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छात्रों के बाद अब शिक्षकों पर हमला, डीयू के हज़ारों एडहॉक निकाले गए

अब उच्च शिक्षा का मूल चरित्र ही सार्वजनिक वित्त पोषण से निजीकरण की ओर धकेला जा रहा है। हालिया मामला दिल्ली विश्वविद्यालय के हजारों एडहॉक शिक्षकों से जुड़ा है। इन सभी एडहॉक का वेतन रोक दिया गया है और अब इन्हें नौकरी से हटाया जा रहा है।
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सार्वजनिक वित्त पोषित उच्च शिक्षा पर नीतिगत हमला गहराता जा रहा है। अभी हाल ही में जेएनयू के छात्रों की अगुआई में हुए आंदोलन से पूरे देश में सार्वजनिक उच्च शिक्षा को लेकर बहस खड़ी हो गई है। मेडिकल, इंजीनियरिंग और प्रबंधन के सरकारी संस्थानों में भी फ़ीस कई गुना बढ़ाने के साथ उन्हें भी निजी हाथों में बेचने की कोशिश लगातार जारी है। शिक्षक से लेकर कर्मचारी तक ठेके पर रखे जा रहे हैं। इसका विरोध भी लगातार हो रहा है। वस्तुतः अब उच्च शिक्षा का मूल चरित्र ही सार्वजनिक वित्त पोषण से निजीकरण की ओर धकेला जा रहा है। हालिया मामला दिल्ली विश्वविद्यालय के हजारों एडहॉक शिक्षकों से जुड़ा है। इन सभी एडहॉक का वेतन रोक दिया गया है और अब इन्हें नौकरी से हटाया जा रहा है। छात्रों के बाद अब शिक्षकों की भी बर्बादी शुरू हो चुकी है। यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।

एडहॉक सिस्टम पर होती रही नियमों की अवहेलना

अस्थायी शिक्षकों को एडहॉक कहा जाता है, जिनका ओहदा असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के समानान्तर होता है। दिल्ली विश्वविद्यालय देश का एकमात्र विश्वविद्यालय है, जहाँ एडहॉक सिस्टम व्यवस्थित तौर पर काम करता है। डीयू की कार्यकारी परिषद के 2007 में बने नियम के मुताबिक़ अतिरिक्त वर्कलोड होने, किसी शिक्षक के छुट्टी पर जाने अथवा सेवामुक्त होने से खाली हुए पदों पर एडहॉक नियुक्त किए जाएँगे। अवधारणा यह रही कि इस दौरान शैक्षणिक गतिविधियाँ प्रभावित न हों। डीयू का नियम कहता है कि एडहॉक की नियुक्ति अधिकतम चार महीने यानी 120 दिन के लिए ही की जाएगी और इनकी संख्या कुल शिक्षकों के 10% से ज़्यादा नहीं होगी। इसके बाद इन पदों पर स्थायी नियुक्ति की जाए। आज आलम ये है कि दिल्ली विश्वविद्यालय में पाँच हज़ार से ज़्यादा एडहॉक काम कर रहे हैं। यानी कुल तकरीबन नौ हज़ार शिक्षकों के साठ फ़ीसदी शिक्षक एडहॉक हैं। हर चार महीने बाद एक दिन का 'नोशनल ब्रेक' देने के बाद रिचार्ज कूपन की तरह वैलिडिटी डेट बढ़ाकर अगले चार महीने के लिए फिर से नियुक्ति पत्र दे दिया जाता है। यानी एडहॉक सितम अब नियमों को तोड़कर चलाया जा रहा है।

चार-चार महीने करते हुए एक एडहॉक इस उम्मीद में अपनी कक्षाओं में जाता रहा, कि वह पात्र है, काबिल है, स्थायी हो ही जाएगा। लेकिन वह दिन आया ही नहीं। हर छुट्टियों के बाद एडहॉक की नौकरी पर ख़तरा रहता है। एक एडहॉक को निकालकर किसी 'मनपसंद' एडहॉक को रख लिया जाता रहा। एडहॉक को सालों साल काम करवाया जाता रहा। कुछ शिक्षक बतौर एडहॉक ही रिटायर हो गए। डीयू अपने ही बनाए नियमों की खुलेआम अवहेलना कर रहा है। ज्ञातव्य है कि 2007 का दौर वही था, जब उच्च शिक्षा में ओबीसी आरक्षण लागू हुआ। जिसके बाद इन हज़ारों एडहॉक में दलित, पिछड़े, आदिवासियों की पहली पीढ़ी के लोग भी ज़्यादा संख्या में हैं। स्पष्ट है कि एडहॉक को नियमों के खिलाफ़ सालों साल एडहॉक रखकर हज़ारों की संख्या तक पहुंचाने वाली मानसिकता सामाजिक न्याय विरोधी है। वरना इन सभी को अब तक स्थायी हो जाना था। एडहॉक स्थायी असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बनने की सभी शैक्षणिक योग्यता व पात्रता रखते हैं, फिर भी एडहॉक हैं। एडहॉक को एडहॉक बनाए रखने में कई स्तर की शोषक व दमनकारी मानसिकता काम कर रही है। आज उसी मानसिकता ने इनकी नौकरी छीन ली है। 

शिक्षक होने के बावजूद ग़ुलामों से बदतर हैं एडहॉक 

एडहॉक को डीयू में वेतन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के बराबर मिलता है, लेकिन वेतन के अलावा किसी भी तरह की कोई सुविधा नहीं मिलती। मसलन मेडिकल लीव, मैटरनिटी लीव, चाइल्ड केयर लीव की छुट्टियाँ नहीं मिलतीं। महीने में एक ही छुट्टी ले सकते हैं। किसी भी तरह के अकादमिक काम के लिए कोई छुट्टी नहीं। महिला एडहॉक में कई को अपना घर बसाने के लिए नौकरी छोड़नी पड़ी, तो कई आज भी परिवार की प्लानिंग नहीं कर पातीं। दर्जनों ऐसी महिला एडहॉक हैं, जिनको बच्चे के जन्म के चंद दिनों बाद ही कॉलेज में आकर हाज़िरी लगानी पड़ी है। किसी अकस्मात दुर्घटना के वक़्त एडहॉक को अपने टूटे हुए हाथ पैर लेकर अस्पताल से अगले दिन कॉलेज आना पड़ा, क्योंकि न आने पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता। चार महीने के नियम की धज्जी उड़ाते हुए इन्हें स्थायी किए जाने की बजाय सालों साल ग़ुलाम बनाए रखने के नए तरीक़े ईजाद कर लिए गए। एडहॉक सिस्टम दरअसल एक अमानवीय त्रासदी से कम नहीं है।
नौकरी स्थायी न होने के चलते एडहॉक अमूमन बोलते नहीं। अपने हक़ या सत्ता के ग़लत क़दम के खिलाफ़ बोलने की सज़ा में नौकरी से निकाल दिए जाने का ख़तरा हर दिन बना रहता है। बिना बोले भी एक एडहॉक को हटाकर 'अपने' एडहॉक को रख लिया जाता है। कभी कॉलेज के विभाग प्रभारी या प्रिंसिपल ही ऐसा कर देते हैं, तो कभी सरकार या सांसद-मंत्री की सिफ़ारिश पर एडहॉक को हटा दिया गया। ग़ुलाम बना दिए गए हजारों एडहॉक की फ़ौज खड़ी होना किसी भी तरह की सत्ता के अनुकूल है। इसीलिए सरकार से लेकर कुलपति और प्रिंसिपल तक कोई नहीं चाहता कि इन हज़ारों एडहॉक की नौकरी स्थायी हो जाए। पिछले पाँच सालों में ही तीन तीन बार एडहॉक स्थायी नियुक्ति के लिए आवेदन किए, लेकिन आज तक नियुक्ति नहीं हुई। अब उनका एडहॉक होना भी ख़त्म किया जा रहा। एक एडहॉक अपनी कक्षाओं में पढ़ाकर घर लौटते हुए सहमता डरता है, कि होने वाली सुबह भी वह एक शिक्षक बना रहेगा या निकाल दिया जाएगा। 

एडहॉक को नौकरी से हटाकर सभी को गेस्ट बनाया जा रहा 

हालिया मामला यह है कि विश्वविद्यालय प्रशासन अब इन सभी पाँच हज़ार एडहॉक को नौकरी से निकाल रहा है। इनका नवंबर माह का वेतन रोक दिया गया है, इनको सेवा विस्तार नहीं दिया जा रहा। ऐसा करना इन हज़ारों एडहॉक के साथ सबसे त्रासद मज़ाक होगा। इस साज़िश में केंद्र सरकार से लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति तक सभी शामिल हैं। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा था कि अगस्त 2017 तक ही सभी पदों पर स्थायी नियुक्ति कर दी जाए, कोर्ट की अवमानना करते हुए नियुक्तियाँ नहीं की गईं। उसके बाद 5 मार्च 2018 को विभागवार रोस्टर लागू कर दिया गया, नियुक्ति प्रक्रिया फिर से रुक गई। अब जब स्थायी नियुक्ति शुरू होने वाली है, इसी दौर में नई शिक्षा नीति की नीतिगत मंशा के तहत 28 अगस्त 2019 को डीयू प्रशासन एक पत्र जारी करके नए पदों पर एडहॉक की बजाय गेस्ट शिक्षक नियुक्त करने का प्रावधान लागू कर दिया। यह प्रावधान उच्च शिक्षा की बरबादी की दास्तान कह रहा है।

नई शिक्षा नीति में ठेके पर शिक्षक नियुक्त किए जाने का प्रावधान है, जिसे डीयू क्रमशः लागू कर रहा है। ऐसा करना पाँच हज़ार से अधिक एडहॉक शिक्षकों के भविष्य को अंधेरे में धकेलने जैसा होगा। क्योंकि सालों से नियुक्ति नहीं होने में ये एडहॉक दोषी नहीं हैं, कुलपति से लेकर केंद्र सरकार दोषी है। फिर सज़ा एडहॉक को क्यों दी जा रही? अपने लिए कैरियर की सभी वैकल्पिक संभावनाओं को खो चुके, सालों साल बतौर एडहॉक काम करते हुए अब जब इन्हें स्थायी करना था, सत्ता व डीयू प्रशासन एडहॉक की नौकरी ही छीन रहा है। ठेके पर शिक्षक यानी गेस्ट शिक्षक रखा जाना उच्च शिक्षा को पूरी तरह बर्बाद कर देगा। सभी नियमों व पात्रताओं को पूरा करने वाले इन पाँच हज़ार से अधिक एडहॉक को तत्काल स्थायी किया जाना चाहिए, न कि नौकरी से हटाया जाए। अगर दिल्ली विश्वविद्यालय में भी शिक्षकों का भविष्य अंधेरे में है, तो बाकी विश्वविद्यालयों में काम कर रहे शिक्षकों की त्रासदी अकल्पनीय है। कई राज्यों में एडहॉक की स्थिति इससे भी भयावह है। उच्च शिक्षा के निजीकरण का नीतिगत दबाव है कि शिक्षक ठेके पर रखे जाएँ। यह उसी का प्रतिफल है। आज भी देश के हज़ारों शिक्षण संस्थानों में लाखों पद खाली पड़े हैं। इन पदों पर शिक्षक बनने के काबिल युवा बेरोजगार बैठे हैं। ऐसे दौर में बिना गुरु के विश्वगुरु बनने का ख़्वाब एक मज़ाक से कम नहीं है। क्या यह देश अपने बच्चों के भविष्य की बर्बादी का तमाशबीन बनेगा?
 
(लेखक ज़ाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एडहॉक  असिस्टेंट प्रोफ़ेसर हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)
 

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