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'गुजरात मॉडल' में इतने सारे बच्चे कुपोषित क्यों हैं?

कई मामलों में तो आंकड़े पूरे भारत की औसत से भी ख़राब हैं।
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फाइल फ़ोटो। प्रतीकात्मक तस्वीर।

इस साल मई के महीने में, गुजरात भाजपा अध्यक्ष सी॰आर॰ पाटिल ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से आग्रह किया था कि वे कम से कम एक कुपोषित बच्चे की देखभाल करें ताकि राज्य से अगले 90 दिनों में कुपोषण को खत्म किया जा सके। लेकिन तब से इसका नतीजा क्या निकला, इसके बारे में रिपोर्ट बहुत कम उपलब्ध है, लेकिन पाटिल द्वारा दिए गए इस नुस्खे से पता चलता है कि राज्य में कुपोषण की स्थिति गंभीर है। राज्य में बाल कुपोषण के कुछ मापदंड देश के भीतर सबसे खराब हैं, जो देश में मौजूद औसत के स्त्र से भी बदतर हैं। यह और भी आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि गुजरात को औद्योगिक रूप से उन्नत राज्य माना जाता है, जिसमें उच्च आर्थिक विकास, बहुत सारा विदेशी निवेश और राजनीतिक स्थिरता का रूप में एक मॉडल माना जाता है, और यहाँ भाजपा 1995 से लगातार शासन में रही है, एक संक्षिप्त डेढ़ साल का अंतराल छोड़कर जब नब्बे के दशक के उत्तरार्ध में, भाजपा का एक बिखरा हुआ समूह सत्ता में आया था।

सबसे पहले, हम बाल पोषण की स्थिति पर एक नजर डालते हैं, जैसा कि पिछले साल जारी राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के पांचवें दौर के नतीजों से पता चला है। यह सर्वे 2019-20 के दौरान किया गया था।

नाटे, कमजोर और कम वजन वाले बच्चे

बच्चों के पोषण की स्थिति के तीन जाने-पहचाने पैरामीटर हैं स्टंटिंग (उम्र के अनुसार कम लंबाई), वेस्टिंग (ऊंचाई के अनुसार कम वजन) और कम वजन (उम्र के अनुसार कम वजन) का होना है। इन पैरामीटर पर गुजरात के आंकड़े जितने दुखद हैं उतने ही चौंकाने वाले भी हैं, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है।

पांच साल से कम उम्र के बच्चों में 39 फीसदी बच्चे बौने पाए गए हैं। अखिल भारतीय औसत आंकड़ा 35.5 प्रतिशत है जो अपने आप में बहुत अधिक है - लेकिन गुजरात 39 फीसदी के साथ इससे भी बदतर है। गुजरात में सिर्फ 25 प्रतिशत से अधिक बच्चे कमोर हैं। फिर से, यह आंकड़ा 19.3 फीसदी के अखिल भारतीय औसत से बहुत अधिक है। गुजरात में, लगभग 40 प्रतिशत बच्चे अपनी उम्र के हिसाब से कम वजन के थे - इसकी तुलना भारतीय औसत 32 प्रतिशत से थोड़ी अधिक है। यह देखते हुए कि भारत के औसत के मुक़ाबले, सबसे खराब मानकों वाले कुछ सबसे गरीब राज्य शामिल हैं, तथ्य यह है कि अपनी डबल इंजन सरकार के चलते गुजरात जो एक समृद्ध राज्य कहलाता है वह अपने बच्चों को पर्याप्त पोषण देने में गंभीर रूप से विफल रहा है। 

यह भी पाया गया कि अखिल भारतीय स्तर पर 11 फीसदी से अधिक की तुलना में 6 से 23 महीने के आयु वर्ग में केवल लगभग 6 फीसदी शिशुओं को पर्याप्त आहार मिल रहा था। इन छोटे बच्चों के लिए पर्याप्त आहार का मतलब, "स्तनपान करने वाले बच्चों को 4 या अधिक भोजन समूह और न्यूनतम भोजन की प्राप्ति से है, गैर-स्तनपान वाले बच्चों को कम से कम 3 शिशु और छोटे बच्चे के समूह (जो अन्य दूध या दूध उत्पादों के सेवन के साथ खिलाया जाता है) के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिन्हे दिन में कम से कम दो बार, न्यूनतम भोजन की दिया जाता है, यानी 6-8 महीने के स्तनपान करने वाले शिशुओं को दिन में कम से कम दो बार ठोस या अर्ध-ठोस भोजन इदया जाता है और 9-23 महीने के स्तनपान करने वाले बच्चों को दिन में कम से कम तीन बार और ठोस या अर्ध-ठोस भोजन दिया जाता है, कम से कम चार खाद्य समूहों को अर्ध-ठोस खाद्य पदार्थ, जिनमें दूध या दुग्ध उत्पाद खाद्य समूह शामिल नहीं हैं)।

जैसा कि उपरोक्त आंकड़ों से आसानी से पता लगाया जा सकता है, कि भारत में बच्चे बड़े पैमाने पर कुपोषण के शिकार हैं। कुछ राज्य बहुत बेहतर कर पाते हैं जबकि अन्य खराब स्थिति में हैं। आश्चर्य की बात यह है कि गुजरात इस मामले में कुछ सबसे खराब राज्यों में आता है। पीएम मोदी चाहते हैं कि गुजराती अपने राज्य पर गर्व करें और अक्सर आरोप लगाते हैं कि राजनीति से प्रेरित आलोचना गुजरातियों को बदनाम करने की कोशिश करती है। लेकिन, इन आंकड़ों से पता चलता है कि यह गुजराती बच्चे हैं, जिन्हें राज्य में उनकी पार्टी द्वारा अपनाई गई 'मॉडल' नीतियों से गंभीर रूप से पीड़ित होना पड़ा है।

महिलाओं और बच्चों में एनीमिया यानि खून में कमी 

एक और पैरामीटर जो अध्ययन के लायक है वह एनीमिया है। रक्त में आयरन की कमी के कारण बच्चों में मानसिक और शारीरिक दोनों तरह की विकासात्मक कमी का कारण बनती है। एनएफएचएस-5 के आंकड़ों से पता चलता है कि 5 साल से कम उम्र के 80 फीसदी बच्चे एनीमिया से पीड़ित हैं। यह भारतीय औसत से भी बदतर है – जो अपने आप में चौंकाने वाला आंकड़ा है – जो लगभग 67 फीसदी है। सर्वेक्षण से पता चला कि बच्चों को अक्सर यह कमी अपनी माताओं से विरासत में मिलती है - लगभग 63 फीसदी गर्भवती महिलाओं को एनीमिया था, जबकि देश भर में यह औसत लगभग 52 फसादी था। वास्तव में, गुजरात में प्रजनन आयु वर्ग (15-49 वर्ष) की सभी महिलाओं में से 65 फीसदी एनीमिक थीं, जो भारतीय औसत 57 फसादी की तुलना में बहुत अधिक है। (नीचे चार्ट देखें)

नीति आयोग की वेबसाइट पर उपलब्ध सर्वेक्षण के निष्कर्षों के आधार पर अंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान (आईएफपीआरआई) द्वारा तैयार किए गए जिलेवार अनुमान बताते हैं कि कुपोषण संकेतकों पर सबसे अधिक बोझ वाले जिलों में जो जिले शामिल हैं: उनमें अहमदाबाद, सूरत, वडोदरा, दाहोद और बनासकांठा स्टंटिंग, कम वजन और एनीमिया के लिए  और सूरत अहमदाबाद, पंच महल, बनासकांठा और दाहोद (कमजोर बच्चों के मामले में शामिल हैं।)। इससे पता चलता है कि बड़े शहरों के साथ-साथ बड़ी जनजातीय आबादी वाले शहरों सहित गरीब शहरों में भी कुपोषण व्याप्त है।

ऐसे में क्या किया जा सकता था?

ऐसा क्यों है कि बहुप्रशंसित "गुजरात मॉडल", जिसे सुशासन का पसंदीदा उदाहरण पेश किया है, गुजरात में बच्चों की सबसे जरूरी जरूरतों को पूरा करने में विफल रहा है?

विशेषज्ञों का मानना ​​है कि इस छोटी उम्र में बच्चे का स्वास्थ्य कई कारकों के मिश्रण से निर्धारित होता है जिसमें बच्चे और मां दोनों के लिए पौष्टिक भोजन का उपलब्ध होना, समय पर स्वास्थ्य देखभाल मिलना, साफ-सफाई का होना, सुरक्षित पेयजल और गर्भावस्था के दौरान मां का स्वास्थ्य शामिल हैं। गरीबी, बाल स्वास्थ्य के सबसे बड़े निर्धारकों में से एक है क्योंकि पर्याप्त आय के अभाव में माँ और बच्चा दोनों ही कुपोषण से पीड़ित रहते हैं। दस्त और अन्य बड़े पैमाने पर बाल रोगों के इलाज के लिए स्वास्थ्य सुविधाएं, और स्वच्छता की स्थिति सुनिश्चित करना भी जरूरी है क्योंकि पुरानी बीमारी भी एक अच्छी तरह से खिलाए गए बच्चे को कमजोर और एनीमिक बना देती है, जिससे अधिक बीमारियों के प्रति बच्चों और माँ की संवेदनशीलता बढ़ जाती है। 

इन समस्याओं के समाधान के लिए सरकार क्या कर सकती है? बेहतर आय और नियमित रोजगार (जो परिवार को गरीबी से बाहर निकालेगा) सुनिश्चित करने के अलावा, सरकार के पास कई कार्यक्रम हैं जो बाल कुपोषण को दूर करने के लिए चलाए जा रहे हैं। इनमें महत्वपूर्ण आंगनवाड़ी कार्यक्रम शामिल है जो छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को पोषण संबंधी सहायता प्रदान करता है। स्पष्ट रूप से, गुजरात में, ऐसे हस्तक्षेपों को मजबूत करने की प्रेरणा को या तो पर्याप्त राजनीतिक स्वीकृति नहीं मिली है या उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए पर्याप्त धन आवंटित नहीं किया गया है।

हालांकि पिछले कुछ वर्षों में कुपोषण से पीड़ित बच्चों के अनुपात में गिरावट आई है, लेकिन उस गिरावट के बावजूद अगर स्थिति इतनी गंभीर बनी हुई है तो मॉडल राज्य में राजनीतिक शासकों को इस तरह के नुस्खे से परे हट कर सोचना शुरू करना होगा क्योंकि एक भाजपा कार्यकर्ता को कम से कम एक कुपोषित बच्चे को गोद लेना होगा।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

Inside ‘Gujarat Model’: Why Are So Many Children Undernourished?

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