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टाडा के फ़र्ज़ी मुक़दमे में सज़ा काट रहे आंदोलनकारियों की रिहाई कब? : भाकपा-माले

माले ने नीतीश कुमार सरकार की ‘क़ैदी रिहाई’ फ़ैसले को ‘भेदभावपूर्ण’ बताते हुए सरकार से पूछा है कि ‘जन विरोधी काला क़ानून टाडा’ के तहत वर्षों से जेलों में बंद आंदोलनकारियों की रिहाई का फ़ैसला क्यों नहीं लिया जा रहा है?
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नीतीश कुमार सरकार द्वारा हालिया लिए गए फ़ैसले के तहत कई चर्चित-विवादित क़ैदियों की रिहाई का मामला काफ़ी विवादित होता जा रहा है। सरकार की इस बात के लिए भी काफ़ी किरकिरी हो रही है कि रिहा किए जाने वाले क़ैदियों की सूची में एक ऐसे कैदी का भी नाम शामिल है जिसकी 6 महीने पहले ही मृत्यु हो चुकी है।

वहीं, अपने पारंपरिक विपक्षी अंदाज़ में भाजपा व उसके सभी प्रवक्ताओं ने एक स्वर से नीतीश कुमार सरकार के इस फ़ैसले को “चुनावी स्टंट” ठहराते हुए हर दिन तीखे व्यंग्य वाले बयानों की झड़ी सी लगा रखी है। लेकिन जब उनसे पूछा जा रहा है कि गुजरात की भाजपा सरकार ने “बिल्किस बानो मामले” में जनसंहार और सामूहिक बलात्कार के सभी दोषियों को क्यों रिहा किया, तो सब चुप्पी साध ले रहें हैं।

ख़बरों के अनुसार प्रदेश के आईएएस एसोसिएशन से लेकर बसपा समेत कई अन्य राजनैतिक दलों ने अपना विरोध जताते हुए उक्त विवादास्पद कैदीयों की रिहाई के फ़ैसले पर राज्य की सरकार को पुनर्विचार करने पर ज़ोर दिया है।

महागठबंधन सरकार को अपना सक्रीय समर्थन दे रहे राज्य के प्रमुख वामपंथी दल भाकपा-माले ने इसपर आपत्ति दर्ज कराई है। माले ने नीतीश कुमार सरकार की “कैदी रिहाई” फ़ैसले को ‘भेदभावपूर्ण’ बताते हुए सरकार से पूछा है कि ‘जन विरोधी काला कानून टाडा’ के तहत वर्षों से जेलों में बंद आंदोलनकारियों की रिहाई का फ़ैसला क्यों नहीं लिया जा रहा है?

भाकपा-माले लगातार आरोप लगाती रही है कि, "गहरी राजनैतिक साज़िश के तहत 1988 में प्रदेश के अरवल स्थित “बहुचर्चित भादसी हत्याकांड” का आरोपी बनाकर तत्कालीन बिहार की सरकार द्वारा अपने वजूद में ख़त्म कर दिए गए काले कानून “टाडा” को मनमाने तरीके से लागू करके फ़र्ज़ी ढंग से फंसाकर आजीवन क़ैद की सज़ा दिलवा दी गई।"

इस मामले में भाकपा-माले का आरोप है कि, “14 निर्दोष आंदोलनकारियों पर फ़र्ज़ी ढंग से टाडा कानून थोप कर सभी को 4 अगस्त 2003 को आजीवन कारावास की क़ैद में डाल दिया गया। जिनमें से अधिकांश दलित और अत्यंत पिछड़ा समाज से आते हैं।”

भाकपा-माले का कहना है कि, "दुखद पहलू यह है कि उन 14 क़ैदियों में से चर्चित जन नेता शाह चांद समेत 8 साथियों की जेल में असमय मौत सिर्फ़ इस वजह से हो गई क्योंकि समय रहते जेल प्रशासन ने उनका उचित इलाज नहीं कराया। उस समय भी इन मौतों का जवाब मांगते हुए बाक़ी आंदोलनकारियों की रिहाई की मांग को लेकर राज्यव्यापी अभियान चलाया गया था।"

बता दें कि भाकपा-माले की ओर से फिलहाल जीवित बचे 6 आंदोलनकारियों की रिहाई का सवाल उठाया जाना लगातार जारी है। उनमें से एक को पिछले साल हाई कोर्ट ने ही उनके अच्छे चाल-चलन को देखकर रिहा कर दिया। लेकिन शेष बचे हुए आंदोलनकारी, जो कुल मिलाकर 30 साल से भी अधिक का समय क़ैद में गुज़ार चुके हैं, आज भी अपनी रिहाई का इंतज़ार कर रहें हैं।

इस पूरे मामले को सार्वजनिक करते हुए भाकपा-माले ने नीतिश कुमार सरकार पर कैदी-रिहाई मामले में “भेदभाव” करने का आरोप लगाते हुए कहा है, "जब बिहार की सरकार ने 14 साल से अधिक की सज़ा काट चुके 27 क़ैदियों की रिहाई का आदेश दिया है तो भादसी-कांड में 22 साल से सज़ा काट रहे टाडा के फ़र्ज़ी केस में फंसाए गए जीवित बचे माले के 6 क़ैदियों की रिहाई पर सरकार मौन क्यों है? दलित और अत्यंत पिछड़ा समुदाय से आने वाले ये सभी लोग काफ़ी उम्रदराज़ और बीमार अवस्था में हैं।"

भाकपा-माले ने आरोप लगाया कि, "इन्हीं में से एक कैदी, 62 वर्षीय माधव चौधरी, का जेल प्रशासन की लापरवाही के कारण समय पर इलाज नहीं होने से इसी 8 अप्रैल को पटना के पीएमसीएच में मौत हो गई।"

इस घटना का हवाला देते हुए माले के अरवल विधायक महानंद सिंह ने मुख्यमंत्री को विशेष पत्र लिखकर "टाडा के कथित फ़र्ज़ी मुकदमे में 22 वर्षों से जेल में बंद ज़िंदा बचे 6 आंदोलनकारियों को जल्द से जल्द रिहा करने की मांग उठाई।" पत्र में उनकी बीमार की अवस्था का विशेष रूप से उल्लेख करते हुए त्वरित ध्यान देने पर ज़ोर देने की बात कही गई। इसके अलावा आरोप भी लगाया गया कि नीतीश कुमार सरकार ने उस पर कोई संज्ञान नहीं लिया।

राज्य सरकार द्वारा क़ैदियों की रिहाई की घोषणा के बाद से ही राज्य के आईएएस एसोसिएशन ने अपना विरोध जताया है। एसोसिएशन द्वारा जारी किए गए ट्वीट-बयान में कहा गया है कि, "गोपालगंज के तत्कालीन डीएम जी कृष्णय्या की नृशंस हत्या हुई थी। बिहार सरकार ने उनकी हत्या के आरोपी को रिहा करने के लिए कानूनी प्रावधान बदल दिए हैं। एसोसिएशन सरकार के फ़ैसले की कड़ी निंदा करता है। एसोसिएशन ने यह भी कहा है कि एक कर्तव्यपरायण लोकसेवक कि हत्या के आरोपी के दोष को कम किए जाने संबंधी सरकार का फ़ैसला ‘न्याय से वंचित’ किए जाने जैसा है।"

उक्त सन्दर्भ में भाकपा-माले द्वारा खड़ा किया जा रहा सवाल कि झूठे मुकदमों में आजीवन क़ैद की सज़ा भुगत रहे जनता के आंदोलनकारियों की रिहाई पर सरकार की चुप्पी क्यों, काफ़ी महत्वपूर्ण है। क्योंकि यदि कोई सरकार खुद को लोकतान्त्रिक होने का दावा करती है, तो जनता के सवालों पर आवाज़ उठानेवाले आंदोलनकारियों को “राज्य दमन” से निजाद दिलाना उसका अहम् कार्यभार बनता है। जिस पर नीतीश कुमार सरकार को गंभीरतापूर्वक ध्यान देना ही चाहिए। परन्तु जाने क्यों, बिहार सरकार के मुख्यमंत्री से लेकर किसी भी आला नेता-प्रवक्ता ने अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

उधर, बसपा सुप्रीमो मायावती द्वारा नीतीश कुमार सरकार के 'कैदी-रिहाई' के फ़ैसले का कड़ा विरोध किया गया है और बसपा की बिहार इकाई के कार्यकर्ताओं ने भी आंदोलन की चेतावानी दी है।

फिलहाल स्थिति यही है कि भाकपा-माले, टाडा मुक़दमे में आजीवन क़ैद की सज़ा काट रहे अपने आंदोलनकारियों कि रिहाई के सवाल को लेकर काफ़ी मुखर है। इसे व्यापक स्वर देने के लिए ही आज यानी 28 अप्रैल को वीरचन्द पटेल पथ स्थित विधायक आवास परिसर में एक-दिवसीय प्रतिवाद धरना भी दिया गया है। जिसमें भाकपा-माले विधायक दल नेता, उप नेता, सचेतक विधायकों समेत कई प्रमुख विधायक शामिल हुए। इनके साथ-साथ भारी संख्या में क्षेत्र से पहुंची ग्रामीण जनता के अलावा आजीवन सज़ायाफ्ता आंदोलनकारियों के परिजनों ने भी भागीदारी की।

कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार के मौजूदा राजनैतिक हालात में नीतीश कुमार सरकार “कैदी रिहाई” के फ़ैसले पर चौतरफा सवालों के घेरे में आ गई है।

क्योंकि इस समय केंद्र की सत्ता पर काबिज़ राजनीतिक शासन पर आरोप लगते रहते हैं कि उसने अपने विपक्षी नेताओं के साथ-साथ ‘जन मुद्दों और सवाल उठाने वाले’ कई चर्चित एक्टिविस्ट्स समेत कई आंदोलनकारियों को 'काले' कानूनों के तहत फ़र्ज़ी मुकदमें थोपकर जेलों में बंद कर रखा है जिनकी रिहाई की मांग देश के सभी गैर भाजपा राजनैतिक दल भी उठा रहें हैं। लेकिन इस बार गैर भाजपा महागठबंधन, नीतीश कुमार की सरकार पर विरोधी सवाल उठा रहे हैं कि वह कब समय रहते अपने राज्य के आंदोलनकारियों को “राज्य-दमन” की क़ैद-यातना से छुटकारा दिलाती है?

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