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राजनीतिक प्रचारक के रूप में सरकारी अधिकारियों का इस्तेमाल ग़लत 

सरकारी अधिकारी प्रचारक नहीं हैं—भाजपा की इस नई सोच का विरोध इसी बुनियादी सिद्धांत से शुरू होता है।
politics
प्रतीकात्मक तस्वीर।

पिछले लगभग एक दशक में, आप संघ परिवार, खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसकी सरकारों की उन्मत्त गतिविधियों से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि भारत में चुनाव का समय आ गया है क्योंकि भाजपा चुनाव प्रचार के लिए सब कुछ तैनात करने को तैयार रहती है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आदर्श आचार संहिता (MCC) को न माना जाए क्योंकि कमजोर होती संस्थाएं- इस मामले में जैसे भारतीय चुनाव आयोग (ECI)- कोई रोक नहीं लगा पाती हैं।

केंद्र सरकार ने 17 अक्टूबर को एक सर्कुलर जारी कर मोदी शासन की उपलब्धियों का प्रचार/जश्न मनाने के लिए 20 नवंबर से 26 जनवरी के बीच देश के सभी 765 जिलों में सरकारी अधिकारियों की तैनाती का आदेश दिया है। आइए उक्त तारीखों के बीच की कुछ तारीखें याद करें। मिजोरम में विधानसभा चुनाव 7 नवंबर को निर्धारित हैं; तेलंगाना में 30 नवंबर; छत्तीसगढ़ में 7 और 17 नवंबर; मध्य प्रदेश में 17 नवंबर; और राजस्थान में 25 नवंबर। मतगणना और नतीजे 3 दिसंबर को आने हैं।

9 अक्टूबर को चुनाव कार्यक्रम की घोषणा होने के बाद चुनाव आचार संहिता तुरंत प्रभाव से लागू हो गई है।

विपक्ष और नागरिक समूहों ने इसकी निंदा की है और कहा है कि किसी विशेष सरकार की 'उपलब्धियों' को प्रचारित करने के लिए स्थायी सरकारी कर्मचारियों की तैनाती चुनाव आचार संहिता और सेवा नियमों दोनों के खिलाफ है। सरकार के समर्थक प्रचार के दौरान यह तर्क दे सकते हैं कि इन तारीखों में केवल राजस्थान और तेलंगाना में ही चुनाव होने हैं, लेकिन इससे वह बात छूट जाती है कि चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है या किसी भी समय, किसी भी हालात में तथा किसी भी स्थान पर पक्षपातपूर्ण उद्देश्यों के लिए सरकारी कर्मचारियों को तैनात नहीं किया जा सकता है।

प्रचार की यह योजना सीधे तौर पर राजस्थान और तेलंगाना में भाजपा के चुनाव अभियान का हिस्सा होंगी और अगले साल मई के आसपास होने वाले संसदीय चुनावों के लिए चुनाव अभियान का भी मंच तैयार करेगी। यह सरकारी तंत्र का खुला दुरुपयोग है।

इसमें एक अतिरिक्त मुद्दा भी है: विकसित भारत संकल्प यात्रा, जिसमें सरकारी अधिकारियों की तैनाती एक बड़ा मुद्दा जुड़ा है, में प्रचार सामग्री के रूप में अंग्रेजी, हिंदी, पंजाबी और उर्दू में 3.34 करोड़ कैलेंडर, 88 लाख पॉकेट बुकलेट और 1.67 करोड़ ब्रोशर की छपाई शामिल है। यह भाजपा के प्रचार के लिए सार्वजनिक धन के इस्तेमाल के बराबर है।

यहां याद दिला दें कि 1971 के संसदीय चुनावों में इंदिरा गांधी ने राज नारायण को हराकर रायबरेली से लोकसभा चुनाव जीता था, न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने मुख्य रूप से इस आरोप में चुनाव अमान्य करार दिया था कि इंदिरा गांधी ने पहले एक सरकारी कर्मचारी यशपाल कपूर की सेवाओं का इस्तेमाल किया, उनके अभियान में मदद की और फिर उनके चुनाव एजेंट के रूप में काम किया था। उक्त निर्णय इस तथ्य के बावजूद आया कि उन्होंने तर्क दिया कि कपूर ने अभियान में शामिल होने से पहले 13 जनवरी को अपना इस्तीफा सौंप दिया था, जो इस्तीफा 14 जनवरी से प्रभावी होना था। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि इस बात का कोई सबूत नहीं है कि कपूर ने 7 जनवरी की शुरुआत में उनकी उम्मीदवारी का समर्थन करते हुए भाषण दिया था। दूसरे शब्दों में, हर कोई इस बता को मान सकता है कि न्यायालय ने ईमानदारी और नियमबद्ध आचरण के उच्चतम मानकों को बनाए रखने के लिए जय प्रकाश नारायण को संदेह का लाभ दिया था।

अब यह सब चुनाव आयोग पर निर्भर है कि वह इस पर जल्दी से निर्णय ले, यह देखते हुए कि उसे विपक्ष और अन्य लोग इस बाबत पहले ही ज्ञापन दे चुके हैं। इस पर गौर करते हुए कि यह महत्वपूर्ण संस्थान शासन के अधीन हो गया है। हमें सामूहिक रूप से इस पर कुछ करने की जरूरत है। चुनाव आयोग ने सरकार और उसके समर्थकों को यहां तक कि सबसे गंभीर उल्लंघनों के बावजूद भी छूट देने की एक बेहतरीन तकनीक विकसित की है: अभियान और मतदान की पूरी अवधि के दौरान शिकायतों/ज्ञापनों पर कोई कार्यवाई न करना और जब चुनाव निपट जाए और सारी प्रक्रिया खत्म हो जाए तो की गई शिकायत पर एक निरर्थक निर्णय दे देना।

ये सभी घटनाक्रम, राजनीतिक विरोधियों और असहमत लोगों पर हमला करने के लिए कानून प्रवर्तन एजेंसियों को मजबूत करने से भी जुड़ा हुआ है। एक टिप्पणीकार ने सही डर व्यक्त किया है कि लेखिका-टिप्पणीकार अरुंधति रॉय पर 2010 में खारिज किए गए आरोप को फिर से जीवित करके मुकदमा चलाना एक इम्तिहान का मामला है, जिसे अगर अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा अनुमति दी जाती है जो अक्सर उनकी प्रशंसा करता है, तो मोदी निज़ाम के होंसले बढ़ जाएंगे और निज़ाम संविधान को कचरे के डब्बे में डालने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित होगा, और राष्ट्र एक-दलीय शासन व्यवस्था की दिशा में बढ़ जाएगा।

जब दलितों और आदिवासियों के अधिकारों की वकालत करने वाले असंतुष्टों को भीमा-कोरेगांव मामले में फंसाया गया था तो आधी रात को उनके दरवाजे पर दस्तक देना राज्य के दमन का हिस्सा बन गया था। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रारंभिक F.I.R. में नामित दो लोग, मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिड़े, वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अन्य लोगों के 'गुरुजी' थे जिनके खिलाफ उचित कार्रवाई नहीं की गई और जब महा विकास अघाड़ी सरकार इसे फिर से पटरी पर लाने की योजना बना रही थी तो मामले को राष्ट्रीय जांच एजेंसी को स्थानांतरित कर दिया था।

उसके बाद से ही, सरकार के आलोचकों और विरोधियों का उत्पीड़न करने और चुप कराने के लिए 'लव जिहादी' और 'अर्बन नक्सल' जैसे अर्थहीन वाक्यांशों का आविष्कार भी हुआ।

संवैधानिक लोकतंत्र की संस्थागत और वैचारिक नींव को तबाह करने के प्रयासों की कीमत सरकारी खजाने को चुकानी पड़ती है - संयोगवश, ये हम ही हैं। वे सभी जिन्होंने मोदी के इस वादे के आधार पर इस उनकी सरकार को दो बार वोट दिया कि न तो वे भ्रष्टाचार में शामिल होंगे और न ही दूसरों को ऐसा करने देंगे। वे लोग अब सरकार के लगभग एक दशक के कार्यकाल के रिकॉर्ड की जांच कर सकते हैं। पीछे की ओर जाएं तो, हमने देखा कि कैसे अपना काम ठीक से करने और भारतमाला और आयुष्मान भारत योजनाओं में 'अनियमितताएं' यानी भ्रष्टाचार खोजने का साहस करने के लिए नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक कार्यालय के तीन अधिकारियों का स्थानांतरण कर दिया गया।

सरकार के समर्थकों का कहना है कि आरोप बहुत लगे हैं लेकिन कुछ भी साबित नहीं हुआ है। यदि कुछ भी साबित नहीं हुआ है तो यह उस कफन के कारण है जो लूट पर पर्दा डालता है। कोविड-19 से निपटने के लिए एक फंड बनाया गया जिसकी आज तक कोई जवाबदेही नहीं है, इसका सबसे बुनियादी उदाहरण है। प्रधानमंत्री सिटिज़न असिस्टेंस एंड रिलीफ़ इन एमर्जेंसी सिचुएशन (PMCARES) फंड इस स्पष्ट शर्त के साथ बनाया गया था (ऐसे कई कोषों के अस्तित्व के बावजूद) कि यह किसी भी ऑडिट के अधीन नहीं होगा - यहां तक कि सीएजी भी इसका ऑडिट नहीं कर सकती थी। तर्क यह दिया गया कि चूंकि केवल नागरिक दान करेंगे, इसलिए ऑडिट जरूरी नहीं है। बाद में हमें पता चला कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम दान देने में सबसे आगे थे। इसका मतलब है सार्वजनिक धन, जिसका हमेशा ऑडिट होना चाहिए। चुनावी बांड योजना पर भी यही बात लागू होती है। यह अनिवार्य रूप से अपने मित्रों को सत्ताधारी पार्टी को बेहिसाब धन से वित्त पोषित करने की अनुमति देने का काम करता है – जो धन के दुरुपयोग का एक सुविधाजनक तंत्र साबित हुआ है।

इस सरकार से पहले यूपीए की दो सरकारें भ्रष्टाचार के कई आरोपों में फंस गईं थी – जिसमें 2जी, कोयला घोटाला और राष्ट्रमंडल खेल घोटाले, सबसे प्रमुख थे। लेकिन इन सभी की जांच ऊंचे स्तर पर की गई - एक संयुक्त संसदीय समिति ने 2जी मामले की जांच की जबकि केंद्रीय जांच ब्यूरो ने राष्ट्रमंडल और कोयला मामलों की जांच की। अब तक, मोदी शासन किसी भी बड़े घोटाले या आरोप की किसी भी स्तर पर जांच के लिए सहमत नहीं हुआ है।

नौकरशाही का इस्तेमाल करने का प्रयास जो पहले से ही सीएजी अधिकारियों के खिलाफ की गई कार्रवाई से परेशान है और चुनाव प्रचार के लिए सार्वजनिक धन को इस बिंदु पर केवल चुनाव आयोग ही रोक सकता है, क्योंकि इसकी संभावना नहीं है कि न्यायपालिका इसमें हस्तक्षेप करेगी। यह कार्यपालिका का अधिकार क्षेत्र है जब तक कि 'स्वतंत्र और निष्पक्ष' चुनाव सुनिश्चित करने वाली वैधानिक संस्था अपना काम नहीं करती है।

इसका मतलब यह है कि जल्दबाजी में कुछ भी नहीं होगा और देश एक राष्ट्र, एक राज्य, एक चुनाव, एक पार्टी और ढाई नेताओं के जाल में फंस जाएगा जब तक कि उन्हें वोट की ताकत से नीचे नहीं लाया जाता।

( अपडेट: चुनाव आयोग ने विकसित भारत संकल्प यात्रा में नौकरशाहों के इस्तेमाल पर लगाई रोक: भारत के चुनाव आयोग ने कल जारी एक बयान में कहा है कि जिन पांच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं वहां विकसित भारत संकल्प यात्रा में सरकारी अधिकारियों/नौकरशाहों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। )

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं लेखक हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।)

अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Everything Wrong With Government Officers as Political Campaigners

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