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ख़बरों के आगे-पीछे: संवाद से परहेज़ और मनमानी का नतीजा

वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन अपने साप्ताहिक कॉलम ख़बरों के आगे-पीछे में बता रहे हैं कि किस तरह मौजूदा सरकार के पहले निर्णय लेने और फिर सोचने के रवैये पर एक बार फिर से गंभीर सवाल जरूर खड़े हुए हैं।
hit and run
फ़ोटो : PTI

न्याय, न्यायपालिका और संदेह का धुआं

सुप्रीम कोर्ट ने हिंडनबर्ग मामले में अदाणी समूह के खिलाफ जांच के लिए सेबी पर भरोसा जताते हुए विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन की मांग को ठुकरा दिया है। अदालत ने कहा है कि सेबी ही जांच को आगे ले जाएगी। यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में हिंडनबर्ग और संबंधित मीडिया रिपोर्टों को अविश्वसनीय मानते हुए उनकी साख पर ही सवाल खड़े कर दिए है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर दो विपक्षी दलों की सधी हुई प्रतिक्रिया गौरतलब रही।

कांग्रेस ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्णय देते हुए 'असाधारण उदारता’ दिखाई है, जबकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने कहा कि यह फैसला देकर न्यायपालिका ने अपनी प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी नहीं की है। इन दोनों पार्टियों सहित विपक्ष और सिविल सोसायटी के भी एक बड़ा हिस्से में इस फैसले को सिर-आंखों पर लेने का भाव नहीं दिखा है। लोगों ने सोशल मीडिया पर इस फैसले को लेकर सुप्रीम कोर्ट पर तरह-तरह से तंज किए हैं। ऐसा होना क्या सर्वोच्च अदालत की घटती साख का संकेत नहीं है?

लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में आम धारणा यह होती है कि सरकार विभिन्न हितों के बीच समन्वय बनाने वाली इकाई है। अगर वह या उसकी संस्थाएं ऐसा करती नहीं दिखती हैं, तो शिकायत न्यायपालिका के पास जाती है। न्यायपालिका के फैसले को सभी संबंधित पक्ष पूर्ण विश्वास के साथ स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन भारत में यह परंपरा तेजी से खत्म होती दिख रही है, जो कि चिंता की बात है।

संवाद से परहेज़ और मनमानी का नतीजा

पहले भूमि अधिग्रहण अध्यादेश, फिर तीन कृषि कानून और अब ड्राइवरों के लिए बना हिट एंड रन कानून। तीनों ही मामलों में संगठित विरोध के चलते केंद्र सरकार को अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर होना पड़ा। अगर सरकार कानून बनाने के पहले सभी हित-धारकों से संवाद के रास्ते पर चलती, तो ट्रक, बस और टैंकर ड्राइवरों को हड़ताल पर नहीं जाना पड़ता। लेकिन हित-धारकों की बात तो दूर, सरकार ने देश की आपराधिक दंड संहिता और साक्ष्य कानून में व्यापक बदलाव करते वक्त विपक्ष के साथ भी संवाद कायम नहीं किया। अब चूंकि नई भारतीय न्याय संहिता के प्रावधानों के बारे में प्रभावित हो सकने वाले लोगों को जानकारी मिल रही है, तो उनका असंतोष सामने आ रहा है। इसकी पहली मिसाल डाइवरों की हड़ताल के रूप में देखने को मिली, जिसका सीधा असर आम परिवहन और जरूरी चीजों की सप्लाई पर पड़ा। जब हड़ताल से जन-जीवन बाधित हुआ, तब केंद्र की तरफ से ड्राइवरों के संगठनों से बातचीत की पहल की गई।

फिलहाल, सरकार के आश्वासन पर यकीन कर ड्राइवरों ने हड़ताल वापस ले ली है। लेकिन इस प्रकरण से मौजूदा सरकार की पहले निर्णय लेने और फिर सोचने के रवैये पर एक बार फिर से गंभीर सवाल जरूर खड़े हुए हैं। यह सच है कि भारत में ट्रक-बस-टैंकर ड्राइवरों का जीवन मुश्किलों से भरा होता है। हादसे हमेशा उनकी गलती से नहीं होते। भारत की सड़कें और लचर ट्रैफिक सिस्टम भी अक्सर हादसों की वजह बनते हैं। जहां ड्राइवरों की गलती हो, उन्हें बेशक सजा मिलनी चाहिए लेकिन हादसे की कुल परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए।

रेलवे से सूचना लेना अब आसान नहीं

सूचना के अधिकार की बदौलत देश के लोगों को यह तो पता चल गया कि रेलवे स्टेशनों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सेल्फी के लिए जो प्वाइंट बनाए जा रहे हैं उन पर कितना खर्च आ रहा है लेकिन उसका नुकसान यह हुआ है कि अब देश के लोगों को रेलवे के बारे में अन्य सूचनाएं हासिल करना मुश्किल हो गया है। असल में मध्य रेलवे के एक डिप्टी जनरल मैनेजर अभय मिश्रा ने रेलवे के ही एक पूर्व कर्मचारी के आवेदन पर बताया था कि 3डी सेल्फी प्वाइंट बनाने पर साढ़े छह करोड़ और अस्थायी सेल्फी प्वाइंट बनाने पर डेढ़ लाख रुपए का खर्च आ रहा है। सूचना मिलने के बाद यह खबर अखबारों में छप गई और दो दिन के अंदर ही मध्य रेलवे के जनसंपर्क अधिकारी शिवाजी मानसपुरे का तबादला हो गया। उनकी नियुक्ति सिर्फ सात महीने पहले ही हुई थी। आमतौर पर रेलवे मे पोस्टिंग दो साल के लिए होती है। हालांकि रेलवे ने कहा है कि उनके तबादले को इस घटना से जोड़ कर नहीं देखा जाए लेकिन सबको पता है कि उनके तबादले की वजह यही है। इसके साथ ही अब यह नियम लागू कर दिया गया है कि रेलवे में सूचना अधिकार के तहत आने वाले किसी भी आवेदन का जवाब अब जनरल मैनेजर से नीचे के स्तर का कोई अधिकारी नहीं देगा।

सीवर सफाईकर्मियों की मुश्किलों का अंत नहीं

भारत में आज भी इंसान के हाथों सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई एक बड़ी समस्या है और देश के चेहरे पर एक बदनुमा दाग भी। यह मानवीय गरिमा के अनादर और उसके प्रति बेरुखी का प्रमाण है कि देश में आज भी हजारों लोग सीवरों और सेप्टिक टैंकों सफाई करने के लिए उनमें उतरने के लिए मजबूर हैं, जबकि साल 2013 में ही इस चलन पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया गया था। जाहिर है, वह पाबंदी सिर्फ कागज पर सिमट कर रह गई है। संसद के हाल ही में खत्म हुए सत्र में सरकार ने बताया कि इस साल 20 नवंबर तक सीवर और सेप्टिक टैंकों की सफाई के दौरान 49 मौतें दर्ज की गईं। अब ताजा खबर यह है कि सीवर में उतरने के कारण जो मजदूर मर जाते हैं, उनके आश्रितों को मुआवजा देने में अपेक्षित तत्परता नहीं दिखाई जाती। इसी साल अक्टूबर में सुप्रीम कोर्ट ने सीवर की सफाई के दौरान होने वाली मौतों के बारे में एक अहम आदेश में कहा था कि जो लोग सीवर की सफाई के दौरान मारे जाते हैं, उनके परिवार को सरकार को 30 लाख रुपए की सहायता देनी होगी। इसके पहले 2014 में भी सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश दिया था, जिसमें मृतकों के परिवार को दस लाख रुपए की सहायता देने को कहा गया था। अब सामने आया है कि 1993 से इस साल 31 मार्च तक देश के विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सीवर में होने वाली मौतों के 1,081 मामलों में से 925 मामलों में ही मुआवजे का भुगतान किया गया है। यह आंकड़ा राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी आयोग ने दिया है।

लेकिन उत्तराखंड में बाहरी लोग जमीन नहीं खरीद सकते!

उत्तराखंड जल्द ही देश का पहला ऐसा राज्य बनेगा, जहां सबके लिए समान कानून लागू हो जाएगा। लेकिन कमाल की बात यह है कि समान कानून करने जा रहे इस राज्य में सरकार ने बाहरी लोगों के लिए कृषि और बागवानी के लिए जमीन खरीदने पर रोक लगा दी है। सरकार की ओर से कहा गया है कि जब तक भूमि कानून समिति अपनी रिपोर्ट नहीं सौंप देती, तब तक कृषि और बागवानी के लिए जमीन की खरीद-बिक्री पर रोक रहेगी। सरकार की बनाई भूमि कानून समिति बाहरी लोगों के जमीन खरीदने के नियम को सख्त बनाने की सिफारिश करने वाली है। इससे पहले उत्तराखंड में पुष्कर सिंह धामी की सरकार बनने के बाद यह भी आदेश दिया गया था कि राज्य में जमीन खरीदने वाले बाहरी लोगों की पहचान की सख्ती से जांच होनी चाहिए और बैकग्राउंड चेक करने के बाद ही जमीन की बिक्री होनी चाहिए। यह समझना मुश्किल नहीं है कि बैकग्राउंड के नाम पर सरकार क्या पता करना चाहती है। इसीलिए सवाल है कि एक तरफ सबके लिए समान कानून बनाए जा रहे है और दूसरी ओर भौगोलिक सीमा के नाम पर दूसरे भारतीय नागरिकों को जमीन खरीदने से रोका क्यों जा रहा है? इसी तरह का कानून जम्मू-कश्मीर में भी था, जो कि खत्म कर दिया गया ताकि देश भर के लोग कश्मीर में जमीन खरीद सके और अब उत्तराखंड में कहा जा रहा है कि देश के दूसरे हिस्सों के नागरिक राज्य में जमीन नहीं खरीद सकते हैं।

भाजपा को असम से ज़्यादा बंगाल की चिंता

लगता है भाजपा को असम से ज्यादा पश्चिम बंगाल की चिंता है। इसीलिए नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए के नियम अधिसूचित करने की तैयारी हो रही है। इस कानून को बने को चार साल से ज्यादा समय हो गया है लेकिन अभी तक यह लागू नहीं हुआ है, क्योंकि केंद्रीय गृह मंत्रालय इसके नियम नहीं बना रहा था। अब खबर है कि नियम बन गए हैं और इसी महीने उन्हें अधिसूचित किया जा सकता है। इसका मतलब है कि इस महीने से यह कानून लागू हो सकता है। कानून बनने के बाद इस पर अमल इसलिए टाल दिया गया था कि असम में इसका बहुत विरोध हो रहा था। वैसे विरोध तो पूरे देश में हो रहा था लेकिन असम में कई जातीय व भाषायी संगठन भाषा व संस्कृति के नाम पर विरोध कर रहे थे। राज्य में 2021 में चुनाव होने वाले थे। इसलिए सरकार ने इसे टाल दिया था। अब लोकसभा चुनाव से पहले सरकार इसे अधिसूचित करने जा रही है, इससे ऐसा लग रहा है कि वह असम में जितना जोखिम देख रही है उससे ज्यादा फायदे की उम्मीद उसे पश्चिम बंगाल और देश के दूसरे हिस्सों में है। बताया जा रहा है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए 32 हजार हिंदुओं और सिक्खों को इसका तत्काल फायदा मिलेगा। हो सकता है कि असमी भाषी लोग इसका मुद्दा बनाएं लेकिन बंगाल में भाजपा को इसका फायदा होगा। गौरतलब है कि पश्चिम बंगाल में भाजपा ने पिछली बार 18 लोकसभा सीटें जीती थीं और इस बार उसने 30 सीटें जीतने का लक्ष्य तय किया है।

अक्टूबर के बाद शुरू हो सकेगी जनगणना

अब यह तय हो गया है कि इस साल लोकसभा चुनाव के बाद ही जनगणना होगी। हालांकि 2020 में इसकी प्रक्रिया शुरू हो गई थी लेकिन उसी समय कोरोना की महामारी आ गई, जिसके चलते 2021 की जनगणना रोक दी गई थी। हालांकि महामारी के दौरान भी चुनाव हुए और खूब जम कर चुनाव प्रचार भी हुआ, खूब रैलियां और रोड शो भी हुए। महामारी खत्म हो जाने के बाद सारी चीजें रूटीन में होने लगी, लेकिन सरकार ने जनगणना का काम शुरू नहीं कराया। हर 10 साल पर होने वाली जनगणना 1881 में शुरू हुई थी और युद्ध, आपदा के बावजूद तय समय पर होती रही थी। पहली बार ऐसा हुआ है कि जनगणना नहीं हुई। अब इसे इस साल अक्टूबर तक टाल दिया गया है। असल में जनगणना शुरू होने से तीन महीने पहले सभी राज्यों, जिलों, प्रखंडों की भौगोलिक सीमा में बदलाव को रोक दिया जाता है। जब तक यह रोक नहीं लगाई जाती है तब तक जनगणना शुरू नहीं हो सकती है। पिछले तीन साल से ज्यादा समय से लगातार रोक लगाने की सीमा को आगे बढ़ाया जा रहा है। अब तक नौ बार इसे आगे बढ़ाया जा चुका है। नौवीं बार इसे आगे बढ़ाने का फैसला पिछले दिनों हुआ है। इसे छह महीने यानी 30 जून 2024 तक बढ़ा दिया गया है। इस समय सीमा के तीन महीने बाद यानी 31 अक्टूबर के बाद ही जनगणना की शुरुआत हो सकती है।

साइंस कांग्रेस के भविष्य पर सवाल

इंडियन साइंस कांग्रेस का सम्मेलन निर्धारित समय पर नहीं हो सका। एक सदी से ज्यादा पुराने इस संगठन का 109वां सम्मेलन पंजाब की लवली प्रोफ़ेशनल यूनिवर्सिटी में तीन जनवरी को होने वाला था लेकिन यूनिवर्सिटी ने ऐनवक्त पर सम्मेलन के आयोजन में असमर्थता जता दी। इंडियन साइंस कांग्रेस का सम्मेलन 2020 और 2021 में भी नहीं हुआ था। तब कोरोना महामारी को इसका कारण बताया गया था। इसके बाद 2023 में 108वां सम्मेलन नागपुर में हुआ तो उसमें भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वर्चुअल तरीके से शामिल हुए। उस समय तय हुआ था कि 109वां आयोजन लखनऊ यूनिवर्सिटी में होगा। लेकिन पिछले साल अगस्त में ही लखनऊ यूनिवर्सिटी ने आयोजन करने से मना कर दिया था और अब लवली प्रोफ़ेशनल यूनिवर्सिटी ने भी मना कर दिया।

इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन के प्रमुख प्रोफ़ेसर एके सक्सेना का कहना है कि पता नहीं किस कारण से लवली प्रोफ़ेशनल यूनिवर्सिटी ने ऐन वक्त पर आयोजन से हाथ खींच लिए। लेकिन प्रोफ़ेसर सक्सेना को पता है कि ऐसा क्यों हुआ है। असल में भारत सरकार के साइंस एंड टेक्नोलॉजी मंत्रालय के साथ इंडियन साइंस कांग्रेस का विवाद चल रहा है। मंत्रालय ने इसके फंड में भी कटौती की है। मंत्रालय से विवाद की वजह से ही लखनऊ यूनिवर्सिटी ने भी आयोजन करने से मना कर दिया था। हैरानी की बात है कि एक तरफ धार्मिक आयोजनों पर सरकार करोड़ों-अरबों रुपए खर्च कर रही है और दूसरी ओर विज्ञान को बढ़ावा देने के लिए बनाई गई संस्था के आयोजन को किसी न किसी बहाने रोका जा रहा है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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