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अमेरिकी अर्थव्यवस्था ने जिस एक मामले में शानदार प्रदर्शन किया है, वह है भारी आर्थिक असमानता की उत्पत्ति

अमेरिकी पूंजीवाद में मौजूद इस चरम असमानता की खाई को पाटने के लिए प्रणालीगत बदलावों की जरूरत है, जिससे कि पूंजीवादी व्यवस्था में कामागारों के खिलाफ नियोक्ताओं को भिड़ाने के सिलसिले को खत्म किया जा सके।
अमेरिकी अर्थव्यवस्था
चित्र मात्र प्रतीकात्मक तौर पर।

हाल के वर्षों में अमेरिका के भीतर जिस विशाल पैमाने पर आर्थिक असमानता में इजाफा हुआ है, उस पर एक समझ बनाने के लिए इसके दो मुख्य शेयर बाजार सूचकांकों, द स्टैण्डर्ड एंड पुअर (एसएंडपी) 500 एवं नैस्डेक के विकास पर गौर करने की जरूरत है। पिछले 10 वर्षों के दौरान इन सूचकांकों में दर्ज शेयरों की कीमतों में भारी उछाल देखने को मिला है। एसएंडपी 500 में करीब 1,300 अंकों से इसमें 3,800 तक की बढ़ोत्तरी देखने को मिली है, जो कि तकरीबन तीन गुनी है। वहीँ इसी अवधि के दौरान नैस्डेक का सूचकांक जहाँ 2,800 पर था, उसमें 13,000 सूचकांक तक का उछाल देखने को मिला है, जो कि चार गुने से भी ज्यादा है। यह दौर उन 10% अमेरिकियों के लिए अच्छा गुजरा जिनके कब्जे में 80% स्टॉक्स और बांड्स हैं। इसके विपरीत वास्तविक औसत साप्ताहिक मजदूरी में इन्हीं 10 वर्षों की अवधि में मुश्किल से मात्र 10% ही बढ़ पाई है। चूँकि आधिकारिक तौर पर 2009 से निर्धारित 7.25 डॉलर प्रति घंटे की न्यूनतम मजदूरी की दर में कोई बदलाव नहीं किया गया है, जिसके चलते मुद्रास्फीति ने वास्तविक संघीय न्यूनतम मजदूरी की दर को पहले से लगातार कम करते जाने का काम किया है।

इसी प्रकार बाकी के भी सभी प्रासंगिक लेखा-जोखा इस बात को दर्शाते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका में पिछली आधी सदी से आर्थिक असमानता लगातार बद से बदतर ही हुई है। और यह सब कई वर्षों से अनेकों प्रतिष्ठानों में मौजूद राजनीतिज्ञों (नए बिडेन प्रशासन में शामिल कुछ लोगों सहित), पत्रकारों एवं शिक्षाविदों जैसी नामचीन हस्तियों द्वारा सार्वजनिक तौर पर असमानता को लेकर उनकी “चिंताओं” को व्यक्त करने के बावजूद ऐसा देखने को मिल रहा है। 1970 के बाद से पूंजीवादी मंदी के माध्यम से आर्थिक असमानता की स्थिति बद से बदतर होती चली गई थी, और इसी प्रकार इसे इस सदी में तीन पूंजीवादी मंदियों (2000, 2008 और 2020) के माध्यम से देखा गया है। धन-संपत्ति के शीर्ष पर बैठे लोगों के बीच जारी पुनर्वितरण की दिशा को न तो इस घातक महामारी ने आत्म-चिंतन करने या नीतियों को पलट देने के लिए प्रेरित करने की तो बात ही छोड़ दें, आवश्यक सुधारों के जरिये इस पर रोकथाम तक का प्रयास होता नजर में नहीं आ रहा है।

निरंतर चौड़ी होती अमीरी-गरीबी की इस खाई की वजह से इस प्रकार के विभाजन, कटुता, आक्रोश और गुस्से के प्रवाह को समझने के लिए किसी आधुनिकतम अर्थशास्त्र में महारत हासिल करने की दरकार नहीं है। इन सवालों से जूझते लाखों लोगों के सामने उन लोगों का शिकार बन जाने की संभावना बनी रहती है, जो अपने बचाव का रास्ता खोजने के लिए उन्हें संगठित करते हैं। श्वेत वर्चस्ववादी इसके लिए अश्वेतों और गेंहुए वर्ण के लोगों को इसका जिम्मेदार ठहराते हैं। मूल निवासी (खुद को “देशभक्त” या “राष्ट्रवादी” कहते हैं) इसके लिए अप्रवासियों और विदेशी व्यापार से जुड़े भागीदारों की ओर इशारा करते हैं। कट्टरपंथी इसके लिए उन कम उत्साही और खासतौर पर गैर-धार्मिक लोगों पर आरोप मढ़ते हैं। फासीवादियों ने इन आंदोलनों को आर्थिक तौर पर कमजोर छोटे-व्यवसाय से जुड़े लोगों, बेरोजगार श्रमिकों, और अलगाव में पड़े सामजिक तौर पर बहिष्कृत लोगों को एकजुट कर शक्तिशाली राजनीतिक गठजोड़ बनाने की कोशिश की है। फासिस्टों ने अपने प्रयोजन की खातिर ट्रम्प का जमकर इस्तेमाल किया था। 

इन स्पष्टीकरणों की तलाश में जाने पर अमेरिकी इतिहास एक खास पैनेपन को जोड़ने का काम करता है। 1930 के दशक में ग्रेट डिप्रेशन के बाद के दौर में 20वीं शताब्दी में पूंजीवाद के पक्ष में जो प्रमुख तर्क पेश किया गया था वह यह था कि इसने एक “विशाल मध्य वर्ग को पैदा करने का काम किया है।” इस महामंदी के दौरान भी अमेरिका में वास्तविक मजदूरी की दर में वृद्धि देखी गई थी। दुनिया के बाकी के देशों की तुलना में यह दर आमतौर पर कहीं ज्यादा थी, और विशेषतौर पर तत्कालीन सोवियत समाजवादी गणराज्य संघ या यूएसएसआर की तुलना में इसके अधिक होने का अपना महत्व था। राजनीति, पत्रकारिता और अकादमिक जगत से जुड़े व्यवस्था के समर्थकों के हिसाब से उच्च मजदूरी की दरों ने असल में अमेरिकी पूंजीवाद की श्रेष्ठता को साबित किया था। लेकिन 20वीं सदी के अंत तक आते-आते उस मध्य वर्ग के पतन ने और नई सदी में इसके तेजी से विध्वंश ने विशेष तौर पर उन लोगों को पीड़ा पहुंचाई है, जिन्होंने उस झूठ के भरोसे बैठे हुए थे।

यह एक हकीकत है कि ग्रेट डिप्रेशन और इसके बाद के दौर में आर्थिक असमानता में भारी कमी को देखी गई थी, जिससे पूंजीवाद के इस प्रकार के बचाव को कुछ हद तक वैधता प्राप्त करने में मदद मिली थी। हालाँकि उस बचाव के लिए प्रेरक जो दो महत्वपूर्ण तथ्य हैं, उन्हें या तो भुला दिया गया या छिपा दिया गया।

इसमें सबसे पहली वजह यह थी कि अमेरिकी मजदूर वर्ग ने 1930 के दशक में प्रमुख आर्थिक लाभों के लिए जिस प्रकार से कड़ा संघर्ष चलाया था, वैसा कोई दूसरा उदाहरण अमेरिकी इतिहास में देखने को नहीं मिलता है। कांग्रेस ऑफ इंडस्ट्रियल ऑर्गेनाइजेशन (सीआईओ) ने उस दौरान लाखों की संख्या में लोगों को मजदूर यूनियनों में संगठित करने का काम किया था और दो समाजवादी पार्टियों और एक कम्युनिस्ट पार्टी के लड़ाकों को इस्तेमाल में लाया था। उस दौर में इन पार्टियों ने सर्वकालिक सबसे अधिक संख्यात्मक ताकत और सामाजिक प्रभाव को हासिल करने में सफलता हासिल कर ली थी। यही वह वजह है कि यूनियनों और दलों के एकजुट होने से अमेरिकी इतिहास में पहली बार सामाजिक सुरक्षा, संघीय बेरोजगारी भत्ता, न्यूनतम मजदूरी और विशाल संघीय नौकरी कार्यक्रम की स्थापना को जीतने में सफलता हासिल हुई थी। 

दूसरा तथ्य यह है कि 1930 के दशक और उसके बाद के दौर में पूंजीपतियों द्वारा प्रत्येक श्रमिक-वर्ग की पहल के खिलाफ संघर्ष चलाया गया था। श्रमिक वर्ग के एक बड़े हिस्से द्वारा हासिल “मध्य-वर्ग” की हैसियत (सबके लिए यह नहीं था और विशेषकर अल्पसंख्यकों को यह सौभाग्य नहीं मिला) असल में पूंजीवाद और पूंजीपतियों के कारण नहीं मिली थी। लेकिन निश्चित तौर पर यह पूंजीवाद के पक्ष में चलाया गया एक चालाकी भरा प्रचार था, जिसमें श्रमिक वर्ग को हासिल हो रहे लाभों के लिए पूंजीवाद को इसका श्रेय दिया गया। जबकि पूंजीपतियों की ओर से इसे रोकने के लिए तमाम अड़ंगे लगाई गईं थीं, लेकिन वे इसमें विफल रहे।

उस दौरान अमेरिका में जो आर्थिक गैर-बराबरी में गिरावट दर्ज की गई थी, वह अस्थायी साबित हुई। 1945 के बाद इसे एक बार फिर से निष्प्रभावी बना दिया गया था। खासतौर पर 1970 के बाद से पूंजीवाद से उत्पन्न आर्थिक विषमता के सामान्य प्रक्षेपवक्र को एक बार फिर से शुरू कर उसे वर्तमान दौर तक पहुँचा दिया गया है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो पूंजीवादी उत्पादन के बुनियादी ढांचे में, यह जिस प्रकार से अपने उद्यमों को संगठित करता है, उसने पूंजीपतियों को न्यू डील के आर्थिक विषमता को कम करने वाली नीतियों को उलट कर रख देने के लिए एक बार फिर से तैनात कर दिया। अस्थाई अमेरिकी मध्य वर्ग का अधिकांश हिस्सा अब विलुप्त हो चुका है, और बाकी का बचा-खुचा हिस्सा भी तेजी से विलुप्त होने की कगार पर है। पिछली आधी सदी के दौरान अमेरिकी पूंजीवाद ने हमारे चारों ओर भारी असमानता को अपने चरम पर ला खड़ा कर दिया है। कोई आश्चर्य नहीं कि एक आबादी जिसे एक दौर में पूंजीवाद के समर्थन में आने के लिए राजी कर लिया गया था, क्योंकि इसने एक मध्य वर्ग को पैदा किया था, आज उसे इस पर सवाल खड़े करने के लिए मजबूर कर दिया है।

किसी भी पूंजीवादी उद्यम में नेतृत्वकारी स्थिति, कमान और नियंत्रण बेहद छोटी संख्या वाले अल्पसंख्यक वर्ग के कब्जे में बनी रहती है। इन अल्पसंख्यकों के समूह में नियोक्ताओं का वर्ग जैसे कि मालिक, मालिक का परिवार, बोर्ड में शामिल निदेशकों का समूह या बड़े शेयरधारक ही होते हैं। वहीँ दूसरी तरफ भारी संख्या में कर्मचारियों का वर्ग होता है। 

नियोक्ता वर्ग ही पूरी तरफ से इस बात को निर्धारित करता है कि उस उद्यम में क्या उत्पादित किया जाना है, किस तकनीक को इस्तेमाल में लाना है, कहाँ पर उत्पादन होना है और इससे होने वाले शुद्ध मुनाफे का क्या किया जाना है। कर्मचारी वर्ग को नियोक्ताओं के फैसलों से उपजने वाली स्थितियों पर निर्भर बने रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है, और नीति-निर्धारण में उसकी कोई भूमिका नहीं होती है। उद्यम के शीर्ष पर बने होने की अपनी हैसियत के कारण नियोक्ता इससे प्राप्त होने वाले मुनाफे में से एक हिस्से को (लाभांशों और शीर्ष अधिकारी को मिलने वाले पैकेज के जरिये) खुद को और अधिक समृद्ध करने में इस्तेमाल में लाता है। राजनीति को खरीदने और नियंत्रित करने के लिए वह इससे हासिल होने वाले कुछ मुनाफे को उपयोग में लाता है। इसमें लक्ष्य यह रहता है कि सार्वभौमिक मताधिकार कहीं पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था और आर्थिक असमानता जो इसके जरिये पुनः उत्पादित होती है, उसके दायरे से बाहर न निकल जाए।

अमेरिकी गैर-बराबरी के संकट के गहराते जाने का सीधा सम्बंध इस पूंजीवादी संगठन की उत्पादन प्रकिया-इसकी वर्गीय व्यवस्था से सीधा प्रवाहित होती है। कभी-कभार असाधारण परिस्थितियों के अधीन चले विद्रोही सामाजिक आंदोलनों के चलते इस गैर-बराबरी के खिलाफ अस्थाई जीत जरुर दर्ज हो जाती है। हालांकि यदि इस प्रकार के आंदोलनों से पूंजीवादी संगठन के उत्पादन में बदलाव नहीं होता तो पूंजीपतियों द्वारा ऐसे बदलावों को अस्थाई परिघटना के तौर पर प्रस्तुत कर दिया जाता है।

अमेरिकी पूंजीवाद के भीतर मौजूद इस चरम असमानता को हल करने के लिए प्रणालीगत बदलाव की आवश्यकता है, ताकि पूंजीवाद के भीतर मौजूद विशिष्ट वर्गीय ढांचे को कर्मचारियों के खिलाफ नियोक्ताओं को भिड़ाने के सिलसिले का अंत हो सके। यदि उत्पादन को उद्यमों (फैक्ट्रियों, कार्यालयों, भण्डार गृहों) में संगठित करने के बजाय, लोकतांत्रिक पद्धति-एक श्रमिक, एक वोट के आधार पर श्रमिक सहकारी समितियों के तौर पर संगठित किया जाता है, तो आर्थिक असमानता में काफी हद तक कमी लाई जा सकती है। किसी भी उद्यम में मुनाफे को सभी प्रतिभागियों के बीच में लोकतांत्रिक तरीके से वितरण के फैसले से, बहुसंख्यकों की कीमत पर एक छोटे से अल्पसंख्यक तबके के बीच में अथाह धन-सम्पत्ति के जमा होने की संभावना काफी कम रह जाती है। जिन तर्कों के आधार पर राजाओं को राजनीति से अलग किया गया था, वही तर्क पूंजीवाद के उद्यमों में इसके नियोक्ताओं पर भी लागू होते हैं।

रिचर्ड डी. वुल्फ मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय, एमहर्स्ट में अर्थशास्त्र के मानद प्रोफेसर एवं न्यूयॉर्क के न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी में अंतर्राष्ट्रीय मामलों के स्नातक कार्यक्रम के विजिटिंग प्रोफेसर हैं। 

लेख को इकॉनमी फॉर आल द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जो कि इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की एक परियोजना है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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