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बिहार की ‘अगस्त क्रांति’ के मायने

लेकिन 80 साल पहले की अगस्त क्रांति और पटना से शुरू हुई अगस्त क्रांति में भारी अंतर है। अंतर दोनों की जातिगत संरचना और लक्ष्य को लेकर है।
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भारत छोड़ो आंदोलन की 80वीं जयंती के मौके पर पटना में समाजवादियों ने अगस्त क्रांति कर दी। नीतीश कुमार ने भले यह बात न कही हो लेकिन राजद के नेता तेजस्वी यादव और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने इस बात को रेखांकित किया है। तेजस्वी यादव ने तो बहुत साफ तौर पर कहा कि हम अपने पुरखों की विरासत को किसी और के पास जाने नहीं देंगे।

पटना की अगस्त क्रांति की धमक मुंबई में भी सुनाई पड़ी। कांग्रेस की आगामी पदयात्रा की संचालन समिति के प्रमुख दिग्विजय सिंह अगस्त क्रांति मैदान पहुंच कर वयोवृद्ध समाजवादी नेता और अगस्त क्रांति के साक्षी रहे डॉ. जीजी पारीख की अगुआई में हर साल की तरह होने वाली पदयात्रा में शामिल हुए। इतना ही नहीं कांग्रेस ने अपनी कन्याकुमारी से प्रस्तावित पदयात्रा की तारीख भी दो अक्तूबर की बजाय 7 सितंबर कर दी है।

एक महीने पहले पटना के ही एक वरिष्ठ पत्रकार और बिहार के इतिहास और सामाजिक आंदोलनों पर पैनी नजर रखने वाले समाजशास्त्री श्रीकांत से एक आलेख के सिलसिले में बात हुई तो उनका कहना था कि किसी प्रकार के परिवर्तन की कोई संभावना नहीं है। इसका मतलब है कि यह तैयारी काफी बुद्धिमानी और खामोशी से चल रही थी। उनकी इस बात से यथास्थिति की धारणा पुष्ट होती दिखी और बिहार के उन साथियों से उलझ भी गया कि जो कह रहे थे कि बिहार की राजनीति में हिंदुत्व विरोध की शक्ति बची है और वह उत्तर प्रदेश जैसा नहीं है। अभी भी कई विश्लेषक मानते हैं कि बिहार में जातिगत संघर्ष जरूर प्रबल है लेकिन वहां के समाज का हिंदूकरण उतना प्रबल नहीं है जितना उत्तर प्रदेश का है। इस पर बहस की अपनी गुंजाइशें हैं और उत्तर प्रदेश की भौगोलिक स्थितियां भी उसे वैसा बनाती हैं।

अयोध्या, काशी, मथुरा को अपनी सीमाओं में समेटे खड़ा उत्तर प्रदेश और बद्री केदार, हरिद्वार जैसे तीर्थ स्थलों को परंपरा की तरह संजोए स्थिर उत्तराखंड गंभीर हिंदूकरण की गुंजाइश प्रदान करते हैं। लेकिन बोधगया और नालंदा की परंपरा वाले बिहार को अगर स्वामी धर्मतीर्थ के `हिस्ट्री आफ हिंदू इम्पीरियलिज्म के लिहाज से देखें तो पाएंगे कि वहां से सवर्ण राजनीति को शूद्र राजनीति से गंभीर चुनौतियां मिलती रही हैं।

लेकिन 80 साल पहले की अगस्त क्रांति और पटना से शुरू हुई अगस्त क्रांति में भारी अंतर है। अंतर दोनों की जातिगत संरचना और लक्ष्य को लेकर है। तब अंग्रेज शासकों से मुक्ति की लड़ाई होनी थी तो आज अपने भारतीय शासकों से मुक्ति की लड़ाई होनी है। लेकिन इस बार इस लड़ाई के लिए जो मोर्चा बना है उसमें 1942 की तरह न तो कम्युनिस्ट बाहर हैं और न ही दलित और अल्पसंख्यक। यहां अल्पसंख्यकों के समाज का अर्थ मुस्लिम लीग से नहीं लिया जाना चाहिए।

इस बार नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने जो व्यापक गठबंधन बनाया है उसमें सात दल हैं। उन दलों में वामपंथी, अति वामपंथी, मध्यमार्गी, पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले, अतिपिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले और दलित व अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करने वाले दल हैं। यानी इस गठबंधन में भाजपा को छोड़कर सारे दल हैं। निश्चित तौर भाजपा के साथ घुटन महसूस कर रहे नीतीश कुमार का यह पलटवार (भले कुछ लोग पलटू राम कहें) भारतीय जनता पार्टी को महंगा पड़ने वाला है। नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव ने अगर पटना में अच्छी तरह से मिलजुलकर और अपनी ऐतिहासिक अहमियत समझते हुए सरकार चलाई तो सन 2024 के लोकसभा चुनाव में बिहार की चालीस सीटों में भाजपा को पहले जैसी बढ़त नहीं मिलने वाली है। संभव है कि वह सिंगल डिजिट में सिमट जाए। अगर नीतीश कुमार ने अपनी साफ सुथरी और सुशासन बाबू की छवि को बिहार से बाहर इस्तेमाल किया तो वे विपक्षी एकता के सूत्रधार हो सकते हैं। नीतीश कुमार में वीपी सिंह बनने की क्षमता है बशर्तें वे अपने को प्रधानमंत्री पद की बड़ी दौड़ में प्रस्तुत करें।

हालांकि नीतीश कुमार पर हिंदुत्ववादियों की गोद में खेलने और बिहार में भाजपा को पैर जमाने का मौका देने के आरोप का भारी बोझ है। वे समाजवादियों के विरुद्ध चलाए जाने वाले उस विमर्श के मजबूत प्रमाण है कि समाजवादियों की आखिरी परिणिति हिंदुत्ववाद के साथ समझौते में ही होती है। इसी प्रकार कम्युनिस्टों के बारे में भी यह विमर्श तीव्र है कि वे अरबन नक्सली हैं या फिर उनकी विचारधारा विदेशी जमीन पर उपजी और अब वह वहां ध्वस्त हो चुकी है तो भारत में उसकी कोई गुंजाइश बची नहीं है।

नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव और अखिलेश यादव को इस आख्यान की काट तो तैयार ही करनी होगी। लेकिन इसकी काट वे महज धर्मनिरपेक्ष राजनीति के मूल्यों के आधार पर नहीं खड़ा कर सकते। इसके लिए उन्हें आर्थिक समता के मूल्य का मजबूत पाया चाहिए।

लालू, नीतीश और मुलायम सिंह के वैचारिक गुरु रहे किशन पटनायक कह गए हैं कि सांप्रदायिक दलों से मुकाबले के लिए उदारीकरण के विरोध से शुरुआत करने पर विजय ज्यादा आसानी से मिलेगी। इसका मतलब यह नहीं कि जातिगत समता और सांप्रदायिक सद्भाव की राजनीति पर कहीं कम जोर देना चाहिए और प्रतीकवाद की राजनीति को छोड़ देना चाहिए। लेकिन जातिगत जनगणना, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दे संपूर्ण विपक्ष को करीब ला सकते हैं।

निश्चित तौर पर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव के नेतृत्व में सात पार्टियों के इस महागठबंधन के विरुद्ध केंद्र की भाजपा सरकार और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने पैंतरों और रणनीतियों से बाज नहीं आएगा। उसके पास जहां ईडी यानी प्रवर्तन निदेशालय जैसी अदृश्य शक्ति है वहीं सीबीआई और संघ जैसी प्रत्यक्ष शक्तियां हैं। हिंदुत्व की इस आक्टोपसी जकड़ से निकल पाना किसी पार्टी तो क्या भारतीय लोकतंत्र के बस की भी बात नहीं दिखती। उन्होंने अंग्रेजों की उस रणनीति को आत्मसात कर लिया है कि कैसे एक दूसरे को बांटते हुए विमर्श की दिशा बदलते हुए सिर्फ 60,000 अंग्रेज 30 करोड़ भारतीयों पर लंबे समय तक शासन कर सकते हैं। इसी रणनीति के तहत वे मानते हैं कि एक दो करोड़ संगठित लोग भारत की 140 करोड़ आबादी को लंबे समय तक क्यों नहीं नचा सकते।

भाजपा के पास अपने लिए एक ओर हिंदू धर्म की उन्नति और दूसरी ओर कथित विकास का सकारात्मक एजेंडा है तो विपक्ष के विरुद्ध भ्रष्टाचार और परिवारवाद का ब्रह्मास्त्र। इन्हीं दो पाटों के बीच वह भारतीय लोकतंत्र के सिद्धांत, उसकी संस्थाओं और पिछले 75 सालों में बने लोकतांत्रिक समाज को पीस रही है। समाज और उसकी संस्थाओं पर किए गए कब्जे के माध्यम से यह सारा काम आसानी से हो रहा है। इस पूरे विमर्श में पूंजीपतियों के भ्रष्टाचार और लूट की चर्चा नदारद है। उनको चाहे बैंकों से अरबों का कर्ज दिया जाए, चाहे उनके कई लाख करोड़ के कर माफ कर दिए जाएं वह कभी कोई मुद्दा नहीं बनता। मुद्दा बनता है कल्याणकारी योजनाएं बनाम रेवड़ी बांटने की परंपरा। ज्यां तिरोले ने अपनी नई पुस्तक में इकानमिक्स फार कामन गुड में इस मुद्दे को उठाया है और अच्छे सुझाव दिए हैं।

समाजवादियों की अगस्त क्रांति के दबा दिए जाने, आपस में टकरा जाने और बिखर जाने के पूरे खतरे हैं। ऐसा हो उससे पहले भारतीय विपक्ष को अपने ऐतिहासिक मतभेदों को भुलाकर भारतीय लोकतंत्र और भारतीय अर्थव्यवस्था को लूट से बचाने के काम में लग जाना चाहिए।

यह साल मधु लिमए का जन्मशती वर्ष है। उन्होंने 1991 में सोशलिस्ट कम्युनिस्ट इंटरैक्शन इन इंडिया जैसी पुस्तक लिखकर अपने साथी जार्ज फर्नांडीस के 60वें जन्मदिन पर उन्हें उपहार दिया था। तब जार्ज फर्नांडीस वैश्वीकऱण की नीतियों के विरुद्ध गांधीवादियों, समाजवादियों और कम्युनिस्टों के साथ गठजोड़ बनाने के लिए सक्रिय थे।

मधु लिमए ने अपने निधन से पहले तो कांग्रेस की अहमियत स्पष्ट करते हुए भी लिखा था और कांग्रेस को खारिज करने की प्रवृत्ति से मना किया था। लेकिन 1993 में जार्ज फर्नांडीस ने नीतीश कुमार के साथ मिलकर  समता पार्टी बना डाली और फिर जो फिसलन हुई उसका इतिहास साक्षी है। निश्चित तौर पर लालू प्रसाद का भ्रष्टाचार एक मुद्दा था। लेकिन यहीं पर डॉ. लोहिया की वह बात याद आती है कि इस देश का पूंजीपति और सवर्ण अगर हीरे की चोरी करे तो वह पकड़ा नहीं जाएगा और पिछड़ा दलित अगर खीरे की चोरी करे तो उसे फांसी पर लटका दिया जाएगा।

भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोपों और ईडी और सीबीआई के छापों के बीच पटना की समाजवादी क्रांति को यह मुद्दा जनता के बीच ले जाना होगा। संभव है कि दो साल बाद भारतीय लोकतंत्र पर घिरे घने बादल छंट सकें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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