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कोविड-19
स्वास्थ्य
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कोविड-19: ओमिक्रॉन की तेज़ लहर ने डेल्टा को पीछे छोड़ा
इस नयी लहर की चपेट में आए ज़्यादातर देशों में ओमिक्रॉन न सिर्फ़ प्रधान वेरिएंट बन गया है बल्कि इसके संक्रमितों के आंकड़े पहले ही, पिछली लहरों की अधिकतम संख्या को पीछे छोड़ चुके हैं और इन संख्याओं के बढऩे की रफ़्तार थमने के अभी कोई आसार नहीं हैं।
प्रबीर पुरकायस्थ
28 Dec 2021
Translated by राजेंद्र शर्मा
Omicron
Credit: AARP

सार्स-कोव-2 वायरस के नये चिंताजनक वेरिएंट, ओमिक्रॉन ने कोविड-19 की नयी लहरों में इस वायरस के दूसरे सभी वेरिएंटों को पीछे छोड़ दिया है। ये नयी लहरें दक्षिण अफ्रीका, यूके, यूरोपियन यूनियन तथा अमेरीका में दिखाई दे रही हैं। इससे भी ज्यादा चिंताजनक है कि ओमिक्रॉन का संक्रमण उन लोगों को भी हो रहा है, जिन्हें पहले ही टीके की दोनों खुराकें लग चुकी हैं या जिन्हें पहले कोविड-19 का संक्रमण हो चुका था। इस तथ्य की पुष्टि प्रयोगशालायी साक्ष्यों से भी होती है, हालांकि इस तरह के प्रयोगों के बहुत ही आरंभिक किस्म के नतीजे ही अब तक सामने आए हैं। एक अच्छी खबर, अगर उसे अच्छी खबर कह सकते हैं तो, यह है कि जिन लोगों को टीके लग चुके हैं, उनमें से ज्यादातर के मामले में ओमिक्रॉन का संक्रमण मरीज की हालत नाजुक करने की हद तक चोट नहीं करता है। यह इसी का संकेतक है कि मानव शरीर की प्रतिरोधक क्षमता, टीके का सहारा होने पर और संभवत: पहले ही कोविड के संक्रमण से गुजरने के प्रभाव से, अब भी इस बीमारी को गंभीर रूप लेने तक जाने से रोकने में समर्थ है।

इस संदर्भ में कुछ तथ्य महत्वपूर्ण हैं। हालांकि, ओमिक्रॉन की इस लहर की शुरूआत दक्षिण अफ्रीका में हुई थी बल्कि यह कहना ही ज्यादा सही होगा कि पहले-पहल इसकी निशानदेही दक्षिण अफ्रीका में हुई थी, फिर भी वहां इसके नये मामलों की संख्या प्रतिदिन करीब 27,000 के अपने शिखर से नीचे खिसक कर, दिसंबर के तीसरे सप्ताह तक 21,000 ही रह गयी और इसमें जोहन्सबर्ग तथा प्रिटोरिया जैसे महानगर शामिल हैं। दूसरी ओर, हमारे पास यूके का उदाहरण भी है, जहां नये मामलों की संख्या अभी बढ़ ही रही है। इस नयी लहर की चपेट में आए ज्यादातर देशों में ओमिक्रॉन न सिर्फ प्रधान वेरिएंट बन गया है बल्कि इसके संक्रमितों के आंकड़े पहले ही, पिछली लहरों के शिखरों को पीछे छोड़ चुके हैं और इन संख्याओं के बढऩे की रफ्तार थमने के अभी कोई आसार नहीं हैं।

जहां यह सब दिल बैठाने वाला लग सकता है, वहीं कुछ सकारात्मक संकेत भी हैं। हमारे शरीरों में अब तक, चाहे पहले के संक्रमणों से हो या टीकों से, कुछ प्रतिरोधकता आ गयी है। हमारे शरीर की रोग प्रतिरोध प्रणालियां एक हद तक इस वायरस को जान चुकी हैं। ऐसे में हमारे शरीर में प्रतिरोध का जो पहला मोर्चा होता है, बाहर से आने वाले किसी भी संक्रमण को बेअसर या खत्म कर देने वाली एंटी-बॉडीज की रक्षा पंक्ति, वह अगर ओम्रिकॉन को रोकने के लिए काफी असर नहीं साबित हो तब भी, हमारी प्रतिरोधक प्रणाली में दूसरी कई सुरक्षा परतें भी होती हैं, जिनमें टी-सेल भी शामिल हैं। जब वायरस हमारे शरीर में प्रवेश कर जाता है, वह हमारे शरीर की कोशिकाओं की संचालन व्यवस्था पर कब्जा कर, अपनी संख्या बढ़ाना शुरू कर देता है। जब संक्रमण इस तरह हमारे शरीर में प्रवेश करने के बाद, कोशिशकाओं के अंदर ही कुई गुना बढ़ जाता है, तो उससे संक्रमण का मामला गंभीर हो जाता है। ऐसी सूरत में टी-सेल, ऐसे संक्रमित सेलों को मारने का काम करते हैं और इस प्रकार हमारे शरीर के अंदर वायरस के खुद को बहुगणित करने को रोकते हैं और व्यावहारिक मानों में संक्रमण को आगे फैलने से रोकते हैं। इसीलिए, पहले हुए संक्रमण का या टीकों का प्रभाव अगर ओमिक्रॉन के संक्रमण से ही नहीं बचा पाए तब भी, वह संक्रमण को आगे फैलने से रोक सकता है। टीके की दो खुराकें (या संक्रमण तथा टीके की खुराकें) हमारी प्रतिरोधक प्रणाली को और पुष्ट कर देती हैं और उनसे संक्रमण से बचाव की तो कम, किंतु संक्रमण के गंभीर रूप लेने से बचाव की ज्यादा की उम्मीद की जा सकती है।

कुछ साक्ष्य, हालांकि ये साक्ष्य अभी आरंभिक ही हैं, इसके भी आ रहे हैं कि ओमिक्रॉन के संक्रमण उतनी संख्या में रोगियों को गंभीर रूप से बीमार नहीं कर रहे हैं, जितनी संख्या में डेल्टा के रोगी हुए थे। हो सकता है कि ओमिक्रॉन खुद ही हल्के दर्जे की रुग्णता पैदा कर रहा हो और इसलिए, उसके रोगियों में से उतनी संख्या में गंभीर रोगियों की न हो, जितनी पहले वाले वेरिएंटों के मामले में देखने को मिली थी। या फिर इसका कारण यह भी हो सकता है कि जिन देशों में इस वेरिएंट के मामलों की बड़ी संख्या आ रही हैं, वहां ज्यादातर लोगों को या तो पहले ही टीके लग चुके हैं या वे पहले संक्रमण के असर में आ चुके हों या उनके मामले में ये दोनों ही चीजें काम कर रही हों। हम जानते ही हैं कि इस वायरस के संक्रमितों में से बड़ी संख्या में लोग लक्षणहीन ही बने रहते हैं और इसलिए ऐन मुमकिन है कि उनके कोविड-19 से संक्रमित होने का पता ही नहीं चला हो, फिर भी इस संक्रमण से उन्हें कुछ प्रतिरोधकता हासिल हो गयी हो। जिन देशों में ओमिक्रॉन की लहर आ चुकी है या आ रही है, उनमें ज्यादातर लोगों को या तो टीका लग चुका है या वे कोविड-19 की पिछली लहरों से गुजर चुके हैं और इसलिए उन्हें पहले से कुछ प्रतिरोधकता हासिल है। वे इस वेरिएंट से बीमार तो हो रहे हैं, लेकिन गंभीर रूप से बीमार नहीं हो रहे हैं क्योंकि जरा देर से ही सही, उनकी प्रतिरोधक प्रणाली वायरस के खिलाफ काम कर रही है। जहां तक टीकों का सवाल है, विशेषज्ञ हमेशा से ही यह साफ करते आए हैं कि टीकों से चाहे खुद संक्रमण नहीं रुके, पर बीमारी के गंभीर रूप लेने से जरूर बचाव होता है। टीकों से अस्पताल जाने की नौबत नहीं आती है या अस्पताल जाने व हालत नाजुक होने की संभावना काफी घट जाती है।

दूसरी संभावना यह है कि ओमिकॉन अपने आप में कम गंभीर बीमारी फैलाता हो। लंदन के अस्पतालों से आ रही आरंभिक जनकारियों से ऐसा लगता है कि वहां पहुंचे इस वेरिएंट के गंभीर मामलों में से ज्यादातर, ऐसे लोगों के हैं जिन्हें टीका नहीं लगा था। चूंकि लंदन की 70 फीसद आबादी का पूर्ण-टीकाकरण हो चुका है, इससे इसी की संभावना ज्यादा लगती है कि ओमिकॉन खुद कोविड-19 का हल्का संक्रमण शायद ही पैदा करता हो, लेकिन जिन लोगों का टीकाकरण हुआ है, उनके गंभीर बीमारी की जकड़ में आने की संभावना कम रहती है। टीकाकरण से, गंभीर रोगियों की संख्या तेजी से बढऩे तथा अस्पतालों की व्यवस्थाओं के बैठ जाने की, पिछली लहरों के दौरान देखने को मिली स्थितियों से बचा जा सकता है। इसीलिए, कोविड-19 की महामारी का मुकाबला करने के लिए, टीकाकरण अब भी बहुत ही महत्वपूर्ण है।

जहां कोविड-19 की इस नयी लहर की मार से, अस्पतालों तथा उनकी गहन चिकित्सा व्यवस्थाओं का बैठ ही जाना या उनका इस चुनौती का सामना करने में समर्थ होना, बड़े पैमाने पर आबादी का टीकाकरण नहीं होने या हो जाने पर ही निर्भर है, वहीं उन दवाओं का क्या जिनका कोविड-19 के संक्रमितों के उपचार के लिए इस्तेमाल हुआ है? आइवरमेक्टिन, हाइड्रोक्सीक्लोरीक्वीन तथा संक्रमण से उबर चुके व्यक्ति का प्लाज्मा, इनका कोविड-19 के उपचार के लिए प्रभावी न होना पहले ही साबित हो चुका है। फेफड़ों में सूजन को घटाने के लिए कोर्टिकोस्टीरोइड्स के उपयोग के अलावा रेमडेसिविर तथा मोनोक्लोनल एंटीबॉडीज को शरीर में वायरस के प्रसार को घटाने के लिए उपयोगी पाया गया है। इस सिलसिले में एक बुरी खबर यह है कि खासतौर पर कोविड-19 के लिए विकसित, नये मोनोक्लोनल एंटी-बॉडी उपचार, काम करते नहीं लग रहे हैं।

दूसरी ओर अच्छी खबर यह है कि मोलूपिराविर तथा पैक्सालोविड--जोकि दो एंटी-वायरल दवाओं, निरमेट्रेलविर तथा रिटोनाविर का कंबिनेशन है--जैसी नयी दवाएं, इस वेरिएंट पर भी काम करने जा रही हैं। रेमडेसिविर की तरह ये दवाएं भी, शरीर में वायरस के बढऩे की रफ्तार धीमी करती हैं और इससे शरीर की बचाव प्रणाली को इसके लिए कुछ फुर्सत मिल जाती है कि दखल देकर, संक्रमण को पीछे धकेल दे। नयी एंटीवायरल दवाएं इसके लिए रेमडेसिविर से ज्यादा असरदार हैं और मरीजों के अस्पताल में रहने की अवधि को घटाने में काफी मददगार हो सकती हैं।

ये तीनों एंटीवायरल दवाएं--रेमडेसिविर, मोलूपिराविर तथा पेक्सलोविड--छोटे मॉलीक्यूल के रूप में होती हैं, जिन्हें आसानी से किसी भी दवा कंपनी द्वारा बनाया जा सकता है और बड़ी तादाद में उपलब्ध कराया जा सकता है। टीकों के उत्पादन के विपरीत, जिनका संबंध बड़े मॉलीक्यूलों या जैव-सामग्री से होता है, इन दवाओं के संबंध नो-हॉऊ का हस्तांतरण करने और अपेक्षाकृत कम विकसित देशों में भी बड़ी मात्रा में उनका उत्पादन करने में कोई बाधा नहीं है।

यह हमें इस सवाल पर ले आता है कि क्या कारण है कि विज्ञान के बल्कि कहना चाहिए कि वैज्ञानिकों के, काफी जल्दी से कोविड-19 के टीके तथा दवाएं विकसित कर लेने के बावजूद, अब भी सारी दुनिया को टीके नहीं दिए जा सके या कहें कि जहां जनता को उनकी सबसे ज्यादा जरूरत है, वहां दवाएं और टीके उपलब्ध नहीं कराए जा सके हैं? क्या वजह है कि अमीर देशों में दी गयी बूस्टर डोजों की संख्या, कम आय वाले देशों में लगाए गए टीकों की कुल संख्या से भी ज्यादा हैं? इसके लिए सतत प्रयास क्यों नहीं किए जाते हैं कि एंटीवायरल दवाओं पर पेटेंट अधिकार हटा लिए जाएं या फिर इन पेटेंट अधिकारों को ताक पर रखकर इन दवाओं का अन्य देशों द्वारा उत्पादन किया जाए, महामारी के दौरान जिसकी इजाजत खुद विश्व व्यापार संगठन के अपने नियम देते हैं? क्या वजह है कि अमीर देश, विश्वव्यापी महामारी को रोकने के लिए उद्यम करने के लिए तैयार नहीं हैं और सिर्फ अपनी-अपनी आबादी को बचाने की ही परवाह कर रहे हैं और शेष दुनिया में महामारी को बने रहने दे रहे हैं।

इस सवाल का जवाब बिल्कुल आसान है। उनकी ज्यादा दिलचस्पी, उन भारी मुनाफों में हैं जो महामारी के जारी रहने से उनकी दवा कंपनियां बटोरने जा रही हैं। बड़ी दवा कंपनियों के लिए सबसे अच्छी स्थिति यही होगी कि महामारी खुद को बदलते हुए, एक पुरानी बीमारी या एंडेमिक की स्थिति तक पहुंच जाए और इस मुकाम पर पहुंचने तक अमीर देशों को तो टीकों तथा एंटीवायरल दवाओं की सुरक्षा हासिल रहे, जबकि गरीब देशों को संक्रमण के दौरों से गुजरते हुए ‘नेचुरल’ हर्ड इम्यूनिटी हासिल करने के लिए छोड़ दिया जाए। यह इन भीमकाय दवा कंपनियों द्वारा बटोरे जा रहे बेलगाम मुनाफों को, भविष्य में भी बनाए रखेगा। गरीब देशों के अमीरों की स्थिति इन दोनों दुनिया के बीच में कहीं होगी--उन्हें महामारी के बने रहने को तो झेलना पड़ेगा, लेकिन वे इससे खुद को ऐसी दवाओं तथा टीकों के सहारे सुरक्षित बनाए रख सकेंगे, इनके दाम इतने ज्यादा होंगे कि ये उपाय उनके देशों की ज्यादातर आबादी की पहुंच से ही बाहर होंगे।

बहरहाल, ओमिकॉन ने दिखा दिया है कि इस तरह का भंगुर संतुलन, जहां अमीरों को तो टीकों व महंगी दवाओं की सुरक्षा हासिल हो पर गरीबों को ऐसी सुरक्षा हासिल नहीं हो, ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकता है। हमें या तो सब को सुरक्षित करने के लिए, हर जगह संक्रमण को रोकना होगा या फिर कोई भी सुरक्षित नहीं रह पाएगा। ऐसी रंगभेदी टीका व्यवस्था, जिसमें कुछ को तो सुरक्षा हासिल हो, पर ज्यादातर को सुरक्षा हासिल नहीं हो, काम नहीं करने जा रही है। ऐसी व्यवस्था तो वायरस के नये-नये वेरिएंट ही पैदा करेगी। वास्तव में यह वह सबक है जो सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने एक सदी पहले ही सीख लिया था और यह सब उन्हें अब भी याद है। लेकिन, इस सीख का उस अति-पूंजीवादी दृष्टि से कोई मेल नहीं बैठता है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को ही ध्वस्त करने के लिए स्वास्थ्य के क्षेत्र में नवउदारवादी सुधार लेकर आयी है और ट्रिप्स से जुड़ी नयी पेटेंट व्यवस्था लेकर आयी है। हमें इसी के खिलाफ लडऩा होगा।

भारत में हमें अपनी सरकार से यह पूछना चाहिए कि क्या वजह है कि दुनिया का दवाखाना होने की अपनी छवि पर गर्व करने वाला भारत, वादे के मुताबिक अपनी जनता को टीके मुहैया कराने में विफल रहा है? हम लक्षित आबादी को टीके की दो खुराकें नहीं दे पाए हैं। सिर्फ 56 फीसद वयस्क आबादी को ही टीके की दोनों खुराकें दी जा सकी हैं। और पश्चिम के विपरीत, हमारे देश में टीका-विरोधी जनमत बहुत कम है और इसलिए, अपनी जनता का टीकाकरण नहीं कर पाने की यह वजह तो हो नहीं सकती है। हमारे यहां आवश्यक वैज्ञानिक ज्ञान भी है और टीका उत्पादन की क्षमताएं भी हैं। हम इन क्षमताओं को बढ़ाकर, अपनी जरूरतें पूरी करने के साथ ही, बाकी दुनिया को भी टीके मुहैया करा सकते थे, जैसाकि चीन ने किया है।

भारत सरकार इसमें नाकाम क्यों रही? क्या इसकी वजह उसका इसके मिथक में विश्वास करना है कि पूंजीवाद और बाजार, खुद ब खुद सारी समस्याओं को हल कर देंगे? इस सवाल का सीधा सा जवाब, जिसकी सच्चाई बड़ी दवा कंपनियों ने बार-बार की है, यही है कि कंपनियों के मुनाफे और जनता का स्वास्थ्य समानार्थी नहीं होते हैं। कोविड-19 महामारी ने, एक बार फिर इसी सच्चाई की पुष्टि की है। बाजारों की उदारता के पूंजीवादी मिथक के सम्मोहन में बंधे हमारे शासकों को अगर इस सच्चाई को देखना ही मंजूर नहीं हो तो बात दूसरी है।

अंग्रेज़ी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है।

Covid19: Runaway Omicron Wave Overtakes Delta in Various Countries

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