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हीट स्ट्रॉक: एक सामान्य घटना

यह बहुत ही ज़रूरी है कि ट्रेड यूनियनें, जन संगठन, असंगठित मज़दूरों के साथ काम करने वाले लोग, जन विज्ञान आंदोलन तथा अन्य नागरिक संगठन मिल-जुलकर, लोगों को तथा खासतौर पर कमज़ोर तबक़ों को राहत तथा मार्गदर्शन देने के लिए काम करें।
 Heat stroke
प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : Mint

वर्ष 2023 को सबसे गर्म साल घोषित किया जा चुका है। ऐसा कोई अचानक नहीं हो गया है। अब तक के सबसे गर्म दस वर्ष, 2014-23 के दशक में ही आए थे। 2023 में औसत वैश्विक तापमान, बीसवीं सदी के औसत से 1.18 डिग्री सेल्सियस ऊपर रहा था और उन्नीसवीं सदी के औसत से लगभग 1.4 डिग्री सेल्शियस ऊपर रहा था। यह पेरिस समझौते में तय की गयी 1.5 डिग्री सेल्शियस ताप वृद्घि की उस भयावह सीमा को करीब-करीब छू ही लेने की स्थिति थी, जिसके पार पर्यावरण में हुए अनेक बदलाव अपरिवर्तनीय ही हो जाएंगे। पिछले वर्ष की यह रिकार्ड तोड़ गर्मी, 2024 में भी जारी रहने की ही संभावना है, जैसा कि हम इस समय ही देख रहे हैं।

दुनिया के अनेक हिस्सों में, जैसे पश्चिमी अफ्रीका, साहेल, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिणी व पश्चिमी तथा उत्तर-पूर्वी अमेरिका और दक्षिणी यूरोप, खासतौर पर ग्रीस व इटली में, मार्च से मई के दौरान और अब जून में, गर्मी की अति की गंभीर तथा लंबे समय तक बनी रही परिस्थितियां देखने को मिली हैं, जिनके साथ अक्सर सूखे तथा जंगलों में आग की स्थितियां भी जुड़ी रही हैं। पश्चिम एशिया, खासतौर पर सऊदी अरब पर 50 डिग्री से ज्यादा के तापमान की कड़ी मार पड़ी है। सालाना हज के दौरान मक्का में ही 500 से ज्यादा हाजियों की गर्मी से मौत हो गयी बतायी जाती है। पाकिस्तान में भी कई दिनों तक तापमान 50 डिग्री से ऊपर बना रहा है।

भारत गर्मी की अति के सबसे बुरे शिकारों में से है। उत्तरी तथा उत्तर-पश्चिमी भारत, रिकार्ड तीन सप्ताह से ज्यादा तक लगातार, गर्मी की भीषण तथा लंबी लहर की मार झेलते रहे और कुछ इलाकों में तापमान 50 डिग्री से ऊपर निकल गया। इस देश में स्वास्थ्य संबंधी रिकार्ड तो कुख्यात रूप से दरिद्र हैं, जैसा कि कोविड महामारी के दौरान देखने को मिला था। फिर भी स्वास्थ्य मंत्रालय के अधिकारियों ने इसकी पुष्टि की, बताते हैं कि 2024 के मार्च से लगाकर, संभावित रूप से हीट स्ट्रोक या लू लगने के 40 हजार से ज्यादा मामले हुए हैं, जिनमें करीब 110 मौतें हुई हैं। हम इसका सिर्फ अनुमान ही लगा सकते हैं कि अस्पतालों तथा क्लीनिकों की पहुंच से बाहर, इससे शायद कई-कई गुना ज्यादा संख्या में लोग गर्मी की अति से पैदा हुई रुग्णता तथा मौतों के शिकार हुए होंगे।

पिछले कई वर्षों से बार-बार अधिक गर्मी का पड़ना, जिसमें यह साल शायद सबसे खराब है, असंदिग्ध रूप से यह दिखाता है कि पर्यावरण संकट वाकई और बाकायदा हमारे सामने आकर खड़ा हो गया है। वैज्ञानिकों का मानना है कि वैश्विक तापमान और मौसम की अतियों, दोनों के पहलू से थोड़े अर्से में ही हालात और बदतर हो जाएंगे। पुन: ग्रीन हाउस गैसों के ऐतिहासिक तथा अब भी जारी ऊंचे उत्सर्जनों से जो सिलसिले शुरू हो गए हैं उनके चलते, अगर वर्तमान उत्सर्जनों को नियंत्रित कर आवश्यक स्तरों तक सीमित कर भी दिया जाए तब भी, ग्रीष्म लहरें तथा उससे जुड़ी मौसम की अतियां, अगले दो-तीन दशकों तक तो चलती ही रहने वाली हैं। जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार उत्सर्जनों को घटाने के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों के अलावा भारत तथा अन्य देशों को अति की गर्मी से बड़े पैमाने पर हो रही रुग्णता तथा मौतों, उत्पादन की हानि और विशेष रूप से आबादी के कमजोर हिस्सों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावों पर अंकुश लगाने के लिए, निर्णायक कदम उठाने चाहिए।

अल नीनो का प्रभाव

अति गर्मी की इस दशा को अल नीनो या सदर्न ऑसिलेशन या दोलन द्वारा और उग्र बना दिया गया है। अल नीनो स्पेनिश भाषा में विशेष रूप से नवजात ईशु को और आम तौर पर नवजात लडक़ों को कहा जाता है। यह समुद्री ताप-वायुमंडलीय दबाव के योग से संचालित परिघटना है, जो वैश्विक जलवायु को संचालित करती है। यह दोलन, अल नीनो या गर्म चरण और अल नीना (जिसका अर्थ है नवजात बालिका) ठंडे चरण के बीच होता है। यह बात दर्ज करने वाली है कि साउथ ऑसिलेशन की परिघटना, उच्च वैश्विक तापमानों या वर्तमान ग्रीष्म लहरों का कारण नहीं है, लेकिन एक अतिरिक्त कारक जरूर है जिसे भी हिसाब में लिया जाना जरूरी है। मिसाल के तौर पर पिछले दस वर्ष, अब तक के सबसे गर्म वर्ष तो रहे हैं, लेकिन ये दस वर्ष साउथ ऑसिलेशन के गर्म, औसत तथा ठंडे चरणों के रूप में, मिले-जुले वर्ष रहे हैं।

इस वर्ष के मध्य तक अल नीनो की स्थितियों के बने रहने ने इसमें भी योग दिया है कि अब तक प्रायद्वीपीय भारत में मानसून अपेक्षाकृत कमजोर रहा है और दीर्घावधि औसत की तुलना में जून तक बारिश मोटे तौर पर 20 फीसद कम हुई है। घटी हुई बारिश और कमजोर मानसून ने अब तक गर्मी की दशा को उग्र बनाए रखा है और इससे गर्मियों के बोवाई और खरीफ की फसल के लिए खतरा पैदा हो रहा है। पर्यावरण विज्ञानियों की भविष्यवाणी है कि वर्तमान अल नीनो गर्म चरण, जो पिछले दो वर्ष से चला आ रहा है, इस साल जून में तटस्थ चरण में चला जाएगा और उसके बाद आगे चलकर ठंडे चरण में प्रवेश कर सकता है, जिसे आम तौर पर घटे हुए तापमान और बढ़ी हुई बारिश से जोड़ कर देखा जाता है।

अति गर्मी को कैसे समझें?

भारत में ग्रीष्म लहर की परिभाषा काफी जड़ तथा गैर-मददगार है और इस परिभाषा के हिसाब से ग्रीष्म लहर आने पर ही सरकार कथित रूप से अपने उपाय शुरू करती है।

सरकारी तौर पर ग्रीष्म लहर की घोषणा तब की जाती है, जब अधिकतम तापमान 40डिग्री सेल्शियस से ऊपर निकल जाता है और सामान्य से 4.5 से 6.4 डिग्री ऊपर होता है या फिर जब अधिकतम तापमान 45 डिग्री से ऊपर निकल जाता है। इस तरह के हालात पिछले ही दिनों कई दिनों तक बने रहे थे। तटवर्ती इलाकों में ग्रीष्म लहर के अधिकतम तापमान की न्यूनतम सीमा 40 डिग्री से घटाकर 37 डिग्री कर दी जाती है और तापमान का सामान्य से 4.5 डिग्री ऊपर होना जरूरी है और पर्वतीय इलाकों में अधिकतम तापमान की न्यूनतम सीमा 30 डिग्री रखी गयी है।

ग्रीष्म लहर की इस तरह की परिभाषा कई-कई कारणों से असंतोषजनक है। अति गर्मी सिर्फ एक मौसमी परिघटना नहीं है बल्कि ऐसी चीज है जिसे स्थानीय रूप से मनुष्यों द्वारा (और पशुओं, पक्षियों आदि द्वारा भी) अपने सामान्य अनुभव से भिन्न स्थिति के रूप में महसूस किया जाता है। इससे जुड़ी तमाम कठिनाइयों को देखते हुए, कहीं ज्यादा स्थानीयकृत परिभाषा बेहतर काम करेगी।

वृहत्तर स्तर पर भी, ग्रीष्म लहर की सरकारी परिभाषा में आर्द्रता को हिसाब में नहीं लिया जाता है, जो ऊंचे ताप के मानव शरीर पर प्रभाव को और बढ़ा देती है। सूखी गर्मी, शरीर में पानी की कमी पैदा करती है। लेकिन, आद्रता बढ़ने से शरीर की बढ़े हुए ताप को झेलने की क्षमता घट जाती है क्योंकि पसीने के वाष्पीकरण और इसके चलते शरीर के ठंडे होने की गुंजाइश घट जाती है। शरीर की अपने आप को ठंडा करने में असमर्थता से, शरीर का तापमान बढ़ता है और हृदय-श्वसन तंत्र तथा अन्य नाजुक अंगों पर दबाव पड़ता है और मौत तक हो सकती है।

जलवायुगत तथा वातावरणीय कारणों के योग से इस साल भारत में आद्रता उल्लेखनीय रूप से ज्यादा बनी रही है। गर्मी की शुरूआत में अरब सागर पर जो वातावरण बना रहा है, उसके चलते प्रायद्वीपीय भारत में और ज्यादा नमी से भरी हवाएं आयीं, जिससे तापमान तो कुछ घट गया, पर आद्रता बढ़ गयी। बंगाल की खाड़ी पर बनी चक्रवातीय दशाओं से पश्चिम बंगाल तथा ओडिशा में अतिरिक्त आद्रता आयी और इसका नतीजा एक भीषण ग्रीष्म लहर के रूप में देखने को मिला। उत्तरी तथा उत्तर-पश्चिमी भारत पर भूमध्य सागर की ओर से पश्चिमी विक्षोभ का असर आया और इसने इस क्षेत्र की अति की गर्मी में आद्रता और जोड़ दी।

इसलिए, अनेक देश एक गर्मी सूचकांक का प्रयोग करते हैं, जिसमें तापमान और आद्रता को जोड़कर एक एकीकृत तुल्यांक निकाला जाता है। गर्मी सूचकांक के चार्ट बताते हैं कि आद्रता के विभिन्न स्तरों पर, संबंधित तापमान वास्तव में कैसा महसूस होता है। मिसाल के तौर पर इस साल मार्च-अप्रैल में तटवर्ती शहर चेन्नई का गर्मी सूचकांक दिल्ली से ज्यादा था यानी वहां ज्यादा गर्मी महसूस हो रही थी, जबकि दिल्ली का तापमान लगातार चेन्नई से ज्यादा बना रहा था। इस तरह गर्मी सूचकांक, सरकारी कदमों के लिए, अचल तरीके से निर्धारित तापमान आधारित पैमाने के मुकाबले, कहीं बेहतर तथा ज्यादा स्थानीयकृत मानक मुहैया करा सकता है।

जैसी कि पर्यावरण वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की थी, वर्तमान ग्रीष्म लहरों के दौरान न्यूनतम तापमान भी, खासतौर पर शहरी इलाकों में सामान्य से काफी ज्यादा रहे हैं, इसके एक खास उदाहरण पर हम आगे चर्चा करेंगे। मिसाल के तौर पर उत्तरी भारत के अनेक हिस्सों में न्यूनतम ताप 30 डिग्री सेल्शियस से ऊपर बना रहा है, जबकि अधिकतम ताप डिग्री में चालीस की दहाई के निचले सिरे से मध्य तक बने रहे हैं। न्यूनतम ताप के ऊंचा रहने से शरीर, दिन के वक्त के ऊंचे ताप की मार से उबर नहीं पाता है और यह शरीर पर अतिरिक्त बोझ डालता है।

गर्मी के शहरी टापू

गर्मी के मामले में शहरी इलाके खास तथा अतिरिक्त समस्याएं पेश करते हैं, लेकिन निवारक कदमों के लिए अवसर भी मुहैया कराते हैं।

शहरों तथा कस्बों में आम तौर पर, अपने गिर्द के ग्रामीण इलाकों के मुकाबले 2-4 डिग्री सेल्शियस तक ज्यादा ताप देखने को मिलता है। यह उस परिघटना की वजह से होता है जिसे शहरी गर्मी के टापू या अर्बन हीट आइलेंड (यूएचआइ) प्रभाव के रूप में जाना जाता है। यूएचआइ पैदा होता है कंक्रीट के बुनियादी ढांचे व इमारतों, पक्की सडक़ों तथा ऐसी अन्य सतहों से, जो दिन के समय गर्मी सोख लेती हैं और बाद में इस गर्मी को अपने आस-पास बिखेर देती हैं। ऊंची-ऊंची इमारतों और घनी बसावटों से, हवा की आवा-जाही रुकती है और यह गर्मी को तथा वायु में मौजूद प्रदूषकों को, शहरी इलाकों के गिर्द एक प्रकार के बुलबुले में अटका देता है। न्यूनतम ताप का अपेक्षाकृत ऊंचा रहना, बहुत हद तक यूएचआइ का ही काम होता है। अनियोजित शहरी विकास से और हरियाली की छाया के गंभीर रूप से घट जाने से यह समस्या और भी बढ़ जाती है। कहने की जरूरत नहीं है कि हरियाली की छाया से ताप नीचे लाने में मदद मिल सकती है। यह होता है इवेपो-ट्रांस्पाइरेशन की प्रक्रिया के जरिए, जिसमें पौधे नमी छोड़ते हैं तथा इस तरह वातावरण को ठंडा करने में मदद करते हैं और इसके साथ ही साथ कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को सोखते भी हैं। ताल, पोखर आदि वाटर बॉडीज के सिकुडऩे या घटने का भी असर तापमान बढऩे के रूप में ही होता है। अगर करीब 20 फीसद हरियाली का क्षेत्र हो और हरियाली का यह क्षेत्र इस तरह फैला हुआ हो कि उससे कम आय वर्ग की बस्तियों को भी स्थानिक-जलवायुगत लाभ मिलते हों, तो शहरी इलाकों में तापमान में 2-2.5 डिग्री सेल्शियस तक कमी की जा सकती है।

यूएचआइ में योग देने वाला एक और प्रमुख कारक है, कचरे की गर्मी यानी शहरी वातावरण में छोड़ी जाने वाली गर्मी, जिसमें खासतौर पर एयर कंडीशनरों, स्वचालित वाहनों और मशीनरी से निकलने वाली गर्मी आती है। शहरों में करीब 50 फीसद बिजली सिर्फ एयर कंडीशनरों में खप जाती है। अनुमान है कि सिर्फ अगर यह सुनिश्चित किया जा सके कि तमाम एयर कंडीशनर इनर्जी इफीशिएंट होंगे तथा 26 डिग्री या उससे ज्यादा ताप सुनिश्चित करने के हिसाब से चलेंगे और यह कार्यालयों तथा कारोबारी प्रतिष्ठानों पर इस संबंध में पाबंदियां लगाकर सुनिश्चित किया जा सकता है, तो इतने भर से शहरी ताप 1.5 से 2 डिग्री सेेल्शियस तक नीचे आ जाएगा। और अगर हरियाली का कवर बढ़ाने के साथ ही साथ, इमारतों का ऊर्जा एफीशिएंट होना भी सुनिश्चित किया जा सकता हो, तो यूएचआइ को करीब-करीब पूरी तरह से निष्प्रभावी ही बनाया जा सकता है। स्थान की सीमाओं के चलते हम यहां इसके और विस्तार में नहीं जा सकते हैं।

कमजोर तबके

यह आसानी से समझा जा सकता है कि बुजुर्ग, नवजात शिशु व बच्चे, गर्भवती महिलाएं और पहले से बीमारियों के तथा खासतौर पर हृदय-फेफड़ा रोगों के पीडि़त लोग, गर्मी से जुड़ी रुग्णताओं के बहुत आसानी से शिकार हो जाते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्थाएं, इन खास तबकों की जरूरतों का ध्यान रख सकती हैं या कम से कम उन्हें इसमें समर्थ होना चाहिए और इन तबकों को इसकी सलाह भी दी जा सकती है कि घर में ही रहें, जहां तक हो सके शारीरिक श्रम करने से बचें, समुचित रूप से द्रवों का सेवन करें और अन्य सावधानियां बरतें। तेज ग्रीष्म लहरों के दौरान स्कूली बच्चों की मदद के लिए आम तौर पर उनके स्कूल बंद कर दिए जाते हैं।

खुले में काम करने वाले मजदूर, खासतौर पर निर्माण मजदूर तथा कठोर शारीरिक श्रम करने वाले मजदूर, सडक़ों पर फेरी लगाने वाले, गिग सर्विस तथा डिलीवरीकर्मी, असंगठित क्षेत्र के मजदूर खासतौर पर गर्मी वाली जगहों में काम करने वाले मजदूर तथा घरेलू काम वाले आदि लोग, खुले आसमान के नीचे और कड़ी मेहनत का काम करते हुए, बहुत ज्यादा गर्मी का सामना करने के लिए मजबूर होते हैं। बेघरबार, विकलांग जन भी, कठिन हालात का सामना करते हैं और उन्हें शायद ही कोई राहत हासिल होती है। इन सभी तबकों को अति गर्मी से बचाव की और विशेष रूप से ध्यान रखे जाने की जरूरत होती है। इस मामले में अब तक के प्रयास तो बहुत ही कमजोर तथा अव्यवस्थित ही रहे हैं।

गर्मी से मुकाबले की कार्य योजनाएं

ग्रीष्म लहरों का मुकाबला करने के लिए, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकार (एनडीएमए) ने राष्ट्रीय गाइडलाइन्स तैयार की हैं। इनके आधार पर, हरेक राज्य, हरेक शहरी स्थानीय निकाय तथा हरेक नगरपालिका से अपनी गर्मी के मुकाबले की कार्य योजना (हीट एक्शन प्लान-एचएपी) तैयार करने की उम्मीद की जाती है। ऐसी पहली कार्य योजना, अहमदाबाद में घोषित की गयी थी। ऐसा समझा जाता है कि गाइडलाइन्स की समीक्षा की जा रही है और उम्मीद की जाती है कि एचएपी भी सिरे से बदले जाएंगे।

इन गाइडलाइन्स पर और इसलिए एचएपीयों पर एनडीएमए की छाप साफ दिखाई देती है, जो संबंधित प्रश्नों को उत्तरवर्ती प्रश्नों की तरह, प्राकृतिक आपदाओं के बाद, जिन पर मनुष्य का कोई नियंत्रण ही नहीं होता है, उठाए जाने वाले कदमों की ही नजर से देखता है। ये आपदा के बाद के ही कदम होते हैं और इनमें जोर आपात स्थिति की प्रतिक्रिया पर ही होता है। इस समय, एचएपीयों में अलग-अलग राज्यों के बीच बहुत भारी अंतर मिलेगा। यह अंतर इनके अंतर्गत क्या-क्या आता है, उसमें भी है और इनके लिए संस्थागत व्यवस्थाओं के मामले में भी है। इसका नतीजा यह है कि ग्रीष्म लहरों की बहुत ही औपचारीकृत तथा गढ़ी हुई परिभाषा के आधार पर, जिसकी हमने शुरू में ही चर्चा की थी, जो कार्रवाइयां होती भी हैं, प्रतिक्रियात्मक ही होती हैं, जिनमें पहले से तैयारियों तथा सावधानियों पर भी कोई जोर नहीं होता है, फिर दीर्घावधि कदमों का तो सवाल ही कहां उठता है।

इसका नतीजा यह है कि जिन कदमों की सिफारिश की गयी है, सुझावों की एक मिली-जुली गठरी होकर रह जाते हैं और इस संबंध में जो संस्थागत व्यवस्थाएं सुझायी गयी हैं, इन सिफारिशों को दंतहीन बनाकर ही छोड़ देती हैं।

मिसाल के तौर पर अनेक एचएपीयों में यह सिफारिश होती है कि निर्माण कार्य के घंटों में बीच में इस तरह से विराम दिया जाना चाहिए, जिससे 12 से 4 बजे तक के सबसे ज्यादा गर्मी के घंटों में इस काम से बचा जा सके और इस अर्से में मजदूरों को ऐसी जगह में शरण मिलनी चाहिए जहां पीने के पानी और ठंडक की व्यवस्थाएं हों। बहरहाल, इन्हें न तो अनिवार्य किया गया है और न ही इसके लिए किन्हीं खास अधिकारियों या एजेंसियों की जिम्मेदारी तय की गयी है, जो इन गाइडलाइनों को प्रभावहीन बना देता है।

निष्कर्ष यह कि यह बहुत ही जरूरी है कि ट्रेड यूनियनें, जन संगठन, असंगठित मजदूरों के साथ काम करने वाले लोग, जन विज्ञान आंदोलन तथा अन्य नागरिक संगठन मिल-जुलकर, लोगों को तथा खासतौर पर कमजोर तबकों को राहत तथा मार्गदर्शन देने के लिए काम करें और अधिकारियों पर इसके लिए दबाव डालें कि स्वास्थ्य प्रणालियों में और हीट एक्शन प्लानों में सुधार करें। अति की गर्मी कहीं जाने वाली नहीं है। उसके दुष्प्रभावों को सीमित करने और जहां भी संभव हो, मिसाल के तौर पर शहरी इलाकों में, तापमान नीचे लाने के प्रयास किया जाना जरूरी है।

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