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ख़बरों के आगे-पीछे: हेट स्पीच देने वालों को रोकेगा कौन?

सुप्रीम कोर्ट ने हाल के दिनों में नफ़रत फैलाने वाले भाषणों को लेकर बेहद सख़्त टिप्पणियां की तो कई लोगों को लगा कि वाकई सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले में गंभीर है लेकिन लोगों की यह उम्मीद ज़्यादा देर तक कायम नहीं रह सकी।
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विक्टोरिया गौरी : फोटो साभार PTI

तो सुप्रीम कोर्ट में ऐसे ही होंगी नियुक्तियां?

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पांच जजों की नियुक्ति की मंजूरी दे दी। लेकिन यह नियुक्ति आसानी से नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने 13 दिसंबर को ही इन पांच नामों की सिफारिश केंद्र सरकार के पास भेजी थी। लेकिन सरकार 20 दिन से ज्यादा समय तक इन सिफारिशों को लेकर बैठी रही। तब पिछले हफ्ते शुक्रवार को सर्वोच्च अदालत ने नाराजगी जताई। जस्टिस एसके कौल और जस्टिस एएस ओका की पीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान चेतावनी देने के अंदाज में केंद्र सरकार से कहा कि जजों की नियुक्ति के मामले में देरी हुई तो प्रशासनिक और न्यायिक दोनों तक कार्रवाई हो सकती है। तब अटॉर्नी जनरल ने कहा कि सरकार जल्दी ही पांच नामों को मंजूरी देगी। इसके एक दिन बाद शनिवार को पांच जजों के नाम की मंजूरी दी गई। हालांकि इसके साथ ही कानून मंत्री किरेन रिजीजू ने मीडिया की इन खबरों को खारिज किया कि अदालत ने सरकार को चेतावनी दी। उन्होंने कहा कि कोई किसी को चेतावनी नहीं दे सकता है। लेकिन असलियत यही है कि सर्वोच्च अदालत के नाराजगी जताने के बाद ही केंद्र ने पांच नामों की मंजूरी दी। इसीलिए सवाल है कि क्या हर बार सुप्रीम कोर्ट को इसी तरह से चेतावनी देनी होगी तभी केंद्र सरकार नामों को मंजूरी देगीऐसा लग रहा है कि सरकार कानूनी रूप से कॉलेजियम की सिफारिशों को मंजूरी देने के लिए बाध्य है लेकिन वह सिफारिशों को लंबित रख कर न्यायपालिका पर अपनी सर्वोच्चता दिखाने की कोशिश कर रही है और दबाव डाल रही है कि वह जजों के लिए सर्च पैनल बनाने के केंद्र सरकार के सुझाव को स्वीकार करे। हालांकि सुप्रीम कोर्ट सरकार की ऐसी मंशा को खारिज कर चुका है।

महिला आरक्षण से क्यों मुंह चुराया जा रहा है?

यह हैरानी की बात है कि महिला आरक्षण विधेयक की अब कोई चर्चा नहीं होती है। विधायिका में महिलाओं की संख्या अब भी बहुत कम है इसके बावजूद सभी राजनीतिक दल खामोश हैं। भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार है और जिस तरह से उसने जोर जबरदस्ती कई विधेयक पास कराएअगर चाहती तो कब का महिला आरक्षण विधेयक भी पास करा चुकी होती। लेकिन भाजपा की प्राथमिकता में यह विधेयक नहीं है। यूपीए सरकार के समय 2010 में यह विधेयक राज्यसभा में भाजपा के समर्थन से पारित हो चुका है लेकिन लोकसभा में आज तक पारित नहीं हो पाया। अब दोनों ही बडी पार्टियां इस विधेयक की चर्चा नहीं करती है। देश भर के स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50 फीसदी तक के आरक्षण की व्यवस्था लागू की जा रही है पर संसद और विधानमंडलों में 33 फीसदी आरक्षण की बात नहीं हो रही है। बजट सत्र से पहले कई पार्टियों ने सरकार की ओर से आयोजित सर्वदलीय बैठक में यह मुद्दा उठाया। कई क्षेत्रीय पार्टियां चाहती हैं कि सरकार यह विधेयक पेश करे। लेकिन ऐसा लग रहा है कि भाजपा आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग की वजह से पहल नहीं कर रही है। उसे लग रहा है कि इससे पिछड़े समूह नाराज हो सकते हैं। दूसरा उसे यह भी लग रहा है कि महिलाएं पहले ही नरेंद्र मोदी के प्रति आस्था दिखाते भाजपा को वोट दे रही हैइसलिए अभी इस विधेयक को छेड़ने की जरूरत नहीं है।

हेट स्पीच को लेकर सुप्रीम कोर्ट की चिंता का क्या अर्थ है?

सुप्रीम कोर्ट ने हाल के दिनों नफरत फैलाने वाले भाषणों हेट स्पीच को लेकर बेहद सख्त टिप्पणियां की तो कई लोगों को लगा कि वाकई सुप्रीम कोर्ट अब इस मामले में गंभीर है लेकिन लोगों की यह उम्मीद ज्यादा देर तक कायम नहीं रह सकी। जब सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम ने मद्रास हाई कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में लक्ष्मण चंद्रा विक्टोरिया गौरी की नियुक्ति की सिफारिश की तो लोगों को बहुत हैरानी और निराशा हुई। हैरानी इस बात को लेकर नहीं कि गौरी तमिलनाडु में भाजपा के महिला मोर्चा की संयोजक रही हैं। राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले वकील पहले भी जज बनते रहे हैं लेकिन विक्टोरिया गौरी का मामला उन सबसे जुदा है। वे भाजपा नेता के रूप में ईसाई और मुस्लिम समुदाय के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक बयान देती रही हैं। यह जानते हुए भी कॉलेजियम ने उनके नाम की सिफारिश कीजिसे केंद्र सरकार ने मंजूरी देने में जरा भी देर नहीं लगाई और केंद्र की सिफारिश पर राष्ट्रपति कार्यालय ने भी तुरत-फुरत वारंट जारी कर मद्रास हाई कोर्ट के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश को गौरी को शपथ दिलाने के लिए कह दिया। इसी बात को लेकर सुप्रीम कोर्ट में वकीलों ने एक याचिका दायर कर जज के पद पर गौरी की नियुक्ति को चुनौती दी थीजिसे संक्षिप्त सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। सवाल है कि जब अदालतों में हेट स्पीच के आरोपी रहे लोग ही जज बन जाएंगे तो फिर हेट स्पीच देने वालों को रोकेगा कौन?

कोरोना की पाबंदियां सिर्फ़ संसद में ही क्यों?

भारत में कोरोना वायरस की महामारी लगभग खत्म हो गई है। इसे लेकर देश में कहीं भी कोई पाबंदी नहीं है। ट्रेन से लेकर हवाईजहाज तक सब पूरी क्षमता से चल रहे हैं। प्रधानमंत्री सहित भी नेताओं की बड़ी-बड़ी रैलियां हो रही हैं स्कूलकॉलेज से लेकर सरकारी दफ्तर तक सब जगह पाबंदी हटा दी गई है। लेकिन देश की संसद एकमात्र ऐसी जगह हैजहां कोरोना के समय की पाबंदियां अभी तक लागू हैं। कई सांसदों ने इसकी शिकायत की है लेकिन उनकी शिकायत के आधार पर चालू सत्र में भी सुधार की कोई संभावना नहीं दिख रही है। सांसदों ने इस बात पर नाराजगी जताई है कि लोगों की संख्या नियंत्रित करने के नाम पर उनके निजी स्टाफ को संसद परिसर में आने से रोका जा रहा है। सांसदों का कहना है कि संसद की दर्शक दीर्घा पूरी तरह से खोल दी गई है। हर दिन की कार्यवाही में दर्शक दीर्घा पूरी तरह से भरी रहती हैलेकिन सांसदों के सहायकों को रोका जा रहा है। इसी तरह की शिकायत पत्रकारों की भी है। कोरोना के समय पत्रकारों की संख्या सीमित की गई थी। वह व्यवस्था अभी भी जारी है। अब भी चुनिंदा पत्रकारों को ही संसद में जाने की अनुमति है। उम्मीद की जा रही है कि नए संसद भवन का उद्घाटन होने और वहां कार्यवाही शुरू होने के बाद शायद ये पाबंदियां हटें।

महाराष्ट्र में भाजपा को तगड़ा झटका

महाराष्ट्र में विधान परिषद के शिक्षक और स्नातक क्षेत्रों के चुनाव में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा है। उसे सिर्फ कोंकण क्षेत्र की एक सीट पर जीत मिली है। इसके अलावा वह उम्मीद कर रही है कि नासिक से जीते निर्दलीय उम्मीदवार सत्यजीत तांबे भाजपा में शामिल हो सकते है। हालांकि वे कांग्रेस में थे और कांग्रेस ने उनके पिता सुधीर तांबे को टिकट दिया था। पर उन्होंने नामांकन नहीं दाखिल किया और उनकी जगह उनके बेटे सत्यजीत तांबे ने परचा दाखिल कर दिया। बाद में कांग्रेस ने वहां भाजपा की बागी नेता शुभांगी पाटिल को समर्थन दिया था। हालांकि सत्यजीत तांबे क्या करेंगे, यह किसी को अंदाजा नहीं है। अगर उनकी सीट छोड़ दे तो महाविकास अघाड़ी को तीन और भाजपा को सिर्फ एक सीट मिली है। भाजपा को सबसे बड़ा झटका नागपुर में लगा है। आरएसएस का मुख्यालय और नितिन गडकरी व देवेंद्र फड़नवीस का गृह क्षेत्र होने के बावजूद वहां भाजपा के सीटिंग एमएलसी नागो गनार चुनाव हार गए। महाविकास अघाड़ी के उम्मीदवार सुधाकर अदबाले ने उनको बड़े अंतर से हराया। अमरावती और औरंगाबाद सीट पर पर भी अघाड़ी के उम्मीदवार चुनाव जीते। इस तरह तीन सीट पर अघाड़ी और कोकण में भाजपा जीती। नासिक में निर्दलीय सत्यजीत तांबे जीते हैं। महाराष्ट्र में पिछले साल सत्ता बदल के बाद यह पहला बड़ा मौका थाजिसमें भाजपा को तगड़ा झटका लगा है। इसलिए शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट के साथ तालमेल और शिंदे को मुख्यमंत्री बनाए रखने पर भाजपा नए सिरे से विचार कर रही है।

कर्नाटक में भी भाजपा की मुश्किलें कम नहीं

कर्नाटक के चुनाव में महज दो महीने बाकी हैं। अप्रैल-मई में राज्य विधानसभा का चुनाव होने वाला है और भाजपा सबसे अधिक दुविधा में दिख रही है। पार्टी कुछ भी तय नही कर पा रही है। छह महीने से ज्यादा समय से प्रदेश अध्यक्ष बदले जाने की चर्चा है लेकिन वह बदलाव नहीं हुआ। राज्य की मंत्रिपरिषद में भी फेरबदल नहीं हो पाया है। मुख्यमंत्री बार-बार दिल्ली के चक्कर काट रहे हैं और यह भी संकेत दे चुके हैं कि नए मंत्रियो के नाम पर पार्टी आलाकमान की सहमति मिल गई है। फिर भी मंत्रिपरिषद का विस्तार नही हो रहा है। मुख्यमंत्री बदले जाने की चर्चा बंद हो गई है लेकिन यह चर्चा शुरू है कि अगर भाजपा चुनाव जीती तो बसवराज बोम्मई दोबारा मुख्यमंत्री नहीं बनेंगे। इससे लिंगायत समुदाय में कंफ्यूजन है। कहा जा रहा है कि चुनाव में अगर भाजपा जीतती है तो गुजरात की तरह पूरी सरकार बदली जा सकती है यानी सारे नए लोग मुख्यमंत्री और मंत्री बनेंगे। भाजपा ने जिस अंदाज में वोक्कालिगा समुदाय के वोटों के लिए जोड़-तोड़ शुरू की है, उससे भी पार्टी के प्रमुख मतदाता समूह यानी लिंगायत में दुविधा है। दूसरी ओर यह चर्चा भी है कि राज्य में गुजरात की तरह एक तिहाई विधायकों के टिकट कट सकते हैं। इससे विधायकों में भगदड़ मची हुई है। कुल मिला कर चुनाव से पहले सब कुछ बिखरा हुआ दिख रहा है।

दिल्ली में मेयर तो भाजपा का ही बनेगा!

दिल्ली नगर निगम के चुनाव में भाजपा स्पष्ट रूप से हार चुकी है और बहुमत आम आदमी पार्टी के पास हैलेकिन इसके बावजूद भाजपा हर कीमत पर अपना मेयर बनाना चाहती है। दिल्ली प्रदेश भाजपा के पूर्व अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने चुनाव नतीजे आने के बाद यह बात कही भी थी। उनके अध्यक्ष रहते ही भाजपा दिल्ली नगर का चुनाव हार गई थी लेकिन उन्होंने उसी समय ऐलान किया था कि दिल्ली में मेयर तो भाजपा का ही बनेगा। हालांकि दिल्ली विधानसभा में भाजपा विधायक दल के नेता रामवीर सिंह विधूड़ी ने अपनी ओर से कह दिया था कि भाजपा मेयर का चुनाव नहीं लड़ेगी। उन्होंने कहा था कि आम आदमी पार्टी जीती है तो वह अपना मेयर बनाएगी और भाजपा निगम के कामकाज में सहयोग करेगी। लेकिन लगता है कि यह उनका निजी बयान थाजो उन्होंने लोकतांत्रिक तकाजों के अनुरूप दिया था। असल में तो भाजपा ने चुनाव हारने के बाद भी ठान लिया है कि मेयर उसी का होगा। बीते सोमवार को तीसरी बार जब मेयर का चुनाव टला तब भी दिल्ली से भाजपा के सांसद हंसराज हंस ने ट्विट करके कहा कि मेयर भाजपा का ही बनेगा। अगर भाजपा को मेयर नहीं बनाना होता है और वह प्रतीकात्मक रूप से चुनाव लड़ रही होती तो अब तक चुनाव हो चुका होता। छह जनवरी, 24 जनवरी और छह फरवरी को तीन बार सदन की बैठक हुई और हंगामे की वजह से मेयर का चुनाव नहीं हो सका तो इसका मतलब साफ है कि भाजपा अपना मेयर बनाने को लेकर गंभीर है। पहले भाजपा और आप के वोट मे बहुत अंतर था। परंतु उप राज्यपाल की मदद से अब अंतर कम हो गया है।

पूर्वोत्तर में भाजपा ही बी टीम है!

पूर्वोत्तर में इस समय दिलचस्प राजनीति हो रही है। वहां तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और चुनाव लड़ रही हर छोटी-बड़ी पार्टीएक दूसरे को किसी न किसी पार्टी की बी टीम बता रही हैं। चुनाव प्रचार के लिए त्रिपुरा पहुंचीं तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी लेफ्ट की बी टीम है। इसके जवाब में कांग्रेस और लेफ्ट के नेताओं ने कहा है कि ममता की पार्टी भाजपा की बी टीम है और भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए चुनाव लड़ रही है। आरोप-प्रत्यारोप के इस सिलसिले में त्रिपुरा की पार्टी टिपरा मोथा के नेता प्रद्योत देबबर्मा ने केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बयान का तीखा जवाब दिया। त्रिपुरा में अमित शाह ने आरोप लगाया था कि कांग्रेस और लेफ्ट मिल कर लड़ रहे है लेकिन परदे के पीछे से टिपरा मोथा के साथ भी उनका तालमेल है। उन्होंने कहा था कि टिपरा मोथा एक तरह से कांग्रेस और लेफ्ट की बी टीम है। मजेदार बात यह है कि दो फरवरी को नाम वापसी के थोड़े दिन पहले तक भाजपा के नेता टिपरा मोथा के साथ तालमेल की बात कर रहे थे। प्रद्योत देबबर्मा और उनकी पार्टी के तमाम नेताओं के साथ दिल्ली में भाजपा के आला नेताओं की बैठक हुई थी और अब अमित शाह उसे कांग्रेस और लेफ्ट की बी टीम बताया। प्रद्योत देबबर्मा ने इसका तीखा जवाब दिया और कहा कि भाजपा को अधिकार नहीं है कि वह पूर्वोत्तर की किसी पार्टी को किसी दूसरी पार्टी की बी टीम बताए क्योंकि पूर्वोत्तर में ज्यादातर जगह भाजपा ही बी टीम है। तकनीकी रूप से देबबर्मा की बात सही भी है। त्रिपुरामणिपुर और असम को छोड़ कर पूर्वोत्तर के चार राज्यों में भाजपा प्रादेशिक पार्टियों की बी टीम है। मेघालय में वह सरकार में शामिल थी लेकिन उसके सिर्फ दो विधायक जीते थे। इसी तरह नागालैंड में वह सत्तारूढ़ एनडीपीपी सहयोगी पार्टी है। सिक्किम में पवन चामलिंग की पार्टी के विधायक बाद में भाजपा से जुड़े तो उसकी संख्या 12 पहुंची वहां भी वह प्रेम सिंह तमांग की पार्टी की बी टीम है। मिजोरम में भी भाजपा का सिर्फ एक विधायक है। प्रद्योत देबबर्मा ने यह भी याद दिलाया कि कुछ समय पहले तक भाजपा असम में भी असम गण परिषद की बी टीम थी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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