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मनरेगा मज़दूरों के मेहनताने पर आख़िर कौन डाल रहा है डाका?

"किसी मज़दूर ने 40 दिन, तो किसी ने 35, तो किसी ने 45 दिन काम किया। इसमें से बस सब के खाते में 6 दिन का पैसा आया और बाकी भुगतान का फ़र्ज़ीवाड़ा कर दिया गया। स्थानीय प्रशासन द्वारा जो सूची उन्हें दी गई है, उनमें ऐसे लोगों का नाम शामिल है, जिन्होंने मनरेगा में काम किया ही नहीं किया। यानी लिस्ट फ़र्ज़ी है।"
mnrega workers
अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे मनरेगा मज़दूर

सीतापुर जिले के बिसवां स्थित सकरन ब्लॉक के तहत आने वाले भिटमनी गाँव में पिछले 15 दिनों से कई मनरेगा मजदूर अनिश्चितकालीन धरने पर बैठे हैं। इस धरने में महिला, पुरुष, दोनों की भागीदारी है। हर दिन धरने में आने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ रही है क्योंकि सब खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। इनके मेहनत का पैसा हड़प लिया गया है।

करीब डेढ़ साल पहले ( दिसंबर 2020 से जनवरी 2021 के तहत आई मनरेगा योजना)  जिस सेठिया तालाब की खुदाई के काम में इन मजदूरों ने अपना खून पसीना बहाया, नौ नौ घंटा काम किया उसका पैसा अभी तक इन्हें नहीं मिला है जबकि सब जॉब कार्ड धारक हैं। मजदूरों का बैंक खाता खाली है, लेकिन अधिकारी कहते हैं मनरेगा के तहत जो काम हुआ उसका पैसा तो निकल चुका है। तो आखिर वे पैसा गया कहाँ, यही इन मजदूरों का सवाल है। 

क्या है यह पूरा मामला इस की पड़ताल करने के लिए यह रिपोर्टर बिसवां स्थित सकरन ब्लॉक के भिटमनी गाँव पहुँची।  

सुबह के तकरीबन दस बज रहे थे, जब यह रिपोर्टर लखनऊ से बिसवां के भिटमनी गाँव पहुँची। पेड़ों के झुरमुट के नीचे तिरपाल बिछाकर, अखिल भारतीय खेत एवं ग्रामीण मजदूर सभा के बैनर तले कुछ मजदूर बैठे हुए थे। इन्हीं में  से एक थे संतराम जी, जो ग्रामीण मजदूर सभा के स्थानीय नेता हैं और विभिन्न मुद्दों पर लंबे समय से मजदूर और किसान की लड़ाई लड़ रहे हैं। वे बताते हैं कि चूँकि सुबह-सुबह मजदूर अपने दैनिक कामों के वास्ते कुछ समय के लिए घर चले जाते हैं इसलिए सुबह कुछ संख्या कम हो जाती है, लेकिन फिर धीरे-धीरे आने का सिलसिला शुरू हो जाता है। इसमें महिलाएँ भी शामिल होती हैं। 

वे आगे कहते हैं लेकिन धरना स्थल पूरी तरीके से खाली कभी नहीं रहता चाहे मसला रात का ही क्यों न हो, क्योंकि धरना अनिश्चितकालीन है। इसलिए रात में भी किसी न किसी का रहना जरूरी है। अभी संत राम जी से बात चल ही रही थी कि आसपास के गाँव के कुछ मजदूर धरना स्थल की और आते दिखाई दिये। संतराम जी ने बताया कि उनके धरने में महिलाओं की अगुवाई मनरेगा मजदूर रेशमा कर रही हैं। 

उन्होंने बताया कि बेहद गरीब रेशमा अपने पाँच बच्चों और पति के साथ एक झोपड़ी में रहती हैं। परिवार के लिए खाना बनाकर, उन्हें खिलाकार तब रोजाना धरने में आकर डट जाती हैं। विचार आया कि क्यों न एक बार रेशमा के घर के हालात जान लिए जायें। धरना स्थल से कुछ ही दूरी पर उनका घर था । बाँस में तिरपाल और प्लास्टिक बांध कर किसी तरह रहने लायक झोपड़ी बनाई गई थी। अंदर रेशमा खाना बना रही थीं और उनके पति मजदूरी पर गए हुए थे।  हमारे आते ही उसने तख्त पर बिखरा सामान समेटा और बैठने के लिए कहा। रेशमा ने बताया कि उसे कल से ही जानकारी थी कि लखनऊ से कोई मीडिया टीम आ रही है, जो उन पर स्टोरी करना चाहते हैं। 

आंखों में आंसू भर रेशमा कहती हैं कि इस बार की ईद रुला गई, सोचा था काम का पैसा मिल जायेगा तो अपने लिए न सही, बच्चों के लिए तो नये कपड़े खरीद ही लेंगे और उन्हें ईदी भी देंगे। लेकिन न पैसा मिला, न नये कपड़े ही आ सके। रेशमा कहती हैं हम बेहद गरीब हैं, रत्ती भर खेती नहीं है, तो मजदूरी ही कर के परिवार पालते हैं। ऐसे में अगर मजदूरी का पैसा भी नहीं मिलेगा, तो हम गरीब जिएंगे कैसे। क्रोध भरे लहजे में वह कहती हैं कि सर्दियों की सुबह जब लोग आग ताप रहे होते थे तो हम दोनों पति पत्नी बच्चों को घर में अकेला छोड़ सुबह 6 बजे ही तालाब खुदाई के लिए पहुँच जाते थे और शाम पाँच बजे तक काम करते थे। इस बीच दोपहर में केवल एक घंटे (1-2 बजे तक) के लिए खाना खाने की छूट मिलती थी। उतने ही समय में जल्दी-जल्दी खाना भी बनाना होता था और खा भी लेना होता था। 

रेशमा के मुताबिक उसने और उसके पति ने 41 दिन तालाब खुदाई का काम किया। वह साफ-साफ कहती हैं कि अब जब तक मजदूरी का भुगतान नहीं हो जाता तब तक हम मजदूरों का धरना चलता रहेगा। इन्हीं सब बातों के सिलसिले के साथ हम दोनों धरनास्थल की ओर चल पड़े। अब तक कुछ और मजदूर भी धरना स्थल पहुँच चुके थे, जिसमें महिलाएँ भी शामिल थीं। वहाँ मौजूद छोटे-छोटे बच्चों की ओर इशारा करते हुए रेशमा कहती हैं, "देख रहे हैं, इन बच्चों के लिए सारा दिन धरने पर रहना इनकी मजबूरी बन गई है, क्या करें ये बेचारे? जब माँ धरने पर है तो छोटे बच्चे आख़िर किसके भरोसे छोड़े जाएं। 

धरनास्थल में ही हमारी मुलाक़ात मजदूरों में सबसे उम्रदराज मोहिनी देवी से भी हुई, जो बगल के सुलेमपुर गाँव की रहने वाली थीं। मोहिनी देवी ने बताया कि उसने और उसके बेटे ने भी सेठिया तालाब खुदाई में 27 दिन काम किया था, लेकिन पैसा मिला केवल 6 दिन का। बाकी आज तक एक पैसा भी उनके खाते में नहीं आया। 

वह कहती हैं कि इस गर्मी में इस उम्मीद पर धरने में डटे हैं कि सरकार के सामने हम गरीबों की सुनवाई होगी लेकिन...इतना समय बीत जाने के बाद भी अधिकारी केवल आते हैं और आश्वासन देकर चले जाते हैं। 

मोहिनी बताती हैं कि उनका बेटा दूसरी जगह मजदूरी करने जाता है, इसलिए धरने पर नहीं आ पाता है। लेकिन वह नियमित आती हैं। उदास भाव से वह कहती हैं कि अब बेटे का काम करना भी तो जरूरी है, उसका भी अपना परिवार है। अगर काम नहीं करेंगे तो परिवार पलेगा कैसे। थोड़ी बहुत खेती है उससे गुजर नहीं हो पाती। वो भी छुट्टा घूम रहे जानवर फसल बर्बाद कर देते हैं।

वे आगे कहती हैं कि, "हम सरकार से नजायज तो कुछ नहीं माँग रहे, बस जो हमारा हक़ है वो हमें दे दिया जाये।"

धरने में मौजूद जनक दुलारी भी हम से अपनी पीड़ा बताना चाहती थीं। उन्होंने बताया कि उनके पति की मृत्यु हो गई है, तीन बच्चे हैं– दो बेटे और एक बेटी। खेती न होने के चलते मेहनत मजदूरी कर तीनों बच्चों को पाला। गरीबी के कारण बच्चे पढ़ नहीं पाए। वे कहती हैं कि वो पढ़ाई करें कि पेट भरने और तन ढकने के लिए मेहनत करें। 

जनक आगे कहती हैं कि पिछले साल सेठिया तालाब में 25 दिन उसने भी जी तोड़ मेहनत की, लेकिन आज तक एक दिन का भी पैसा नहीं मिला। वे हाथ जोड़ कर कहती हैं कि हम सरकार से यही कहना चाहते हैं कि इस तरह गरीबों के पेट पर लात न मारी जाये। जिन्होंने भी हमारा पैसा खाया है उसे कड़ी सजा मिले। 

तालाब खुदाई मनरेगा मजदूरों के अलावा इस अनिश्चितकालीन धरने में हमारी मुलाक़ात जान आलम, उमा शंकर चौरसिया और इन्नुस से भी हुई, जो सकरन ब्लॉक के कुंसर गाँव के वे मनरेगा मजदूर थे जिन्होंने  मिट्टी पटाकर अपने गाँव में कच्ची सड़क बनाने का काम पिछले साल किया था। लेकिन ऊनें भी भुगतान आज तक नहीं हुआ है। 

इन मजदूरों के मुताबिक 2021 की जुलाई में इनके गाँव में कच्ची सड़क निर्माण की योजना आई। चूँकि छोटी ही सड़क बनानी थी, इसलिए मात्र 6 दिन का काम था, जिसमें इनके गाँव के तीस लोगों ने काम किया था। 

उमा शंकर कहते हैं, "काले रोड़ से शिव लाल नेता के खेत तक कच्चा पटान का काम था, 200 रुपय  दिहाड़ी पर 6  दिन काम चला। लेकिन उतने दिन तक का पैसा प्रशासन नहीं दे पा रहा है। वे बताते हैं कि चुनाव से पहले उन लोगों ने ब्लॉक पर धरना भी दिया था, तब BDO ने लिखित में आश्वासन भी दिया था कि दस दिन के भीतर भुगतान हो जायेगा, लेकिन नहीं हुआ। उसके बाद आचार संहिता लग गई और आश्वासन धरा का धरा रह गया। 

उमा शंकर आगे कहते हैं, "सेक्रेटरी लेकर प्रधान, कोई सुनने को तैयार नहीं। इसलिए अब उन्हें मजबूरीवश धरना करना पड़ रहा है। तो वहीं जान आलम कहते हैं लिखित से बड़ा आश्वासन और क्या होगा और वह लिखित आश्वासन की कॉपी दिखाने लगते हैं। जान आलम कहते हैं कि हम सब मजदूर अपनी रोज की दिहाड़ी छोड़ धरने पर बैठे हैं और इसके लिए हमें प्रशासन ने ही मजबूर किया है। हम दोहरी मार झेल रहे हैं– एक तो पहले की मजदूरी नहीं मिली और अब भी रोजमर्रा की दिहाडी का नुकसान उठाना पड़ रहा है, आख़िर इसका जिम्मेदार कौन है।

मजदूर नेता संतराम जी के मताबिक तकरीबन दस गाँव के मनरेगा मजदूरों का चार लाख बकाया है। जबकि आंकड़ा इससे कई ज्यादा हो सकता है, क्योंकि अन्य कई और गाँवों से भी उन्हें इस बाबत शिकायत मिल रही है। 

वे कहते हैं, "यह केवल बकाया भुगतान की लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई फर्जीवाड़े और भ्रष्टाचार के भी खिलाफ़ है, क्योंकि अधिकारी कहते हैं पैसा निकल चुका है और खातों में जा चुका है। लेकिन हैरानी की बात है कि जिनके खातों में पैसा गया, उन्होंने कभी मनरेगा में काम किया ही नहीं था, यानी मामला घोटाले का है।"  

वे आगे शिकायत करते हुए कहते हैं कि, "किसी मजदूर ने 40 दिन तो किसी ने 35 तो किसी ने 45 दिन काम किया, जिसमें से बस सबके खाते में 6 दिन का पैसा आया और बाकी भुगतान का फर्जीवाडा कर दिया गया। स्थानीय प्रशासन द्वारा जो सूची उन्हें दी गई है उनमें ऐसे लोगों का नाम शामिल है जिन्होंने मनरेगा में काम किया ही नहीं किया यानी लिस्ट फर्जी है।"

उनका आरोप है कि असली हक़दारों का हक़ मारा जा रहा है, जबकि बेईमानों की तिजोरी गरीबों के पैसों से भर रही है। यह दिखाता है कि अभी भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है, फिर योगी सरकार कितना भी  भ्रष्टाचार  खत्म करने का दावा क्यों न कर ले।

संतराम जी के मुताबिक जब से मजदूर धरने पर बैठे हैं, उनसे लगातार अन्य और गाँव के वे मनरेगा मजदूर भी संपर्क कर रहे हैं जिनको अपने काम का पैसा अभी तक नहीं मिला है। वे कहते है  बीडीयो, सेक्रेटरी, एसडीएम, सबसे वे लोग मिले, लेकिन जब मजदूरों के पक्ष में कुछ ठोस होता नजर नहीं आया। अनिश्चितकालीन धरने का निर्णय लिया गया। अभी भी अधिकारी केवल आश्वासन ही दे रहे हैं। वे कहते हैं कि उनकी यह लड़ाई तब तक नहीं रुकेगी जब तक सैकड़ों मजदूरों की मजदूरी का भुगतान नहीं हो जाता और जरूरत पड़ी तो यहाँ से मजदूरों का जत्था पैदल मार्च करते हुए लखनऊ तक मुख्यमंत्री के द्वार तक जायेगा। 

नोट (प्रशासन का रुख जानने के लिए जब इस रिपोर्टर ने इलाके के एसडीएम से दो-तीन बार फोन से संपर्क करने की कोशिश की तो उनके द्वारा फोन रिसीव नहीं किया गया। वहाँ मौजूद ग्रामीणों ने बताया कि एसडीएम साहब का हमेशा से यही रवैया रहा है। वे कभी फोन नहीं उठाते जिसकी शिकायत भी हो चुकी है। जबकि उन्होंने इसे स्वीकार करते हुए आगे से ऐसी गलती न करने का आश्वासन भी दिया था। कुछ दिन मामला ठीक रहा, लेकिन अब फिर उनका वही रवैया हो गया है।) 

(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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