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क्यों लगा भारतीय सुप्रीम कोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र का सबसे बड़ा आरोप?

कश्मीर से जुड़े मामलों में सुस्त रहने का गंभीर आरोप लगाते हुए मानवाधिकार से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त रूपर्ट कोलविले ने कहा है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण, आवाजाही की आज़ादी और मीडिया पर प्रतिबंध जैसे मामलों को निपटाने में भारत का सुप्रीम कोर्ट सुस्त रहा है।
Rupert Colville on kashmir
Image Courtesy: latestly

भारत के सुप्रीम कोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र ने अब तक की सबसे गंभीर टिप्पणी की है। कश्मीर से जुड़े मामलों में सुस्त रहने का गंभीर आरोप लगाते हुए मानवाधिकार से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के उच्चायुक्त रूपर्ट कोलविले ने कहा है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण, आवाजाही की आज़ादी और मीडिया पर प्रतिबंध जैसे मामलों को निपटाने में भारत का सुप्रीम कोर्ट सुस्त रहा है। इस आरोप की गम्भीरता इसलिए और बढ़ गयी है क्योंकि यूरोपीय यूनियन का प्रतिनिधिमंडल अनाधिकारिक दौरे पर कश्मीर में है जो यहां अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को हटा लिए जाने के बाद के हालात का जायजा ले रहा है।

भारतीय लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था को दुनिया में सम्मान की नज़र से देखा जाता रहा है। इस नजरिये से भारतीय सुप्रीम कोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र की टिप्पणी नजरअंदाज करने योग्य नहीं है। क्या इस टिप्पणी को राजनीतिक मानकर चुप रहा जा सकता है? क्या इसे नज़रअंदाज कर उस चिंता की अनदेखी की जा सकती है जिसे संयुक्त राष्ट्र व्यक्त करना चाहता है? कश्मीर में स्थिति सामान्य करने को लेकर भारत सरकार के दावे और उन दावों पर संदेह बिल्कुल अलग बात है। यूरोपीय यूनियन के सांसदों को कश्मीर आने की अनुमति देना एक तरह से संदेहों को खत्म करने की पहल जैसा है, हालांकि उसे लेकर भी बहुत सवाल हैं। मगर, भारतीय सुप्रीम कोर्ट पर संयुक्त राष्ट्र की टिप्पणी से कैसे निपटा जाए, यह महत्वपूर्ण प्रश्न है।

सवाल ये है कि सुप्रीम कोर्ट पर कश्मीर को लेकर सुस्ती के आरोप क्यों लग रहे हैं? इसे समझने के लिए हाल में घटी कुछेक घटनाओं पर गौर करना जरूरी है। कश्मीर मसले पर बड़ी संख्या में विचारार्थ पहुंचीं याचिकाओं पर 30 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने कहा था, “हमारे पास इतने मामलों को सुनने का समय नहीं है। हमारे पास सुनवाई के लिए संविधान पीठ का मामला (अयोध्या विवाद) है।” निश्चित रूप से यह टिप्पणी बहुत हल्की टिप्पणी है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी टिप्पणी पर भौहें टेढ़ी होंगी। हालांकि कश्मीर से जुड़ी सभी मामले तत्क्षण न्यायमूर्ति एनवी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ को सौंप दिए गये।

जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला को हिरासत में लेने से लेकर उन्हें नजरबंद करने और जनसुरक्षा अधिनियम की गिरफ्तारी तक की पूरी घटना भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार और भारतीय न्याय व्यवस्था की ओर उंगली उठाने का अवसर देती है। 5 अगस्त की रात से फारुख अब्दुल्ला समेत जम्मू-कश्मीर के कई नेता नजरबंद कर दिए गये। लोकसभा में गृहमंत्री अमित शाह ने 4 बार सफाई दी कि फारुख अब्दुल्ला न नजरबंद हैं और न ही उन्हें हिरासत में लिया गया है। खुद फारूख अब्दुल्ला रोते हुए पत्रकारों के सामने आते हैं कि वे आज़ाद नहीं हैं, नज़रबंद हैं। इस विरोधाभासी स्थिति पर भारत सरकार और न्याय व्यवस्था की खामोशी संदेह से परे नहीं हो सकती।

इसी पृष्ठभूमि में डीएमके नेता वाईको 11 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका डालते हैं। बताते हैं कि उनका अपने मित्र फारूख अब्दुल्ला से संपर्क नहीं हो पा रहा है। 15 सितंबर को अन्ना दुरई के जयंती समारोह में उन्हें शामिल होना है। इस याचिका पर 16 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस भेजा। केंद्र सरकार ने 30 सितम्बर को जवाब दिया कि फारूख अब्दुल्ला को जन सुरक्षा अधिनियम (पीएसए) के तहत 16 सितंबर को तड़के गिरफ्तार किया गया है। इस एक्ट के तहत किसी भी व्यक्ति को 3 महीने से 1 साल तक बिना ट्रायल के हिरासत में रखा जा सकता है।

वाइको की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका खारिज हो गयी कि अब इसकी जरूरत नहीं रह गयी है। वाइको चाहें तो गिरफ्तारी को अलग से चुनौती दे सकते हैं। मगर, कई सवाल अनुत्तरित रह गये-

  • 5 अगस्त और 16 सितम्बर से पहले तक फारूख अब्दुल्ला की गिरफ्तारी नहीं हुई थी, तो वे कहां थे? क्या गृहमंत्री अमित शाह के कहे अनुसार वे अपनी मर्जी से मौज कर रहे थे?

  • क्यों नहीं फारूख अब्दुल्ला को हिरासत में लिए जाने के बाद अदालत में पेश किया गया?

  • क्या हमेशा के लिए शासन-प्रशासन को बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाओं से निबटने के लिए सुरक्षा कवच नहीं मिल गया है?

इंडियन एक्सप्रेस में 17 सितम्बर को छपी खबर के अनुसार पुलवामा हमले के बाद से 4 अगस्त के बीच यानी जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेशों में बांटे जाने से पहले तक जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की श्रीनगर बेंच में बंदी प्रत्यक्षीकरण की 150 याचिकाएं दाखिल की गईं थीं। इनमें से 39 याचिकाओं पर फैसला आया और 80 फीसदी मामलों में पीएसए के तहत हिरासत में लिए गये लोगों को रिहा करने का आदेश आया। इस परिप्रेक्ष्य में चिंताजनक पहलू ये है कि 5 अगस्त के बाद से 4000 से अधिक लोग हिरासत में लिए गये। इनमें से 300 लोगों को पीएसए के तहत हिरासत में लिया गया। मगर, बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाओं की संख्या अगस्त महीने में 15 भी नहीं पहुंच सकी। इसके कारण को समझना अधिक मुश्किल नहीं है।

16 सितम्बर को ही सुप्रीम कोर्ट के सामने नाबालिग को हिरासत में लिए जाने के मामले में यह तथ्य सामने आया कि जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट तक लोगों की पहुंच मुश्किल हो गयी है। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गम्भीर मानते हुए कहा कि वे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से रिपोर्ट तलब करेंगे और जरूरत पड़ी तो जम्मू-कश्मीर भी जाएंगे। जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश से रिपोर्ट मिलने के बाद 20 सितम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट तक लोगों की पहुंच नहीं हो पाने की बात को नकार दिया। मगर, कहा कि इस बारे में उन्हें कुछ ‘परस्पर विरोधी रिपोर्ट’ मिली हैं जिस पर अदालत कोई टिप्पणी करना नहीं चाहती। सुप्रीम कोर्ट से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि ‘परस्पर विरोधी रिपोर्ट’ पर वह टिप्पणी नहीं करे।

टाइम्स ऑफ इंडिया में छपी रिपोर्ट के मुताबिक जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की रिपोर्ट में कहा गया है कि 5 अगस्त को हाईकोर्ट में महज 8 फीसदी उपस्थिति थी। क्या यह इस बात का सबूत नहीं है कि अदालत लोगों की पहुंच से दूर हो गयी थी? हालांकि उसी रिपोर्ट में यह भी उल्लेख है कि 25 सितम्बर तक उपस्थिति 63 फीसदी हो चुकी थी। यह उपस्थिति भी अदालती प्रक्रियाओं के सामान्य होने का प्रमाण नहीं है।

एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि 5 अगस्त और 27 सितम्बर के बीच 284 बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिकाएं जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की श्रीनगर विंग में दायर की गयीं। हालांकि ज्यादातर याचिकाएं सितम्बर महीने की हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि जिला अदालतों ने इस दौरान 30,107 मामले निपटाए और उनके समक्ष 15,533 नये मामले विचार के लिए आए। आम तौर पर आंकड़े उल्टे होते हैं। यानी निपटाए गये मामलों से अधिक नये मामले हुआ करते हैं। साफ है कि अदालतों के कामकाज पर असर पड़ा है और इसके पीछे विघटनकारियों की खुली धमकी और पोस्टर माने गये हैं।

एक तो अन्याय और दूसरा उस अन्याय के विरुद्ध आवाज़ उठाने में हो रही मुश्किल। जम्मू-कश्मीर के लोगों को न्याय के लिए मुश्किल भरे दौर का सामना करना पड़ रहा है। जम्मू-कश्मीर का हाईकोर्ट हो या फिर सुप्रीम कोर्ट आम लोगों के लिए सहज उपलब्ध नहीं रह गया है। इसकी वजह जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट की मुख्य न्यायाधीश की रिपोर्ट के मुताबिक दहशत का माहौल हो या फिर जम्मू-कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा हटा लिए जाने के बाद पैदा हुई स्थिति, इसमें फौरी बदलाव बहुत ज़रूरी हो गया है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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