीं है, जितनी इसकी बिक्री। इसकी खेती में लागत भले ही कम लगती है, लेकिन फसल लंबी होने के कारण रिस्क बहुत उठाना पड़ता है। शुरू में 85 रुपये प्रति किग्रा का रेट मिला। उस साल हमने 42 हज़ार में अपना काला चावल बेचा था। शुरु में इसका क्रेज ज़्यादा था। अब हमने इसकी खेती से तौबा कर लिया है। हमें लगता है कि अब चार-पांच एकड़ में सिर्फ बीज के लिए कुछ किसान इसकी खेती कर रहे हैं। ब्लैक राइस अगर 80-85 रुपये प्रति किलो के दाम पर बिकेगी तभी चंदौली के किसानों को फायदा होगा।"

"मज़ाक बना सरकारी नारा"

चंदौली के शहाबगंज प्रखंड के खिचलीं के प्रगतिशील किसान राम अवध सिंह कहते हैं, "चंदौली में वोकल फॉर लोकल का नारा मज़ाक बन गया है। हमारे उत्पाद को बेचने और खरीदने की जिम्मेदारी खुद सरकार उठाए। बड़ा सवाल यह है कि सरकार को जब सपना तोड़ना ही था तो दिखाया ही क्यों? हम तो मोटे अनाज से ही अपना पेट भर लेते थे। पूर्वांचल के किसानों के पास तो खाद, बीज और कीटनाशक खरीदने तक के लिए पैसा नहीं है। कईयों के बच्चों की पढ़ाई और बेटियों की शादियां रुकी हुई हैं। बहुतों के ऊपर बैंकों का कर्ज लदा है। ब्लैक राइस की खेती हम कर भी लें तो उसे लेकर हम कहां जाएंगे? बाज़ार में इसका न सही दाम मिल रहा है और न ही खरीदार। ऐसे में इसकी खेती करने का मतलब क्या है? सरकार के बड़बोलेपन और प्रशासन की नाकामी के चलते हम तबाही की कगार पर खड़े हैं। अब हमने ब्लैक राइस की खेती से तौबा कर लिया है।"

जमालपुर कांटा के किसान उमेश सिंह ने तीन साल पहले 1135 किग्रा ब्लैक राइस, चंदौली काला चावल कृषक उत्पादक समिति को दिया था। इन्हें उस धान का 36,325 रुपये का भुगतान कुछ रोज पहले ही मिला है। उमेश कहते हैं, "ब्लैक राइस से अच्छी कमाई की उम्मीद थी। शुरू में लगातार दो साल तक एक एकड़ में इसकी खेती हुई। सिर्फ 24 महीने में ही हमारे सपने टूट गए। कोई मुनाफा नहीं हुआ। नाटी मंसूरी की खेती किए होते तो वह समय से बिक गई होती। बैंक का लोन भी चुकता हो गया होता। ब्लैक राइस की खेती छोड़कर अब हम मंसूरी और सिया धान उगा रहे हैं। हमने अपनी जो उपज चंदौली काला चावल कृषक उत्पादक समिति को दिया था उसकी तो उम्मीद ही छोड़ दी थी। खुशी इस बात की है कि देर से ही सही, हमारी उपज बिक गई और पैसा भी मिल गया। ये महज खोखली बातें हैं कि ब्लैक राइस ने चंदौली के किसानों का जीवन खुशहाल बनाया है।"

चंदौली के लीलापुर गांव के उदयनाथ सिंह इस बात से बेहद खुश नजर आए कि जैसे-तैसे ही सही, ब्लैक राइस का दाम तो मिल गया। वह कहते हैं, "हमने 315 किग्रा धान दिया था। चंदौली काला चावल कृषक उत्पादक समिति ने हमें 10,050 का भुगतान  किया है। हालांकि बाज़ार उपलब्ध नहीं होने के कारण दो साल पहले ही हमने इसकी खेती बंद कर दी थी और अब नाटी मंसूरी उगा रहे हैं। नाटी मंसूरी की खेती में रिस्क कम है, पैदावार अच्छी है। सरकारी एजेंसियां भी इस धान को आसानी से खरीद लेती हैं। ब्लैक राइस की खेती हमें इसलिए भी छोड़नी पड़ी, क्योंकि इसमें मेहनत ज़्यादा लगती है। पहले साल हमारी उपज 85 रुपये प्रति किग्रा की दर पर बिकी, दूसरे साल 58 रुपये में और इस बार कीमत मिली है 32 रुपये प्रति किग्रा। हम घाटे की खेती भला क्यों करेंगे? सरकार यह तो बताए कि किसान अगर ब्लैक राइस उगाएंगे तो क्या खाएंगे और क्या कर्जा चुकाएंगे?"

पुरवां गांव के मोहन सिंह ने ब्लैक राइस की विपणन को लेकर अपनी मुश्किलों का इजहार किया। उन्होंने कहा, "चंदौली के तमाम किसान अपना ब्लैक ऊबकर ले आए थे और गाय-भैंस को खिला दिया था। हमने तो साफ कर दिया था कि हमारा धान भले ही चूहे-बिल्ली निगल जाएं, पर हम वापस नहीं लेंगे। हम तो देखने भी नहीं गए थे। मंडी में काफी धान बर्बाद भी हुआ। लंबे इंतजार के बाद हमारी 504 किग्रा उपज की कीमत 16,224 अब मिली है। सरकार ब्लैक राइस खरीदने की गारंटी ले, तब भी हम इसकी खेती नहीं करेंगे।"

कुछ ऐसी ही व्यथा नियामताबाद प्रखंड के कठौड़ी मंड़ई गांव के बाढ़ूराम पाल भी सुनाते हैं। वह कहते हैं, "हमने दो किश्तों में 195 किलो धान मंडी में भेजवाया था। वो किसी तरह से अब बिक पाया है। हमने लाचारी में इसकी खेती बंद की है। गौर कीजिए कि आज पैदा किया हुआ धान डेढ़-दो साल बिकेगा तो उसका हाल क्या होगा? अच्छी बात यह है कि चंदौली काला चावल कृषक समिति हमें आत्मनिर्भर बनाने के लिए बहुत कोशिश कर रही है, लेकिन जब बाज़ार ही नहीं, तो क्या करें?"

"गुणकारी है, पर बिकता नहीं"

कठौड़ी मंड़ई गांव के ही रामाश्रय पाल ने इस बार भी ब्लैक राइस की खेती की है। वह कहते हैं, "यह चावल बहुत गुणकारी है। हम अपनी उपज उन लोगों को बेचते हैं जो शुगर अथवा दूसरी गंभीर बीमारियों के मरीज होते हैं। इसका चावल बहुत सुपाच्य होता है। सबड़े बड़ी दिक्कत यह है कि ब्लैक राइस को पकाना हर किसी को नहीं आता। इस चावल को पकाने से दो घंटे पहले पानी में भिगो दें। फिर कुकर में तीन-चार सीटी लगाएं, तभी अच्छा चावल बन पाएगा। इसकी खीर भी लाजवाब बनती है। इसका पोहा और लड्डू भी ज़ायकेदार बनता है।"

चंदौली में ब्लैक राइस की खेती की शुरुआत साल 2018 में भाजपा की मेनका गांधी के सुझाव पर प्रायोगिक तौर पर की गई थी। उन्होंने मणिपुर की चाकहाउ (काले चावल) का बीज चंदौली के किसानों को मुहैया कराया था। बाद में चंदौली के तत्कालीन डीएम नवनीत सिंह चहल और तत्कालीन उपकृषि निदेशक आरके सिंह की पहल पर मणिपुर से 12 सौ रुपये प्रति किलो की दर से 12 किलो चाकहाउ के बीज लाकर यहां के किसानों को खेती के लिए वितरित किया गया। किसानों ने झूमकर ब्लैक राइस की खेती की। इस उम्मीद के साथ कि उनकी आय दो-तीन गुना बढ़ जाएगी। किसानों का प्रयोग सफल रहा। धान की खेती में महारत हासिल करने वाले चंदौली के किसानों ने ब्लैक राइस से अपना घर तो भर लिया, लेकिन खरीदार नहीं मिले। कृषि महकमे के अफसर सिर्फ इसी बात से खुश हैं कि ब्लैक राइस को कलेक्टिव मार्क यानी विशेष उत्पाद की मान्यता मिल गई है। कृषि उत्पाद में यह मार्क दिलाने वाला चंदौली यूपी का इकलौता जिला है।

चंदौली से शुरू हुई ब्लैक राइस की खेती गाजीपुर, सोनभद्र, मीरजापुर, बलिया, मऊ और आजमगढ़ तक पहुंच गई है, लेकिन बाज़ार नहीं है। चंदौली के तमाम गांवों में किसानों के घरों में ब्लैक राइस के बोरे पड़े हैं और लोग उन्हें देखते हैं तो आंखें नम हो जाती हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, चंदौली जिला प्रशासन ने साल 2018-19 में किसानों से ब्लैक राइस की खेती कराई तो उम्मीद जताई थी कि इसका धान 150 से 200 रुपये प्रति किग्रा के भाव से बिक जाएगा। काफी जद्दोजहद के बाद साल 2019-20 में गाजीपुर की सुखबीर एग्रो एनर्जी ने 850 क्विंटल और एक अन्य खरीददार ने 150 क्विंटल ब्लैक राइस क्रमशः 8500 और 6000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से खरीदा था। साल 2020 में करीब 600 क्विंटल ब्लैक राइस न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, कतर आईटीसी, चौपाल सागर, जैविक हाट, आर्गेनिक बाज़ार मुंबई में बिक सका। इसके बाद ब्लैक राइस की कोई लॉट विदेश गई ही नहीं।

साल 2020-21और 2021-22 में लाख कोशिश के बावजूद ब्लैक राइस का कोई खरीददार नहीं मिला। दूसरे साल भी कुछ किसानों का धान 65 रुपये प्रति किग्रा की दर से बिका, लेकिन इसके बाद ब्लैक राइस के खरीददार ही नहीं मिले। ब्लैक राइस की खेती को बढ़ावा देने के लिए चंदौली काला चावल कृषक उत्पादक समिति कई सालों से काफी सार्थक प्रयास कर रही है। यह संस्था चंदौली के किसानों ने मिलकर खुद ही खड़ी की है।

प्रभारी जिला कृषि अधिकारी स्नेह प्रभा के मुताबिक, "चंदौली में साल 2019 में करीब 400 हेक्टेयर में ब्लैक राइस की खेती की गई, जिससे 1400 क्विंटल धान का उत्पादन हुआ। करीब 8500 रुपये प्रति क्विंटल की दर से करीब 975 क्विंटल धान दो कंपनियों ने खरीद लिया। साल 2020 में चंदौली में 500 हेक्टेयर में ब्लैक राइस की खेती हुई और 1400 क्विंटल धान का संग्रह किया गया। सौ-सौ क्विंटल धान की खरीद नोएडा की दो कंपनियों ने और 25-25 क्विंटल सोनीपत की दो कंपनियों ने और 25 क्विंटल मिर्जापुर की एक कंपनी ने खरीदा। अभी 1000 क्विंटल धान की बिक्री होनी बाकी है। प्रयागराज और सोनभद्र में भी किसानों का ब्लैक राइस बिक्री के लिए रखा हुआ है। साल 2021 में करीब 400 हेक्टेयर में काला चावल की खेती की गई, लेकिन बिक्री की स्थिति उत्साहवर्धक नहीं है।"

काले चावल का बाज़ार नहीं

चंदौली काला चावल फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के निदेशक (वित्त) रतन सिंह, ब्लैक राइस उगाने में ढेरों कठिनाइयां गिनाते हैं। वह कहते हैं, "यह फसल पूरी तरह से ऑर्गेनिक है, जिसके लिए बहुत अधिक श्रम की जरूरत पड़ती है। इसकी खेती पर ज़्यादा रिटर्न तभी मिल सकता है जब हमारा ब्लैक राइस विदेशी बाज़ार में जाएगा। आमतौर पर काले चावल की उत्पादकता 25 क्विंटल/हेक्टेयर होती है। यह करीब पांच फीट की ऊंचाई तक बढ़ता है। कुछ साल पहले चंदौली के किसानों का काला चावल कतर और ऑस्ट्रेलिया गया था। उसके बाद हमारा चावल विदेश नहीं जा सका।"

"कोरोना के संकटकाल में चंदौली के किसानों का 1123 क्विंटल ब्लैक राइस डंप हो गया, जिससे धान उत्पादक बिदक गए। बहुतों ने इसकी खेती छोड़ दी है। चंदौली काला चावल फार्मर प्रोड्यूसर कंपनी लिमिटेड के माध्यम से कुछ प्रशिक्षित व चुनिंदा किसानों के जरिये इसका उत्पादन कराया जा रहा है। यह संस्था ब्लैक राइस के ग्रेडिंग और मार्केटिंग का काम देख रही है और इस धान की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने जा रही है। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में ब्लैक राइस के प्रति पूर्वांचल के किसानों की दिलचस्पी बढ़ेगी। ब्लैक राइस से ही किसानों की आमदनी चार गुनी हो सकती है।"

"मैंने पीएम-सीएम समेत चंदौली के सभी प्रशासनिक अफसरों को खत भेजकर आग्रह किया है कि ब्लैक राइस को भी सार्वजनिक वितरण प्रणाली से जोड़ा जाए। इसे मिड डे मील का हिस्सा बनाया जा सकता है क्योंकि यह बहुत ज़्यादा पौष्टिक है। गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं के लिए आंगनवाड़ी केंद्रों पर इसकी सिफारिश की जा सकती है। ऐसे में कई रास्ते मिलेंगे। एपिडा के माध्यम से इसे विदेशों में निर्यात करने का प्लेटफार्म मौजूद है।"

"अन्नदाता की मुश्किलों का अंत नहीं"

चंदौली के एक्टिविस्ट अजय राय ब्लैक राइस की चर्चा करते हुए खेती की पृष्ठभूमि पर तल्ख टिप्पणी करते है, वह कहते हैं, "चंदौली के ग्रामीण इलाकों की जटिल अर्थव्यवस्था किसानों के जान की दुश्मन है। ब्लैक राइस की खरीद की कोई पुख्ता नीति न होने से अन्नदाता मुश्किल में हैं। ब्लैक राइस तो बिचौलिए भी नहीं खरीद रहे हैं। चंदौली ही नहीं, समूचे पूर्वांचल में ऐसे कोल्ड स्टोरेज नहीं हैं, जहां काला चावल रखा जा सके। किसान को पूरे साल की मेहनत के बाद अपनी फसल बेचकर मुनाफ़ा नहीं मिले तो वह परिवार का पेट कैसे भर पाएगा और कर्ज कहां से चुकाएगा? किसानों का काला चावल बिका नहीं, लेकिन बैंक वाले आंख तरेर रहे हैं। महाजनों से कर्ज लेना किसानों की मजबूरी है। इस पर इन्हें ब्याज़ दर 120 प्रतिशत सालाना तक चुकानी पड़ रही है, यानी एक लाख के कर्ज पर उनको फसल कटने के बाद 2.20 लाख तक चुकाना पड़ रहा है। ब्लैक राइस की खेती करने वाले किसानों के इर्द-गिर्द महाजनों का मकड़जाल ऐसा है कि वो चाहकर भी मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।"

अजय कहते हैं, "साल 2015 से किसानों की आत्महत्या का ग्राफ बढ़ता जा रहा है। किसान आंदोलन के समय सरकार ने ऐलान किया था न्यूतम समर्थन मूल्य की गारंटी दी जाएगी, लेकिन वो वादा पूरा नहीं हो सका। सरकार उद्योगपतियों का कर्ज माफ कर रही है, लेकिन खेती-किसानी करने वाले लोगों को इस भंवर से बाहर निकालने की उसे तनिक भी चिंता नहीं है। बीजेपी ने किसानों के मामले में जो कृषि नीति अपनाई है वह छलने वाली है। बीजेपी के शासन में यूपी की अर्थव्यवस्था थौंस गई है। बाज़ार में पैसा नहीं है। चंदौली की 80 फीसदी जनता रोज़ी-रोटी के लिए खेती पर आश्रित है। राजनीतिक दलों को लगता है कि जुमले उछालकर वो आगामी चुनावों में अपनी जीत पक्की कर लेंगे, लेकिन किसानों के मुद्दे अपनी जगह बरकरार हैं।"

सियासी घमासान

ब्लैक राइस को लेकर इन दिनों चंदौली में सियासी घमासान भी शुरू हो गया है। खासतौर पर तब से जब चंदौली काला चावल कृषक समित ने किसानों को उनकी उपज का 32 रुपये प्रति किग्रा की दर से भुगतान शुरु किया। संस्था ने भुगतान का पहला चेक रामगढ़ स्थित बाबा कीनाराम मठ रख-रखाव निधि के नाम से जारी किया। इस चेक को लेकर सपा के पूर्व विधायक मनोज सिंह डब्लू रामगढ़ पहुंच गए। वहां से लौटे तो पत्रकारों को बुलाकर यह बताना शुरू कर दिया है कि किसानों के ब्लैक राइस का भुगतान उनके प्रयास से ही संभव हो पाया है। कुछ दिनों पहले चंदौली स्थित नवीन मंडी समिति में पहुंचकर डब्लू ने वहां सड़े रहे धान के सवाल पर सत्तारूढ़ दल के अलावा अफसरों को आड़े हाथ लिया था।

पूर्व विधायक के बयान का किसानों ने किया कड़ा विरोध

पूर्व विधायक मनोज सिंह डब्लू के बयान से चंदौली काला चावल उत्पादक समित के पदाधिकारी और सदस्य खासे नाराज हैं। संस्था के अध्यक्ष शशिकांत राय न्यूज़क्लिक से कहते हैं, "ब्लैक राइस को कलेक्ट करने से लेकर बेचने तक में पूर्व विधायक मनोज सिंह डब्लू का कोई योगदान नहीं है। वह हमारे यहां आए थे। उन्होंने बाबा कीनाराम आश्रम रामगढ़ के संचालन समिति के मंत्री-प्रबंधक सेवानिवृत्त मेजर अशोक सिंह से हमारी बात कराई। उनके कहने पर मैंने आश्रम से संबंधित ब्लैक राइस के भुगतान का चेक इन्हें दे दिया। उक्त चेक को लेकर वह बाबा कीनाराम आश्रम पहुंचे और वहां यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया कि उनके प्रयास ही ब्लैक राइस की बिक्री संभव हो पाई। सच यह है कि ब्लैक राइस के कलेक्शन से लेकर उसके रख-रखाव और बिक्री तक में इनकी कभी कोई भूमिका नहीं रही है। अन्नदाता को गुमराह किया जा रहा है कि उनके प्रयास से ही ब्लैक राइस बिक पाया है। वह सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए किसानों में भ्रम और झूठ फैला रहे हैं। सियासी मुनाफे के लिए वह छल और झूठे हथकंडे का सहारा ले रहे हैं।"

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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