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केंद्रीय बजट : तीन मुख्य मुद्दे जिन पर ध्यान देना चाहिए

सरकार के वित्त और नीति को बड़े कॉर्पोरेट से दूर ले जाने और उन्हें लोगों की ओर उन्मुख करने की ज़रूरत है।
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फ़ोटो साभार: MInt

कुछ ही दिनों में यानि 1 फरवरी को आने वाले वित्त वर्ष (2023-24) का केंद्रीय बजट संसद में पेश किया जाएगा। इस कवायद के तहत राजस्व, करों (विशेष रूप से आयकर), घाटे, कर्ज आदि के बारे में अस्पष्ट चर्चा चलाने की प्रथा रही है, जो पूरी की पूरी कवायद उच्च आर्थिक विकास के हवाबाज़ दावों के बारे में होती है। हालांकि यह तर्क दिया जा सकता है कि ये संख्याएं महत्वपूर्ण हैं और देश की भलाई के लिए भी जरूरी हैं। जबकि चर्चा, या बजट खुद ही, वास्तविक दुनिया की उन कुछ प्रमुख समस्याओं को अनदेखा करने या उन पर पर्दा डालने की प्रवृत्ति दिखाता है, जिनका देश के लोग सामना कर रहे हैं। कुछ लोग, इन मुद्दों को यह कहकर ख़ारिज़ कर देते हैं कि बजट से कोई लेना-देना नहीं है, जो कि उन मिथकों में से एक है जिसे सरकारें खुद गढ़ती हैं।

भारत के लोग तीन ज्वलंत आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे हैं और इन्हें निश्चित रूप से वित्त/राजकोषीय नीति उपायों के माध्यम से संबोधित किया जा सकता है। वास्तव में, यदि सरकार उन्हें संबोधित करटी है तो अर्थव्यवस्था के अन्य सभी पहलुओं को संबोधित किया जा सकता है। आइए उन प्रतीन मुद्दों पर एक नजर डालते हैं।

नौकरी, नौकरी, नौकरी

सीएमआईई ने नियमित सर्वेक्षणों के ज़रिए जो आंकड़े इकट्ठा किए हैं उनके अनुसार, पिछले 41 महीनों से, बेरोजगारी दर 6 प्रतिशत से ऊपर रही है, हक़ीक़त में यह अधिकतर समय 7 प्रतिशत से ऊपर रही है। विशेष रूप से देखे तो, दिसंबर 2022 में बेरोज़गारी दर 8.3 प्रतिशत थी, जो जनवरी 2020 में पूर्व-महामारी के स्तर 7.2 प्रतिशत से अधिक थी। दो वर्षों की समान अवधि में, रोजगारशुदा व्यक्तियों की संख्या में थोड़ी कमी आई थी – जो जनवरी 2020 में 41.1 करोड़ से कम होकर दिसंबर 2022 में करीब 41 करोड़ हो गई थी। (नीचे चार्ट देखें)

इस बीच, श्रम भागीदारी दर - कामकाजी उम्र की पूरी आबादी की नज़र में काम करने वाले या काम करने वाले व्यक्तियों का अनुपात - इसी अवधि में 42.9 प्रतिशत से गिरकर 40.5 प्रतिशत हो गया है।

गिरती श्रम भागीदारी दर, उच्च बेरोजगारी और इसके परिणामस्वरूप रोजगारशुदा लोगों की गिरती या स्थिर संख्या का यह घातक संयोजन है जो लोगों के बीच गंभीर संकट की तरफ  इशारा करता है। चूंकि नौकरियां उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए ज़िंदा रहने के लिए परिवारों के हालत के मद्देनजर लोग श्रम बल से बाहर होने का विकल्प भी चुन सकते हैं।

इस चौंकाने वाली बेरोज़गारी की स्थिति के अलावा, कम रोज़गार या छिपी हुई बेरोज़गारी भी है। ऐसा तब होता है जब तकनीकी रूप से लोगों को 'रोज़गारशुदा' गिना जा सकता है, लेकिन वे वास्तव में जीवित रहने के लिए मौसमी और अनियमित रूप से बहुत कम वेतन पर काम कर रहे होते हैं। यह भी याद रखें कि यह एक ऐसी स्थिति है, जब पिछले कुछ वर्षों में ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत काम मांगने वालों की संख्या बढ़ी है।

संक्षेप में, भारत में निरंतर और लगातार बेरोजगारी है, इसका जनसांख्यिकीय लाभांश आपराधिक रूप से बर्बाद हो रहा है। क्या सरकार को इस उम्मीद (जैसा कि वह करती रही है) के बजाय कि निजी पूंजी रोजगार के अवसर पैदा करेगी, खुद सीधे तौर पर इस पर ध्यान नहीं देना चाहिए? उसने ऐसा नहीं किया है - और निजी क्षेत्र में रोजगार पैदा करने में सरकार के अंधविश्वास का परिणाम सिर्फ उपदेशों के रूप में हुआ है जो काम नहीं करता है।

सवाल यह है कि सरकार इसमें क्या कर सकती है? सरकार इसकी शुरुवात सार्वजनिक खर्च में वृद्धि करके कर सकती है, न केवल उन्नत योजनाओं के माध्यम से बल्कि विनिर्माण, निर्माण, बुनियादी ढांचे और सेवाओं में उत्पादक क्षमताओं में भारी निवेश के माध्यम से इसे किया जा सकता है। सरकार कीमती सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने की मुहिम को बंद करके ऐसा कर सकती है जो रोजगार का एक बड़ा स्रोत है और आज भी बना हुआ है। यह अनिवार्य रूप से सामाजिक रूप से वंचित वर्गों पर विशेष ध्यान दे सकती है और केंद्र और राज्य दोनों सरकारों में लाखों रिक्तियों को भर सकती है।

सरकार विदेशी पूंजी को भारत के प्राकृतिक संसाधनों और विविध औद्योगिक क्षेत्रों पर कब्जा करने की अनुमति देना भी बंद कर सकती है। आयात शुल्क में कटौती जिसके कारण भारतीय बाजारों में विदेशी वस्तुओं की बाढ़ आ गई है और इस प्रकार घरेलू क्षेत्र का गला घोंटने से बचने के लिए स्थानीय उद्योग की रक्षा की जरूरत है।

जाहिर है, सरकार बहुत कुछ कर सकती थी लेकिन नहीं कर पाई। आगामी बजट इस दिशा में एक नाई शुरुआत हो सकती है।

अनियंत्रित महंगाई 

दूसरा प्रमुख मुद्दा महंगाई का है। यदि छोटे से समय को छोड़ दें तो लगभग पिछले दो वर्षों से उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति 5-6 प्रतिशत से ऊपर रही है, यह इस या उस जरूरी वस्तुओं की कीमतों में कभी-कभी वृद्धि के साथ नज़र आता है, जैसा कि सांख्यिकी कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक डेटा द्वारा दिखाया गया है। विशेष रूप से, खाना पकाने के तेल, खाना पकाने के ईंधन (एलपीजी) और अब तो गेहूं और आटा (आटा) जैसे स्टेपल में भी आग लग गई है। इनमें से अधिकांश वस्तुओं के महंगे होने के लिए दोषपूर्ण सरकारी नीतियों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। उदाहरण के लिए, तिलहन की खेती के विस्तार में सरकार की ढिलाई, या गेहूं के मामले में, उसकी नीति पिछले साल लड़खड़ा गई थी, निर्यात की उम्मीद में खरीद में भारी गिरावट आई, जो कभी नहीं हुआ था, और निजी निर्यातक-व्यापारियों के पास गेहूं के विशाल भंडार जमा हो गए। व्यापारियों द्वारा अनाज को रोकने से राशन प्रणाली में गेहूं की कमी आई और खुले बाज़ार में कम आपूर्ति रही जिससे जनवरी-2020 से दिसंबर-2022 की अवधि में गेहूं की कीमतों में 21 प्रतिशत की सबसे अधिक वृद्धि हुई है। विभिन्न अन्य आवश्यक खाद्य वस्तुओं और खाना पकाने के ईंधन में भी कीमतों में भारी वृद्धि देखी गई है जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है।

खासतौर पर खाद्य कीमतों में महंगाई/ मुद्रास्फीति ने गरीब तबके की जेब को सीधे लूट लिया है। वैसे भी इन परिवारों को अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा खाने-पीने का सामान खरीदने में खर्च करना पड़ता है। कम आय और अच्छी तनख्वाह वाली नौकरियों की कमी के चलते,  मूल्य वृद्धि और महंगाई के कारण आम परिवार अपना पैसा अपनी जेब से सीधे अमीर व्यापारियों और खाद्य निगमों के खज़ानों में स्थानांतरित करने पर मजबूर हैं। 

कीमतों को नियंत्रित करने के लिए सरकार क्या कर सकती है? बहुत कुछ कर सकती है। यह सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विस्तार कर सकती है, इसके दायरे में खाना पकाने के तेल, दालों आदि जैसी अन्य आवश्यक वस्तुओं को ला सकती है। यह अधिक परिवारों को राशन के तहत कवर कर सकती है, क्योंकि यह अनुमान लगाया गया है कि जनसंख्या वृद्धि ने लगभग 10 करोड़ अधिक लोगों को राशन का पात्र बना दिया है जिन्हे राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (एनएफएसए), 2013 के तहत कवर किया जा सकता है। साथ ही, सरकार को सार्वजनिक खरीद प्रणाली को मजबूत करने और अधिक उपज को इसके दायरे में लाने की जरूरत है। सरकार मौजूदा प्रवर्तन तंत्रों के माध्यम से जमाखोरी और कालाबाजारी के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर सकती है, हालांकि उन्हें मजबूत करने की भी जरूरत होगी। लंबी अवधि में, इसे उन प्रमुख खाद्य पदार्थों के उत्पादन, भंडारण और प्रसंस्करण के विस्तार में अधिक निवेश करने की जरूरत है जो लगातार कमी के कगार पर हैं। इनमें तिलहन, दालें, अन्य अनाज, सब्जियां और फल और समुद्री उत्पाद शामिल हैं। इन सब पर सरकार को खर्च करने और निवेश बढ़ाने की जरूरत है।

वेतन और आमदनी बढ़ाओ 

तीसरा प्रमुख मुद्दा बेहद कम आय है जिसे स्वीकार करने के लिए भारतीयों को मजबूर किया जा रहा है। हालांकि मोदी सरकार ने उपभोक्ता व्यय पर नवीनतम राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन (एनएसओ) के सर्वेक्षण के प्रकाशन की अनुमति नहीं दी है, लेकिन अन्य स्रोतों से संकेत मिल रहे हैं कि घरेलू उपभोक्ता खर्च - जो घरेलू आय का एक प्रॉक्सी है - गिर नहीं रहा है, तो स्थिर है। लोगों के हाथ में अपेक्षित क्रय शक्ति नहीं है। सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी नवीनतम उपलब्ध राष्ट्रीय लेखा डेटा के अनुसार, निजी अंतिम उपभोग व्यय में 2021-22 की तुलना में वित्त वर्ष 2022-23 की दूसरी छमाही में मामूली गिरावट देखी गई है। (नीचे चार्ट देखें)

यह एक अभूतपूर्व और चिंताजनक स्थिति है क्योंकि माना जा रहा है कि महामारी का संकट समाप्त हो चुका है और अर्थव्यवस्था सुधार की राह पर है। याद रखें कि उपभोक्ता खर्च भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला है, जीडीपी का 50 प्रतिशत से अधिक इसी से उत्पन्न होता है। यदि लोगों के हाथों में पर्याप्त क्रय शक्ति नहीं होगी, तो वस्तुओं और सेवाओं की माँग कम होगी। यानी कॉरपोरेट सेक्टर को अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ाने की उम्मीद में दिए गए सारे तोहफे, टैक्स में कटौती और छूट सब बेकार हो जाएंगे। यदि मांग ही नहीं होगी तो कोई अधिक उत्पादन क्यों करेगा?

जहां तक लोगों का संबंध है, बहुत कम मजदूरी का होना जीवन कटु सत्य है, लेकिन अब यह असहनीय सीमा तक पहुंच गया है। 2020-21 में पिछले वार्षिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) से पता चला है कि देश में तीन प्रकार के रोजगारों की औसत मासिक आय बहुत कम है: नियमित श्रमिक 17,572 रुपये कमाते हैं, लेकिन वे ग्रामीण परिवारों का मात्र 13 प्रतिशत हैं, हालांकि 43 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों में; केजुअल श्रमिक जो ग्रामीण क्षेत्रों में सभी घरों का 24 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 13 प्रतिशत हैं, केवल 8,281 रुपये कमाते हैं; और स्व-नियोजित लोगों की कमाई केवल 10,563 रुपये है, जिसमें ग्रामीण क्षेत्रों में सभी घरों का 55 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 33 प्रतिशत हिस्सा इस श्रेणी में आता है। यह अर्थव्यवस्था में ज़िंदा रहने के स्तर की एक तस्वीर पेश करता है। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के अनुसार, कैलोरी और सामान्य आवश्यक घरेलू खर्च के स्वीकृत मानदंडों के आधार पर गणना से संकेत मिलता है कि आज देश में जीवित रहने के लिए चार सदस्यों वाले परिवार के लिए आवश्यक न्यूनतम मजदूरी 26,000 रुपये होनी चाहिए। इस प्रकार यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उपभोक्ता व्यय इतना कम है।

सरकार अपने बजट में राजकोषीय उपायों के माध्यम से क्या कर सकती है? अधिक धन आवंटित करके, सरकार उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य को उत्पादन की सी2 लागत के 1.5 गुना के स्तर तक बढ़ा सकती है। एक मजबूत खरीद प्रणाली के ज़रिए एकमात्र उपाय किसानों के हाथों में पर्याप्त संसाधनों को स्थानांतरित कर सकता है जो भारत की आबादी का बड़ा हिस्सा है। इस तरह के एमएसपी की गारंटी देने वाले कानून के पारित होने के साथ-साथ कृषि श्रमिकों को न्यूनतम मजदूरी के लिए व्यापक कानून बनाने से इसका त्वरित और प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित होगा, और सबसे गरीब और सबसे दलित वर्ग, कृषि मजदूरों के हाथों में पैसा आने में मदद मिलेगी। असंगठित क्षेत्र में उच्च मजदूरी के समान कार्यान्वयन, पेंशन और बीमारी लाभ सहित सभी के लिए सामाजिक सुरक्षा को निधि देने के लिए एक कोष बनाने से बुजुर्गों को एक सम्मानित जीवन प्रदान करते हुए श्रमिक वर्ग के परिवारों को भारी चिकित्सा व्यय से बचाने में मदद मिलेगी। एमएसएमई क्षेत्र को आयात के खतरे से मुक्त करने की जरूरत है और इस प्रमुख क्षेत्र के शुल्क का पुनर्गठन तुरंत करने की जरूरत है। याद रखें कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में करीब दो-तिहाई रोजगार एमएसएमई से पैदा होता है। केवल सस्ता कर्ज़ प्रदान करने से, जिसे पहले ही किया जा चुका, केवल वह काम नहीं करेगा। 

राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत 

इन प्रमुख मुद्दों के अलावा, सरकारी व्यय से जुड़े कई अन्य उपाय हैं जो देश के गरीबों की मदद कर सकते हैं और पूरी अर्थव्यवस्था को ऊपर उठा सकते हैं। अमीरों पर टैक्स लगाकर संसाधन जुटाए जा सकते हैं, जिनके पास पहले से ही देश की संपत्ति का बड़ा हिस्सा है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को बेचकर धन जुटाने या पेट्रोलियम उत्पादों पर उपकर के ज़रिए  लोगों पर अप्रत्यक्ष कर लगाने की नीतियों को रोकने की जरूरत है और एक बढ़ता हुआ आयकर, संपत्ति कर और कॉर्पोरेट टैक्स की बहाली का जरूरत है जिसे वर्तमान सरकार ने 2019 में कम कर दिया था। 

बजट, लोगों को गरीबी से बाहर निकालने और अधिक समतामूलक समाज के निर्माण का साधन बन सकता है - बशर्ते कि ऐसा करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति हो। जनता को इसका इंतजार है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल ख़बर को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

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