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जिनेवा में WTO का मंत्रिस्तरीय सम्मेलन : जहां मौत ने ज़िंदगी को मात दे दी

डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक ने जांच सामग्री तथा एंटी-वायरल दवाओं के मामले में पेटेंट से छूट के मुद्दे को छह महीने आगे ठेल दिया है और इसकी शायद ही कोई संभावना होगी कि अमीर देशों का इस मामले में अचानक ही दिल पसीज जाए। आखिरकार, महामारी के दो सालों के दौरान तो उनका दिल पसीजा नहीं, जबकि इस महामारी ने दसियों लाख लोगों की जानें ले लीं।
Geneva

यूएनएड्स (UNAIDS ) की एक्जिक्यूटिव निदेशक, विनी ब्यान्यीमा (Winnie Byanyima) ने जिनेवा में हुई विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) की मंत्रिस्तरीय बैठक से पहले यह अपील जारी की थी कि अगर पेटेंट अधिकारों को नहीं हटाया गया, तो सारी दुनिया को एक अंधकारपूर्ण भविष्य का सामना करना पड़ेगा। एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए ब्यान्यीमा ने कहा था कि, ‘महामारी के बीच, प्रौद्योगिकी को साझा करना, जीवन या मरण का प्रश्न होता है और हम मरण को चुन रहे हैं।’

इंसानों की क़ीमत पर मुनाफ़े की चिंता

विश्व व्यापार संगठन की 12वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में, जो 17 जून को खत्म हुई, धनी देशों ने ठीक यही किया। उन्होंने दुनिया को सस्ते टीके, एंटीवाइरल दवाएं तथा रोग जांच सुविधाएं मुहैया कराने की करीब-करीब सभी संभावनाओं का रास्ता बंद कर दिया। भारत-दक्षिण अफ्रीका के, कोविड-19 के टीकों तथा दवाओं पर पेटेंट अधिकार को हटाने के प्रस्ताव पर फैसला, विश्व व्यापार संगठन ने दो साल तक टाला या लटकाए रखा और अंतत: धनी देशों के क्लब ने--जिसमें यूरोपीय यूनियन, अमेरिका तथा यूके आते हैं--यह सुनिश्चित किया है कि पेटेंट से छूट का कोई महत्वपूर्ण कदम पारित ही नहीं हो। इस तरह, बड़ी दवा कंपनियों के मुनाफों ने एक बार फिर लोगों की जिंदगियों तथा स्वास्थ्य के तकाजों को हरा दिया है। ऐसा ही एड्स की महामारी के दौरान भी हुआ था।

12वीं मंत्रिस्तरीय बैठक में जो तथाकथित ‘रियायतें’ स्वीकार की गयी हैं, वे अनिवार्य लाइसेंस जारी किए जाने के संबंध में, डब्ल्यूटीओ के दोहा समझौते की बहुत ही दुरूह प्रक्रियाओं को कुछ सरल करने का काम तो बेशक करती हैं। लेकिन, इस क्रम में भारत तथा चीन जैसे देशों के लिए, जिनके पास विनिर्माण की उल्लेखनीय रूप से ज्यादा सुविधाएं हैं, इस तरह के अनिवार्य लाइसेंसों के तहत टीकों की आपूर्ति करना और मुश्किल बना दिया गया है। इस तरह, जिन देशों को टीकों की जरूरत है, वे इस जरूरत के लिए अनिवार्य लाइसेंस पहले से कहीं आसानी से जारी करने के अधिकारी तो होंगे, लेकिन अगर उन्हें ये लाइसेंस उन देशों को ही देने का अधिकार नहीं होगा जिनके पास संबंधित विनिर्माण की सुविधाएं हैं, तो वे ये अनिवार्य लाइसेंस किसे देकर उसका लाभ उठा सकेंगे?

टीकों के विनिर्माण में, अनेक दवाओं से भिन्न, असली चीज टीके का ‘‘फार्मूला’’ नहीं होता है। बहुत सी दवाओं के मामले में, अपेक्षाकृत छोटे रासायनिक मॉलीक्यूल ही असली चीज होते हैं और उन्हें आसानी से पेटेंट किया जा सकता है। लेकिन, टीकों के केंद्र में बड़े मॉलीक्यूल होते हैं और वे बॉयोलॉजिक्स की श्रेणी में आते हैं। उनके विनिर्माण की कुंजी उनके ‘‘फार्मूले’’ में न होकर औद्योगिक पैमाने पर उनके उत्पादन में होती है, जटिल बड़े मॉलीक्यूलों के सटीक तरीेके से बार-बार बनाए जाने की प्रक्रिया में होती है। यह ‘‘नो हाऊ’’ का मामला है, जिसकी हिफाजत पेटेंट अधिकार नहीं करते हैं बल्कि व्यापारिक राज़ के तहत जिसे बाकी लोगों से बचाकर रखा जाता है। ऐसा भी नहीं है कि इन व्यापारिक रहस्यों तक पहुंचा नहीं जा सकता है या संबंधित प्रक्रिया को जानने वाले किसी उत्पादनकर्ता की मदद से यह काम कराया नहीं जा सकता है। लेकिन, ऐसा करने की सूरत में संबंधित कंपनियों को काफी महंगी कानूनी कार्रवाई का सामना करना पड़ सकता है और इसमें विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत कानूनी कार्रवाई भी शामिल है। और ऐसी जुर्रत करने के लिए अमेरिका, यूरोपीय यूनियन तथा यूके की ओर से इकतरफा पाबंदियां भी झेलनी पड़ सकती हैं।

महामारी के बीच बड़ी दवा कंपनियों की मुनाफ़ाख़ोरी

इस सब का नतीजा यह होगा कि फाइजर तथा अन्य बड़ी दवा कंपनियां, इंसानों की जिंदगियों की कीमत पर, बेहिसाब अनार्जित मुनाफे बटोरती रहेंगी। उनके ये मुनाफे बटोरने पर इससे फर्क नहीं पडऩे वाला है कि अब भी जारी महामारी, सार्स-कोव-2 वायरस के नये वैरिएंटों के उभरने का रूप ले सकती है और इन नये वैरिएंटों के साथ महामारी आगे भी जारी रह सकती है। याद रहे कि अफ्रीकी महाद्वीप में कुल 20 फीसद आबादी का ही पूर्ण टीकाकरण हो पाया है, जबकि अमेरिका में इन टीकों का कोई पूछनहार ही नहीं है। बेशक, दुनिया में टीका उत्पादन की इसके लिए पर्याप्त क्षमताएं हैं कि दुनिया की पूरी आबादी का टीकाकरण किया जा सकता है। लेकिन, ऐसा करना बड़ी दवा कंपनियों के हित में नहीं है। उन्हें तो इंसानी जिंदगियों के मुकाबले अपने मुनाफे ही ज्यादा प्यारे हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं है कि यह अनगिनत जिंदगियों को बचाने का ही नहीं, महामारी के नये तथा और भी खतरनाक वैरिएंटों के उभरने की संभावनाओं को कम करने का भी मामला है।

इस बात को इसके परिप्रेक्ष्य में रखकर समझने के लिए, इसका ध्यान दिलाना अप्रासांगिक नहीं होगा कि कोविड-19 महामारी के दौरान ही फाइजर के मुनाफे मोटे तौर पर दोगुने हो गए हैं और उसके इन मुनाफों में एक बड़ा हिस्सा बायोनटैक-फाइजर के टीके की कमाइयों का है। इस कंपनी की तुलना अगर देशों की कुल आय से करें तो, पिछले साल की अपनी 81 अरब डालर की आय के साथ यह कंपनी, इथियोपिया, घाना तथा केन्या जैसे बड़े-बड़े देशों के कुल जीडीपी को भी पीछे छोड़ चुकी थी! टीकों के अलावा जांच की सामग्री तथा एंटीवाइरल दवाओं पर बड़ी दवा कंपनियों की इजारेदारी भी, महामारी के उपचार को लोगों के लिए महंगा बनाती है और दूसरी ओर बड़ी दवा कंपनियों को बेहिसाब अनार्जित कमाई दिलाती है।

इस छूट से क्या होगा?

जिनेवा की इस मंत्रिस्तरीय बैठक में एक ही छूट की बात मानी गयी है और यह छूट है, टीकों के अनिवार्य लाइसेंसों के लिए। यह छूट, जांच सामग्री तथा एंटी-वायरल दवाओं के लिए तो दी ही नहीं गयी है। इतना ही नहीं, इस निर्णय में विश्व व्यापार संगठन के मंच पर उठाए गए अन्य प्रश्नों को तो लिया ही नहीं गया है, जैसे यह मांग कि विश्व व्यापार संगठन द्वारा दी जाने वाली छूट में अन्य संपदा अधिकारों से भी छूट को शामिल किया जाए, जैसे व्यापार सीक्रेट जो कि टीकों के बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए बहुत जरूरी होते हैं।

डब्ल्यूटीओ की मंत्रिस्तरीय बैठक ने जांच सामग्री तथा एंटी-वायरल दवाओं के मामले में पेटेंट से छूट के मुद्दे को छह महीने आगे ठेल दिया है और इसकी शायद ही कोई संभावना होगी कि अमीर देशों का इस मामले में अचानक ही दिल पसीज जाए। आखिरकार, महामारी के दो सालों के दौरान तो उनका दिल पसीजा नहीं, जबकि इस महामारी ने दसियों लाख लोगों की जानें ले लीं।
समूची विश्व आबादी का टीकाकरण करना क्यों जरूरी है?

सरल शब्दों में कहें तो कोविड-19 वायरस से संक्रमित होने के लिए जितने लोग बचे रहेेंगे, इन वायरस के नये वेरिएंटों के उभरने के खतरे उतने ही ज्यादा बने रहेंगे। बेशक, बहुत से लोग यह सोचकर तसल्ली पा लेते हैं कि वायरस में जितने ज्यादा बदलाव (म्यूटेशन्स) होंगे, उतना ही ज्यादा वह हानिरहित होता जाएगा। चिकित्सा समुदाय के एक बड़े हिस्से में यह आम धारणा रही है। लेकिन, विकासवादी जैविकी के जानकारों का कहना है कि ऐसा होने के कोई साक्ष्य ही नहीं हैं। और अगर ‘लंबी अवधि’ के लिए इसे सच भी मान लिया जाए तब भी, जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जॉन मेनार्ड केन्स का चर्चित कथन है, ‘लंबी अवधि में तो हम सब मर चुके होंगे!’ जैव वैज्ञानिकी का ‘लंबी अवधि’ का हिसाब, वाकई बहुत लंबी अवधि का हो सकता है।

क्यों अब भी जरूरी है पूरी दुनिया का टीकाकरण?

याद रहे कि आज भी कोविड-19 महामारी से हर रोज 7,00,000 से ज्यादा लोग संक्रमित हो रहे हैं। ऐसी महामारी के साथ हम जितने समय तक रहेंगे, उतना ही ज्यादा इसका जोखिम मोल ले रहे होंगे कि कोई ऐसा नया वैरिएंट आ जाए, जो ओमिक्रोन के जितना संक्रामक हो, पर उससे कहीं बहुत ज्यादा प्राणघातक हो। वायरस की संक्रमणशीलता तब सबसे ज्यादा होती है, जब उससे संक्रमित मरीज में रोग के लक्षण बहुत मामूली ही होते हैं और वह सामाजिक तथा शारीरिक रूप से गतिशील होता है और इसलिए दूसरों को संक्रमित कर सकता है। इसी अंतराल में वायरस सबसे ज्यादा फैलता है। वायरस से पीडि़त होने वाला मरीज बाद में ठीक हो जाता है या उसकी मौत ही हो जाती है, इससे इस संक्रमण के दूसरों तक फैलने पर कोई असर नहीं पड़ता है। इसका, आम तौर पर सामाजिक आचरण पर तो असर पड़ सकता है, लेकिन इसका वक्त गुजरने के साथ वायरस के हानिरहित होने से कोई संबंध नहीं है।

बेशक, मानव समूह के रूप में हमारे बीच, वक्त गुजरने के साथ किसी भी वायरस के खिलाफ प्रतिरोधकता बढ़ती है। लेकिन, यही चीज तो है जो समय के साथ वायरस में भी बदलाव पैदा करती है। अगर डेल्टा वेरिएंट में उससे पहले के सार्स कोव-2 के मुकाबले संक्रामकता ज्यादा थी, तो ओमीक्रोन की इम्यूनिटी की दीवार को लांघने की क्षमता ज्यादा पायी गयी। इसका अर्थ यह है कि ओमिक्रोन, इससे पहले के संक्रमणों या टीकों पैदा हुई हमारी प्रतिरोधकता को ज्यादा आसानी से धता बता सकता है। बेशक, अगर वायरस का रूपांतर इस तरह से हो कि संक्रमण की शुरूआत में ही मरीज इतना बीमार हो जाए कि वह चलने-फिरने में ही असमर्थ हो जाए, उस सूरत में जरूर वायरस की संक्रामकता कम हो जाएगी या उसका फैलना एक तरह से रुक ही जाएगा। लेकिन, सार्स-कोव-2 वायरस का आचरण ऐसा नजर नहीं आता है।
अगले कुछ वर्षों में सार्स-कोव-2 वायरस के किस तरह का रूप लेने की संंभावनाएं हैं? जैसाकि रोग-प्रतिरोधकता विज्ञानी या इम्यूनोलाजिस्ट बताते हैं, किसी वायरस के विकासवाद का यात्रापथ, ऐसे अनेक कारकों की जटिल अंतक्रिया से तय होता है, जो वायरस के विकासवाद पर हमारी प्रतिरोधकता प्रणाली की प्रतिक्रिया को रूप देते हैं।

इसलिए, वर्तमान महामारी के लिए हमारा प्रत्युत्तर यह नहीं हो सकता है कि हम वायरस के ही और ज्यादा हानिरहित होते जाने के भरोसे बैठे रहें या फिर मिथकीय झुंड प्रतिरोधकता के आने का इंतजार करते रहें। महामारी से निपटने के सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय के रूप में टीके महत्वपूर्ण होते हैं क्योंकि उनसे नये संक्रमणों की संख्या घट जाती है और इसलिए, आगे के संक्रमणों की जड़ ही छंट जाती है। और हां, कल्पनीय भविष्य में हमें अपने टीके की बूस्टर खुराकों को, वायरस के सामने आने वाले नये-नये वैरिएंटों के लिए तब्दीलियों के साथ, दोहराते ही रहना होगा।

एंटीवायरल दवाओं का मुद्दा

बेशक, इसके साथ ही कोविड-19 के उपचार के तौर पर एंटी-वायरल दवाएं भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि इनसे मौतों को घटाने में तथा कोविड के लंबे समय तक चलने वाले दुष्प्रभावों को कम करने में निश्चित रूप से मदद मिलती है। लेकिन, इन दवाओं पर पेटेंट अधिकार, उनका आसानी से उपयोग किए जाने के आड़े आते हैं। एंटी-वायरल दवाएं, इस बीमारी के पहले कुछ दिनों के दौरान दिए जाने पर ही असरदार होती हैं और इसका अर्थ यह है कि इन दवाओं का ज्यादा फायदा तभी हो सकता है, जब ये दवाएं लोगों को कम दाम पर उपलब्ध हों, ताकि वे दवा की दुकान से ये दवाएं खरीदकर उनका उपयोग कर सकें। लेकिन, सचाई यह है कि इन दवाओं के महंगे दाम तथा उन पर पेटेंट के कड़े नियंत्रण के चलते, उनके लिए पर्याप्त रूप से बड़ा बाजार बन ही नहीं पाता है। सीमित बाजार और ऊंचे दाम का मामला, मुर्गी और अंडे के संबंध जैसा है। कीमतें ज्यादा रहती हैं क्योंकि बाजार छोटा होता है। बाजार छोटा रहता है क्योंकि कीमतें ज्यादा रहती हैं!

बेशक, एंटी-वायरल दवाओं के ओपन लाइसेंसिंग से एंटी-वायरल दवाओं के लिए एक बड़ा बाजार बन सकता है। लेकिन, विश्व व्यापार संगठन ने इसी की तो इजाजत नहीं दी है। विश्व व्यापार संगठन के तहत, अनिवार्य लाइसेंसिंग का रास्ता बहुत ही दुरूह है और जिनेवा में हुई मंत्रिस्तरीय बैठक में इस मामले में पेटेंट की पाबंदियों में जो ढील दी भी गयी है, उसका मतलब यही है कि भारत जैसे देशों को, जिन्होंने वास्तव में एड्स की महामारी से मानवता की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी, आपूर्तिकर्ताओं के रूप में इस छूट के उपयोग से बाहर ही रखा जाएगा। यानी भारत जैसे देश, कोविड-19 से लडऩे के लिए एंटी-वायरल दवाओं की उस प्रकार आपूर्ति नहीं कर पाएंगे, जैसे एड्स के उपचार के लिए एंटी-वायरल दवाओं की अपूर्ति कर सके थे।

धनी देशों से बंद कर रखे हैं ज़िंदगी की जीत के रास्ते

तब यह पूछा जा सकता है कि क्यों नहीं भारत, चीन, रूस तथा दक्षिण अफ्रीका जैसे देश, जो उन्नत टीके बनाने की क्षमताओं से संपन्न हैं, आपस में एकजुट होकर, बाकी सारी दुनिया को इस चुनौती की सामना करने के लिए जरूरी प्रौद्योगिकी तथा अपूर्तियां मुहैया करा देते? क्यों नहीं ये ताकतें, स्थानीय रूप से टीकों का उत्पादन करने के लिए, क्यूबा जैसे बायोलॉजिकल पॉवारहाउस के साथ हाथ मिला लेेतीं? क्यूबा ने कोविड-19 के चार टीकों का विकास किया है और उनमें से दो का तो बड़े पैमाने पर उत्पादन भी चल रहा है।

इस सवाल का जवाब, धनी देशों के उसी क्लब द्वारा नियंत्रित कथित ‘नियम आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था’ से जुड़ा हुआ है। इस व्यवस्था के जरिए लागू किए जाने वाले नियमों में रूस, क्यूबा, चीन आदि अनेक देशों के खिलाफ पाबंदियां भी शामिल हैं। और जिन देशों के खिलाफ अब तक पाबंदियां नहीं भी लगायी गयी हैं, उनके लिए भी भविष्य में अमेरिका, यूरोपीय यूनियन तथा यूके द्वारा ऐसी पाबंदियों की धमकियां हैं। इसी तिकड़ी की गिरोहबंदी ने विश्व व्यापार संगठन में, भारत-दक्षिण अफ्रीका पहल को हरा दिया। याद रहे कि अमेरिका का अपना घरेलू कानून-301 भी है, जो उसने कथित रूप से अपनी बौद्धिक संपदाओं की ‘हिफाजत’ करने के लिए बनाया है और जिसके तहत वह अन्य देशों को अपनी ही पाबंदियां लगाने के जरिए डराता है। हर साल भारत और चीन का नाम उन देशों की सूची में सबसे ऊपर होता है, जिनके कानून तथा कदम, अमेरिका के घरेलू कानूनों के साथ मेल नहीं खाते हैं। इसलिए, अगर अमेरिका तथा उसके संगी-साथी, विश्व व्यापार संगठन में अपने मन की मनवाने में कामयाब नहीं भी हों, तो वे अपनी बात मनवाने के अपनी कथित ‘नियम आधारित व्यवस्था’ का सहारा ले सकते हैं, जहां खुद उनके बनाए नियम-कानून की चलते हैं। उससे भी काम नहीं चले तो अमेरिका के अपने घरेलू कानून भी हैं, जो खुद अमेरिकी अदालतों के हिसाब से भी, अंतर्राष्ट्रीय कायदे-कानूनों से भी ऊपर हैं!

यही है हमारी नयी, साहसिक दुनिया, जहां विनी ब्यान्यीमा के शब्दों को जरा बदलकर कहें तो, मौत ने जिंदगी को मात दे दी।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित इस आलेख को पढ़ने के लिए आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर सकते हैं-

Death Trumps Life at Geneva Ministerial

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