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उत्तराखंड: जलवायु परिवर्तन की वजह से लौटते मानसून ने मचाया क़हर

मौसम वैज्ञानिकों ने असमय होने वाली बारिश के लिए, इस साल देश में ज़्यादा देर तक ठहरे दक्षिणपश्चिमी मानसून को ज़िम्मेदार बताया है। ज़मीन के ऊपर मौजूद ज़्यादा आर्द्रता ने मौसम की स्थितियों को एक नए मौसम तंत्र के लिए अनुकूल बना दिया है।
Climate Change

उत्तराखंड के लिए प्राकृतिक आपदाएं नई नहीं हैं। हर साल मानसून के चलते बदल फटने, भूस्खलन और अचानक बाढ़ जैसी आपदाएं आती हैं। लेकिन पहले मानसून के लौटने के दौरान यह घटनाएं देखने को नहीं मिलती थीं। लेकिन इस साल ऐसा हुआ।राज्य में रविवार को बारिश शुरू हुई, जो मंगलवार तक जारी रही। अब तक अक्टूबर में राज्य में 192.6 मिलीमीटर की भारी बारिश हो चुकी है। जबकि पिछले साल इस दौरान सिर्फ 31.2 मिलीमीटर बारिश ही हुई थी।

इस साल हुई बारिश में से 122.4 मिलीमीटर तो सिर्फ 24 घंटे में हो गई। रिपोर्टों के मुताबिक भारी बारिश और भूस्खलन की लगातार घटनाओं के चलते 52 लोग जान गंवा चुके हैं। सबसे ज्यादा स्थिति नैनीताल जिले में खराब रही, जहां 28 मौतें हुईं।

एक स्थानीय पर्यावरण कार्यकर्ता अतुल सत्ती का मानना है कि पिछले कुछ सालों में पर्यटकों की संख्या में बहुत ज्यादा बढ़ोत्तरी  हो गई है, यह भी राज्य में आ रही आपदाओं का एक कारण है। पहले हर साल राज्य में लगभग 6 लाख पर्यटक आते थे। अब यह संख्या 15 लाख हो चुकी है। इस संख्या के बढ़ने के साथ ही वाहन प्रदूषण, नदी प्रदूषण, निर्माण गतिविधियां और व्यावसायीकरण बढ़ता जा रहा है, जिससे हरित सुरक्षा चक्र का विनाश हो रहा है और बदलाव आ रहे हैं।

अतुल कहते हैं, "इन सभी तत्वों के चलते तापमान में वृद्धि हुई है और वर्षा का समय बदला है। अब हम ऐसी बारिश देखते हैं, जो लगातार 2-3 दिनों तक होती है। फिर कुछ ऐसा वक़्त होता है, जब पूरा सूखा होता है। 1980 और 90 के दशक में जोशीमठ क्षेत्र में 20-25 दिसंबर के बीच बर्फबारी होती थी। लेकिन बीते सालों में यह बदल गया। कई बार तो इलाके में बर्फ़ ही नहीं गिरती।" पहले भी मौसम से जुड़ी आपदाओं के प्रभाव भयावह हो गए थे। ऐसा  कमजोर इलाके में बेलगाम निर्माण गतिविधियों, पानी की दिशा बदलने और धड़ल्ले से सड़क निर्माण के चलते हुआ था।

वहीं मौसम वैज्ञानिक और विशेषज्ञ इस बेमौसम बरसात की वजह दक्षिणपश्चिम मानसून के हमारे देश पर ज्यादा ठहरने को बता रहे हैं। इलाके के ऊपर मानसून धाराओं की उपस्थिति का मतलब हुआ, जमीन के ऊपर ज्यादा आर्द्रता का मौजूद होना। इससे वर्षा की स्थितियां बेहतर हो जाती हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि कम दबाव वाले क्षेत्र मानसून की उत्तरी सीमा के साथ साथ यात्रा करते रहे, जो मध्य भारत में ऊपर से गुजर रहा था। बाद में  यह तंत्र उत्तराखंड की तरफ गया और उत्तर प्रदेश की तरफ मुड़ गया। फिर मानसून के लौटने के बाद सूखी उत्तर पूर्वी हवाएं उत्तर भारत के ऊपर चलने लगीं। लेकिन कई तरह के मौसम तंत्रों की मौजूदगी के चलते पवनों के बहने की प्रक्रिया में बदलाव आ गया। इसलिए हमे गंगा के मैदान में ऊपर बड़ी मात्रा में आर्द्रता युक्त पूर्वी पवनें दिखाई दे रही हैं, जिनकी गहराई 800 फीट से ज्यादा थी।

स्काईमेट वेदर में मौसम परिवर्तन विभाग के अध्यक्ष जीपी शर्मा के मुताबिक़, "यह बिल्कुल साफ़ है कि मानसून अपने वक़्त से ही वापस लौट गया होता, तो हमें इस तरह की बारिश देखने को नहीं मिलती। कई तरह के मौसम तंत्रों के एक साथ आने की चलते ऐसी भारी बारिश के लिए स्थितियां अनुकूल हो गईं। ऊपर पहाड़ियों में जब पश्चिमी विक्षोभ की स्थिति बनी, तो मध्य प्रदेश और बंगाल की खाड़ी के ऊपर दो निम्न दबाव वाले  क्षेत्रों का निर्माण हुआ। लेकिन यह तंत्र मानसून के देरी से जाने के चलते सक्रिय हुआ। आम तौर मौसम तंत्र जमीन के बहुत भीतर यात्रा नहीं करते। खासकर उस जगह, जहां से मानसून लौट चुका हो। चूंकि उस दौरान मानसून की उत्तरी सीमा मध्य प्रदेश से गुजर ही रही थी, तो यह निम्न दाब के क्षेत्र अंदर तक घुस आए।

वह आगे कहते हैं, "सिर्फ इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश के ऊपर बने निम्न दाब के क्षेत्रों का पश्चिमी विक्षोभ से उत्तरी हिमालय के ऊपर संपर्क हुआ और उसने, इसे विक्षोभ को नीचे खींच लिया, जिससे भारी बारिश हुई। बल्कि इससे ना केवल उत्तराखंड में भारी बरिश हुई, बल्कि जम्मू कश्मीर के ऊपर समय से पहले बर्फबारी भी हुई।

चूंकि पश्चिमी विक्षोभ के आने के दौरान उत्तर भारत में किसी मौसम तंत्र की मौजूदगी नहीं रहती, इसलिए हमें सिर्फ हॉकी फुल्की बौछारें ही देखने को मिलती रही हैं. आमतौर पर हमें इस विक्षोभ में बदलाव अक्टूबर के अंत से दिखना शुरू हो जाता है। नवम्बर में इसकी प्रबलता में बढ़ोत्तरी होती है।

बंगाल की खाड़ी में जो निम्न दबाव के क्षेत्र घूम रहे हैं, वे चक्रवाती तूफान लायनरॉक और कोंपासू के अवशेष हैं, जो प्रशांत महासागर में आए थे। इन्हें हिन्द महासागर में दोबारा शक्ति मिल गई। लायनरॉक जहां मध्य प्रदेश गया, वहीं कोंपासू बंगाल, बिहार और पूर्वोत्तर भारत पहुंचा।

संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व वाली आईपीसीसी रिपोर्ट, "छठवीं विश्लेषण रिपोर्ट मौसम परिवर्तन 2021" पहले ही बता चुकी है कि वैश्विक तापमान बढ़ने से दक्षिणपूर्वी एशिया में मानसून की समय तालिका में बदलाव आ रहा है। एक गर्म मौसम ज्यादा आर्द्रता वाले, ज्यादा शुष्क मौसम को प्रबलता जिससे सूखे या बाढ़ की स्थितियां निर्मित होंगी।

इन परिघटनाओं की स्थिति और बारंबारता, क्षेत्रीय पर्यावरण वृत्त में संभावित बदलावों पर निर्भर करेगी। इसमें मानसून और मध्य अक्षांश वाले तूफान के रास्ते शामिल हैं। कई सालों से मानसून अपने वापस जाने की तारीख़ का उल्लघंन कर रहा है। इसके चलते भारत में सरकारी संस्था आईएमडी ने भी मानसून जाने की शुरुआत की तारीख 1 सितंबर से बढ़ाकर 17 कर दी है। आमतौर पर वापस लौटने की प्रक्रिया 15 अक्टूबर तक हो जाती थी, लेकिन पिछले दशक में ऐसा नहीं हुआ।

जीपी शर्मा कहते हैं, "अब हम मौसम परिवर्तन की जद में आ चुके हैं, जिसने साफ़ तौर पर मानसून के दौरान, इसके पहले और बाद के मौसम तंत्र के समय में बदलाव कर दिया है। 

हम अक्टूबर के दूसरे पखवाड़े में हैं, लेकिन मौसम तंत्र महाराष्ट्र के भीतरी इलाकों में अब तक पहुंच रहे हैं। लेकिन मौसम स्थितियों द्वारा जो तबाही हुई है, उसकी एकमात्र वजह मौसम संकट नहीं है। यह बहुत हद तक साफ हो चुका है कि उत्तराखंड में पर्यावरणीय संतुलन के लिए विकास योजनाएं और मानवीय हस्तक्षेप घातक साबित हो रहे हैं।

एचएनबी गढ़वाल यूनिवर्सिटी में जिओलॉजी के प्रमुख प्रोफेसर YP सुंदरियाल मामले पर आगे प्रकाश डालते हुए कहते हैं, "ऊपरी हिमालय मौसमी और विवर्तनिकी तौर पर संवेदनशील है। यह इतना संवेदनशील है कि हमें वहां बड़ी जल योजनाएं बनाने से बचना चाहिए। या फिर उनकी क्षमता कम रखनी चाहिए। दूसरी बात कि सड़कों का निर्माण वैज्ञानिक तरीकों  से होना चाहिए। फिलहाल हम देख रहे हैं कि सड़कों का निर्माण या उनका चौड़ीकरण ढाल स्थायित्व पर ध्यान दिए बिना, अच्छी गुणवत्ता वाली आधार दीवार के बिना ही रहा है। यह सभी तरीके भूस्खलन द्वारा होने वाले नुकसान को कुछ हद तक कम कर सकते हैं।
 
उन्होंने आगे कहा, "योजना बनाने और उसे लागू करने में भारी अंतर है। जैसे वर्षा का समयकाल बदल रहा है, अतिवादी मौसमी परिघटनाओं के साथ तापमान में  भी वृद्धि हो रही है। नीति निर्माताओं को क्षेत्र के भूशास्त्र की अच्छी जानकारी होनी चाहिए। इसे कोई नहीं नकार सकता कि विकास जरूरी है, लेकिन जल विद्युत योजनाएं, खासकर उत्तरी हिमालय क्षेत्र में काम क्षमता की होनी चाहिए। नीति निर्माण में स्थानीय भूगर्भ शास्त्री को शामिल किया जाना चाहिए, जो स्थानीय पर्यावरण और उसकी प्रतिक्रिया को अच्छे से समझता हो।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Climate Change Explains the Unprecedented Havoc Created by Retreating Monsoon in Uttarakhand

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