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ग्राउंड रिपोर्ट: ‘विकास’ की ज़िद ने चंदौली में डुबा दी खेती और किसानों की ज़िंदगी!

चंदौली में बाढ़ से होने वाली सालाना तबाही हर साल बढ़ती जा रही है। कटान की समस्या तब से ज़्यादा बढ़ी है जब से मोदी सरकार ने गंगा में जलपोत चलाने के लिए वाटरवेज बनाने के बहाने अपने मनमुताबिक नदी की धारा को मोड़ने की कोशिश की।
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“हमारे दुखों का कोई अंत नहीं। हम लोगों जैसा कोई मजबूर नहीं। हमारी पांच बीघा जमीन गंगा में समा गई। साथ ही गांव भी। जान पर बन आई तो हमें अपना ठौर-ठिकाना छोड़कर भागना पड़ा। कोई खुशी से अपना आशियाना नहीं बदलता। हम मरें या जिंदा रहें, सरकार ने हमें हमारी किस्मत पर छोड़ दिया है। गंगा कटान के चलते बहुत से लोग सड़क पर आ गए हैं!”

गंगा में समा चुके अपने खेतों की ओर इशारा करते हुए 50 वर्षीय शमशुद्दीन उर्फ गुड्डू की आंखों से बहते आंसू आसमान से गिरते बारिश के पानी के संग जैसे लय बिठा लेते हैं। चंदौली के नियामताबाद प्रखंड में गंगा कटान से प्रभावित कुंडा कला गांव में शमशुद्दीन की दस्तक उनकी उस सिसकी के साथ शुरू होती है जो गहरी पीड़ा के चलते आधी गले में ही अटक जाती है। इनके पास खेती के लिए पर्याप्त जमीन थी जिसे गंगा निगल गई। इनके पास अगर कुछ बचा है सिर्फ लाचारी है और बेबसी। शमशुद्दीन परचून की दुकान पर काम करते हैं और किसी तरह से अपने परिवार की परवरिश कर पा रहे हैं। शमशुद्दीन की स्थिति से मिलते-जुलते हालात गुलाम मोहम्मद के भी हैं। वह कहते हैं, “करीब ढाई हजार की आबादी वाला कुंडा कला गांव हर साल बाढ़ की विभीषिका झेलता है। गंगा में बाढ़ आती है तो अपने साथ किसानों के खेत ही नहीं, उनके अरमान भी बहा ले जाती है। कुंडा कला में हालात बेहद दयनीय हैं। गंगा कटान और बारिश के दिनों में नदी में आने वाली बाढ़ से पड़ोस के गांव कुंडा खुर्द से लगायत कैली, भुपौली, मवई कला तक के किसान, पशुपालक और मछुआरा समाज तबाह है।”

उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले में गंगा के किनारे बसे 73 गांवों में तैरने वाला समाज डूब रहा है। उन हजारों किसानों के खेत और मकान जलसमाधि ले रहे हैं, जो पहले उनकी जिंदगी के खेवनहार हुआ थे। गंगा के पेट में तेजी से समाते जा रहे सभी गांवों की कहानी एक जैसी है, जो नदी के मुहाने पर बसे हैं। इनमें ज्यादातर तैरने वाला माझी समाज शामिल है, जिनकी उम्मीदें गंगा की तेज जलधारा में डूबती जा रही हैं। कुंडा कला का समीपवर्ती गांव सुल्तानीपुर का तो वजूद मिट चुका है। वहां के बाशिंदों को लाचारी में शकूराबाद में शरण लेनी पड़ी। कुंडा कला, कुंडा खुर्द और मवईं कला तीनों ही गांव बनारस शहर के सामने बसे हैं। इन गांवों को एक धागे में जोड़ा करती है गंगा में आने वाली बाढ़। गंगा के मुहाने पर बसे इन गांवों में पहले माझी समुदाय की बस्तियां हुआ करती थीं जिनका वजूद अब लगभग मिट गया है। तैरने वाले समुदाय की कई बस्तियां नदी की जलधारा में समा गईं हैं। अपनी पांच बीघा जमीन गंवाने वाले कुंडा कला के मोहम्मद कय्यूम कहते हैं, “हमारी जिंदगी में अब कोई रंग नहीं है। पहले अपने खेतों में हम धान-गेहूं और परवल की सब्जी उगाया करते थे। अब जमीन ही नहीं बची है। खेती की कौन कहे, पीने के साफ पानी के लिए भी तरसना पड़ रहा है।”

कुंडा कला के ताराशंकर प्रजापति अपनी व्यथा सुनाते हुए कहते हैं,“हमारी दस बिस्वा जमीन गंगा कटान की भेंट चढ़ चुकी है। वह जमीन जो हमारे परिवार के लिए सबसे बड़ा सहारा हुआ करती थीं। हम गंगा की बाढ़ से हर साल लड़ते हैं। जब बाढ़ आती है तो पानी के साथ सांपों की एक लहर भी हमारे घरों में पहुंच जाया करती है। वो सांप पानी भरे घरों में रहने के साथ ही सड़कों के किनारे और राहत शिविरों में रहने वाले कैंपों में भी घुस जाया करते हैं। इन सांपों के चलते लोग रात में सो नहीं पाते।” मोहम्मद सलीम और एजाज खान अपनी बेबसी का इजहार करते हुए कहते हैं, “हमें सारी रात चारपाई पर बैठकर ऊंघते हुए बितानी पड़ती हैं क्योंकि जहरीले सांपों का कुछ पता नहीं चलता। बच्चे डर जाते हैं और उनकी जिंदगी की सलामती के लिए हमें सारी रात जागना पड़ता है। हम एक पल के लिए अपनी आंखें बंद नहीं कर पाते। हम जानते हैं कि बाढ़ में हमारी और सांपों की बेपनाही एक जैसी होती है।”

डूब रही किसानों की गृहस्थी

तेज़ क़दमों से चल कर अपने खेतों के गंगा में समाने का निशान दिखाने पहुंचे लालता प्रजापति, हबीब और मुरली बताते हैं, “नौ बरस गुजर गए। कोई हुक्मरां हमारी खोज-खबर लेने नहीं आया। किसी ने यह तक जानने की जरूरत नहीं समझी कि हम कैसे और किस हालात में जिंदगी काट रहे हैं? गंगा में जब बाढ़ आती है तो नदी का पानी कुंडा कला को जलप्लावित करते हुए मलोखर चौराहे तक पहुंच जाता है। बाढ़ का पानी भर जाने पर साल में कई महीने हमें सड़क पर गुजारना पड़ता है बाक़ी दिनों में अपने घरों में। बाढ़ और गंगा का कटान नदी के तीरे रहने वालों का पीछा ही नहीं छोड़ रही है। पता नहीं कब तक हम कुंडा कला में टिक पाएंगे? कई सालों तक दौड़ धूप के बाद भी हमारी जमीन के एवज में न मुआवजा मिला और न ही कोई दूसरी जमीन। अब तो लगता है कि दरिया और पोखरे में कोई खास फर्क नहीं है। चाहे यहां रहें या फिर वहां। शरणार्थियों की तरह रहते-रहते न जाने कितने साल गुजर गए? हम सिर्फ अखबारों में पढ़ते आ रहे हैं कि बाढ़ विस्थापितों को घर बनाकर रहने के लिए मोदी सरकार ने मुफ्त में जमीन देने का प्रावधान कर रखा है। सच क्या है, झूठ क्या है - हमें नहीं मालूम?”

कुंडा कला के छेदी चौहान की करीब एक बीघा जमीन गंगा कटान की भेंट चढ़ चुकी है। वह कहते हैं,“चंदौली में उन सभी किसानों और मछुआरों की स्थिति एक जैसी है जो बाढ़ और गंगा कटान का दंश झेल रहे हैं। इनमें ज्यादातर लघु और सीमांत किसान हैं जो खेती के अलावा छोटे-मोटे कारोबार करते हैं। बारिश और बाढ़ के चलते लोगों के पास न काम है, न रोज़गार है और न पैसा। बाक़ी बाढ़ तो सालों से है ही जीवन में। योगी-मोदी सरकार से अभी तक कोई लाभ नहीं मिला है और हम लोगों की हालत बहुत ख़राब है।”

इनकी हां में हां मिलाते हुए अब्दुल और जाफर अली कहते हैं,“हमारे गांव में जब बाढ़ आती है तो मदद के नाम पर सरकार की ओर से दो-चार किलो चावल-आटा, चना और एक तिरपाल के सिवा कुछ भी नहीं मिलता। हमारी तबाही को समेट कर देखें तो चंदौली में हजारों किसानों की सैकड़ों हेक्टेयर जमीन गंगा लील चुकी है और सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है।” गंगा के कटान से प्रभावित बड़गांवा की राधिका देवी सरकारी दावों पर बड़ा सवाल खड़ा करती हैं। घर में रोटी पकाते हुए उनसे मुलाकात हुई तो बताती हैं, “शादी के बाद जब मैं बड़गावां आई तो सिर्फ दो चीजें देखी। एक बाढ़ और दूसरा गंगा कटान। गौना के दो महीने बाद हमारी जमीन गंगा में समा गई तो मेरे ऊपर ढेरों तोहमत मढ़े गए। यहां तक कहा गया कि बहू का पौरा ठीक नहीं है। बाद में इन कुरीतियों को कुछ ग्रामीणों ने तोड़ा। पहले हालात कम बदतर थे और इस वक्त पानी सिर के ऊपर से गुजर रहा है। गंगा कटान के मामले में हमारा दुखड़ा सुनने आज तक कोई अफसर बड़गांवा नहीं आया। लेकिन किससे कहूं? बुखार आता है तो दवा भी नसीब नहीं होती। हमारे गांव में पीने का साफ पानी नहीं है। कुछ उंचाई पर सरकार हैंडपंप लगवा दे तो जिंदगी थोड़ी आसन हो सकती है। बारिश के दिनों में हमें पानी को उबालने के बाद ठंडा करके पीने को मजबूर होना पड़ता है। इसके बावजूद परिवार में कोई न कोई हर समय बीमार रहता ही है।”

बाढ़ की विभीषिका और खेतों के कटान के चलते चंदौली जिले के महुंजी, जिगना, बयानपुर, प्रहलादपुर, गुरैनी, कवलपूरा, सोनहुली, नगवां, मेढवा, अमादपुर, मिश्रपुरा, महमदपुर, नरौली, रायपुर, नौघरां, बुद्धपुर, हिंगुतरगढ़, प्रसहटा, रामपुर दीयां, सहेपुर के किसानों, पशुपालकों और माझी समुदाय की वेदना हर किसी के दिल पर क्षोभ की गहरी लकीरें खींच देती हैं। इन गावों पर अब खतरे के बादल मंडराने लगे हैं। रेत की दीवारें इन गावों की सरहद को बचाने में सक्षम नहीं रह गई हैं। धानापुर प्रखंड के बुधपुर गांव के गोविंद उपाध्याय भी उन किसानों में शामिल हैं जिनकी समूची जमीन गंगा में समा चुकी है और वह मुआवजा अथवा जमीन के बदले जमीन पाने के लिए अफसरों व नेताओं के दरवाजे पर रोजाना दस्तक दे रहे हैं। वह कहते हैं, “बनारस को विकास के नए मॉडल के रूप में विकसित करने की मोदी सरकार की जिद के चलते चंदौली में गंगा के किनारे रहने वाले लोगों का अस्तित्व दरकने लगा है। अफसरों की देहरी पर अनगिनत मर्तबा गुहार लगाने के बावजूद किसानों के खेतों को बचाने के लिए आज तक कोई सार्थक पहल शुरू नहीं हुई। गंगा कटान के चलते चंदौली का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है।”

“सबसे ज्यादा कटान इसी गांव में हो रहा है। गंगा के कछार में बहुत उपजाऊ जमीन है। साल 1973 में नगवां पंप कैनाल बना तो गंगा की जलझारा बंडाल लगाकर मोड़ी गई। अवैज्ञानिक ढंग से मोड़ी गई नदी की धारा ने सबसे पहले आंशिक रूप से सहेपुर से कटान शुरू हुई। सात किमी के दायरे में गंगा ने करीब 1300 मीटर अंदर तक तबाही मचाती रही। बसहटा और हिंगुतर के सिवान में आते-आते गंगा ने सैकड़ों किसानों की करीब साढ़े तीन हजार एकड़ जमीन लील गई।”

गोविंद यह भी कहते हैं, “गंगा ने चंदौली के किसानों की जमीनों को तब से तेजी से रेतना शुरू किया है जब से बनारस से हल्दिया तक जलपोत चलाने के लिए नदी की ड्रेजिंग कराई गई। रिंग रोड बननी शुरू हुई तो भ्रष्टाचार में डूबी सरकारी मशीनरी ने विकास के बहाने ठेकेदारों और माफियाओं को बालू के अवैध खनन की छूट दे दी। गंगा के किनारों से शुरू किया गया अवैध खनन अब आबादी की तरफ तेजी से बढ़ रहा है। लगता है कि कुछ ही सालों में गंगा के किनारों पर बसे हुए कई और गांव भी गंगा में समा जाएंगे। कुछ ही सालों बाद किसानों और मछुआरों को किसी नए ठौर की तलाश करनी पड़ सकती है। गंगा कटान और अवैध खनन न रुक पाने का मतलब है अब मुश्किलें थमने वाली नहीं हैं। सरकार ने हम पर अपनी समस्या लादी और अब वह चाहती है कि हम खुद ही सब कुछ उठाकर यहां से चले जाएं। यह सरकार सिर्फ भावनाओं पर चल रही है। आखिर ये किस तरह की सरकार है?”

एक तरफ सूखा, दूसरी ओर कटान

पूर्वांचल में अबकी सूखे के हालात हैं लेकिन उत्तराखंड में हुई जबर्दस्त बारिश से गंगा उफान पर है और हज़ारों एकड़ जमीन को निगलती जा रही है। चंदौली से गुजरने वाली गंगा में बाढ़ कोई नई बात नहीं है। भीषण सूखे के चलते एक तरफ धान की फसलें सूख रही हैं तो दूसरी ओर खेत समेत खड़ी फसलें गंगा में समाती जा रही हैं। गंगोत्री से निकली गंगा तो वह नदी रही है जिसके दम पर पूर्वांचल के अन्नदाता सरकार के अनगिनत गोदामों को खाद्यान्न से भरते रहे हैं। सवाल यह उठता है कि धान के कटोरा का रुतबा दिलाने वाले चंदौली में किसानों के साथ 'तैरने वाला' समाज आख़िर 'डूबने' की कगार तक कैसे पहुंचा? क्या इस जिले को गंगा कटान से हमेशा के लिए मुक्ति दिला पाना संभव नहीं है?

गंगा में हर साल बाढ़ आती तो उसके किनारे बसे चंदौली जिले के तमाम गांवों में यह नदी खेत और किसान व माझियों के घरों को रेतते हुए क्यों जाती है? गंगा कटान से होने वाले नुक़सान को रोकने का कोई दीर्घकालिक हल निकाल पाना क्या असंभव है? दरअसल, एक सवाल का जवाब दूसरे जरूरी सवाल से जुड़ता है - सालों से बाढ़ प्रभावित किसान, पशुपालक और मछुआरों के लिए गंगा अब मुसीबत का सबब क्यों बनती जा रही हैं? चंदौली में गंगा कटान से तबाह हो रहे किसानों के पुरखे क्या इसी तरह बाढ़ की त्रासदी से तबाह होते थे?

इन अहम सवालों का जबाव ढूंढने के लिए न्यूज़क्लिक ने पूर्वांचल की माटी से जुड़े “गंगा तीरे” नामक चर्चित पुस्तक लिखने वाले दिल्ली के वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र राय से बात की। वह कहते हैं, “गंगा में बाढ़ को लेकर दर्ज अनिश्चिंतता और कटान के चलते किसानों व मछुआरों की तबाही डरावने रूपक में तब्दील होती जा रही है। इस नदी के किनारे रहने वाला समाज हमेशा से बाढ़ में 'तैरना' जानता था लेकिन अब बेबस है। “पहले कंक्रीट के निर्माण से हमने नदियों का रास्ता नहीं रोका था इसलिए बाढ़ का पानी भी तुरंत उतर जाता था। पुरानी संस्कृति में इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि लोग गंगा की पूजा करते थे और बाढ़ का भी इंतज़ार करते थे। शहरीकरण के बाद नदियों का रास्ता रुकने लगा। फिर दोनों तरफ़ तटबंधों से सभी नदियों को बांध दिया गया और बाढ़ का मौजूदा विकराल रूप सामने आने लगा। हिमालय की तराई में बसे होने की वजह से चंदौली की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि यहां बाढ़ और कटान को टाला नहीं जा सकता लेकिन इसके खतरे को कम किया जा सकता है। जरूरत है बेहतर प्रबंधन, कार्ययोजना और पर्याप्त धन की।”

“ गंगा हिमालय से निकलकर तेज़ रफ्तार से नीचे आती हैं तो पानी के साथ बड़े-छोटे पत्थर, रेत और बड़ी मात्रा में तलछट या गाद भी नीचे आती है। गंगा के मैदानी इलाक़ों में यह ढलान मात्र सात सेंटीमीटर की मापी गई है। बारिश के दिनों में ऊपर की तरफ तो नदी में गति ज़्यादा रहती है, लेकिन नीचे आते-आते कम होने लगती है। रेत के साथ जो गाद आती है, वह चंदौली के खेतों को उपजाऊ भी बनाती रही है। बनारस से हल्दिया के बीच गंगा में जलपोत चलाने के लिए हर साल की जा रही ड्रेजिंग से यह नदी अब किसानों के खेतों और मछुआरों के आशियानों को चीरती जा रही है। चंदौली में अब तक हजारों बीघा जमीन और सैकड़ों घर गंगा में समा चुके हैं। चंदौली में बाढ़ को रोकने की सार्थक पहल अभी शुरू नहीं की गई तो गंगा के किनारे रहने वाले लोगों के जीवन में बड़ी मुश्किलें पैदा हो सकती हैं।”

अमरेंद्र कहते हैं, “अगर किसी बाढ़ पीड़ित से कोई राजनेता यह वादा करे कि वह बाढ़ को 'पूरी तरह' ख़त्म कर देगा तो तात्कालिक तौर पर वह और बाक़ी जनता बहुत खुश हो सकती है। लेकिन इस तरह के सभी वादे सिर्फ़ राजनेताओं की व्यक्तिगत राजनीति को चमकाने के लिए किए जाते हैं। दरअसल, हिमालय से आती नदियों के पानी को रोकना संभव ही नहीं है। पूर्वांचल में गंगा तेजी से सूखती जा रही है। ऐसे में खेती और जीवन के लिए पानी कहां से आएगा? एक ऐसे इलाक़े की ज़मीन बंजर हो जाने का ख़तरा रहेगा जो पूरी तरह कृषि पर निर्भर है। सदियों पहले चंदौली से गुजरने वाली गंगा में हर साल बाढ़ आती थी लेकिन वह नदी खेतों को नुकसान नहीं पहुंचाती थी। अबलबत्ता अपने साथ हिमालय की उर्वर मिट्टी भी लाती थी। बाढ़ के 10-15 दिनों की मुश्किलों को झेलने के बाद गंगा तट के खेत उपजाऊ हो जाते थे। गंगा के तीरे बसे गांवों में जलस्तर अच्छा रहता था और तालाब व कुएं लबालब भर जाया करते थे।”

काशी के नए घाट व ड्रेजिंग मुसीबत

आज़ादी के बाद से चंदौली में बाढ़ से होने वाली सालाना तबाही हर साल बढ़ती जा रही है। कटान की समस्या तब से ज्यादा बढ़ी है जब से मोदी सरकार ने गंगा में जलपोत चलाने के लिए वाटरवेज बनाने के बहाने अपने मनमुताबिक नदी की धारा को मोड़ने की कोशिश की। नतीजा, चंदौली का एक बड़ा हिस्सा बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित है। काशी विश्वनाथ मंदिर के पास गंगा को पाटकर घाट बनाया गया। कुछ इसी तरह का खेल खिड़किया घाट पर हुआ। नतीजा, गंगा कटान की समस्या इस नदी के किनारे रहने वाले लोगों के लिए मुसीबत का सबब बनने लगी है। चंदौली जिला प्रशासन यह आंकड़ा भी नहीं जुटा सका है कि अभी तक गंगा कटान से कितने किसान प्रभावित हुए हैं और कितने ऐसे लोग हैं जिनकी जिंदगी बुरे दौर से गुजर रही हैं? आजादी के 76 साल बाद करीब दस करोड़ की लागत से बनारस के नजदीक स्थित टांडा खुर्द से लगायात टांडा कला तक ट्यूब कटर लगाया गया, लेकिन हालात जस के तस हैं।

चंदौली के पूर्व विधायक मनोज सिंह डब्लू ने हाल में एक हफ्ते तक गंगा के तीरे वाले गांवों में पदयात्रा की और नदी के कटान के प्रभावित किसानों को मुआवजा दिलाने के लिए बीजेपी सरकार का ध्यान खींचा। वह कहते हैं, “ पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र से सटे चंदौली में गंगा की बाढ़ और कटान रोकने के लिए आज तक जितने इंतजाम किए गए वो नाकाफी हैं। ट्यूब कटर ही खेतों के कटान का सामाधान होता तो टांडा कला और टांडा खुर्द में तबाही रुक जानी चाहिए थी, लेकिन इसका दायरा लगातार बढ़ता ही रहा है। इसका साफ़ मतलब है कि यह पूरी क़वायद नुक़सान भरी रही है। जलपोत चलाने के नाम पर हर साल गंगा में की जाने वाली ड्रेजिंग करते समय नदी विशेषज्ञों से सलाह-मशविरा करने की जरूरत नहीं समझी जाती। नदी में भरने वाली गाद की समस्या पर आज तक ध्यान नहीं दिया गया। गंगा में जैसे-जैसे पानी की रफ्तार बढ़ेगी, नदी के तल में गाद और रेत का स्तर भी बढ़ेगा और ट्यूब कटर बेमतलब साबित होंगे।”

नदी के पेट में रेत की गांठ

वाराणसी के काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में गंगा शोध केंद्र के वैज्ञानिक प्रोफेसर बीडी त्रिपाठी गंगा की बाढ़ को' नदी के पेट में बन रही 'रेत के गोले' से जोड़ते हैं। वह कहते हैं, “बाढ़ का अर्थ है उल्टी होना। यदि आपने ज़रूरत से ज़्यादा खा लिया हो या आपका पेट ताक़त के साथ बांध दिया गया हो तो आप उल्टी कर सकते हैं। इसी तरह से जब नदी को तटबंधों में बांध दिया जाता है तो उसके पेट में रेत और गाद का स्तर लगातार बढ़ता रहता है। चंदौली में बाढ़ इसलिए आ रही है क्योंकि नदी के पेट पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। हाल के कुछ सालों में बनारस में गंगा नदी के पेट में कई निर्माण हुए। बहुत से लोग नदी को घेरते जा रहे हैं। ऐसे में गंगा का पेट साफ़ कैसे रहेगा? और जब नीचे रेत और गाद जमा होगी तो किसानों के खेत नदी में समाएंगे ही। पहले बाढ़ से निपटने की तैयारियां होती थीं लेकिन हाल के कुछ सालों में इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। नतीजा कई किसान भूमिहीन हो गए पशुपालकों के चरागाह मिट गए और मछुआरों के घर गंगा की धारा में समा गए।”

पर्यावरणविद प्रो.त्रिपाठी 'फ़्लड मिटिगेशन' के सिद्धांत के ज़रिए चंदौली में बाढ़ की समस्या का समाधान सुझाते हैं। वह कहते हैं, “यहां 'फ़्लड मिटिगेशन' का अर्थ बाढ़ के दुष्प्रभाव को कम करना है। बनारस की गंगा को पाटे जाने और मनमाने तरीके से की जा रही ड्रेजिंग की वजह से हर साल नदी के पेट में रेत और गाद का स्तर कितना बढ़ता है-इसका कोई वैज्ञानिक विश्लेषण आज तक नहीं किया गया? यह सब सोचने-करने की न तो प्रशासन को सुध है और न ही लोगों में जागरूकता। ऐसे में बारिश के सीजन में नदी के कुछ ख़ास हिस्सों में गंगा तबाही मचाएगी ही।

गंगा पर निर्माधीन पुल

विकास की ज़िद बनी, विनाश का कारण!

गगा की बाढ़ और कटान से तबाही सिर्फ चंदौली ही नहीं, बनारस के इकलौते ढाब आईलौड में भी किसानों को बर्बाद कर रही है। यह इलाका भी चंदौली लोकसभा सीट का हिस्सा है और पीएम नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र से बिल्कुल सटा हुआ है। इस इलाके के सांसद हैं भाजपा के डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय, जो चंदौली के भी सांसद हैं। डॉ. पांडेय केंद्र सरकार के काबीना मंत्री भी हैं लेकिन टापू के लोग इनके दर्शन के लिए तरस जाते हैं। इलाकाई विधायक अनिल राजभर भी यूपी सरकार के कैबिनेट मंत्री हैंलेकिन इन्हें भी ढाब आईलैंड के कोई चिंता नहीं है।

बनारस के मुस्तफाबाद के डॉ. शशिकांत सिंह बाढ़ और गंगा कटान की भयावहता को दूर से दिखाते हुए कहते हैं, “इलाकाई सांसद और विधायक की विकास की जिद चंदौली और बनारस के किसानों के लिए विनाश की जिद बनती जा रही है। अवैध खनन करने वालों के सिर पर सत्ता पक्ष के बड़े नेताओं के हाथ हैं। जब भी कोई चुनाव आता है तो ग्रामीणों को लुभाने के लिए नेताओं का रेला जुटता है लेकिन मुसीबत के समय कोई दिखता ही नहीं है। इलाके के लोग खासे भयभीत हैं और इन्हें उजाड़ने अथवा विकास के बहाने उजाड़े जाने का डर सता रहा है। कटान रोकने के लिए तटबंध बनाने की बात तो दूर, माझी समुदाय पर पारंपरिक तरीके से बालू निकालने पर रोक लगा दी गई है। नतीजा, चंदौली जिले के कुरहना, कैली, महडौरा, भोपौली समेत कई गांवों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। गंगा के तीरे रहने वाले अन्नदाता चाहते हैं कि सभी गांवों में ट्यूब कटर लगाए जाएं जहां नदी खेतों को तेजी से काटती जा रही है। सवाल यह है कि गंगा कटान रोकने के लिए कौन प्रमुख भूमिका निभाएगा? हम चाहते हैं कि यूपी और केंद्र सरकार दोनों मिलकर ये भूमिका निभाएं, क्योंकि ग्रामीणों की मुश्किलें कम होती नहीं दिख रही हैं।”

गंगा के किनारे बसे गांवों में आर्सेनिक की जांच करने निकले एक्टिविस्ट सौरभ सिंह से मुलाकात हुई तो उन्होंने हालात की भयावहता से रुबरु कराया। बाढ़ की विभीषिका, गंगा कटान और पानी में घुल रहे आर्सेनिक के जहर पर सवाल खड़ा करते हुए सौरभ “न्यूजक्लिक”से कहते हैं, “बनारस से लगायत बलिया तक गंगा के किनारे बसे सभी गांवों में लोग जहरीला पानी पीने के लिए विवश हैं। बलिया और गाजीपुर में स्थिति पहले से ही भयावह थी। अब चंदौली भी आर्सेनिक की भयावहता को शिनाख्त करने लगा है। कुंडा खुर्द, कुंडा कला, मलोखर, मवई कला, सुल्तानीपुर आदि गांवों में लगे हैंडपंप आर्सेनिक उगल रहे हैं। यहां पानी में आर्सेनिक की मात्रा मानक से दोगुना ज्यादा है। वोटबैंक की राजनीति ने चंदौली में बाढ़ की समस्या को नौकरशाही और राजनीति के हाथों की कठपुतली में बदल दिया है। किसानों की तबाही रोकने का इंतजाम करने वाले महकमे हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। हिमालय से आने वाली गाद और रेत खेतों के लिए बहुत ज़रूरी हैं। गंगा में ड्रेजिंग करते समय उनके औचित्य पर विचार नहीं किया जा रहा है। गंगा में जलपोत चलाने के नाम पर ड्रेजिंग के बहाने करोड़ों रुपये बेमतलब के लिए जारी किए जाते हैं क्योंकि गंगा में जलपोत चलाने के लिए कोई कारोबारी तैयार नहीं है।”

“बीजेपी सरकार ने सड़कों का ट्रैफिक कम करने और सस्‍ते में माल डुलाई करने के लिए उत्तर भारत में चार जलमार्ग तय कर रखा है। जल मार्ग पर1500 से 2000 मीट्रिक टन क्षमता वाले जहाजों को चलाने के लिए कैपिटल ड्रेजिंग के जरिए 45 मीटर चौड़ा गंगा चैनल तैयार किया गया है। वाटर-वे तैयार करने का जिम्मा इनलैंड वॉटरवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया (आईडब्ल्यूएआई) को सौंपा गया है। दावा किया गया था कि गंगा में जहाजों से माल ढुलाई से देश की जीडीपी में बढ़ोतरी होगी और आर्थिक क्षेत्र में नए अवसर पैदा होंगे। लेकिन सरकार से कोई यह पूछने वाला नहीं है कि गंगा में आखिर कब चलेंगे जलपोत और कब से शुरू होगी माल की ढुलाई?”

सौरभ कहते हैं, “सिर्फ बड़ा ख्वाब देख लेने भर से कुछ नहीं होता। चंदौली के किसानों के लिए तबाही का सबब बनी वाटर-वे परियोजना पर सरकार को जनता के बीच इसका उजला पक्ष रखना चाहिए। उसे यह जरूर बताना चाहिए कि गंगा में कितने जलपोत चले और कितने माल की ढुलाई हुई? इस योजना से सरकार को कितना मुनाफा हुआ? गंगा के किनारे बसे गांवों में मोटे तौर पर दो ही फसलें होती हैं, लेकिन सरकारी मशीनरी के लिए एक और फसल भी होती है। चाहे बाढ़ आए अथवा सूखा। किसान बेशक बदहाल हो जाते हैं लेकिन राहत के रूप में मिलने वाली धनराशि प्रशासन के लिए तीसरी फसल के रूप में उग आती है। अचरज की बात यह है कि अब तो बाढ़ राहत के तहत बंटने वाले पैसे और सामान को भी वोट बटोरने की राजनीति का एक हिस्सा बना लिया गया है। नौकरशाही और राजनीतिक - सभी का काम बाढ़ से चल रहा है तो कोई इस समस्या का हल क्यों ढूंढेगा?”

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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